Friday 3 May 2019

विश्व प्रेस दिवस: अब प्रेस की स्वतंत्रता की बात बेमानी




  • कारपोरेट जर्नलिज्म ने सब चौपट किया
  • पत्रकारिता में अब शोषक बनाम शोषित 
  • 2016 से अब तक देश में 80 से ज्यादा पत्रकारों की हत्या
  • मीडिया के ग्लैमर की दुनिया का भयावह सच


आजकल सोशल मीडिया में एक नया शब्द चल रहा हैं गोदी मीडिया और बिकाऊ मीडिया यानी कि कुछ भी लिखवा लो, दिखवा लो। मीडिया सीधे तौर पर दो भागों में बंटा नजर आता है एक वो मीडिया है जो सीधे तौर पर बिका हुआ नजर आता है और दूसरा वो है जो परोक्ष तौर पर बिका है। यानी बिक तो सभी गए, अंतर थोड़ा यह है कि एक मीडिया के कपड़े पूरी तरह से उतर गए और दूसरा थोड़ा अपना शरीर ढांपने में लगा है। दरअसल, अभिव्यक्ति की जो आजादी मीडिया के पास थी, कारपोरेट जर्नलिज्म ने उसे बर्बाद कर दिया। कारपोरेट जर्नलिज्म को मैं इस तरह से परिभाषित करना चाहता हूं सूट-टाई पहने अभिताभ बच्चन के मुंबई स्थित घर के आगे खड़ा चौकीदार। फर्क सिर्फ इतना है कि अमिताभ अपने चौकीदार को अच्छा-खासा वेतन देते होंगे, लेकिन मीडिया में अब वेतन के भी लाले हैं और सम्मान के भी। जो तथाकथित अच्छे चैनल या अखबार हैं वो अपने लाभ के मुकाबले पत्रकारों को न तो उचित वेतन देते हैं और न ही सुरक्षा। हां, पत्रकारों की एक जमात ऐसी हो गई है कि जिन्हें दलाली करने पर अच्छा वेतन और भत्ता दिया जाता है। कारपोरेट जर्नलिज्म ने पत्रकारों को दलाल बना दिया। नब्बे के दशक के बाद पीत पत्रकारिता का रूप उजागर हुआ। पीत पत्रकारिता से उन पत्रकारों ने धन्ना सेठ बनने की ठान ली है जो किसी कारण से मीडिया घरानों के दलाल नहीं बन सके। आज अधिकांश अखबारों में संपादक दलाली ही कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत उन पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है तो इस धारा के विपरीत जा रहे हैं, यानी बात नहीं मानी तो मारा जाएगा। मसलन जैसे गौरी लंकेश। गौरी लंकेश की हत्या की साजिश पांच साल से रची जा रही थी। पिछले वर्ष गुजरात के एक नामी नेता के बेटे ने जयहिंद अखबार के ब्यूरो चीफ की उसके आफिस में घुसकर हत्या कर दी, क्योंकि वह उसके कारनामों को अखबार में लिख रहा था।

झारखंड के चंदन तिवारी की हत्या इसलिए हो गई कि वह नक्सलियों के खिलाफ लिख रहा था। दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युत्यानंद साहू को अपनी जान नक्सली हमले में गंवानी पड़ी, क्योंकि वह नक्सलियों के बारे में दिखाने की कोशिश कर रहा था। वर्ष 2016-17 के दौरान देश में 62 पत्रकारों की हत्या कर दी गई लेकिन सब पत्रकार चुप हैं। आज आप किसी भी पत्रकार को चुटकी बजाते ही नौकरी से हटवा सकते हो, बस एक कोर्ट नोटिस थमा दो। मानहानि का केस कर दो। प्रख्यात पत्रकार करण थापर अब आपको किसी मीडिया में नहीं दिखेंगे, क्योंकि उन्हें मोदी जी पसंद नहीं करते। यदि भाजपा फिर केंद्र में आ गई तो रवीश कुमार की एनडीटीवी से विदाई तय है। मीडिया संगठन भी दलाली के केंद्र बन गए हैं। कोई किसी की आवाज नहीं उठाता।

मजीठिया वेजबोर्ड किसी भी अखबार ने लागू नहीं किया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में स्पष्ट आदेश दिए हैं। जागरण और सहारा ने पत्रकारों को मानदेय के आधार पर नौकरी देनी शुरू कर दी है तो दैनिक हिन्दुस्तान ने तो सभी पद छीन कर पत्रकारों को नंगा कर दिया है। उन्हें किसी कंपनी का एंजेंट सा बना दिया गया है। पद छिन जाने से हिन्दुस्तान के पत्रकार कितने अपमानित हुए होंगे, लेकिन सब चुप हैं। अमर उजाला ने सुरक्षा गार्ड की कंपनी के नाम से पत्रकारों को संस्थान में भर्ती किया है ताकि मजीठिया का लाभ न देना पड़ें। पर सब चुप हैं, यहां अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल नहीं बल्कि सवाल पेट का है। दुनिया को मीडिया ग्लैमर दिखता है लेकिन यहां सिर्फ अंधकार ही अंधकार है, जो इस कुएं में गिरा उसकी जिंदगी तबाह। काम के घंटे तय नहीं, असीमित शोषण और वेतन छटांक भर।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से]

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