Saturday 28 April 2018

मजीठिया: पत्रिका को झटका, लेबर कोर्ट ने 2 लाख का जुर्माना भरने के बाद ही स्वीकारे जवाब

जयपुर लेबर कोर्ट नम्बर 2 में पत्रिका के कर्मचारियों ने अपने हक के लिए केस कर रखा है। इन केसों का जवाब देने में पत्रिका प्रबन्धन आनाकानी कर रहा था। एक पेशी पर कभी 2 कर्मचारियों का जवाब पेश करता था तो कभी 10 कर्मचारियों का। जवाब देने में इसी तरह हीलाहवाली कर केस को लम्बा खींचने की जुगत लगा रहा था पत्रिका प्रबन्धन।
यहां गौरतलब है कि जयपुर लेबर कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 6 माह की समयसीमा को बढ़वाने के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट को पत्र भी लिखा था,  जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने 23 मार्च को आदेश दिया था कि हर हाल में मामलों को 6 माह में निपटाया जाय। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश से पत्र लिखने वाले लेबर कोर्ट के जज पर 30 जून तक मामलों को निपटाने का दबाव आ गया और इसी वजह से कोर्ट ने पत्रिका पर 2 लाख 4 हजार का जुर्माना भरने के बाद बचे हुए 160 कर्मचारियों के जवाब को स्वीकार किया।

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Wednesday 25 April 2018

मजीठिया: पंकज कुमार की जंग रंग लाई, जागरण के खिलाफ साठ लाख बयालीस हजार की आरसी जारी


बिहार के गया जिले के पत्रकार पंकज कुमार का सपना सच हो गया। वे सुप्रीम कोर्ट से लेकर बिहार हाईकोर्ट और गया जिले की अदालतों के चक्कर काटने के बाद अंतत: दैनिक जागरण को मात देने में कामयाब हो गए। इस सफलता में उनके साथ कदम से कदम मिला कर खड़े रहे जाने माने वकील मदन तिवारी।
पटना में संयुक्त श्रमायुक्त ने पंकज कुमार के हक में फैसला सुनाया है। उन्होंने मजीठिया वेजबोर्ड के तहत मांगे गए साठ लाख बयालीस हजार रुपये के भुगतान को वैध माना है और इसके लिए रिकवरी सर्टिफिकेट जारी कर दिया है। आरसी के लिए आदेश की कॉपी जिलाधिकारी के पास भेज दी गई है।
मजीठिया वेजबोर्ड की लड़ाई में पंकज कुमार की यह सफलता पूरे देश के मजीठिया क्रांतिकारियों में उत्साह का संचार कर रही है।

(साभार: भड़ास4मीडिया)

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Saturday 21 April 2018

मजीठिया: उप्र में खाली श्रम न्यायालयों में पीठासीन अधिकारी नियुक्त

उत्तरप्रदेश से मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे मीडिया कर्मचारियों के लिए बड़ी खबर आ रही है। योगी सरकार ने यूपी के सभी ग्यारह श्रम न्यायालयों में पीठासीन अधिकारी के रिक्त पदों पर नियुक्तियां कर दी हैं।

उत्तरप्रदेश के ग्यारह श्रम न्यायालयों में पिछले कई महीनों से पीठासीन अधिकारी का पद खाली चल रहा था।इस कारण संबंधित श्रम न्यायालयों में मजीठिया वेज बोर्ड के क्लेम केसों की सुनवाई ठप हो गई थी। सिर्फ तारीख पर तारीख पड़ रही थी। बरेली के मजीठिया क्रांतिकारी मनोज कुमार शर्मा, डॉ. पंकज मिश्रा, निर्मल कांत शुक्ला, राजेश्वर विश्वकर्मा ने मुख्यमंत्री, प्रमुख सचिव(श्रम) को अनगिनत पत्र भेजकर श्रम न्यायालयों में रिक्त पीठासीन अधिकारियों के पदों पर नियुक्तियों की मांग की थी। बरेली के सांसद व केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार को भी स्थिति बताकर खाली श्रम न्यायालयों में पीठासीन अधिकारी नियुक्त कराने की मांग की थी। बरेली के सांसद व केंद्रीय श्रम मंत्री ने उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर नियुक्तियों का आग्रह किया था।

उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव(श्रम) सुरेश चंद्रा ने सेवानिवृत्त आईएएस विपिन कुमार द्विवेदी को श्रम न्यायालय लखनऊ, सेवानिवृत्त एचजेएस अमेरिका सिंह को श्रम न्यायालय कानपुर(1), सेवानिवृत्त पीसीएस रवींद्र दत्त पालीवाल को श्रम न्यायालय कानपुर(3), सेवानिवृत्त एचजेएस शांति प्रकाश अरविंद को श्रम न्यायालय झांसी, सेवानिवृत्त एचजेएस विनोद कुमार सेकिंड को श्रम न्यायालय बरेली, सेवानिवृत्त एचजेएस हरीश कुमार फर्स्ट को श्रम न्यायालय सहारनपुर, सेवानिवृत्त एचजेएस मो. शरीफ को श्रम न्यायालय वाराणसी, सेवानिवृत्त एचजेएस पुरनेन्दू कुमार श्रीवास्तव को श्रम न्यायालय गोरखपुर, सेवानिवृत्त एचजेएस मनोहर लाल को श्रम न्यायालय रामपुर, सेवानिवृत्त एचजेएस घनश्याम पाठक को श्रम न्यायालय फैजाबाद, सेवानिवृत्त एचजेएस राम कृष्ण उपाध्याय को श्रम न्यायालय इलाहाबाद का पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया गया है।

इसके अलावा न्यायमूर्ति शैलेन्द्र कुमार अग्रवाल(सेवानिवृत्त) को औद्योगिक न्याधिकरण लखनऊ, न्यायमूर्ति एसके सिंह (सेवानिवृत्त) को औद्योगिक न्यायधिकरण गोरखपुर का पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया गया है। खाली श्रम न्यायालयों में पीठासीन अधिकारियों की नियुक्ति की खबर अखबार मालिकों के लिए झटका देने वाली खबर है, वहीं उत्तर प्रदेश में मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे मीडिया कर्मचारियों को इस खबर से राहत मिली है कि अब उनके केसों की सुनवाई में फिर तेजी आएगी और सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार छह माह में उनको न्याय मिल सकेगा।

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Thursday 19 April 2018

मजीठिया: लेबर कोर्ट को 6 माह में ही निपटाने होंगे केस

6 माह में सुनवाई पूरी न होने पर सुप्रीम कोर्ट सख्त






नई दिल्ली। मजीठिया वेजबोर्ड मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट का एक और सख्त आदेश जारी हुआ है। माननीय न्यायालय ने जयपुर के लेबर कोर्ट की सुनवाई की समयसीमा बढ़ाने की याचिका पर ताजा आदेश जारी करते हुए स्पष्ट कर कर दिया है, लेबर कोर्ट को रेफरेंस जारी होने के 6 माह के दौरान ही फैसला सुनाना होगा। हालांकि कोर्ट ने जयपुर लेबर कोर्ट को मामूली राहत देते हुए 30 जून 2018 तक निर्णय सुनाने को कहा है।
जयपुर के लेबर कोर्ट नंबर-2 के पीठासीन अधिकारी ने अवमानना याचिका नंबर 411 आफ 2014 पर 19.06.2017 को आए फैसले में वर्किंग जर्नलिस्ट्स एक्ट की धारा 17 (2) के तहत लेबर कोर्ट में सुनवाई को टाईम बाउंड करने को लेकर डाली गई आईए नंबर 187 आफ 2017 पर 13-10-2017 को जारी 17 (2) के तहत रेफरेंस की सुनवाई छह महीने में पूरी करने के आदेश में 31 जनवरी, 2019 तक छूट देने की अपील की थी।
इस अर्जी पर सुनवाई करते हुए माननीय न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई और आर. भानुमति की खंडपीठ ने 23 मार्च, 2018 को जारी आदेश में साफ तौर पर कहा है कि 17 (2) के तहत रिकवरी के मामलों में रेफरेंस जारी होने के 6 माह के दौरान ही हर हाल में सुनवाई पूरी करके फैसला सुनाना होगा। हालांकि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जयपुर के लेबर कोर्ट नंबर -2 को छह माह से अधिक समय में थोड़ी राहत देते हुए 30 जून तक सुनवाई पूरी करके निर्णय सुनाने को कहा है।
ज्ञात हो कि माननीय सुप्रीम कोर्ट के टाइम बाउंड आदेशों को लेकर यह कहते हुए भ्रम की स्थिति पैदा की जा रही थी कि इसमें preferly लिखा गया है,  जो सख्त आदेश नहीं है और देर होने पर राहत मिल सकती है।

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Wednesday 18 April 2018

मजीठिया: नईदुनिया जागरण को फिर भारी पड़ी चालाकी, अब श्रम न्यायालय ने लगाई पांच-पांच सौ की कॉस्ट

