Thursday 30 May 2019

हिन्दी अखबार सूचना मात्र का कागज बने


  • हिन्दी पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा बदला
  • कारपोरेट जर्नलिज्म और लैंग्वेज प्रेस की उपेक्षा से चुनौतियां बढ़ी
  • हिन्दी पत्रकारिता दिवस की शुभकामना



हिन्दी पत्रकारिता के 193 वर्ष पुराने गौरवशाली इतिहास पर अब खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। कभी अंग्रेजों की नाक में दम करने वाली हिन्दी पत्रकारिता अब सत्ता की चाटुकार बन गई है। हाल के कुछ वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता का बहुत तेजी से पतन हुआ है। हालांकि हिन्दी पत्रकारिता का कार्य क्षेत्र बढ़ गया है। हिन्दी के पाठकों और दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। यही कारण है कि अंग्रेजी के चैनलों में हिंग्लिश का चलन बढ़ गया है।

रिपब्लिक के अनरब गोस्वामी को मतगणना के दिन लगभग भागते हुए हिंग्लिश यानी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी बोलते सुना गया। यह हिन्दी की जीत है लेकिन हिन्दी पत्रकारिता की नहीं। 30 मई 1826 को पंडित जुगलकिशोर शुक्ला के उदंत मार्तंद भले ही छह महीने ही चला हो लेकिन उसने अंग्रेजों की चूलें हिला दी थी।

स्वाधीनता से पहले लैंग्वेज प्रेस को लेकर अंग्रेजों के बहुत दबाव और प्रताड़ना थी। स्वाधीनता मिलने के बाद नौंवे दशक तक पत्रकारिता में जनसरोकार रहे लेकिन उदारवाद के बाद अखबारों में जनपक्षधरता और जनसरोकार गायब होने शुरू हो गए। कारपोरेट जर्नलिज्म में पत्रकारों के खादी के कुर्ते और थैले ने बैग और सूट का आकार ले लिया। पहले मिशनरी पत्रकारिता थी अब फायदे की पत्रकारिता हो गई।

टाइम्स ग्रुप में मुझे चार दिन तक यही सिखाया गया कि पत्रकारिता का उद्देश्य प्राफिट है। कारपोरेट जर्नलिज्म के बाद पत्रकारों के वेतन और भत्ते तो बढ़ गए पर चुनौतियां भी बढ़ी हैं। अब मालिक और सूचना बेचने की बात है। समाचार अब साबुन की टिकिया हो गई है कि कौन सा चैनल और कौन सा अखबार उसे कैसे बेचता है। जनसरोकार से जुड़े मुद्दे पर हाशिये पर हो गए हैं और पत्रकारों की जमात हाशिए पर हैं। हिन्दी के अखबारों में संपादक का नाम किसी कोने में दीन-हीन सा नजर आता है। तलाशना ही मुश्किल होता जा रहा है। ब्रांड और मार्केटिंग का प्रभाव बढ़ गया है। कारपोरेट जर्नलिज्म के कारण पत्रकारों के वेतन व रहन-सहन तो सुधर गया पर आंतरिक स्थिति खराब हो गई है।

