Monday 29 August 2022

हिमाचल में अमर उजाला को मिली हार, दो केसों में देना पड़ेगा मुआवजा

 


मजीठिया वेज बोर्ड का भी अलग से देना पड़ेगा एरियर


हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला लेबर कोर्ट से एक अच्छीे खबर आई है। यहां वर्ष 2016 से अमर उजाला के खिलाफ चल रहे टर्मिनेशन के दो मामलों में सोमवार को लेबर कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कर्मचारियों को दो-दो लाख रुपये का मुआवजा दिया है। फैसला मिलते ही इसे डिटेल के साथ शेयर किया जाएगा। यह मामला फर्जी तरीके से ठेकेदार के नाम पर रखे गए कर्मचारियों का है, जिन्हें  कंपनियां फर्जी रिकार्ड बनाकर रखती हैं और फिर जब मर्जी होती है, उन्हें  निकाल बाहर करती हैं। जब कोर्ट में मामला जाता है, तो उसे किसी ठेकेदार का कर्मचारी बताया जाता है। 


इस मामले में अमर उजाला, धर्मशाला के प्रोडक्शन विभाग में रखे गए दो इलेक्ट्रिशियन को दो साल दो माह तक काम लेने के बाद मौखिक तौर पर नौकरी से हटा दिया गया था। जब मामला लेबर इंस्पेक्टेर के पास पहुंचा तो कंपनी ने इन्हें किसी ठेकेदार का कर्मचारी बताया और उस ठेकेदार को पार्टी बना दिया। मामला लेबर कोर्ट पहुंचा तो अमर उजाला और ठेकेदार इनकी नौकरी से संबंधित जरूरी दस्तादवेज नहीं प्रस्तुत कर पाए, वहीं इन कर्मियों के पक्ष में जो गवाह खड़े किए गए, उन्हों ने इन्‍हें अमर उजाला का कर्मचारी बताते हुए गवाही दी थी। 


लेबर कोर्ट ने इन्हें  अमर उजाला का कर्मचारी माना है और नौकरी से अवैध तौर पर हटाने पर दो लाख की मुआवजा राशि देने का निर्देश दिया है। वहीं अमर उजाला का कर्मचारी साबित होने पर इन्हें अपने सेवा काल के दौरान काम करने के चलते मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतनमान का लाभ व बकाया एरियर भी मिलेगा, यह केस पहले ही लंबित है और इस फैसले के चलते इनको मजीठिया वेजबोर्ड के तहत एरियर की राशि मिलना भी तय हो गया है। इन केसों की पैरवी न्यूज पेपर इम्पलाईज यूनियन आफ इंडिया के अध्यक्ष "रविंद्र अग्रवाल" ने की।

Friday 26 August 2022

अपनी ग्रेच्युटी पाने के लिए धरने पर बैठे दैनिक जागरण के मीडियाकर्मी


सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद नियमों के मुताबिक, आवेदन करने की तारीख से 30 दिन के अंदर कर्मचारी को उसकी ग्रेच्युटी का भुगतान कर दिया जाता है। अगर नियोक्ता ऐसा नहीं करते हैं तो उसे ग्रेच्युटी राशि पर साधारण ब्याज की दर से ब्याज का भुगतान करना होता है अगर यदि नियोक्ता कंपनी ऐसा नहीं करती है तो उसे ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम के उल्लंघन का दोषी माना जाता है।

मगर देश का प्रमुख समाचार पत्र दैनिक जागरण प्रबंधन अपने कुछ कर्मचारियों को उनकी ग्रेच्युटी भुगतान करने में खूब परेशान कर रहा है। इन कर्मचारियों को परेशान करने की वजह है कि उन्होंने माननीय सुप्रीमकोर्ट के आदेश के अनुसार मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार अपना वेतन और बकाया मांग लिया।

