Sunday 28 April 2024

मजीठिया: HC में भास्कर व पत्रिका को झटका, 20जे पर कहा...

IN THE HIGH COURT OF MADHYA PRADESH

AT JABALPUR

BEFORE 

HON'BLE SHRI JUSTICE GURPAL SINGH AHLUWALIA

ON THE 22nd OF APRIL, 2024

MISC. PETITION No. 5093 of 2022

लेबर कोर्ट के आदेश के खिलाफ लगाई गई याचिकाएं खारिज

कोर्ट ने कहा मजीठिया के अनुसार वेतन के बिना काम कराना बेगार कराने जैसा

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी मजीठिया वेजबोर्ड के बकाए भुगतान से बचने की जुगत में लगे दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका प्रबंधन को मप्र उच्च न्यायालय से जोर का झटका लगा है। कोर्ट ने होशंगाबाद की लेबर कोर्ट द्वारा कर्मचारियो को मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार बकाया राशि का भुगतान करने के आदेश के खिलाफ की गई प्रबंधन की अपील को खारिज कर दिया है। इसके साथ ही न्यायालय ने अपने आदेश में कईं महत्वपूर्ण टिप्पणियां की भी की हैं। इनसे समाचार पत्र प्रबंधन द्वारा मजीठिया वेजबोर्ड के हिसाब से बकाया राशि का भुगतान रोकने के लिए अपनाए जा रहे हथकंड़ों को भी गलत ठहराया है। इतना ही नहीं न्यायालय ने कम वेतन पर काम कराने को बेगार बताया है।


जस्टिस गुरपाल सिंह अहलूवालिया ने मामले ने सुनवाई करते हुए सिलसिलेवार समाचार पत्र प्रबंधन द्वारा उठाए गए मुद्दों का निराकरण किया और उनकी याचिकाओं को खारिज करते हुए होशंगाबाद लेबर कोर्ट के मजीठिया वेजबोर्ड के बकाए के भुगतान के आदेश का यथावत रखा है। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका प्रबंधन ने याचिका में कर्मचारी का क्लैम रेफरल से लेकर 20 जे की डिक्लेरेशन तथा इसे बाद के प्रश्न में न शामिल किए जाने से लेकर कर्मचारियों के प्रबंधकीय और सुपरवाइजरी प्रकृति के काम किए जाने को आधार बनाते हुए लेबर कोर्ट के आदेश और उसके अधीन चल रही बकाए वेतन की वसूली की प्रक्रिया को रोकने की मांग की थी।


याचिकाकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि जब 20 जे की डिक्लेरेशन को वाद के प्रश्न में शामिल नहीं किया गया था तो फिर श्रम न्यायालय ने इस पर अपनी राय कैसे दे दी? इसके साथ ही यह भी कहा कि कर्मचारी ने पहले तो 20जे पर अपने हस्ताक्षर होने से इंकार किया लेकिन जब प्रबंधन की ओर से डिक्लेरेशन को हस्ताक्षर विशेषज्ञ के पास भेजने की मांग की गई तो उसने पल्टी मारते हुए हुए स्वीकार किया कि इस पर उसी के हस्ताक्षर हैं। साथ ही प्रबंधन के वकील ने कहा कि कर्मचारी ने कहा कि 20जे पर उसके हस्ताक्षर धोखे से लिए गए हैं लेकिन उसने इसके समर्थन में कोर्ट में कोई साक्ष्य नहीं दिया। साक्ष्य अधिनियम की धारा 101, 102 के अनुसार यह साबित करने की जिम्मेदारी कर्मचारी की थी।


मैनेजमेंट को साबित करना है 20जे पर हस्ताक्षर धोखे से नहीं लिए

इस जस्टिस अहलूवालिया ने कहा कि यह बात सही है कि कर्मचारी ने 20जे की डिक्लेरेशन के बारे में अपनी प्लीडिंग में नहीं बताया और न ही श्रम न्यायालय ने इस वाद के प्रश्न में शामिल तिया था लेकिन याचिकाकर्ता ने श्रम न्यायालय में 20जे को अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि श्रम न्यायालय ने इसे वाद के प्रश्न में शामिल किया या नहीं। जहां तक याचिकाकर्ता का यह कहना कि कर्मचारी को यह साबित करना था कि 20जे पर हस्ताक्षर धोखे से लिए गए हैं। इस मामले पर जस्टिस अहलूवालिया ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 111 के हवाले से कहा कि दोनों पक्षों में से जो Active Confidance की स्थिति में हो वो ये साबित कर सकता है कि हस्ताक्षर सद्भावना से किए गए हैं। इस मामले मे नियोजक एक्टिव कांफीडेंस की स्थिति में था और वो ये साबित कर सकता था कि हस्ताक्षर धोखे से नहीं सद्भाव से कराए गए हैं।


इस आधार पर प्रबंधन ने कर्मचारी को मजीठिया वेजबोर्ड की अनुशंसाओं के बारे में बताना था और यह भी स्पष्ट करना था कि मजीठिया वेज बोर्ड के अधीन वेतन तथा उसे मिल रहे वेतन के बीच कितना अंतर है। ऐसा कुछ भी रिकॉर्ड पर नहीं है कि कर्मचारियों को मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं के बारे में जानकारी दी गई थी।


अनुचित प्रभाव से लिया 20जे ?