हमने आपको पहले ही बताया था कि मध्यप्रदेश में श्रम न्यायालयों मे चल रहे मजीठिया के मामलों में नईदुनिया जागरण प्रबंधन की हर चाल उलटी पड़ रही है। इसका एक ओर ताजा मामला सामने आया है।
जानकारी के मुताबिक ग्वालियर श्रम न्यायालय में चल रहे मामले कूट परीक्षण तक पहुंच गए हैं, लेकिन प्रबंधन बार-बार बहाना बनाकर मामलों को लटकाना चाहता है। प्रबंधन के वकील लेबर कोर्ट में बहाना बनाकर भागते हैं। पूर्व में जहां ग्वालियर हाईकोर्ट ने मामले में प्रबंधन को पांच-पांच हजार की कॉस्ट लगाई थी। इसमें सभी कर्मचारियों का प्रबंधन ने 09 अप्रैल को पांच-पांच हजार का नकद भुगतान कर दिया था। लेकिन 09 अप्रैल को राज्य अधिवक्ता संघ की हड़ताल के कारण मामले में कूट परीक्षण नहीं हो सका था और अगली तिथि 18 अप्रैल की निर्धारित हुई थी। 18 अप्रैल को कर्मचारी और उनके वकील पूरी तैयारी के साथ कूट परीक्षण के लिए श्रम न्यायालय पहुंचे थे। लेकिन प्रबंधन की ओर से एक जूनियर वकील कोर्ट में उपस्थित हुए और कूट परीक्षण के लिए अगली तारीख की मांग की।
कर्मचारियों के वकील ने इस पर आपत्ति ली और माननीय न्यायाधीश महोदय को प्रबंधन की धूर्तता से अवगत कराया। इस पर प्रबंधन के जूनियर वकील ने तर्क दिया कि उनके सीनियर वकील के यहां कोई कार्यक्रम है, इसलिए उन्हें अवसर दिया जाए। माननीय न्यायाधीश महोदय ने कर्मचारियों के वकील की आपत्ति सुनने के बाद प्रबंधन के वकील से स्पष्ट पूछा कि वे केवल हां या न में ये बताएं कि आज कूट परीक्षण करेंगे या नहीं। इस पर प्रबंधन का वकील बगले झांकने लगा। बात बिगड़ती देख बाहर आकर उसने अपने आकाओं को कोर्ट के रुख से अवगत कराया। इसके बाद सीनियर वकील भागे-भागे कोर्ट पहुंचे और उन्होंने भी तारीख देने की मांग की। इसके बाद पुन: न्यायाधीश महोदय ने कहा कि केवल अपना उत्तर हां या न में दें। इसके बाद जब प्रबंधन के वकील ने असमर्थता जताई तो माननीय न्यायाधीश महोदय ने प्रत्येक प्रकरण में 500-500 रुपए कॉस्ट लगा दी।
साथ ही माननीय न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों में सुनवाई हो रही है। इसलिए मामलों को तय समय में निपटाने के लिए अब डे टू डे सुनवाई की जाएगी। इसके बाद सभी प्रकरणों में दो दिन बाद की तारीख दे दी गई है।