खबर है कि वाराणसी में दैनिक जागरण से अपने हक के लिए 2013 से मजीठिया वेतनबोर्ड व ग्रेच्युटी के लिए जागरण के पूर्व कर्मचारी संजय सेठ, अरविंद मिश्रा, बाबूलाल श्रीवास्तव,और अन्य लोग लगे हुए हैं। ग्रेच्युटी के लिए वाराणसी में बार-बार श्रम आयुक्त द्वारा तारीख पर तारीख दी जा रही है, जिसके कारण बृहस्पतिवार को संजय सेठ, बाबू लाल, और अरविंद मिश्रा श्रमायुक्त कार्यालय बनारस मे धरने पर बैठ गए।

इससे पहले भी वे धरने पर बैठ चुके हैं लेकिन अधिकारी फिर भी तारीख पर तारीख दे रहे हैं। आने वाले दिनों में ये धरना प्रदर्शन और तेज होगा को वे उसी के तहत बृहस्पतिवार को धरने पर बैठे थे। इस दौरान उनके एडवोकेट अजय मुखर्जी व आशीष टंडन भी धरने के दौरान मौजूद थे।

शशिकान्त सिंह

पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता

9322411335

Thursday 25 August 2022

बड़ी खबरः दैनिक जागरण लुधियाना के बर्खास्त कर्मी 40 फीसदी बकाया वेतन के साथ बहाल, आया आदेश


  

दैनिक जागरण प्रबंधन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे मजीठिया क्रांतिकारियों के लिए अच्छी खबर आ गई है। लुधियाना में चल रहे टर्मिनेशन के मामलों में लुधियाणा लेबर कोर्ट ने अपना लिखित फैसला दे दिया है। हालांकि कोर्ट ने 29 जुलाई को ही फैसला सुना दिया था, मगर लिखित आर्डर आज प्राप्त हुआ है। इसमें कोर्ट ने जागरण प्रबंधन द्वारा हड़ताल का आरोप लगाकर एकतरफा जांच में बर्खास्त किए गए कर्मचारियों को आईडी एक्ट की धारा 33(2)(बी) का लाभ देते हुए उन्हें 40 फीसदी वेतन के साथ नौकरी पर बहाल करने का आदेश सुनाया है। साथ ही बकाया राशि पर छह फीसदी ब्याज भी दिया है।

इस मामले में चालीस पन्नों की जजमेंट में कोर्ट ने दैनिक जागरण प्रबंधन को औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 33 के प्रावधानों का उल्लंघन करने का दोषी मानते हुए प्रबंधन द्वारा जांच के बाद की गई कर्मचारी बर्खास्तगी को सिरे से ही अवैध माना है और जांच रिपोर्ट को खारिज कर दिया। कोर्ट ने पाया कि जब दैनिक जागरण प्रबंधन ने श्रमिकों के खिलाफ जांच के बाद उनको नौकरी से बर्खास्तगी की कार्रवाई की, तब श्रमिकों का विवाद समझौता अधिकारी के समक्ष लंबित था और उपरोक्त एक्ट की धारा 33(2)(बी) के प्रावधान के अनुसार कर्मचारियों को बर्खास्त करने से पहले समझौता अधिकारी से लिखित तौर पर इसकी इजाजत लेना जरूरी था। इसके बिना प्रबंधन द्वारा किसी कर्मचारी की सेवाओं को समाप्त करने की कार्रवाई सिरे से अवैध व अनुचित मानी जाती है।
इस मामले में माननीय श्रम न्यायालय ने इसी धारा के प्रावधानों का विस्तार से वर्णन करते हुए प्रबंधन की चूक को अवैध मानते हुए जांच अधिकारी की कार्यवाही और इसके बाद बर्खास्तगी के आदेशों को अवैध मानते हुए कर्मचारियों को उनकी सेवा पर पुन-स्थापित करने का निर्णय सुनाया है। हालांकि प्रबंधन ने लुधियाना यूनिट बंद होने का हवाला देने हुए नौकरी पर बहाली का विरोध किया था, मगर कोर्ट ने वैध साक्ष्यों व कोर्ट के समक्ष की गई कार्यवाही में इसका उल्लेख ना होने के चलते इस दलील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कर्मचारियों को पिछले छह साल से बेरोजगार पाते हुए उन्हें बकाया वेतन देने का आदेश दिया है, मगर कोविड काल में समाचार पत्रों को हुए नुकसान का हवाला देते हुए सिर्फ 40 फीसदी बकाया वेतन देने के आदेश दिए हैं। ये आदेश आर्डर मिलने के तीन माह में लागू करने होंगे। यदि कंपनी इस समयावधि में कर्मचारियों को बकाया वेतन में विफल रहती है तो उसे 6 फीसदी की दर से ब्याज देना होगा।

Wednesday 24 August 2022

एनडीटीवी के बिकने पर हाय-तौबा क्यों?



