Wednesday 28 February 2018

हजारों करोड़ के घोटाले में दैनिक भास्कर के मालिकों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी

42 कम्पनियों का 7536 करोड़ का घोटाला
सुधीर अग्रवाल और गिरीश अग्रवाल के ख़िलाफ़ गिरफ्तारी वारंट
EOW ने घोटाले के आरोपियों के नामों का खुलासा किया

भोपाल । मध्य प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के तत्कालीन अध्यक्ष, संचालक मण्डल, प्रबंध संचालक एवं अन्य अधिकारियों ने षडयंत्रपूर्वक बेईमानी के इरादे से छल करते हुए लगभग 42 डिफॉल्टर कम्पनियों के प्रवर्तकों / संचालको से सांठगांठ कर उन्हें अवैध रूप से लाभान्वित किया। इससे शासन और निगम को ब्याज सहित लगभग 719 करोड़ रुपये की वित्तीय हानि हुई थी। दिनांक 31. 09. 2017 की स्थिति में यह हानि बढ़कर ब्याज सहित 7536.57 करोड़ रुपये हो चुकी है।

मध्य प्रदेश राज्य ओैद्योगिक विकास निगम भोपाल के संबंध में प्राप्त घोटाले संबंधी सूचनाओं पर आर्थिक अनुसंधान प्रकोष्ठ में हुई गड़बड़ियों/अनियमितताओं के संबंध में प्रथम सूचना पत्र क्रमांक 25/04 पंजीबद्ध कर विवेचना में लिया गया था।
इसमें विवेचना उपरांत आरोपी पांच लोकसेवक
1.  राजेन्द्र कुमार सिंह, तत्कालीन अध्यक्ष एम.पी.एस.आई.डी.सी.
2. अजय आचार्य, तत्कालीन संचालक एम.पी.एस.आई.डी.सी
3. जे.एस.राममूर्ती, तत्कालीन संचालक एम.पी.एस.आई.डी.सी
4. एम.पी.राजन, तत्कालीन प्रबंध संचालक
5. नरेन्द्र नाहटा, तत्कालीन अध्यक्ष एम.पी.एस.आई.डी.सी एवं 20 कंपनियों के प्रवर्तक / संचालकगणों के विरूद्ध विवेचना उपरांत पूर्व अभियोग पत्र प्रस्तुत किया जा चुका है।

प्रकरण में अग्रिम अनुसंधान के पश्चात आरोपी कंपनी मेसर्स भास्कर इण्डस्ट्रिज लिमिटेड के सुधीर अग्रवाल, तत्कालीन संचालक, गिरीश अग्रवाल, तत्कालीन संचालक एवं नागेन्द्र मोहन शुक्ला, तत्कालीन कार्यपालिक संचालक एवं निगम के तत्कालीन अध्यक्ष, राजेन्द्र कुमार सिंह एवं नरेन्द्र नाहटा, तत्कालीन संचालक, अजय आचार्य, तत्कालीन प्रबंध संचालक एम.पी.राजन, तत्कालीन महाप्रबंधक लेखा, स्व. एम.एल.स्वर्णकार के विरूद्ध धारा 409, 420, 467, 468, 471, 120बी, भादवि एवं 13(1)(डी) सहपठित धारा 13(2) भ्रनिअ 1988 के अंतर्गत माननीय विशेष न्यायालय (एम.पी.एस.आई.डी.सी.), भोपाल के समक्ष दिनांक 27.02.2018 को अभियोग पत्र प्रस्तुत किया गया है।

पढ़िए आर्थिक अनुसंधान शाखा द्वारा जारी प्रेस रिलीज...



मजीठिया: Delhi HC ने लेबर कोर्ट को दिया 6 माह में केस निपटाने का निर्देश

दैनिक भास्कर दिल्ली के गणेश भट्ट की 38 लाख रुपए के केस को दिल्ली हाई कोर्ट ने सीधे लेबर कोर्ट में भेज दिया है और डीएलसी से कहा है कि वह दो माह के अंदर रेफरेन्स लेबर कोर्ट को भेजे और लेबर कोर्ट से कहा कि रेफरेन्स की तिथि के 6 महीने के भीतर केस का निपटारा करे।
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने 19 जून को फैसला सुनाया और 21 जून को गणेश भट्ट ने डीएलसी में मजीठिया की मांग को लेकर एप्लीकेशन लगाई थी। फिर 30 दिसम्बर को आरसी जारी होने के बाद हाईकोर्ट में कैविएट दाखिल की थी। अब 20 फरवरी को मैनेजमेंट की याचिका पर फैसला सुनाया।