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Thursday 12 April 2018

दिल्ली सरकार का दैनिक जागरण पर 'वार', पीड़ित पत्रकारों ने दिया नैतिक समर्थन

आम आदमी पार्टी सरकार के विधायकों ने इस सत्र के दौरान दिल्ली विधानसभा में दैनिक जागरण में प्रकाशित कुछ खबरों पर आपत्ति जताई और इस मामले को विधानसभा की विशेषाधिकार समिति को सौंपने की मांग की, जिसके बाद इस मामले को विधानसभा अध्यक्ष ने विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया है। हालांकि इससे नाराज होकर विपक्षी पार्टियों ने इसका विरोध किया और इसे लोकतंत्र की हत्या बताया। इस बीच, मजीठिया वेजबोर्ड को लेकर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे पीड़ित अखबार कर्मियों ने इस मामले में दिल्ली सरकार को अपना नैतिक समर्थन दिया है। उन्होंने उल्टे भाजपा और कांग्रेस के नेताओ को कटघरे में खड़ा करते हुए पूछा कि जब अखबार मालिक अपने कर्मियों को हक़ मारते है और उन्हें अपना हक मांगने पर सजा के तौर पर नौकरी से निकाल दिया जाता है या प्रताड़ित किया जाता है तब इनकी न्यायप्रिय आवाज कहां खो जाती है।
आम आदमी पार्टी के नाराज विधायक कपिल मिश्रा इसका जोरदार ढंग से विरोध किया। उन्होंने न केवल इसे लोकतंत्र की हत्या बताया, बल्कि कहा कि अध्यक्ष ने उनकी बात को अनसुना कर दिया, क्योंकि इससे पहले सदन में इस तरह के प्रस्ताव की सुगबुगाहट का पता लगने पर विधानसभा अध्यक्ष को उन्होंने पत्र लिखा था और इस तरह के प्रस्ताव को सदन में न लाए जाने की मांग की थी।
सदन में दैनिक जागरण के खिलाफ मामला विशेषाधिकार समिति को सौंपे जाने पर कपिल मिश्रा ने कहा कि दैनिक जागरण अखबार के खिलाफ दिल्ली विधानसभा में अवमानना का प्रस्ताव जायज नहीं है। उन्‍होंने कहा कि इस हरकत से आज विधानसभा ने अपना कद बहुत छोटा कर लिया। ऐसा प्रस्ताव सीधे सीधे अखबार और पत्रकार और मीडिया की आजादी पर हमला है, डराने की कोशिश है। शर्मनाक है। उन्होंने आगे कहा कि पत्रकार तो सरकार के खिलाफ बोलते ही हैं। लेकिन जब सरकार पत्रकार और अखबार के खिलाफ बोलने लगे और चुप कराने की कोशिश करने लगे तो यही उस पत्रकार और अखबार की निष्पक्षता का सबसे बड़ा मैडल है।
वहीं दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता ने कहा कि यह लोकतंत्र ही हत्या है। यह सरकार प्रेस की आजादी पर हमला कर रही है। दिल्ली में आपातकाल की तरह हालात हैं। दिल्ली में ऐसा पहली बार हुआ है जब निर्भीक पत्रकारिता को कुचलने की कोशिश की जा रही है। प्रेस की आजादी पर हो रहे हमले को लेकर राष्ट्रपति को भी हस्तक्षेप करना चाहिए।
इसके अलावा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने भी इस मामले पर अपनी बात रखी और कहा कि केजरीवाल सरकार प्रेस को दबाने की कोशिश कर रही है, जोकि लोकतंत्र पर हमला है। सत्ता में आने के तुरंत बाद आम आदमी पार्टी की सरकार ने पहले सचिवालय में पत्रकारों को रोकने का प्रयास किया, फिर निर्देश पत्र निकाला, जिसे अदालत की आपत्ति के बाद वापस लिया गया। यह सरकार शुरू से प्रेस की आजादी का विरोध करने वाली है।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने भी इस मामले को लेकर केजरीवाल सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि दिल्ली सरकार में बैठे लोग अखबार में अपने मन माफिक खबरें छपवाना चाहते हैं। सरकार ने प्रेस की आजादी पर हमला किया है। हम इसके खिलाफ एडिटर्स गिल्ड और कोर्ट में भी जाएंगे।
वहीं, पीड़ित जागरण कर्मचारियों का नेतृत्व करने वाले एक पत्रकार ने कहां, आज मीडिया का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है और ईमानदार संपादकों की जगह अखबार मालिकों ने खुद ले ली है। मालिकों के लिए जनहित से ज्यादा जरूरी धनहित होता जा रहा है। इसलिए आज के अखबार जनसमस्याओं की जगह किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष की महिमामंडन से भरे होते हैं। जब उन्होने ही अपनी स्वतंत्रता धनकुबेरो और नेताओं के आगे गिरवी रख दी है, तब उनकी स्वतंत्रता की बात करना बेमानी लगती है।
वहीं, एक अन्य कर्मी ने कहा, ये वही दैनिक जागरण है जिसने नोएडा, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश के अपने लगभग 350 कर्मचारियों को 2 अक्टूबर 2015 को एक ही झटके में इसलिए निकाल दिया था क्योंकि उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से अपने हक के आवाज उठाई थी। ये हक उन्हें सरकार ने मजीठिया वेजबोर्ड के रूप में दिया था और जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी मोहर लगा दी थी। ये हैे बड़ी बड़ी आदर्शवाद की बात करने वाले इन मीडिया घरानों का सच। मीडिया घरानों की धनलोलुपता और हर समय पत्रकारों की नोकरी पर लटकती तलवार के चलते आज मीडिया की ईमानदारी पर भी प्रश्नचिन्ह लग रहा है।
भास्कर के एक बर्खास्त कर्मी ने कहा कि आज लगभग 20 हजार अखबार कर्मी सड़क पर है, इनमें से कईयो के बच्चों का स्कूल छूट गया है। कई के सामने फांके मारने की नौबत आ गई है, परन्तु सालों तक वफादारी से काम करने वाले इन कर्मचारियों के प्रति  निष्ठुर बना बैठा है प्रबंधन। वहीँ pmo तक भी कई बार अपनी व्यथा पहुंचा चुके है, परन्तु अखबार मालिकों के प्रभाव के चलते वहाँ से भी नाउम्मीदी ही हाथ लगती है। पूरे देश मे केवल मात्र केजरीवाल सरकार ही ऐसी सरकार थी जिसने अखबार मालिकों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अवमानना केस में सही रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें किस तरह से कर्मचारियों का हक मारा जा रहा है और उनका शोषण किया जा रहा है इसका उल्लेख था। तब से ही केजरीवाल सरकार इन मीडिया घरानों के निशाने पर थी। केजरीवाल सरकार के अलावा किस भी पार्टी की सरकार की रिपोर्ट लीपापोती के अलावा कुछ नहीं थी, ताकि अखबार मालिक सुप्रीम कोर्ट की अवमानना से बच जाए।
वहीं, जागरण के एक अन्य नेतृत्वकारी ने कहा कि पत्रकारों का हक़ मारा गया तब प्रेस की स्वतंत्रता के भाजपाइयों और कांग्रेसियों के ये उदात्त विचार कहाँ थे? कांग्रेस के दो महान वकील साहेबान जो की सांसद भी हैं, बाकायदा कर्मचारियों के वाजिब हितों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मालिकों की वकालत कर रहे थे। सारी नैतिकता इन्हें तभी दिखती है जब कोई दूसरी सरकार कुछ करती है?