सवाल यह है कि निष्पक्ष मीडिया को प्रोत्साहन देने के लिए हमने क्या किया?

एनडीटीवी की सराहना की जानी चाहिए कि आठ साल विपरीत परिस्थितियों में भी डटा रहा

एनडीटीवी यदि गौतम अडाणी ने खरीद लिया तो इसमें क्या बुरा है? बाजार है और बाजार में डार्बिन थ्योरी लागू है। हम खुद बाजारवाद का एक हिस्सा हैं। हम खुद बिकने के लिए तैयार बैठे हैं और जरूरी नहीं कि हमारी कीमत भी मिले। बेभाव बिक रहे हैं हम। फिर एनडीटीवी भी तो बाजार का एक हिस्सा है। बिक गया। हां, यह विचार करने की बात है कि निष्पक्ष पत्रकारिता कैसे जिंदा रहे?

प्रिंट मीडिया में संपादकीय भी अब आउटसोर्सिंग से लिए जा रहे हैं। यानी अमर उजाला, जागरण, भास्कर और नवभारत टाइम्स का संपादकीय पेज अब एक ही हो सकता है। इसमें आश्चर्य नहीं। खबरें भी लगभग समान ही होती हैं। न्यूज इंडस्ट्रीज में पहले कार्ययोजना बनती थी। खबरों की पैकेजिंग होती थी। एक्सक्लूसिव स्टोरी पर जोर दिया जाता था। भ्रष्टाचार और अनियमिताएं एक बड़ा मुद्दा होता था और ह्यूमैन एंगल की न्यूज एंकर यानी बॉटम स्टोरी होती थी। लेकिन अब यह दौर बीत गया। रिपोर्टर कम हो गये हैं और खबरों का बोझ अधिक। अब सूचना विभाग और पीआर एजेंसी न्यूज का एक बड़ा सोर्स है। पत्रकार को कोई मेहनत नहीं करनी। की-बोर्ड पर उसकी उंगलियां तेज चलनी चाहिए, बस।

इलेक्ट्रानिक मीडिया में पत्रकारों की ब्रांडिंग हो गयी है। ब्रांडिंग पर करोड़ो खर्च किये जाते हैं। इसके बावजूद यह तय नहीं की चैनल चलेगा या नहीं। देश में 900 से भी अधिक न्यूज चैनल हैं। मुख्यधारा के चैनलों में प्राइम टाइम में मुर्गा फाइट की जाती है। यानी एजेंडा जर्नलिज्म है।

अब मिशनरी पत्रकारिता का दौर बीत गया। कारपोरेट पत्रकारिता है। पहले कुर्ता-पैजामा पहनकर कंधे पर झोला टांगकर पत्रकार भूखे पेट गुजारा कर लेता था। अब लाख रुपये महीना वेतन पाने पत्रकारों की लंबी फौज है। ऐसे में बाजार से अछूता रहना बहुत मुश्किल है। सरकार विज्ञापन देने वाली सबसे बड़ी एजेंसी है। सरकार से पंगा लेकर बाजार में टिकना आसान नहीं है। हमें एनडीटीवी के साहस की सराहना करनी चाहिए कि वह आठ साल टिका रहा। निष्पक्ष लोगों ने या लोकतंत्र के समर्थक लोगों ने एनडीटीवी की बहुत मदद की है। इसके बावजूद यदि वह बिका तो रही होगी कोई मजबूरी।

हमें यह सोचना है कि लोकतंत्र को बचाने और जनपक्षधरता की बात करने वाले मीडिया संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं के लिए हमने क्या योगदान दिया?