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Sunday 25 February 2018

मजीठिया: क्लेम पर जवाब नहीं देना पंजाब केसरी को पड़ा भारी

एएलसी जयपुर ने ठोकी डबल कोस्ट

जयपुर। पंजाब केसरी की कम्पनी द हिन्द समाचार लिमिटेड को मजीठिया क्लेम मामले को लगातार छह माह से टालते हुए जवाब नहीं देना उस समय महंगा पड़ गया जब अतिरिक्त श्रम आयुक्त सी.बी.एस. राठौर ने कम्पनी पर लगातार दूसरे माह 500-500/- रूपये की कोस्ट लगा दी। श्रम विभाग जयपुर के इतिहास में संभवतः यह पहला अवसर है कि उसने किसी बड़े मीडिया संस्थान के विरूद्ध डबल कोस्ट लगा उसके प्रबंधन के घंमड को चूर-चूर किया है।

गौरतलब है कि पंजाब केसरी की कम्पनी पर दो पत्रकारों दुर्गेश कुमार व आशुतोष बत्ता व दो गैर पत्रकारों राजेन्द्र कुमार बैरवा व अनिल कुमार शर्मा ने सितम्बर 2017 माह में मजीठिया क्लेम केस किया था। इसकी सुनवाई वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 की धारा 17(1) के तहत लेबर कमिश्नर जयपुर के यहाँ चल रही है।

मीडियाकर्मियों ने बताया कि पंजाब केसरी की कम्पनी लगतार छह माह से उनके क्लेम पर तारीख पर तारीख ले रही थी। पूरे मामले में कम्पनी द हिन्द समाचार लिमिटेड का क्लेम पर रवैया टालने व विलंब करने का रहा है। इससे नाराज होकर अतिरिक्त श्रम आयुक्त सी.बी.एस राठौर ने अपनी न्यायिक शक्ति का इस्तेमाल कर कम्पनी द हिन्द समाचार लिमिटेड पर पहली कोस्ट 21 जनवरी 2018 एवं 14 फरवरी 2018 को 500-500 रूपये परिवाद कोस्ट लगाते हुए पंजाब केसरी प्रबंधन को उसकी औकात समझाते हुए आईना दिखाया है।

मामले की अगली तारीख 8 मार्च है। देखना होगा कि इस तारीख पर पंजाब केसरी की कम्पनी द हिन्द समाचार लिमिटेड मीडियाकर्मियों के क्लेम पर जवाब देती है या नहीं। वहीं इस मामले में अतिरिक्त श्रम आयुक्त सी.बी.एस राठौर का भी आगे का रूख देखने वाला होगा। मजीठिया क्लेम का जवाब नहीं देने पर वे आगे क्या कार्यवाही करते हैं, इस पर राजस्थान ही नहीं बल्कि देश भर के सभी मजीठिया लड़ाकों की पैनी नज़र रहेगी।

(साभार: भड़ास4मीडिया)

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मजीठिया: मध्यप्रदेश में एक भी अखबार ने लागू नहीं की सिफारिशें

खुलेआम हो रही सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना


मध्यप्रदेश से प्रकाशित 31 अखबार मालिकों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद भी अपने यहां मजीठिया वेतन बोर्ड के आदेशों का न तो पालन किया न ही बकाया वेतन देने के संबंध में आज तक कोई कार्रवाई की। इतना ही नहीं श्रमायुक्त व्दारा दिए गए निर्देशों के बावजूद आज तक कोई जानकारी दी गई और न ही स्टेंडिंग आर्डर का पालन किया।
उक्त खुलासा जनवरी 2018 में आरटीआई के तहत मिली जानकारी में हुआ है।  आरटीआई में सहायक श्रमायुक्त पत्थर गोदाम इंदौर ने बताया कि मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले 31 अखबारों में एक ने भी मजीठिया वेतन बोर्ड अपने यहां लागू नहीं किया। इतना ही नहीं वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट की भी खुलआम अव्हेलना करते हुए 31 अखबारों में से एकमात्र अखबार ने स्टेंडिंग आर्डर करवाया है। सहायक श्रमायुक्त ने उक्त आरटीआई में 30 दिसम्बर 2017 को सुप्रीम कोर्ट में भेजी गई रिपोर्ट की कापी भी आरटीआई में दी है।

