Thursday 18 August 2022

सहारा मीडिया से जुड़े पत्रकार भुखमरी के कगार पर



नोएडा मुख्यालय पर वेतन को लेकर धरने पर बैठे 

उपेंद्र राय, विजय राय जैसे लोगों ने बर्बाद किया सहारा

16 मार्च 2016 की बात है। मैं उन दिनों सहारा में चीफ सब एडिटर था। देहरादून के लालपुल के निकट स्थित एक निजी होटल में सहारा मीडिया के हेड उपेंद्र राय आए थे। सुब्रत राय तब जेल में थे और सारा चार्ज उपेंद्र राय को दिया गया था। होटल में सहारा की उत्तराखंड टीम को बुलाया गया था। एक बड़े हाल में सभा थी। उपेंद्र राय के लिए बिल्कुल अकेले सिंहासन लगा था। ठीक ऐसे जैसे मायावती बसपा की मीटिंग लेती है। उपेंद्र राय के आसपास बाउंसर थे। वह यहां सहारा की तरक्की के लिए कर्मचारियों की राय लेने आए थे, लेकिन रौब शहनशाह जैसा था। हम प्रजा बने उन्हें और उनके ड्रामे को टुकुर-टुकुर देख रहे थे। सहारा के हित को छोड़कर बहुत सी बातें हो रही थी। खास लोग ईनाम से नवाजे जा रहे थे। इस समारोह से पूर्व उपेंद्र राय ने राष्ट्रीय सहारा देहरादून का संपादक जितेंद्र नेगी को बनाकर कुर्सी पर बिठाया।

कहा जाता है कि उपेंद्र राय ने हरीश रावत सरकार में अपने एक रिश्तेदार के लिए खनन पट्टा हासिल किया। आरोप है कि यह पट्टा जितेंद्र नेगी ने दिलाया। बदले में उपेंद्र राय ने जितेंद्र नेगी को जीरो योग्यता होते हुए भी संपादक बना दिया। पिछले कई साल से जितेंद्र नेगी सहारा का संपादक है। जितेंद्र नेगी मेरा अच्छा दोस्त है, मैं उसके खिलाफ कुछ नहीं लिखता, लेकिन मजबूर हूं क्योंकि सहारा के कर्मचारियों को सेलरी नहीं मिल रही है और वो नोएडा में धरने पर बैठे हैं। जितेंद्र नेगी जैसे संपादकों की सहारा में भारी भीड़ है और ये कभी भी अपने साथियों की हित की बात मैनेजमेंट से नहीं करते।

इस कहानी का अर्थ यह है कि उपेंद्र राय जैसे अकुशल और अहंकारी प्रबंधन ने अपनी अय्याशियों में कोई कमी नहीं की और सहारा मीडिया का भट्टा बिठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब अयोग्य संपादक होंगे तो सहारा मीडिया तरक्की करेगा। मैं दावे से कह सकता हूं कि देहरादून में राष्ट्रीय सहारा से कहीं अधिक मेरी मैगजीन उत्तरजन टुडे पढ़ी जाती है। सहारा ग्रुप की बर्बादी का जिम्मेदार उपेंद्र राय जैसे लोग हैं जिन्होंने अपना घर भरा और सुब्रत राय का घर खाली किया।

दरअसल, सहारा की परम्परा है कि जो जिस काम के लिए अप्वाइंट हुआ है, उसे वही काम नहीं करने दिया जाता। कुप्रबंधन, बड़े अधिकारियों के मौज-मस्ती और भ्रष्टाचार के कारण सहारा मीडिया के कर्मचारी भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं। आज सहारा में हालत यह है कि साल में चार महीने ही सेलरी मिल रही है।

यह पेशेवर मजबूरी है कि पत्रकार चाहकर भी सहारा नहीं छोड़ रहे। क्योंकि अधिकांश को 20 से भी अधिक साल नौकरी करते हो गये। बाजार में उनकी डिमांड नहीं है। कोई उन्हें सहारा जितना वेतन भी देगा नहीं और दूसरे वे सहारा में मेहनत करना छोड़ चुके हैं। इसके अलावा उनका भारी-भरकम पैसा सहारा में बैकलॉग, भत्तों, पीएफ और ग्रेच्युटी में फंसा हुआ है। ऐसे में जाएं तो कहां जाएं? उधर, संपादक, ग्रुप एडिटर और मीडिया हेड तक अधिकांश बेईमान और अय्याश हैं। उन्हें न तो सहारा ग्रुप की चिन्ता है और न ही उनके साथ काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों की। 

अब भगवान श्रीकृष्ण ही करेंगे इन कर्मचारियों का बेड़ा पार।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

No comments:

Post a Comment