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]


Thursday 18 August 2022

सहारा मीडिया से जुड़े पत्रकार भुखमरी के कगार पर



नोएडा मुख्यालय पर वेतन को लेकर धरने पर बैठे 

उपेंद्र राय, विजय राय जैसे लोगों ने बर्बाद किया सहारा

16 मार्च 2016 की बात है। मैं उन दिनों सहारा में चीफ सब एडिटर था। देहरादून के लालपुल के निकट स्थित एक निजी होटल में सहारा मीडिया के हेड उपेंद्र राय आए थे। सुब्रत राय तब जेल में थे और सारा चार्ज उपेंद्र राय को दिया गया था। होटल में सहारा की उत्तराखंड टीम को बुलाया गया था। एक बड़े हाल में सभा थी। उपेंद्र राय के लिए बिल्कुल अकेले सिंहासन लगा था। ठीक ऐसे जैसे मायावती बसपा की मीटिंग लेती है। उपेंद्र राय के आसपास बाउंसर थे। वह यहां सहारा की तरक्की के लिए कर्मचारियों की राय लेने आए थे, लेकिन रौब शहनशाह जैसा था। हम प्रजा बने उन्हें और उनके ड्रामे को टुकुर-टुकुर देख रहे थे। सहारा के हित को छोड़कर बहुत सी बातें हो रही थी। खास लोग ईनाम से नवाजे जा रहे थे। इस समारोह से पूर्व उपेंद्र राय ने राष्ट्रीय सहारा देहरादून का संपादक जितेंद्र नेगी को बनाकर कुर्सी पर बिठाया।

कहा जाता है कि उपेंद्र राय ने हरीश रावत सरकार में अपने एक रिश्तेदार के लिए खनन पट्टा हासिल किया। आरोप है कि यह पट्टा जितेंद्र नेगी ने दिलाया। बदले में उपेंद्र राय ने जितेंद्र नेगी को जीरो योग्यता होते हुए भी संपादक बना दिया। पिछले कई साल से जितेंद्र नेगी सहारा का संपादक है। जितेंद्र नेगी मेरा अच्छा दोस्त है, मैं उसके खिलाफ कुछ नहीं लिखता, लेकिन मजबूर हूं क्योंकि सहारा के कर्मचारियों को सेलरी नहीं मिल रही है और वो नोएडा में धरने पर बैठे हैं। जितेंद्र नेगी जैसे संपादकों की सहारा में भारी भीड़ है और ये कभी भी अपने साथियों की हित की बात मैनेजमेंट से नहीं करते।

इस कहानी का अर्थ यह है कि उपेंद्र राय जैसे अकुशल और अहंकारी प्रबंधन ने अपनी अय्याशियों में कोई कमी नहीं की और सहारा मीडिया का भट्टा बिठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब अयोग्य संपादक होंगे तो सहारा मीडिया तरक्की करेगा। मैं दावे से कह सकता हूं कि देहरादून में राष्ट्रीय सहारा से कहीं अधिक मेरी मैगजीन उत्तरजन टुडे पढ़ी जाती है। सहारा ग्रुप की बर्बादी का जिम्मेदार उपेंद्र राय जैसे लोग हैं जिन्होंने अपना घर भरा और सुब्रत राय का घर खाली किया।

दरअसल, सहारा की परम्परा है कि जो जिस काम के लिए अप्वाइंट हुआ है, उसे वही काम नहीं करने दिया जाता। कुप्रबंधन, बड़े अधिकारियों के मौज-मस्ती और भ्रष्टाचार के कारण सहारा मीडिया के कर्मचारी भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं। आज सहारा में हालत यह है कि साल में चार महीने ही सेलरी मिल रही है।

यह पेशेवर मजबूरी है कि पत्रकार चाहकर भी सहारा नहीं छोड़ रहे। क्योंकि अधिकांश को 20 से भी अधिक साल नौकरी करते हो गये। बाजार में उनकी डिमांड नहीं है। कोई उन्हें सहारा जितना वेतन भी देगा नहीं और दूसरे वे सहारा में मेहनत करना छोड़ चुके हैं। इसके अलावा उनका भारी-भरकम पैसा सहारा में बैकलॉग, भत्तों, पीएफ और ग्रेच्युटी में फंसा हुआ है। ऐसे में जाएं तो कहां जाएं? उधर, संपादक, ग्रुप एडिटर और मीडिया हेड तक अधिकांश बेईमान और अय्याश हैं। उन्हें न तो सहारा ग्रुप की चिन्ता है और न ही उनके साथ काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों की। 