क्या कहते हैं कानूनविद
उक्त मिली आरटीआई की जानकारी के संबंध में कानूनविदों का कहना है उक्त जानकारी मजीठिया का केस लड़ने वाले पत्रकार और गैर पत्रकारों के लिए सोने पर सुहागा साबित होगी। क्योंकि प्रेस मालिकों के अभिभाषक अभी जिन मुद्दों पर आपत्ति ले रहे हैं वे तो खारिज हो रही है ऐसे में उक्त आरटीआई के माध्यम से माननीय श्रम न्यायालय को बताया जाएगा कि 7 वर्ष बावजूद भी अखबार मालिकों व्दारा माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं किया गया है। कानूनविदो का मानना है कि उक्त आरटीआई के माध्यम से हाईकोर्ट में भी प्रेस मालिकों को मुंह की खानी पड़ेगी तथा हाईकोर्ट में जज की फटकार भी सुनना पड़ सकती है।


(साभार: भारतीय पत्रकार एसोसिएशन)


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पत्रकारों की सुरक्षा में सरकार और विपक्ष नाकाम

हमलावरों के साए में कलम के सिपाही
कब तक होता रहेगा सच कहने वाले पर हमला?
पत्रकार सुरक्षा कानून अधर में लटका


-उन्मेष गुजराथी

मुंबई। जनता की सुरक्षा के लिए आवाज उठाने वाले पत्रकार आजकल खुद अपनी सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित हैं। लगातार हो रहे हमलों से ‘कलम के सिपाही’ की जान को हर पल खतरा बना हुआ है। भाजपा सरकार पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अधिकारों को लेकर तनिक भी सतर्क नहीं है। इसके अलावा इससे पहले की कांग्रेस सरकार भी पत्रकारों पर हमले को लेकर बेहद ठंडा रवैया अनपाए हुए थी। गौरतलब है कि इंडिया टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार सुधीर शुक्ला पर कुछ असामजिक तत्वों ने हमला कर दिया है। इस हमले के बाद पत्रकारों द्वारा यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि जिस तरह सरकार ने पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद सुस्ती बरती, उसी तरह क्या अब हो रहे हमलों को भी वह नजरअंदाज कर रही है?

सत्तासीन पार्टी और अन्य पार्टियों के बीच साठगांठ
पत्रकारों के प्रति सत्तासीन पार्टी का तो उदासीन रवैया बना ही है, वहीं अन्य विपक्षी पार्टियां भी पत्रकारों की हक की बात करने से कतराती हैं। दरअसल, ईमानदार और साहसी पत्रकारों को कमजोर बनाने के लिए सत्तासीन पार्टी और अन्य पार्टियों के बीच साठगांठ होती है। सत्तासीन पार्टी के नेता हों या विपक्षी पार्टियों के नेता, दोनों ही तरफ से किसी भी साहसी पत्रकार को उपेक्षा के अलावा कुछ नहीं मिलता। जो भी पार्टी सत्ता में आती है, वह चाहती है कि हर सच्चा और साहसी पत्रकार उसकी ही तरफ हो जाए। वहीं सरकार के विरोध में सच दिखाने वाला कोई भी पत्रकार सत्ताधारी नेताओं की आंखों में चुभता है। इन परिस्थितियों में पत्रकारों पर हुए हमले के बाद सत्तासीन पार्टी और अन्य पार्टियां मौन रुख अपनाते हुए मुंह फेर लेती हैं, तो संदेह लाजिमी है।

पहले भी हुए हमले, कब जागेगी भाजपा सरकार?
पत्रकारों-लेखकों और सच उठाने वाले एक्टिविस्टों पर इस तरह के कई हमले पहले भी हो चुके हैं। गौरी लंकेश हों या इससे पहले महाराष्ट्र के नरेंद्र दाभोलकर या गोविंद पानसरे हों। सच कहने का साहस करने वाले इन सभी पत्रकारों -लेखकों की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी गई। पत्रकारों और डॉक्टरों को संरक्षण देने के बारे में कई बार आवाजें भी उठती रही हैं। नया कानून लाने के आश्वासन भी कई बार दिए गए, लेकिन अमल के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ है। अगर पत्रकार तथा डॉक्टरों की सुरक्षा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए, तो डॉक्टरों की स्थिति ज्यादा अच्छी कही जा सकती है, क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए मार्ड जैसा संगठन उनके साथ खड़ा है। डॉक्टरों पर हमला होने की स्थिति में मरीजों की सेवा बंद करके उनका संगठन सरकार पर दबाव ला सकता है, लेकिन पत्रकारों के साथ यह सुविधा नहीं है।