इसके साथ ही जस्टिस अहलूवालिया ने लाडली पार्षद जायसवाल विरुद्ध करनाल डिस्टलरी के रिपोर्टेड निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि अनुबंध अधिनियम की धारा 16 में अनुचित प्रभाव का उपयोग करके अनुबंध करने के बारे में बताया गया है। जब एक व्यक्ति दूसरे की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में होता है तो यह साबित करने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति पर होती है जो प्रभावित करने की स्थिति में होता कि वह अनुबंध अनुचित प्रभाव का उपयोग कर नहीं किया गया है। इसके चलते 20 जे की डिक्लेरेशन पर हस्ताक्षर स्वैच्छिक किए गए हैं यह साबित करने कि जिम्मेदारी याचिकाकर्ता यानी अखबार प्रबंधन की है और कोर्ट का मानना है कि याचिकाकर्ता इस मामले में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में विफल रहा है। याचिककर्ता 20 जे के डिक्लेरेशन पर कर्मचारी को श्रम न्यायालय में क्रॉस एक्जामिन कर चुका है।


जो अधिक वेतन ले सकता है वो कम पर सहमति क्यों देगा?

साथ ही जस्टिस अहलूवालिया ने कहा कि जो व्यक्ति ज्यादा वेतन प्राप्त कर सकता है वो कम वेतन पर अपनी सहमति कैसे देगा? इस मामले में जस्टिस अहलूवालिया ने मिनिमम वेज एक्ट और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का हवाला देते हुए कहा कि कर्मचारी को उचित वेतन नहीं तो कम से कम न्यूनतम वेतन प्राप्त करने का अधिकार है। उसे किसी भी तरह से सीमित नहीं किया जा सकता है। इस मामले में उन्होंने मजीठिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला भी दिया। 20जे के प्रावधान से यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि नियोक्ता एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करा लेने से मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने से बच जाएगा।


जस्टिस अहलूवालिया ने इस मामले में गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि न्यूनतम वेतन से कम या वेजबोर्ड की अनुशंसाओं से कम वेतन पर काम कराना बेगार की श्रेणी में आता है। उन्होंने इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का भी उल्लंघन है। इस अनुच्छेद के हिसाब से 20जे को संवैधानिक नहीं माना जा सकता है।


ऐसे तय होगा प्रबंधक या सुपरवाइजर

प्रबंधकीय / सुपरवाइजर के रूप में नियुक्त किए जाने के मामले पर जस्टिस अहलूवालिया ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के हवाले से कहा कि किसी भी कर्मचारी के प्रबंधक या सुपरवाइजर के रूप में नियुक्ति का प्रश्न उसके द्वारा किए जा प्रमुख कार्यों के आधार पर तय होगा। किसी को प्रबंधक या सुपरवाईजर तब माना जाएगा जबकि उसे  नियुक्ति और प्रमोशन करने के अधिकार मिले हों। चुंकि सारे दस्तावेज नियोक्ता के पास होते हैं ऐसे में सुपरवाईजर या प्रबंधकीय कार्य को सिद्ध करने का दायित्व भी उसी पर है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के अंतर्गत कि जिस व्यक्ति की अभिरक्षा में प्रमाण है यदि वो उसे प्रस्तुत नहीं करता है तो कोर्ट को यह मानने का अधिकार है यदि वे प्रमाण प्रस्तुत किए जाते तो वो उसी के खिलाफ होते।


इसके अलावा समाचार पत्र प्रबंधन ने हर यूनिट के टर्नओवर के आधार पर संस्थान की श्रेणी तय किए जाने की मांग की इसके अलावा सी फॉर्म जमा करने के पहले 15 दिन का नोटिस न दिए जाने तथा डिप्टी लेबर कमिश्नर के मजीठिया के मामले लेबर कोर्ट ट्रांसफर करने के अधिकार पर भी सवाल उठाए गए जिन्हें जस्टिस अहलूवालिया ने खारिज कर दिया।

Sunday 14 April 2024

मजीठिया: HC में इंडियन एक्सप्रेस की करारी हार, नजीर बनेगा फैसला

 

A.F.R.

Neutral Citation No. 2024:AHC:63949

Reserved on 28.02.2024

Delivered on 12.04.2024

Court No. - 51

Case :- WRIT - C No. - 292 of 2024

Petitioner :- The Indian Express Pvt. Ltd.