आलम यह है कि प्रिंट मीडिया के अधिकांश मीडिया घरानों ने पत्रकारों का स्वाभिमान और गर्व दफन कर दिया है। उदाहरण देश की आजादी में सबसे प्रमुख भूमिका में रहे हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप से लिया जा सकता है। हिन्दी हिन्दुस्तान के सभी पत्रकारों को आउटसोर्सिंग से भर्ती किया जाता है। उन्हें दिखावे के लिए पद है लेकिन कागजों में वो साबित नहीं कर सकते कि वे किस पद पर हैं। यही आलम अमर उजाला और दैनिक जागरण में है। जागरण प्रबंधन तो पत्रकारों से नौकरी देने के समय ही प्लेन पेपर पर साइन करवा लेता है। अमर उजाला भी आउटसोर्सिंग कर रहा है। ऐसे में पत्रकारों के सामने आस्तित्व का सवाल खड़ा है। बड़े घरानों के समाचार पत्रों के मालिकों को जनसरोकारों से कोई मतलब नहीं है उन्हें कमाई दिखती है और पत्रकारों का शोषण आम बात है। आज भी प्रिंट मीडिया का शेयर 45 प्रतिशत है और उसके पाठक 23 प्रतिशत की दर से बढ़े हैं, लेकिन पत्रकारिता का पतन हो रहा है। छोटे पेपर और मैग्जीन इसलिए नहीं चल पा रहे हैं क्योंकि सरकार उनको महत्व नहीं देती है। विज्ञापन न मिलने पर उनकी स्थिति जंगल में मोर नाचा किसने देखा की हो गई है। जो पत्रकार सामाजिक सरोकारों की बात करते हैं अव्वल पहले तो उनकी खबर छपती नहीं, दूसरे उन पर जान लेवा हमले होने लगते हैं। वर्ष 2016 में देश में सर्वाधिक 62 पत्रकारों की हत्या हुई और आज तक यह आंकड़ा 100 से पार चला गया है। यह भी ठीक है कि पीत पत्रकारिता बढ़ी है लेकिन उसके लिए भी भ्रष्टाचार दोषी है। कुल मिलाकर हिन्दी पत्रकारिता को बचाए रखने का संकट है और इससे बाहर निकलने के लिए नए दर्शन और नीति की जरूरत है। वरना हिन्दी पत्रकारिता सूचना का कागज या बोल बनकर रह जाएगी।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से]

Tuesday 7 May 2019

बड़ी खबर: गुजरात के 163 मजीठिया क्रांतिकारियों को मिली शानदार जीत

ब्‍याज के साथ एक महीने के भीतर बकाया देने का आदेश 

गुजरात से एक बड़ी खबर आ रही है। यहां दैनिक भास्‍कर में काम करने वाले 163 कर्मचारियों की लेबर कोर्ट से शानदार जीत हुई है। इन 163 कर्मचारियों ने जस्टिस मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार अपने बकाये का क्लेम गुजरात के लेबरकोर्ट में कर रखा था और सुनवाई के बाद लेबर कोर्ट ने इन सभी 163 कर्मचारियों के दावे को सही पाया और डीबी कार्प कंपनी को निर्देश दिया गया कि एक महीने के भीतर 8 प्रतिशत ब्‍याज सहित कर्मचारियों की बकाया राशि उन्हें दी जाए।

गुजरात के इन कर्मचारियों का मुकदमा लेबर कोर्ट में एडवोकेट प्रभाकर उपाध्याय, प्रफुल पटेल, आकाश मोदी और अन्य ने दायर किया था। जबकि कर्मचारियों के लीडर थे ओनिल गामडिया। ये कर्मचारी हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक गए। इन कर्मचारियों ने सबसे पहले कामगार आयुक्त के पास अपना क्लेम लगाया और कर्मचारियों के पक्ष में रिकवरी सार्टिफिकेट जारी हुआ। इसी बीच कंपनी हाईकोर्ट यह कहते हुए चली गई कि मामला विवादित था इसलिए रिकवरी सार्टिफिकेट जारी करने का कामगार आयुक्त को अधिकार नहीं है। कंपनी के पक्ष में  फैसला आया।

कर्मचारियों ने एक बार फिर से हाईकोर्ट में एलपीए लगाया जहां हाईकोर्ट के डबल बेंच ने इस मामले को लेबर कोर्ट में भेज दिया और स्पष्ट निर्देश दिया कि माननीय सुप्रीमकोर्ट के निर्देशानुसार 6 माह के अंदर इस पूरे मामले की सुनवाई की जाए। जहां माननीय न्यायाधीश परवेज अहमद मालवीय ने इस मामले को गंभीरता से सुना और कर्मचारियों के दावे को सही पाया और कर्मचारियों के पक्ष में फैसला आया।

अपनी इस शानदार जीत पर खुशी जताते हुए कर्मचारियों ने इस जीत के लिए भड़ास फार मीडिया और उसके मालिक यशवंत सिंह सहित मजीठिया क्रांतिकारी शशिकांत सिंह, धर्मेंद्र प्रताप सिंह, रविंद्र अग्रवाल, सुधीर जगदाले और हरिओम शिवहरे तथा सभी मजीठिया क्रांतिकारियों का धन्यवाद दिया है। फिलहाल इस फैसले से देशभर के मजीठिया क्रांतिकारियों में खुशी की लहर है।