(इनपुट: समाचार4मीडिया)

आरोपमुक्त को ‘आतंकी वासिफ़’ लिखने वाला दैनिक जागरण सुप्रीम कोर्ट के कठघरे में!

हिंदी का नंबर एक अख़बार दैनिक जागरण बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बारे में लिखते हुए कभी ‘क़ातिल’ ‘रंगदार’ या ‘तड़ीपार’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल नहीं करता, जबकि उन पर क़त्ल, फ़िरौती वसूलने से लेकर एक लड़की की अवैध जासूसी कराने तक के अरोप लगे थे। जागरण ऐसा करके बिलकुल ठीक करता है क्योंकि अमित शाह को अदालत से ‘बरी’ कर दिया गया है।

लेकिन जब नाम अमित की जगह ‘वासिफ़’ हो तो जागरण पत्रकारिता की यह सामान्य सिद्धांत ताख़ पर रख देता है। वरना अदालत से बरी कर दिए जाने के बावजूद वह कानपुर के वासिफ़ हैदर को बार-बार आतंकी न लिखता। उसे इसमें कुछ ग़लत नहीं लगा। लेकिन इस एक नंबरी अख़बार से मोर्चा लेने की वासिफ़ की ज़िद की वजह से आपराधिक मानहानि का एक अहम मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। 3 अप्रैल को जस्टिस चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इसे गंभीर मसला मानते हुए शीघ्र सुनवाई के आदेश दिए। जागरण के संपादक और प्रकाशक कठघरे में हैं। अदालत का रुख बता रहा है कि यह मामला बाक़ी मीडिया के लिए भी एक नज़ीर बन सकता है।

वासिफ़ हैदर की कहानी भी सुन लीजिए। कानपुर निवासी वासिफ़ मेडिकल उपकरणों की सप्लाई करने वाली एक अमेरिकी मल्टीनेशनल,  बैक्टन डिकिन्सन कंपनी में क्षेत्रीय बिक्री प्रबंधक के रूप में काम कर रहे थे जब 31 जुलाई 2001 को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी), दिल्ली पुलिस, स्पेशल सेल और स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) की टीमों ने उनका ‘अपहरण’ कर लिया। बम विस्फोट कराने से लेकर अवैध हथियारों तक के मामलों को कबूलने के लिए उन्हें  ‘थर्ड डिग्री’ दी गई और ‘कबूलनामे’ का वीडियो भी बना लिया गया। इनमें एक मामला दिल्ली का भी था। ज़ाहिर है, चार बेटियों वाले वासिफ़ के परिवार पर कहर टूट पड़ा। आस-पड़ोस ही नहीं पूरे कानपुर में उनके परिवार की थू-थू हुई। लंबी जद्दोजहद के बाद अदालत से वे सभी मामलों में बरी हो गए। पूरी तरह निर्दोष साबित होने के बाद वे 12 अगस्त 2009 को जेल से बाहर आए। यानी बेगुनाह वासिफ़ की ज़िंदगी के आठ से ज़्यादा साल जेल की सलाखों के पीछे बीते।