मजीठिया आयोग के अमल पर जोर क्यों नहीं?
मजीठिया आयोग पर अमल न करना पड़े इसलिए नियमित पत्रकारों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जाता है। कई समाचार पत्रों में यह स्थिति बन गई है कि संपादक को ही मार्केटिंग प्रतिनिधि समझकर उससे हर माह लाखों रुपए लाने का टारगेट दिया जाता है। अगर किसी कारणवश टारगेट पूरा नहीं हुआ तो उसे सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, इस बारे में कोई आवाज नहीं उठाता। ग्रामीण क्षेत्रों में संवाददाता के रूप में काम करने वालों की स्थिति ऐसी है। उन्हें यह तक पता नहीं है कि वे भी पीएफ के हकदार हैं या नहीं? उन्हें पीएफ जैसे शब्द कभी सुनने को भी नहीं मिलते और इसीलिए वे पीएफ न मिलने के मुद्दे पर कभी आवाज नहीं उठाते। ऐसी स्थिति में नियमित सेवाएं देने वाले पत्रकार पेंशन देने की मांग मुख्यमंत्री से किस आधार पर कर सकते हैं? इस विरोधाभास का उत्तर पत्रकारों के कुछ तथाकथित नेता क्यों नहीं देते? हालात यह हैं कि मेहनती पत्रकारों की कोई पूछ नहीं बची है।

किस काम के ये संगठन?
कहने के लिए पत्रकारों की अनेक संगठन हैं। गांव, तहसील, जिला, राज्य जैसे विविध स्तरों पर कई पंजीकृत संगठन तो बने हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता शून्य के बराबर मानी जाती रही है। सरकार पर दबाव डालने जैसी स्थिति इन संगठनों के लिए अभी बहुत दूर की कौड़ी है। पीड़ितों के साथ खड़े रहना, उनको धैर्य देना इन संगठनों के पदाधिकारियों को जंचता ही नहीं है। वाट्सऐप पर एकाध घटना की निंदा करके ये संगठन अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लेते हैं।

सूर्यवंशी पर हमले के बाद गरमाया था मुद्दा
‘डीएनए’ के पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी पर पिछले वर्ष अप्रैल माह में जब प्राणघातक हमला हुआ था, उस समय माहौल थोड़ा गरम जरूर हुआ था, लेकिन फिर सब कुछ पहले जैसा हो गया। इस प्रकरण में सरकार पक्ष से आरोपी के संबंधित होने के कारण विरोधियों ने इस मामले को पकड़ कर रखा था। उसी दौर में विधानसभा में पत्रकार सुरक्षा कानून मंजूर किया गया। इस बात का श्रेय लेने के लिए विभिन्न पत्रकार संगठनों में होड़ ही मच गई थी, लेकिन श्रेय लेने की लड़ाई कितनी निरर्थक साबित हो रही है, उसकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं था, क्योंकि पत्रकार सुरक्षा कानून संबंधी विधेयक मंजूर होने के बावजूद उसे कानूनी स्वरूप नहीं दिया गया।

पत्रकार सुरक्षा विधेयक को कानूनी दर्जा नहीं
पत्रकार सुरक्षा कानून संबंधी विधेयक मंजूर होने के बावजूद उसे कानूनी स्वरूप नहीं दिया गया। वर्ष 2017 के ग्रीष्मकालीन अधिवेशन में पास हुए इस विधेयक पर मानसून अधिवेशन बीत जाने पर भी राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इस विधेयक को कानून का दर्जा कब मिलेगा, इस बारे में विश्वास के साथ कोई कुछ भी नहीं कह सकता है। जब तक विधेयक को कानूनी दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक किसी भी पत्रकार को सुरक्षा नहीं दी जा सकेगी। अमरावती के प्रशांत कांबले हों या पालघर के न्यूज 24 के संजय सिंह हो या वृत्तमानस समाचार पत्र के संजय गिरी हों या फिर कल्याण के केतन बेटावदकर, ये सभी पत्रकार मारपीट की शिकायत के अलावा कुछ और नहीं कर सके।

राजनीतिक दबाव के कारण मुंह फेर लेती है पुलिस
कई बार राजनीतिक दबाव के कारण पुलिस शिकायत दर्ज करने से इनकार कर देती है। धारा 307 कई बार नहीं लगाई जाती। वहीं संगठन के मजबूत नहीं होने के कारण अकेला पत्रकार कुछ भी नहीं कर पाता। जिस समाचार पत्र के लिए दर-दर की ठोकरे खाकर संवाददाता समाचार लाते हैं, उस समाचार पत्र का संपादक भी उसके साथ खड़ा होगा, यह विश्वासपूर्वक कहना मुश्किल है। माना कि कई बार अपराध दर्ज भी हो गया, तो इस बात की क्या गारंटी है कि जांच सही दिशा में होगी। सुपारीबाज हमलावरों की धर-पकड़ यदि हो भी गई, तो भी हमले के पीछे का मूल उद्देश्य या मास्टरमाइंड कभी भी सामने नहीं आ पाता है।