शशिकांत सिंह 
पत्रकार और मजीठिया क्रांतिकारी
९३२२४११३३५


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Friday 3 May 2019

विश्व प्रेस दिवस: अब प्रेस की स्वतंत्रता की बात बेमानी




  • कारपोरेट जर्नलिज्म ने सब चौपट किया
  • पत्रकारिता में अब शोषक बनाम शोषित 
  • 2016 से अब तक देश में 80 से ज्यादा पत्रकारों की हत्या
  • मीडिया के ग्लैमर की दुनिया का भयावह सच


आजकल सोशल मीडिया में एक नया शब्द चल रहा हैं गोदी मीडिया और बिकाऊ मीडिया यानी कि कुछ भी लिखवा लो, दिखवा लो। मीडिया सीधे तौर पर दो भागों में बंटा नजर आता है एक वो मीडिया है जो सीधे तौर पर बिका हुआ नजर आता है और दूसरा वो है जो परोक्ष तौर पर बिका है। यानी बिक तो सभी गए, अंतर थोड़ा यह है कि एक मीडिया के कपड़े पूरी तरह से उतर गए और दूसरा थोड़ा अपना शरीर ढांपने में लगा है। दरअसल, अभिव्यक्ति की जो आजादी मीडिया के पास थी, कारपोरेट जर्नलिज्म ने उसे बर्बाद कर दिया। कारपोरेट जर्नलिज्म को मैं इस तरह से परिभाषित करना चाहता हूं सूट-टाई पहने अभिताभ बच्चन के मुंबई स्थित घर के आगे खड़ा चौकीदार। फर्क सिर्फ इतना है कि अमिताभ अपने चौकीदार को अच्छा-खासा वेतन देते होंगे, लेकिन मीडिया में अब वेतन के भी लाले हैं और सम्मान के भी। जो तथाकथित अच्छे चैनल या अखबार हैं वो अपने लाभ के मुकाबले पत्रकारों को न तो उचित वेतन देते हैं और न ही सुरक्षा। हां, पत्रकारों की एक जमात ऐसी हो गई है कि जिन्हें दलाली करने पर अच्छा वेतन और भत्ता दिया जाता है। कारपोरेट जर्नलिज्म ने पत्रकारों को दलाल बना दिया। नब्बे के दशक के बाद पीत पत्रकारिता का रूप उजागर हुआ। पीत पत्रकारिता से उन पत्रकारों ने धन्ना सेठ बनने की ठान ली है जो किसी कारण से मीडिया घरानों के दलाल नहीं बन सके। आज अधिकांश अखबारों में संपादक दलाली ही कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत उन पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है तो इस धारा के विपरीत जा रहे हैं, यानी बात नहीं मानी तो मारा जाएगा। मसलन जैसे गौरी लंकेश। गौरी लंकेश की हत्या की साजिश पांच साल से रची जा रही थी। पिछले वर्ष गुजरात के एक नामी नेता के बेटे ने जयहिंद अखबार के ब्यूरो चीफ की उसके आफिस में घुसकर हत्या कर दी, क्योंकि वह उसके कारनामों को अखबार में लिख रहा था।

झारखंड के चंदन तिवारी की हत्या इसलिए हो गई कि वह नक्सलियों के खिलाफ लिख रहा था। दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युत्यानंद साहू को अपनी जान नक्सली हमले में गंवानी पड़ी, क्योंकि वह नक्सलियों के बारे में दिखाने की कोशिश कर रहा था। वर्ष 2016-17 के दौरान देश में 62 पत्रकारों की हत्या कर दी गई लेकिन सब पत्रकार चुप हैं। आज आप किसी भी पत्रकार को चुटकी बजाते ही नौकरी से हटवा सकते हो, बस एक कोर्ट नोटिस थमा दो। मानहानि का केस कर दो। प्रख्यात पत्रकार करण थापर अब आपको किसी मीडिया में नहीं दिखेंगे, क्योंकि उन्हें मोदी जी पसंद नहीं करते। यदि भाजपा फिर केंद्र में आ गई तो रवीश कुमार की एनडीटीवी से विदाई तय है। मीडिया संगठन भी दलाली के केंद्र बन गए हैं। कोई किसी की आवाज नहीं उठाता।