अब भगवान श्रीकृष्ण ही करेंगे इन कर्मचारियों का बेड़ा पार।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

मजीठिया: बिना वकील के कुणाल प्रियदर्शी ने खुद लड़ा अपना मुकदमा और जीत कर दिखाया



मजीठिया वेजबोर्ड मामले में मीडियाकर्मियों के लिए राहत भरी खबर

पत्रकारों को अधिकार, सरकार या कोर्ट से कराएं अवार्ड Execution

मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों के लिए राहत भरी खबर है। अब वे वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट 1955 के तहत पारित अवार्ड का Execution कोर्ट के माध्यम से भी करा सकेंगे। बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर सिविल कोर्ट ने इस पर अपनी मुहर लगा दी है। कुणाल प्रियदर्शी बनाम प्रबंधन प्रभात खबर व अन्य के मामले में सब जज-1, पूर्वी जस्टिस ज्योति कुमार कश्यप ने बीते 23 जुलाई को आदेश पारित करते हुए स्वीकार किया है कि यह पत्रकारों पर है कि वे अवार्ड का Execution सरकार के माध्यम से कराये या कोर्ट के माध्यम से। इसे एक ऐतिहासिक फैसला माना जा रहा है।

अब तक मान्यता थी कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के तहत लेबर कोर्ट से पारित अवार्ड का Execution सिर्फ संबंधित राज्य सरकार के माध्यम से ही कराया जा सकता है, जिसकी प्रक्रिया भूमि राजस्व की बकाया की वसूली के समान होगी। यह काफी लंबी व जटिल मानी जाती है।

वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट, 1955 के सेक्शन 17(2) के तहत लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर से कुणाल के पक्ष में 6 जून, 2020 को अवार्ड पारित हुआ था, जिसमें न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड (प्रभात खबर) के प्रबंधन को दो महीने के भीतर अवार्ड की राशि ब्याज सहित भुगतान का आदेश दिया गया था। समय सीमा बीत जाने के बावजूद जब प्रबंधन ने राशि का भुगतान नहीं किया तो कुणाल ने आइडी एक्ट, 1947 के सेक्शन 11(10) के तहत लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर में ही अवार्ड को Execute कराने के लिए आवेदन दिया। आवेदन की जांच के बाद लेबर कोर्ट ने मामले को मुजफ्फरपुर सिविल कोर्ट रेफर कर दिया।

 कंपनी का तर्क-‘कोर्ट नहीं, सरकार करे Execute’ खारिज

सुनवाई के दौरान कंपनी के वकील का तर्क था कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट एक स्पेशल एक्ट है। ऐसे बकाया राशि की वसूली के लिए आइडी एक्ट का सहारा नहीं लिया जा सकता है।

ऐसे में बकाया राशि की वसूली कोर्ट के माध्यम से नहीं सरकार के माध्यम से ही होनी चाहिए।

वहीं, अपने केस की खुद पैरवी कर रहे कुणाल प्रियदर्शी ने कंपनी के दावे को निराधार बताया।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के “एक्सप्रेस न्यूजपेपर लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया” व “बेनेट कोलमैन कॉरपोरेशन लिमिटेड व अन्य बनाम मुंबई मजदूर सभा” में दिये गये फैसले के आधार पर दावा किया कि WJ Act पत्रकारों को आइडी एक्ट के तहत वर्कमैन के दायरे में लाने के लिए ही बना है। वहीं, उन्होंने कर्नाटक व आंध्रप्रदेश हाइकोर्ट के जजमेंट का हवाला देते हुए वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(1) में पत्रकारों के पास आइडी एक्ट के तहत राशि वसूली का विकल्प होने की बात कही. दोनों पक्षों को सुनने बाद कोर्ट ने भी माना कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(1) में प्रयुक्त “…without prejudice to any other mode of recovery” पत्रकारों को यह विकल्प देता है कि वे चाहे तो आइडी एक्ट के सेक्शन 11(10) का विकल्प चुन सकते हैं। कोर्ट ने इसके लिए ट्रिब्यून ट्रस्ट बनाम प्रेजाइडिंग ऑफिस लेबर कोर्ट केस में पंजाब व हरियाणा हाइकोर्ट के फैसले का हवाला भी दिया है। यहां जानकारी हो कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(3) के अनुसार यदि लेबर कोर्ट से बकाया राशि तय हो जाने के बाद उसकी वसूली की प्रक्रिया सेक्शन 17(1) में दी गयी प्रक्रिया ही होगी।