हाई कोर्ट ने पुलिस की निष्क्रियता पर उठाई थी उंगली
सुधीर सूर्यवंशी प्रकरण में तो हाई कोर्ट ने पुलिस की निष्क्रियता पर ही ऊंगली उठाई थी, लेकिन इसके वाबजूद इसके कुछ फर्क नहीं पड़ा। सुधीर सूर्यवंशी कम से कम उच्च न्यायालय के दरवाजे तक पहुंचने में सफल हो गए, लेकिन कई छोटे पत्रकारों के पास उतनी आर्थिक ताकत नहीं थी कि वे न्यायालय का द्वारा खटखटा सकें। हर दिन के समाचार देने के बाद न्यायालय का चक्कर लगाना ही उनकी विडंबना है। कम वेतन, नौकरी में अनिश्चितता की लटकती तलवार जैसी बातों को लेकर पत्रकार न्याय की गुहार मांगने जाए तो कैसे जाए?

फर्जी मामले किए जाते हैं दर्ज
अगर किसी पत्रकार ने हिम्मत दिखाकर गुंडागर्दी करने वालों के विरोध में आवाज उठाने का निश्चय किया, तो उसके विरोध में फर्जी अपराध दर्ज कराए जाते हैं। जिस प्रकरण में वह लिप्त नहीं है, उसमें भी उसे फंसा दिया जाता है। कभी हफ्ता वसूली, तो कभी अट्रोसिटी के अपराध में उसे फंसा दिया जाता है। शहीद अंसारी, सुनील ढेपे जैसे अनेक उदाहरण इस संदर्भ में दिए जा सकते हैं।

वे शराब पीकर करते हैं तमाशा
मुंबई के प्रतिष्ठित समझे जाने वाले प्रेस क्लब के कार्यालय में कानूनी तौर पर शराब बेचने की सुविधा है। नीति के दायरे में सभी को रहने की सीख देने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर इस संगठन के अध्यक्ष हैं। सस्ती दर पर मिलने वाली शराब के नशे में रहने वाले कुछ गिने-चुने पत्रकार तथा संगठन के पदाधिकारी सर्वसामान्य पत्रकारों के साथ खड़े रहेंगे, ऐसी उम्मीद करना ही मूर्खता है। ये लोग दिखावे के लिए पत्रकारों को पेंशन दिलाने की मांग को लेकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन देते हैं, लेकिन चार-चार माह तक पत्रकारों का वेतन बकाया रखने वाले समाचार पत्रों के मालिकों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते। इन्हीं तथाकथित पत्रकारों के दिखावे से पत्रकारिता बदनाम होती है।

पत्रकारों की चिंता किसी को नहीं
पत्रकार संगठन अगर मजबूत होते तो संभवत: आज पत्रकारों को इस तरह की समस्या से जूझना नहीं पड़ता, लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकार संगठनों के पास उतना वक्त नहीं है। अपने अपने गुट के पत्रकारों के पुरस्कृत करने जितना ही उनका  अस्तित्व रह गया है। ग्रामीण स्तर के पत्रकारों के लिए अच्छे योजनाएं अमल में लाने के बारे में कोई गंभीरता से सोचता तक नहीं है। मंत्रियों के साथ निकटता की डिंग हांकने वाले कई पत्रकार हैं, लेकिन उसी पहचान का लाभ उठाकर पत्रकारों की हालत के बारे में सरकार को बताने वाले पत्रकार नहीं के बराबर हैं। पत्रकार संगठन के नाम पर अपना स्वार्थ कैसे सिद्ध किया जाए, इस ओर ज्यादातर पत्रकारों की नजर रहती है।

महज आश्वासन से क्या होगा?
कानून मंत्री रामपाल सिंह ने कहा कि पत्रकारों का सम्मान-संरक्षण जरूरी है, उनके लिए क्या अच्छा कर सकते हैं, जो जरूरत होगी उसको प्रभावी ढंग से लागू करेंगे। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने 2015-16 के आंकड़े दिए, जबकि 2017 में भी मध्यप्रदेश में मंदसौर में कमलेश जैन की हत्या के साथ पत्रकारों पर हमले के आधा दर्जन से ज्यादा मामले दर्ज हुए। लेकिन इन सबके बावजूद हमले रोकने के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता कहीं नजर नहीं आती।

