Saturday 30 May 2020

मुट्ठी भर को छोड़ दें तो आज भी अधिकांश पत्रकार ईमानदार


- कारपोरेट जर्नलिज्म के खतरे और चुनौतियां भी हैं बहुत
- ऐसे में क्यों कहते हो, मीडिया बिकाऊ है!

आज सुबह राष्ट्रीय सहारा देहरादून के एक साथी का फोन आया। पूछा, यार वो राशन बांट रहे थे न तुम। मुझे भी दिला दो। बात मजाक में थी लेकिन मर्म सीधा सा था कि सहारा ने अप्रैल माह का वेतन अब तक नहीं दिया। पिछले छह साल से सहारा में ऐसा ही हो रहा है। दिल्ली पंजाब केसरी के फोटो जर्नलिस्ट के.के. शर्मा और आगरा दैनिक जागरण के पंकज कुलश्रेष्ठ का कोरोना के कारण निधन हो चुका है। देश भर में कई पत्रकार, छायाकार और अन्य मीडियाकर्मी कोरोना महामारी के बीच भी डटे हुए हैं। उनके पास न पीपीई किट है, न अच्छे मॉस्क और न लंबे माइक। हर पल कोरोना का संकट और उससे भी अधिक नौकरी जाने का भय। देश के सभी प्रमुख न्यूजपेपर मालिकों ने सबसे पहले इन्हीं सड़क पर फिरने वाले पत्रकारों का कत्लेआम किया।

सैकड़ों पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को केवल फोन से ही सूचना मिली कि कल से आफिस मत आना। इनमें नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान समेत कई बड़े अखबार शामिल हैं।

ये पत्रकार कौन हैं? क्या बेईमान हैं? क्या ग्लेमर के कारण? क्या उन्होंने मिशनरी बनने की शपथ ली है? आखिर क्यों चुनते हैं ये वो पेशा? कई सवाल जनमानस के मन में होते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि पत्रकार वो होते हैं जिनके जज्बात होते हैं, दूर तक देखने और जूझने की ताकत होती है। जिनके मन में आग होती है, वही पत्रकार होते हैं।

एक शब्द सीधा दिल को चुभता है कि मीडिया बिकाऊ है। मैं कहता हूं, महज दस प्रतिशत पत्रकार ही बिकाऊ होते हैं लेकिन 90 प्रतिशत ईमानदार हैं। हां, इतना जरूर है कि इन ईमानदारों की कमान बेईमानों के पास होती है। तो क्या ये कसूर ईमानदार पत्रकारों का है? या व्यवस्थागत खामियां का या प्रबंधन के लालच का।

आज पत्रकारिता के अनेकों जोखिम हैं। सरकार बेवजह केस कर देती है। जेल भेज देती है। रासुका, आपदा, यूएपीए आदि सब कानून हम पर भी लागू होते हैं यानी पत्रकार न हुए गैगस्टर या बदमाश हो गए। हम पर नेता और माफिया हमला कर देते हैं। जान तक ले लेते हैं। पिछले कुछ समय से पत्रकारों पर जानलेवा हमलों की संख्या तेजी से बढ़ी है। चार-पांच साल में देश में 70 से ज्यादा पत्रकारों की हत्याएं हो चुकी हैं। यदि गौरी लंकेश की बात छोड़ दी जाएं तो देश में किसी पत्रकार की हत्या पर कहीं चूं तक नहीं हुई। यदि नेता और माफिया छोड़ दें तो नक्सली मार देते हैं। पत्रकार अच्युतानंद साहू भी नक्सलियों के हमले के शिकार हो गए थे।

इस सबके बावजूद अधिकांश पत्रकार निडर, ईमानदार और स्वाभिमानी हैं। वो भूखें रह जाएंगे पर किसी से कुछ न कहेंगे। आरएनआई ने पिछले दो माह के आंकड़े जारी कर कहा है कि कोरोना के कारण हिन्दी मीडिया को 4500 करोड़ का नुकसान हुआ है। और अगले सात महीने तक यह नुकसान बढ़कर ढाई लाख करोड़ तक हो सकता है। यानी मीडियाकर्मियों की नौकरी आगे भी खतरे में ही है।

लॉकडाउन के दौरान देखते ही देखते मीडिया में पत्रकारों का कत्लेआम शुरू हो गया और आज तक जारी है लेकिन मजाल कया है कि केंद्र सरकार ने एक भी कदम उठाया हो। कुछ एक पत्रकार संगठनों ने भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर को चिट्ठी लिख कर इतिश्री कर ली। न जनता और न नेता, न अफसर, कोई पत्रकारों के हितों की बात नहीं करता। यह हम पत्रकारों की नियति है कि हम दूसरों के दुख-दर्द का ढिंढोरा जग में पीटते हैं और खुद गुप-चुप अपना दुख सह लेते हैं। फिर ऐसे में क्यों कहते हो, कि मीडिया बिकाऊ है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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