प्रोपर्टी अटैच या अरेस्ट वारंट का है प्रावधान 

सीपीसी के नियमों के तहत आइडी एक्ट में Execution के लिए तीन प्रक्रियाएं तय है।

पहला, जजमेंट डेबटर का बैंक अकाउंट या अन्य चल संपत्तियों को अटैच कर राशि का भुगतान कराना।

दूसरा, जजमेंट डेबटर के ऑफिस या अन्य अचल संपत्तियों, जिससे की वह लाभ कमाता है, को अटैच करना।

तीसरा, जजमेंट डेबटर के विरुद्ध अरेस्ट वारंट जारी करना।

यूं तो अवार्ड होल्डर को यह अधिकार होता है कि वह इन तीनों में से एक विकल्प का चयन करें। पर, कुणाल ने राशि वसूली की क्या प्रक्रिया हो, यह जिम्मेदारी कोर्ट को ही सौंपी है, जैसा की नियमों में प्रावधान है।


शशिकान्त सिंह

मजीठिया क्रांतिकारी और आरटीआई कार्यकर्ता

9322411334

Saturday 6 August 2022

मजीठिया पर बड़ी खबरः हाईकोर्ट के आदेश के बाद स्टेटमैन के साथियों को मिल चुका है आधा भुगतान


साथियों, खबर तो पुरानी है, परंतु सभी के उत्साह बढ़ाने वाली है। क्योंकि हम सभी इस खबर का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, कि कहीं से कोई खबर मिले कि हमारे किसी साथी को मजीठिया का पैसा मिला है। तो ये इंतजार अब खत्म हो गया है। साथियों स्टेटमैन के जुझारू साथी मजीठिया का आधा भुगतान पा चुके हैं। बाकि आधे के लिए उनका संघर्ष जारी है। ये राशि करीब 49 लाख रुपये है।

स्टेटमैन यूनियन के पदाधिकारी महावीर सिंह के अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद ये राशि सभी साथियों को मिल चुकी है। ये राशि उन्हें 2019 में ही प्राप्त हो चुकी है। एक आदेश के बाद इस राशि को कंपनी ने जमा करवाया था। जिसे जारी करने का आदेश दिल्ली हाईकोर्ट ने दिया था।

मालूम हो कि स्टेटमैन के इन्हीं जुझारू साथियों की वजह से मनिसेना का केंद्र सरकार ने फिर से नोटिफेक्शन किया था। इन्हीं की बदौलत मनिसेना वेजबोर्ड फिर से जीवित हुआ, जिसके लिए इन्होंने लंबी कानूनी ल़ड़ाई ल़ड़ी। यहां एक बात और याद दिलाना चाहते हैं कि हमारे महाराष्ट्र से साथी महेश साकुरे को भी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद उन्हें संस्थान ने फिर से कार्य पर लिया था। महेश साकुरे निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक अपनी ज्वाइनिंग से लेकर अब तक के सारे वेजबोर्ड प्राप्त करने का हक प्राप्त कर चुके हैं। 

महावीर सिंह का मोबाइल नंबर 9968275311 है। यदि किसी साथी ने देश के किसी भी कोने में मनिसेना की रिकवरी में विजयश्री प्राप्त की हो तो वे महावीर सिंह से संपर्क कर उसकी जानकारी देने का कष्ट करें।