Respondent :- Union of India

साथियों, इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़ी खबर आई है। उच्च न्यायालय ने नोएडा लेबर कोर्ट के आदेश के खिलाफ लगाई इंडियन एक्सप्रेस की याचिकाओं को खारिज कर दिया है। ये आदेश देशभर में मजीठिया का केस लड़ रहे साथियों को कानूनी रूप से काफी मददगार साबित होगा। आप सभी इस फैसले को अपने एआर और वकीलों को उपलब्ध करवा दीजिए।

इंडियन एक्सप्रेस के साथियों ने कोरोना काल में 11 महीने की वेतन कटौती के खिलाफ dlc नोएडा के यहां केस लगाया था। जिसे dlc ने लेबर कोर्ट को रेफर कर दिया था। वर्करों का तर्क था कि कोरोना काल में जब अखबार बंद नहीं हुआ और छपाई का काम सुचारू रूप से चलता रहा और वर्कर अपनी ड्यूटी प्रबंधन के दिशानिर्देशों अनुसार पूरी करते रहे तो उनके वेतन में कटौती क्यों की गई। लेबर कोर्ट में कर्मचारियों की तरफ से उनके एआर राजुल गर्ग ने तर्क रखे। लेबर कोर्ट ने अपना फैसला वर्करों के पक्ष में सुनाया। जिसके बाद प्रबंधन ने हाईकोर्ट का रुख किया।

प्रबंधन ने HC में लगाई अपनी याचिकाओं में कई मुद्दे उठाए थे। जो इस प्रकार है...

1.  कंपनी का तर्क था कि उक्त वाद वर्करों द्वारा व्यक्तिगत रूप से लगाए गए हैं, जबकि औद्यौगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 2a के अनुसार व्यक्तिगत रूप से केवल डिस्चार्ज, डिसमिसल व टर्मिनेशन के वाद ही लगाए जा सकते हैं, इसके अलावा अन्य सभी तरह के वाद यूनियन के माध्यम से ही दायर किए जा सकते हैं। हाईकोर्ट ने इस तर्क को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट (WJA) एक विशेष एक्ट है। इसमें सेक्शन 17 में बकाया वेतन या अन्य धनराशि की वसूली का विशेष प्रावधान दिया गया है।

इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि wja में दिए गए फॉर्म सी को कोई भी वर्कर व्यक्तिगत रूप से भर कर अपना क्लेम प्रस्तुत कर सकता है और इसका प्रावधान खुद फार्म सी में ही है।

2. कंपनी का दूसरा तर्क था कि लेबर कोर्ट ने ऑर्डर को प्रकाशित करने के लिए राज्य सरकार को नहीं भेजा। जिस पर अदालत ने इस तर्क को भी खारिज करते हुए कहा कि wja के sec 17(3) में कहीं भी अवॉर्ड नहीं लिखा है। 'decision' शब्द का उल्लेख है और 'अवार्ड' शब्द का उल्लेख पूरे WJA में कहीं नहीं है। इसलिए लेबर कोर्ट के डिसीजन को अवार्ड मानकर उसे राज्य सरकार को प्रकाशित कराने की आवश्यकता नहीं है।

3. कंपनी का तीसरा तर्क था कि dlc को रेफरेन्स को सीधे लेबर कोर्ट को भेजने का अधिकार नहीं था। इसे राज्य सरकार को भेजा जाना चाहिए था, उसके बाद राज्य सरकार इसे लेबर कोर्ट को रेफर करती। उच्च न्यायालय ने इस तर्क को भी पुराने फैसलों के आधार पर खारिज कर दिया और कहा कि sec 17 सिंगल स्कीम है, जिसे अलग करके नहीं पढ़ा जा सकता। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना दिनांक 12-11-2014 के माध्यम से लेबर अथारिटिज को धारा 17 (WJA) में दी गई अपनी शक्तियां प्रतिनिधित्व (delegate) की गई है।

4. कंपनी का एक तर्क ये भी था कि कोरोना काल में केंद्र सरकार की अधिसूचना दिनांक 29-03-2020 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने फाईक्स पैक्स (प्रा.) लि. के आदेश में बल ना देने को कहा और प्रबंधन व कर्मचारियों के बीच वेतन कटौती को लेकर आपसी सहमति बनाते हुए समझौता करने के लिए जोर दिया।

इस तर्क को भी उच्च न्यायालय ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि इस केस में ना तो कंपनी पार्टी थी और ना ही केस के तथ्य प्रतिवादी कंपनी पर लागू होते हैं।


उच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील मनमोहन सिंह ने वर्करों की तरफ से तर्क रखे। इंडियन एक्सप्रेस की कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष नंदकिशोर पाठक जोकि शुरू से इस केस का नेतृत्व कर रहे हैं ने इस फैसले पर प्रसन्नता जताते हुए कहा कि ये फैसला वर्करों के लिए मील का पत्थर साबित होगा।