मजीठिया वेजबोर्ड किसी भी अखबार ने लागू नहीं किया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में स्पष्ट आदेश दिए हैं। जागरण और सहारा ने पत्रकारों को मानदेय के आधार पर नौकरी देनी शुरू कर दी है तो दैनिक हिन्दुस्तान ने तो सभी पद छीन कर पत्रकारों को नंगा कर दिया है। उन्हें किसी कंपनी का एंजेंट सा बना दिया गया है। पद छिन जाने से हिन्दुस्तान के पत्रकार कितने अपमानित हुए होंगे, लेकिन सब चुप हैं। अमर उजाला ने सुरक्षा गार्ड की कंपनी के नाम से पत्रकारों को संस्थान में भर्ती किया है ताकि मजीठिया का लाभ न देना पड़ें। पर सब चुप हैं, यहां अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल नहीं बल्कि सवाल पेट का है। दुनिया को मीडिया ग्लैमर दिखता है लेकिन यहां सिर्फ अंधकार ही अंधकार है, जो इस कुएं में गिरा उसकी जिंदगी तबाह। काम के घंटे तय नहीं, असीमित शोषण और वेतन छटांक भर।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से]

Wednesday 1 May 2019

परिवर्तनों के लिए तैयार रहे मीडिया, श्रमिकों की गुणवत्ता बढ़ाने पर भी काम हो: हृदयनारायण दीक्षित




  • आईएफडब्लूजे ने मनाया अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस, भारी भीड़ जुटी, श्रम मंत्री को ज्ञापन सौंपा
  • नहीं मिल रहा पत्रकारों को मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों के अनुरूप वेतन



लखनऊ। समाज में परिवर्तन के साथ ही पत्रकारिता में भी परिवर्तन होंगे और इनका स्वागत किया जाना चाहिए। परिवर्तनों को हमेशा खराब ही मानने की प्रवृत्ति से बचना होगा। अक्सर परिवर्तन सार्थक भी होते हैं।विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित ने अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस के मौके पर एक मई को इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट (आईएफडब्लूजे) व यूपी वर्किंग जर्नलिस्‍ट यूनियन (यूपीडब्लूजेयू) की ओर से राजधानी लखनऊ के कैफी आजमी सभागार में आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि समाज के अन्य क्षेत्रों की ही तरह पत्रकारिता के सामने चुनौतियां हैं और हमें चुनौतियों के बीच ही अपना काम करना है। उन्होंने कहा कि श्रमिक संगठनों का काम श्रमिक की जीवनदशा सुधारने, उन्हें बेहतर काम करने की परिस्थितियां दिलाने के साथ उनकी गुणवत्ता में सुधार लाना भी है। दीक्षित ने कहा कि श्रमिकों की मेधा का विकास करते रहना और उनकी कार्य कुशलता को बढ़ाना भी श्रमिक संगठनों का दायित्व है।



श्रमिक दिवस के मौके पर आईएफडब्लूजे प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हेमंत तिवारी और यूपीडब्लूजे अध्यक्ष भास्कर दुबे के नेतृत्व में प्रदेश के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को पत्रकारों की समस्याओं से संबंधित ज्ञापन भी सौंपा।



कार्यक्रम में अपने संबोधन में विधानसभा अध्यक्ष ने कहा कि सच्ची पत्रकारिता अपने पेशे से प्यार, प्रीत और प्रामणिक होने का भी नाम है और यह एक जुनून भी है। उन्होंने कहा कि पत्रकार लोकमत की दिशा को प्रभावित करने का काम करते हैं। आईएफडब्लूजे के इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने विशिष्ट अतिथि के तौर पर पधारे महाराष्ट्र सरकार में दर्जा प्राप्त मंत्री अमरजीत मिश्रा ने कहा कि समाज के प्रति विषम परिस्थितियों में अपना दायित्व निभा रहे पत्रकारों के प्रति समाज का भी कर्तव्य बनता है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों को बेहतर काम करने के लिए बेहतर वेतन व काम करने का वातावरण मिलना ही चाहिए। विशिष्ट अतिथि के रुप में कार्यक्रम में पहुंचे गुजरात में अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ के स्टेट हेड रहे वरिष्ठ पत्रकार वसंत रावत ने कहा कि नए समय में नए चुनौतियों को पत्रकारों को स्वीकारना होगा और तकनीकी दक्षता से साथ काम करना सीखना होगा। उन्होंने कहा कि पत्रकार जोखिम लेने से न बचें और सत्ता प्रतिष्ठानों के आगे न झुकें।