जेल से निकलकर ज़िंदगी को पटरी पर लाना आसान नहीं था। बहरहाल, अदालत से मिला ‘निर्दोष होने’ का प्रमाणपत्र काम आया और धीर-धीरे वे समाज में स्वीकार किए जाने लगे। लेकिन करीब साल भर बाद जब 2010 में बनारस के घाट पर बम विस्फोट हुआ तो दैनिक जागरण ने एक ख़बर में इसका तार कानपुर से जोड़ते हुए लिखा कि ‘आतंकी वासिफ़’ पर नज़र रखी जा रही है। पता लगाने की कोशिश हो रही है कि वह किससे मिलता है, उसका ख़र्चा कैसे चलता है…वग़ैरह-वग़ैरह..। जागरण कानपुर से ही शुरू हुआ अख़बार है और आज भी यह शहर उसका गढ़ है। ज़ाहिर है, इस अख़बार में ‘आतंकी’ लिखा जाना वासिफ़ के लिए सिर पर बम फूटने जैसा था। वे कहते रह गए कि अदालत ने उन्हें हर मामले में बरी कर दिया है, लेकिन अख़बार बार-बार उन्हें ‘आतंकी वासिफ़’ लिखता रहा। जो समाज थोड़ा क़रीब आया था, उसने फिर दूरी बना ली।

वासिफ़ के लिए यह आघात तो था, लेकिन उन्होंने भिड़ने की ठानी। उन्होंने 2011 में जागरण के ख़िलाफ़ स्पेशल सीजीएम कोर्ट में आपराधिक मानहानि का मुक़द्दमा दायर कर दिया। कोर्ट ने पुलिस को जाँच सौंपी तो पता चला कि वासिफ़ के आरोप सही हैं, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि इसके बाद अदालत तारीख़ पर तारीख़ देने लगी। वासिफ़ ने तब हाईकोर्ट का रुख किया जहाँ मामले के जल्द निपटारे का निर्देश हुआ। इस पर मजिस्ट्रेट ने जागरण की यह दलील मानते हुए कि- वासिफ़ पर पहले आरोप थे और कुछ मुकदमे चल भी रहे हैं, लिहाज़ा आतंकी लिखकर कोई मानहानि नहीं की गई- याचिका को निरस्त कर दिया। जबकि हक़ीक़त यह थी कि वासिफ़ के ख़िलाफ़ कोई मामला दर्ज नहीं था और न ही कोई जाँच चल रही थी। वे सभी मामलों में बरी हो चुके थे।

वासिफ़ ने इसके ख़िलाफ़ पहले सेशन्स कोर्ट और फिर हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन हर जगह निराशा हाथ लगी। उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के पास भी अख़बार की शिकायत की थी लेकिन कुछ हल नहीं निकला। वासिफ़ ने मीडिया विजिल को बताया कि इसी निराशा के दौर में उनकी मुलाकात प्रशांत भूषण से हुई। उन्होंने मामले को समझा और केस दायर कर दिया। सुप्रीमकोर्ट ने 30 मार्च 2015 को जागरण के एडिटर संजय गुप्त, मैनेजिंग एडिटर महेंद्र गुप्त और प्रकाशक कृष्ण कुमार विश्नोई के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस मामले में नोटिस जारी कर दिया।

3 अप्रैल 2018 को इस मामले में एक बड़ा मोड़ आया जब जस्टिस चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मामले को गंभीर माना। अदालत ने कहा कि ‘इस मामले में क़ानून का बड़ा सवाल है, इसलिए इस विषय पर  चर्चा  की आवश्यकता है।

अंग्रेज़ी वेबसाईट  LIVELAW.IN  में छपी ख़बर के अनुसार वकील प्रशांत भूषण ने अदालत के सामने तर्क दिया कि यह मुद्दा सिर्फ किसी एक के निर्दोष होने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मामला कई मामलों में दोहराया गया एक बना बनाया पैटर्न है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए अदालत को इसपर समग्र रूप से विचार करना चाहिए।

प्रशांत भूषण की टीम के सदस्य एडवोकेट गोविंद ने कहा, ” सवाल यह है कि एक अखबार या मीडिया हाउस किसी व्यक्ति विशेष को एक आतंकवादी के रूप में कैसे प्रचारित कर सकता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति पर एक दफा आतंकवाद का झूठा आरोप लग चुका था। इस मसले पर कानून की धारा 499 और 500 से स्पष्ट है।”

अदालत ने मामले को गंभीर माना है। अगली सुनवाई जुलाई में होगी। उम्मीद है कि अदालत कुछ ऐसा आदेश ज़रूर देगी जिससे मीडिया आरोपितों और दोषियों में फ़र्क करने की तमीज़ वापस हासिल करने को मजबूर हो। बात निकली है तो दूर तलक जाने में ही सबकी भलाई है।

(साभार: MediaVigil)