शांति मार्च के बाद क्या?
कई बड़े शहरों में पत्रकारों पर बढ़ते जानलेवा हमले हत्या, हिंसा और उन्हें मिल रही धमकियों के विरोध में शांति मार्च निकाला जाता रहा है, लेकिन सवाल यह है कि इन शांति मार्च के बाद क्या होता है। गौरतलब है कि दिल्ली के अलावा गोरखपुर, चेन्नई और अरुणाचल प्रदेश में भी पत्रकारों ने शांति मार्च निकाला है। इस सिलसिले में जगह जगह संगोष्ठियों के साथ मानवश्रृंखला बनाकर विरोध दर्शाया गया। लेकिन इस तरह के मार्च से भी सरकार जागती नहीं है।

सिलसिला रुकना चाहिए
कन्नड़ भाषा की पत्रकार गौरी लंकेश की बेंगलुरु में हत्या के बाद अब त्रिपुरा में शांतनु भौमिक की रिपोर्टिंग के दौरान अपहरण कर हत्या कर दी गई। इसके बाद आज केजे सिंह की हत्या खबर आई है। केजे सिंह अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व समाचार संपादक थे। वॉचडॉग हूट ने एक संकलित रिपोर्ट में कहा कि सांसदों और कानून लागू करने वालों द्वारा पत्रकारों पर 16 महीनों में 54 बार हमलों की सूचना मिली थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तविक आंकड़ा बहुत अधिक हो सकता है क्योंकि एक मंत्री ने संसद में बताया कि 2014-15 के बीच पत्रकारों पर 142 हमले हुए। रिपोर्ट के मुताबिक इन हमलों में से प्रत्येक के पीछे स्पष्ट कहानियां प्रकट होती हैं। पंजाब के मोहाली में वरिष्ठ पत्रकार केजे सिंह और उनकी मां गुरुचरन कौर संदिग्ध अवस्था में मृत पाई गई। सवाल यह उठता है कि हमलों का यह सिलसिला कब रुकेगा?

हत्याकांड के आरोपियों ने कराया हमला!
गौरतलब है कि एक निजी टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार सुधीर शुक्ला पर बुधवार सुबह कुछ आसामजिक तत्वों ने हमला किया। इस हमले में उन्हें बहुत गंभीर चोट लगी है। यह हमला पत्रकार शुक्ला पर मीरा रोड में ट्रेन से यात्रा करने के दौरान किया गया। आशंका है कि उषाबाई कांबले और उनकी डेढ़ वर्ष की नतिनी राशि के दोहरे हत्याकांड के आरोपियों के परिवार के लोगों का इस हमले में हाथ है।

घटना के दिन मुख्य आरोपी के माता-पिता भी नागपुर में ही थे, ऐसी चर्चा है। इस कारण पुलिस ने मंगलवार को आरोपियों के परिजन से खूब पूछताछ की। इसी तरह उषाबाई का मोबाइल भी खोजने की कोशिश की गई। जिस हथियार से गला काटा गया, वह हथियार अभी तक पुलिस को नहीं मिल सका है। पुलिस का कहना है कि आरोपी उस हथियार के बारे में कोई जानकारी नहीं दे रहा है।

मध्य प्रदेश पहले नंबर पर
देश में मध्य प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं।  यह जानकारी खुद केंद्र सरकार ने दी है। बलात्कार, बुजुर्गों के साथ अपराध जैसे कई मामलों में पहले पायदान के आसपास खड़ा मध्यप्रदेश, पत्रकारों पर हमलों के मामले में भी नंबर वन है, यह जानकारी खुद केंद्र सरकार ने लोकसभा में दी है।

पिछले दो साल में हमले

43   - मध्यप्रदेश

07 - आंध्र प्रदेश

05 - राजस्थान

05 - त्रिपुरा

04 - उत्तर प्रदेश

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Unmesh Gujarathi

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(साभार: दबंग दुनिया)

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Thursday 22 February 2018

मजीठिया: दिल्ली हाईकोर्ट ने स्टे हटाया, HT को 4 हफ्ते के भीतर dlc में अपना पक्ष रखने का आदेश

टर्मिनेट कर्मचारी पुरुषोेत्तम सिंह के मामले में शोभना भरतिया को लगा तगड़ा झटका
एडवोकेट उमेश शर्मा ने लगातार दो दिन की थी जोरदार बहस



जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतिया को एक बार फिर मंगलवार १९ /२/२०१८ को दिल्ली उच्च न्यायालय में मुंह की खानी पड़ी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने मजीठिया वेजबोर्ड मामले से जुड़े  वसूली मामले में लगाई गई रोक को  हटा लिया। इससे हिन्दुस्तान प्रबंधन से मजीठिया वेजबोर्ड मामले में लगाए गए १७ (१) के मामले में वसूली का रास्ता साफ हो गया है। १७ (१) का यह क्लेम हिन्दुस्तान टाइम्स दिल्ली से जबरन टर्मिनेट किए गए डिप्टी मैनेजर पुरुषोत्तम सिंह ने लगाया था जिसपर कंपनी को बकाया देने के लिए नोटिस गई तो हिन्दुस्तान प्रबंधन ने उस नोटिस पर स्टे ले लिया। लगभग तीन साल तक चली लंबी लड़ाई के बाद आखिर दिल्ली हाईकोर्ट ने नोटिस पर लगी रोक को हटा लिया है। पुरुषोत्तम सिंह का मामला सुप्रीमकोर्ट के जाने माने एडवोकेट उमेश शर्मा ने रखा। उन्होने लगातार दो दिन तक बहस की और यह रोक हटवा ली।

बताते हैं कि हिन्दुस्तान टाइम्स दिल्ली में डिप्टी मैनेजर पद पर कार्यरत पुरुषोत्तम सिंह को वर्ष २०१५ में कंपनी ने टर्मिनेट कर दिया। उसके बाद उन्होने  एडवोकेट उमेश शर्मा से मिलकर अपने टर्मिनेशन के खिलाफ एक केस लगवाया और उसके बाद पुरुषोत्तम सिंह ने २०१५ में ही दिल्ली सेंट्रल के डिप्टी लेबर कमिश्नर लल्लन सिंह के यहां १७(१)का केस लगाया जिसपर पदाधिकारी ने २१ लाख की रिकवरी का नोटिस  भेजा,  उसके बाद कंपनी  दिल्ली हाईकोर्ट गई और वहां दिल्ली हाईकोर्ट की जज सुनीता गुप्ता ने इस नोटिस पर एकतरफा कारवाई करते हुए रोक लगा दी। इस मामले में पुरुषोत्तम सिंह ने देश भर के मीडियाकर्मियों की तरफ से माननीय सुप्रीमकोर्ट में लड़ाई लड़ रहे एडवोकेट उमेश शर्मा से अपना पक्ष रखने  की पेशकश की,  लगभग तीन साल तक चले इस केस में १९ फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में उमेश शर्मा ने पुरुषोेत्तम सिंह का पक्ष जोरदार तरीके से रखा जिसके बाद न्यायाधीश विनोद गोयल के समक्ष हमेशा की तरह हिन्दुस्तान प्रबंधन ने डेट लेने का प्रयास किया मगर उमेश शर्मा ने विद्वान न्यायाधीश से निवेदन किया कि इस बहस को लगातार जारी रखा जाए। क्योकि नोटिस पर स्टे देना पूरी तरह गलत है। मजीठिया वेजबोर्ड मामले में माननीय सुप्रीमकोर्ट सबकुछ क्लीयर कर चुका है। जिसके बाद विद्वान न्यायाधीश ने सुनवाई अगले दिन भी जारी रखने का आदेश दिया। २० फरवरी को फिर दिल्ली हाईकोर्ट में बहस हुई और उसके बाद न्यायाधीश विनोद गोयल ने नोटिस पर लगी रोक हटा ली। यानि अब हिन्दुस्तान प्रबंधन के खिलाफ आरआरसी जारी होने का रास्ता साफ हो गया है। इस मामले में पुरुषोत्तम सिंह ने हिन्दुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतिया और एचआर डायरेक्टर शरद सक्सेना को पार्टी बनाया था। पुरुषोत्तम सिंह को मजीठिया वेजबोर्ड की लड़ाई लड़ रहे देश भर के मीडियाकर्मियों ने बधाई दी है।


शशिकांत सिंह

पत्रकार और आरटीआई एक्टीविस्ट
९३२२४११३३५

आर्डर का सार...

कंपनी ने  17 (1) के तहत डीएलसी की कार्यवाही को चैलेंज किया था, सुप्रीम कोर्ट के 19.06.2017 के निर्णय और विवाद होने पर 17 (2) के तहत सुनवाई के आर्डर का हवाला देते हुए। हाईकोर्ट ने कहा है कि कंपनी 4 हफ्ते में अपना पक्ष रखते हुए जवाब दाखिल करेगी। वहीं डीएलसी को कानून के अनुसार जल्द सुनवाई पूरी करने के आदेश दिए गए हैं। 

दरअसल कंपनी ने डीएलसी के उस नोटिस के आधार पर स्टे हासिल किया था, जिसमें कंपनी को अपना पक्ष और इसके समर्थन में आवश्यक कागजात पेश करने को कहा गया था। जब बचाव पक्ष के वकील ने अदालत को बताया कि यह नोटिस कंपनी को उसका पक्ष रखने को भेजा गया था, जो कि कानूनानुसार सही है, तो कोर्ट ने स्टे वापस लेते हुए ये आदेश जारी किए हैं। अच्छी बात यह है कि कंपनी को अपना जवाब दाखिल करने के लिए टाईम बाउंड कर दिया गया है । वहीं डीएलसी को भी जल्द निपटारा करने को कहा गया है। 