आईएफडब्लूजे उपाध्यक्ष हेमंत तिवारी ने कहा कि पत्रकार सुरक्षा कानून को लागू कराने के लिए केंद्र में बनने वाली नयी सरकार के सामने संगठन अपना पक्ष पूरी मजबूती के साथ रखेगा और इसमें सफलता हासिल करेगा। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य बीमा, पेंशन जैसी कई पत्रकारों की कल्याण की योजनाओं पर सरकार से बात की जा रही है और प्रदेश की सरकार जल्दी ही इस पर फैसला ले। संगठन की रिपोर्ट पेश करते हुए यूपीडब्लूजेयू के महामंत्री मो. कामरान ने कहा कि तमाम लड़ाई लड़ने के बाद अभी पत्रकारों को मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों के मुताबिक वेतन नहीं मिल पा रहा है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में साफ आदेश दे रखा है।



पत्रकारों की भारी भीड़ के बीच आयोजित इस कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार, प्रमोद गोस्वामी, वकार रिजवी, रजा रिजवी, दयानंद पांडे, प्रभात त्रिपाठी, अजय वर्मा, नवेद शिकोह, राजेश महेश्वरी आदि ने अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन आईएफडब्लूजे राष्ट्रीय सचिव सिद्धार्थ कलहंस व लखनऊ श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के अध्यक्ष उत्कर्ष सिन्हा ने किया। धन्यवाद प्रस्ताव भास्कर दुबे ने रखा। इस मौके पर आईएफडब्लूजे के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य व मीडिया मंच के संपादक टीबी सिंह की पत्रिका के नए अंक का विमोचन किया गया।

कार्यक्रम में जिला मान्यता प्राप्त पत्रकार संघ के अब्दूल वहीद, मो. जुबेर, आरिफ, मीडिया फोटोग्राफर क्लब के एसएम पारी, पत्रकार अशोक तिवारी, अमरनाथ मिश्रा, सुरेंद्र अग्निहोत्री, अशोक यादव, नजम हसन, यूपीडब्लूजेयू के स्थाई सचिव राजेश मिश्रा, संगठन सचिव डा अजय त्रिवेदी, लखनऊ श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महामंत्री शाश्वत तिवारी, वरुण मिश्रा, अरविंद मिश्रा, नसीमुल्लाह, पीपी सिंह, आसिफ जाफरी, शेखर पंडित, आशीष अवस्थी, आईएफडब्लूजे के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य द्विवेदी, रोहित महेश्वरी आदि मौजूद थे।

इससे पहले बुधवार सुबह श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को सौंपे गए ज्ञापन में मांग की गई कि उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय सहित प्रदेश के सभी, जिलों, तहसीलों, कस्बों व दूर-दराज काम करने वाले पत्रकारों को निशुल्क चिकित्सा सुविधा प्रदान की जाए। सभी पत्रकारों को इस सुविधा का लाभ देने के लिए सरकार हेल्थ कार्ड जारी करे। ज्ञापन में सभी पत्रकारों (मान्यता व गैर मान्यता प्राप्त) को एक यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज योजना के दायरे में लाने के साथ ही सभी पत्रकारों के लिए निशुल्क दुर्घटना बीमा योजना शुरु करने की मांग की गई। इसके अलावा आईएफडब्लूजे ने समूचे प्रदेश में 60 वर्ष की आयु को पार चुके पत्रकारों के लिए पेंशन योजना शुरु करने की मांग उठाते हुए कहा कि कई राज्यों में यह योजना पहले से ही लागू है।