Wednesday 11 April 2018

मजीठिया: त्रिपक्षीय समिति की बैठक कल मुम्बई में

देशभर के मीडिया कर्मियों के वेतन और प्रमोशन से जुड़े जस्टिस मजीठिया वेज बोर्ड  की सिफारिश को अमल में लाने के लिए गठित महाराष्ट्र की  त्रिपक्षीय समिती की बैठक मुंबई में कामगार आयुक्त कार्यालय के समिती कक्ष में  12 अप्रैल को दोपहर 12- 15 बजे   आयोजित की जा रही है । माननीय सुप्रीम कोर्ट के पिछले साल  19 जून को आये आदेश के बाद महाराष्ट्र में  त्रिपक्षीय समिति की ये बैठक तय करेगी कि अखबार मालिकों ने सुप्रीमकोर्ट का आदेश कितना माना है।
इस बैठक में पत्रकारों की तरफ से पांच प्रतिनिधि नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट की महाराष्ट्र महासचिव शीतल हरीश करदेकर, बृहन मुंबई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट के मन्त्रराज जयराज पांडे, रवींद्र राघवेंन्द्र देशमुख, इंदर जैन कन्वेनर ज्वाइन्ट एक्शन कमेटी ठाणे और किरण शेलार शामिल हैं। मालिकों की तरफ से जो पांच लोग शामिल हैं उनमें जयश्री खाडिलकर पांडे, वासुदेव मेदनकर, राजेंद्र कृष्ण रॉव सोनावड़े और बालाजी अन्नाराव मुले हैं। इस समिति में लोकमत की तरफ से दो प्रतिनिधि शामिल किये गए हैं जिनके नाम बालाजी अन्ना रॉव मुले और विवेक घोड़ वैद्य हैं जबकि रोहिणी खाडिलकर नवाकाल की हैं। इसी तरह राजेंद्र सोनावड़े दैनिक देशदूत नासिक से हैं। इसमे कई सदस्य बैठक में लगातार नदारत रहते हैं। बैठक की अध्यक्षता कामगार आयुक्त महाराष्ट्र  करेंगे। इस त्रिपक्षीय समिति की बैठक में  नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट की महाराष्ट्र महासचिव शीतल करंदेकर  कामगार आयुक्त को एक ज्ञापन भी देकर यह मांग भी करेंगी कि समिति में उन नए सदस्यों को भी शामिल किया जाए जिन्हें जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड की अच्छी समझ हो।


शशिकांत सिंह

पत्रकार और आर टी आई एक्सपर्ट

9322411335

Monday 9 April 2018

आज के दौर में एक पत्रकार ऐसा भी...



मुज़फ्फर नगर में एक पत्रकार ऐसा भी है जिसके पास न अपनी छपाई मशीन है, न कोई स्टाफ और न सूचना क्रांति के प्रमुख साधन-संसाधन। मात्र कोरी आर्ट शीट और काले स्केज ही उसके पत्रकारिता के साधन हैं। तमाम शहर की दूरी अपनी साईकिल से तय करने वाले और एक-एक हफ्ता बगैर धुले कपड़ों में निकालने वाले इस पत्रकार का नाम है दिनेश। जो गाँधी कालोनी का रहने वाला है। हर रोज अपनी रोजी रोटी चलाने के अलावा दिनेश पिछले सत्रह वर्षों से अपने हस्तलिखित अख़बार "विद्या दर्शन" को चला रहा है। प्रतिदिन अपने अख़बार को लिखने में दिनेश को ढाई-तीन घंटे लग जाते हैं। लिखने के बाद दिनेश अखबार की कई फोटोकॉपी कराकर शहर के प्रमुख स्थानों पर स्वयं चिपकाता है। हर दिन दिनेश अपने अख़बार में किसी न किसी प्रमुख घटना अथवा मुद्दे को उठाता है और उस पर अपनी गहन चिंतनपरक निर्भीक राय रखते हुए खबर लिखता है।

पूरा अख़बार उसकी सुन्दर लिखावट से तो सजा ही होता है साथ ही उसमें समाज की प्रमुख समस्याओं और उनके निवारण पर भी ध्यान केंद्रित किया जाता है।

सुबह से शाम तक आजीविका के लिये हार्डवर्क करने वाले दिनेश को अख़बार चलाने के लिये किसी भी प्रकार की सरकारी अथवा गैर सरकारी वित्त सहायता प्राप्त नहीं नहीं है। गली-गली आइसक्रीम बेचने के जैसे काम करके दिनेश अपना जीवन और अख़बार चलाता है। अपने गैर विज्ञापनी अख़बार से दिनेश किसी भी प्रकार की आर्थिक कमाई नहीं कर पाता है। फिर भी अपने हौसले और जूनून से दिनेश निरंतर सामाजिक परिवर्तन के लिये अख़बार चला रहा है। श्रम साध्य इस काम को करते हुए दिनेश मानता है कि भले ही उसके पास आज के हिसाब से साधन-संसाधन नहीं हैं और न ही उसके अख़बार का पर्याप्त प्रचार-प्रसार है फिर भी यदि कोई एक भी उसके अख़बार को ध्यान से पढता है अथवा किसी एक के भी विचार-परिवर्तन में उसका अख़बार रचनात्मक योगदान देता है तो उसका अख़बार लिखना सार्थक है।