-रविन्द्र अग्रवाल



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Thursday 1 February 2018

मजीठिया: ‘श्री अंबिका प्रिंटर्स’ को साढ़े सैंतीस लाख चुकाने का आदेश

यह खबर महाराष्ट्र के कोल्हापुर से आ रही है... मुंबई सहित महाराष्ट्र राज्य के कई स्थानों से प्रकाशित होने वाले मराठी अखबार ‘पुण्यनगरी’ की प्रबंधन कंपनी ‘श्री अंबिका प्रिंटर्स’ के विरुद्ध भूपेश देवप्पा कुंभार नामक जिस कर्मचारी ने साढ़े सैंतीस लाख रुपए पाने का क्लेम लगाया था, स्थानीय सहायक कामगार आयुक्त अनिल द. गुरव ने उसे सही पाने के बाद उक्त कंपनी को नोटिस भेजकर श्री कुंभार को 37,53,417रुपए अविलंब देने का आदेश जारी कर दिया है!

आपको बता दें कि ‘श्री अंबिका प्रिंटर्स’ न केवल मराठी अखबारों का प्रकाशन करती है, अपितु हिंदी और कर्नाटक भाषा के भी अखबार प्रकाशित कर रही है। इसके ‘पुण्यनगरी’ अखबार में बतौर उप-संपादक कार्यरत भूपेश कुंभार (50 वर्ष) का कंपनी ने एक दिन अचानक कोल्हापुर से बेलगांव ट्रांसफर कर दिया। हालांकि ट्रांसफर की इस केस की सुनवाई अभी कोल्हापुर स्थित इंडस्ट्रियल कोर्ट में चल रही है, मगर इसी बीच कुंभार ने कंपनी से मजीठिया वेज बोर्ड के मुताबिक अपने वेतन व बकाए की मांग की तो इस बात से गुस्साए प्रबंधन ने पहले तो इनका वेतन रोक लिया, फिर दफ्तर के अंदर इनके प्रवेश पर रोक भी लगा दी! जाहिर है कि कुंभार के सामने आजीविका का घोर संकट आ खड़ा हुआ... बच्चों की पढ़ाई के लिए इन्हें अपना घर तो बेचना ही पड़ा, रोजाना के खर्चे की समस्या से निपटने की खातिर मिट्‌टी के दीये तक बेचने पड़े। भूपेश कुंभार कहते हैं- ‘मैं खुशनसीब हूं कि मुझे मंजुला (47 वर्ष) जैसी पत्नी मिली... उसने मेरा हर कदम पर भरपूर साथ दिया, साथ ही दोनों बेटों की अच्छी पढ़ाई को देखते मैंने अपना मनोबल हमेशा कायम रखा!’ यहां बताना उचित होगा कि कुंभार दंपत्ति ने बड़े बेटे दिवाकर को एमएससी के साथ बीएड् करवा दिया है, साथ ही दूसरा बेटा श्रीमय भीइस समय बीए (द्वितीय वर्ष) का छात्र है... सच तो यह है कि संघर्ष के समक्ष घुटने टेक देने वालों के लिए भूपेश कुंभार एक उदाहरण बनकर उभरे हैं!

बहरहाल, भूपेश कुंभार ने सम्मान बरकरार रखने की खातिर अपना संघर्ष जारी रखा है। भूपेश के उत्साह को देखते हुए अगर मुंबई के तमाम मजीठिया क्रांतिकारियों ने उनका साथ दिया... विशेषकर एनयूजे(महाराष्ट्र) की महासचिव शीतल करदेकर ने मुखर तरीके से भूपेश कुंभार का साथ दिया तो सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट उमेश शर्मा ने मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ मार्गदर्शन करने में भी उनकी बहुत मदद की। इसका परिणाम यह हुआ कि सहायक कामगार आयुक्त श्री गुरव ने कुंभार के दावे पर मोहर लगाते हुए जहां ‘श्री अंबिका प्रिंटर्स’ प्रबंधन को आदेश जारी कर दिया है कि वह अपने कर्मचारी कुंभार के बकाए का शीघ्र भुगतान करे, वहीं कुंभार ने प्रबंधन की भावी चालों को ध्यान में रखते हुए मुंबई पहुंच कर यहां के माननीय हाई कोर्ट में एडवोकेट एस. पी. पांडे के जरिए कैविएट भी लगवा दी है!

- मुंबई से सुनील कुकरेती की रिपोर्ट

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