ज्ञापन में पत्रकारों के लिए प्रदेश मुख्यालय सहित सभी जिलों में आवासीय कालोनियां बना कर उन्हें सस्ती दरों पर भवन या भूखंड आवंटित किए जाने की भी मांग की गई। आईएफडब्लूजे ने मांग की है उत्तर प्रदेश में पत्रकार सुरक्षा कानून जल्द से जल्द बनाया जाए और पत्रकारों पर हमले करने वालों, धमकी देने वालों पर गंभीर धाराओं में आपराधिक मुकदमे दर्ज करा अविलंब गिरफ्तारी की जाए। ज्ञापन में पत्रकारों को सरकारी आवास आवंटन किए जाने को लेकर तैयार की गई नियमावली की विसंगतियों को दूर करने की मांग के साथ ही ज्यादा से ज्यादा पत्रकारों को सरकारी आवास दिए जाने की मांग की गई। प्रदेश सरकार से मांग की गई कि डेस्क कर्मियों की मान्यता पूर्व की भांति फिर से शुरु की जाए।

श्रम मंत्री से बातचीत के दौरान आईएफडब्लूजे उपाध्यक्ष हेमंत तिवारी ने कहा कि पत्रकारों के वेतन के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के संदर्भ में केंद्र सरकार सहित सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुकी है। उक्त आदेश का अनुपालन सुनिश्चित कराया जाए।

ज्ञापन सौंपने वालों में हेमंत तिवारी के साथ भास्कर दुबे, मो. कामरान, संजय दिवेदी, नवेद शिकोह शामिल थे।

Large number of newspapers have failed to implement Majithia Awards

New Delhi, May 1. Indian Federation of Working Journalists (IFWJ) has asked the working class particularly the media employees to observe the May Day as the day of reckoning and self-introspection. This day reminds us of the saga of struggles and achievements of workers in the wake of their long drawn and bloodstained fight against exploitation.

 In a message to the journalist and non-journalist employees of the media the IFWJ President B.V. Mallikarjunaiah and its other office- bearers have said that the struggle of the media employees has to be scaled up and intensified because their jobs and facilities even under the existing laws are in total jeopardy. Frankly speaking, the conditions of the media persons are so pathetic that all the laws made for them appear to be redundant and of no use. Predominantly a large number of newspapers have failed to implement Majithia Awards, do not give any proper employment letter, there are no proper service conditions applicable on the employees and if they raise their voice for the compliance of the labour laws, they are dismissed, discharged or terminated from their jobs.

The IFWJ has said all labour laws including the Working Journalists Act have become meaningless especially after the robotization of the industry. Employees hardly get any immediate relief. The fight between the employers and employees has always been uneven but, at present, it has become absolutely uneven and ultimately the employees and their family members have to bear the brunt. It is regrettable that the Governments of the day do not come forward to help the employees but, on the other hand, the employers get support from them and their machinery. Corrupt officials of the labour departments openly and shamelessly support the employers

The condition of media persons in electronic or web portals is more pitiable than even the print medium because no laws apply to them. It is only the whims and fancies and the sweet wills of the owners and proprietors which is applicable for the employees of the electronic and digital media. The employees do not have any protection of any law which can give them any relief.

The IFWJ has regretted that despite all tall talks, the media employees have been left in the lurch. Recently it has been found that many media persons have taken recourse to suicides because they have been deprived of all wherewithal’s. The education of their children has been cut short. Some of the media persons have been trapped in deep debts and many decease. Sadly, all pleas and requests to the governments have fallen on their deaf ears.  So much so, that even the so-called top trade unions of the country have failed to come up to the expectations of the workers.

It must be mentioned here that for a quite long time the IFWJ has been asking the many central trade-unions to come together and wage a concerted  fight against the exploitative labour laws, which have been further accentuated by the retrogressive judgements of the Supreme Court, more particularly by the constitution bench judgement of Uma Devi vs Secretary, State of Karnataka, which has rendered lakhs of employees jobless throughout the country.

Therefore, the May-Day is, in fact, not a day of celebration for the workers but a day of resolution for chalking out the strategies for struggles to get the rights of the workers a place of pride.

Parmanand Pandey
Secretary-General, IFWJ