बगैर किसी स्वार्थ, बगैर किसी सशक्त रोजगार और बगैर किसी सहायता के खस्ताहाल दिनेश अपनी तुलना इस देश के आम नागरिक से करता है। बात सही भी है। भले ही उसका अख़बार बड़े पाठकवर्ग अथवा समाज का प्रतिनिधित्व न करता हो परंतु वह खुद तो इस देश में गरीबों और मज़लूमों की एक बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। इस देश में पत्रकारिता का जो इतिहास रहा है वह देश की आज़ादी से सम्बद्ध रहा है।

आज़ादी के बाद पत्रकारिता जनता के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करने लगी। परंतु आज हम सब जानते हैं कि आज पत्रकारिता किसका प्रतिनिधित्व कर रही है। ऐसे में दिनेश अपने दिनोदिन क्षीण होते वज़ूद के बावजूद पत्रकारिता के बदल चुके मूल्यों पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। इस व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है जिसमें दिनेश या दिनेश जैसे लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। हमारे बदलते मानवीय मूल्यों पर सवाल खड़ा करता है कि क्या हम एक ऐसे ही समाज का निर्माण करने में व्यस्त हैं जिसमें सब आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। किसी को किसी के दुःख अथवा समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है। ऐसे बहुत से सवाल खड़ा करता दिनेश और उसका अखबार इस दौर की बड़ी त्रासदी की ओर इशारा करता है जिसे समझने की आज बेहद जरुरत है।

(साभार: ब्राडकास्ट ग्रुप)

Saturday 7 April 2018

मजीठिया: नईदुनिया जागरण को भारी पड़ी चालाकी, हाईकोर्ट ने लगाई पांच-पांच हजार की कॉस्ट

मध्यप्रदेश में श्रम न्यायालयों मे चल रहे मजीठिया के मामलों में


नईदुनिया जागरण प्रबंधन की हर चाल उलटी पड़ रही है। दरअसल बीते दिनों ग्वालियर श्रम न्यायालय में चल रहे मामलों में कूट परीक्षण होना था, लेकिन बार-बार प्रबंधन के वकील लेबर कोर्ट में बहाना बनाकर भाग रहे थे। इसके
बाद आखिरकार श्रम न्यायालय की विद्वान न्यायाधीश ने नईदुनिया का कूट परीक्षण का अधिकार ही समाप्त कर दिया। इससे तिलमिलाया प्रबंधन मामले को लेकर हाईकोर्ट पहुंच गया।
प्रबंधन ने सोचा था कि हाईकोर्ट में मामले को लटका कर रखा जाएगा। इससे कर्मचारियो का हौसला ठंडा होगा लेकिन कर्मचारी भी कहां हार मानने वाले थे। उन्होंने भी हाईकोर्ट में पूरे मामले में अपना पक्ष मजबूती के साथ रखा और प्रबंधन की मामले को लटकाने की नियत को कोर्ट के समक्ष रखा। इसके बाद हाईकोर्ट ने मामले में प्रबंधन को श्रम
न्यायालय में निर्धारित तारीख को कूट परीक्षण का अवसर तो प्रदान किया। साथ ही अपने आदेश में प्रबंधन को फटकार लगाकर प्रत्येक कर्मचारी को पांच-पाच हजार रुपए प्रदान करने के आदेश भी दे दिए। अब प्रबंधन को पहले कर्मचारियों को पहले पांच- पांच हजार रुपए देने होंगे। इसके बाद ही श्रम
न्यायालय में कूट परीक्षण हो सकेगा।
इस निर्णय के बाद प्रबंधन के वे लोग जो कर्मचारियों के सामने बड़ी-बड़ी बातें करते थे, उन्हें सांप सूंघ गया है। इसके पहले प्रारंभिक आपत्तियों के मामले में भी कर्मचारियों ने सभी प्रकरणों में प्रबंधन की एक भी चाल को कामयाब नहीं होने दी थी।
श्रम न्यायालय ने सभी प्रकरणों में प्रबंधन की प्रारंभिक आपत्तियों को निरस्त कर दिया था। इसके अलावा कई प्रकरणों मे तय समय में जवाब प्रस्तुत नहीं करने पर श्रम न्यायालय ने प्रबंधन पर जुर्माना भी ठोंक दिया है। ऐसे
में प्रबंधन की हर चालाकी कोर्ट में उलटी पड़ती जा रही है।

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