Tuesday 26 March 2019

जागरण समूह की चोरी-धोखाधड़ी पकड़ी गई, हाईकोर्ट ने दिए रेव3 मल्टीप्लेक्स तुरंत गिराने के निर्देश


जागरण समूह से लोहा लेने वाले बॉबी शर्मा : न्याय में देर है, अंधेर नहीं!

कानपुर के आरटीआई एक्टिविस्ट और समाजसेवी रॉबी शर्मा ने बड़ी जीत हासिल की है. कोर्ट में उनकी लंबी लड़ाई रंग लाई. हाईकोर्ट ने जागरण समूह की संपत्ति रेव3 मल्टीप्लेक्स को तुरंत गिराने के निर्देश दिए हैं। जागरण के मालिकाना हक वाली संपत्ति रेव थ्री के संबंध में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद हड़कंप मचा हुआ है।

कोर्ट ने रेव थ्री के विवादित हिस्से को गिराने का आदेश देने की बात कही है। रॉबी शर्मा ने इस बाबत जनहित याचिका दायर की थी। आरोप है कि जागरण के मालिकों ने शमशान घाट की जमीन और एक तरफ की पूरी सड़क पर कब्जा कर रेवथ्री मल्टीप्लेक्स का निर्माण किया। इस बाबत रॉबी शर्मा ने अपने फेसबुक वॉल पर भी लिखा है, जिसे नीचे पढ़ सकते हैं…

Robby Sharma : The Honorable High Court at Allahabad has on 25 march 2019 directed State of Uttar pradesh and KDA to immediately without any delay demolish Rave 3 multiplex and restore the Ayurvedic garden at the cost of Rave 3 people. 15 lakh cost has also been imposed on them. The judgment was delivered in PIL no. 20999 of 2002 in which I was also a petitioner. Judgment delivered by bench of honorable justice Sudhir Agarwal and honorable justice Ajit kumar on 25 March 2019.

रिट पीआईएल-20999, वर्ष 2002 में रेव3 पर हाईकोर्ट के 25 मार्च 2019 के फैसले को पूरा पढ़ने पर तत्कालीन भाजपा सरकार लालजी टंडन, मुख्यमंत्री के सचिव आदि की संलिप्तता का जिक्र दिखता है। इन लोगों ने जागरण समूह के अवैध निर्माण कार्य में अप्रत्याशित रुचि दिखाते हुए अवैध निर्माणकर्ता की मदद की। वैसे तत्कालीन डीएम बीएस भुल्लर, जो आज कल डायरेक्टर जनरल सिविल एविशन हैं, और तत्कालीन उपाध्यक्ष केडीए कमिश्नर आदि सभी का रोल बहुत निंदनीय था। डीएम ने तो अपने पत्र जो रेव3 के कहने पर शासन को लिखे, उनकी प्रतियों पर दस्तखत करके, इन्हें थमा दिए जबकि डिस्पैच नंबर तक नहीं पड़ा था। जहां तक मै समझता हूं ये पत्र रेव 3 वालों ने खुद अपने यहां से टाइप करा कर डी ऐम के दस्तखत कराये थे। बाद में डिस्पैच नंबर डाल कर सीधे भी शासन को भेजा। आक्शन में शामिल रेव3 की दो सहयोगी फर्मों ने तो ड्राफ्ट की जगह एक एक करोड़ के चेक लगाये। ऐसी निविदा किसी भी प्रकार से स्वीकार ही नहीं की जा सकती। ऐसे सैकड़ों मुद्दे हैं जो याचिका में हैं। रेव इंटरटेनमेंट को आवंटन से कुछ समय पहले ही भूमि हथियाने को इनकार्पोरेट किया गया था।

इस प्रकरण को छापने-दिखाने से मीडिया हाउसों ने परहेज किया क्योंकि यहां मामला चोर-चोर मौसेरे भाइयों का हो जाता है… पर कुछ एक मीडिया हाउसों का जमीर जिंदा है… देखिए हिंदुस्तान अखबार के कानपुर संस्करण में छपी खबर…



कोर्ट के आर्डर की पूरी कॉपी डाउनलोड करने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें…

-यशवंत सिंह
[साभार: भड़ास4मीडिया डॉट कॉम]

मजीठिया: केस की सुनवाई के दौरान ट्रांसफर और द्वेषपूर्ण कार्रवाई पर रोक

रतलाम। कर्मचारियों से दबावपूर्वक लिया समझौता कोर्ट ने खारिज कर दिया है। इस कारण रतलाम में दैनिक भास्कर को दोहरा झटका लगा है। रिपोर्टर, सब एडिटर, मार्केटिंग, एचआर, एडमिन, अकाउंट, विज्ञापन, प्रिंटिंग प्लांट/मशीनरी सब ने केस लगाया है। मजीठिया वेजबोर्ड के मामले में लंबे समय बाद रतलाम दैनिक भास्कर से बड़ी खबर आई है। यह खबर बेहद खास और बड़ी इस मायने में है कि यहां से मजीठिया वेजबोर्ड की लड़ाई लड़ रहे 7 कर्मचारियों के मामले में लेबर कोर्ट रतलाम ने मजीठिया वेजबोर्ड केस की समाप्ति तक ट्रांसफर और द्वेषपूर्ण कार्रवाई पर रोक लगा दी है। मप्र पत्रकार संगठन के इन सभी सदस्यों द्वारा लंबे समय से अपने हक की लड़ाई लड़ी जा रही थी। इस दौरान मैनेजमेंट ने इन कर्मचारियों पर हर तरह का दबाव डाला लेकिन एक भी कर्मचारी ने हार नहीं मानी बल्कि और मजबूती से डटकर मैनेजमेंट का सामना किया।

तब तक कुछ नहीं कर सकेगा प्रबंधन
संगठन के अधिवक्ता केतन विश्नार द्वारा औद्योगिक विवाद अधिनियम धारा 33 के तहत प्रस्तुत आवेदन और दलीलों से सहमति जताते हुए पीठासीन अधिकारी महोदय ने सीनियर सब एडिटर बलवीर सिंह बैलिया, सीनियर रिपोर्टर जितेंद्र श्रीवास्तव, अकाउंटेंट राकेश पांचाल, रिसेप्शनिस्ट नाजमा खान, मशीनमैन जितेंद्र मालवीय, कम्प्यूटर ऑपरेटर दिनेश व्यास, और ऑफिस ब्वॉय उमेश चौहान कर्मचारियों को राहत देते हुए आदेश दिया है कि जब तक मजीठिया केस रतलाम लेबर कोर्ट में चल रहा है कोर्ट की अनुमति बिना मैनेजमेंट इन सातों कर्मचारियों की सेवा शर्तों में न तो कोई परिवर्तन कर सकेगा और न ही ट्रांसफर या दुर्भावनापूर्ण अन्य कोई कार्यवाही कर सकेगा।

झांसा दिया, धमकी दी इन्हें
इस लड़ाई में एक और महत्वपूर्ण जीत यह रही कि पिछले साल दैनिक भास्कर प्रबंधन ने दो अन्य कर्मचारियों न्यूज एडिटर नीरज शुक्ला और पेजमेकर अब्दुल शगीर को इन्क्रीमेंट और प्रमोशन का झांसा दिया और लेबर कोर्ट से मजीठिया का केस वापस नहीं लेने पर नौकरी से निकाल देने की धमकी देते हुए जबर्दस्त दबाव बनाया था। मैनेजमेंट के दबाव में आकर दोनों ने समझौता-पत्र साइन कर दिए थे। भास्कर ने उक्त समझौते कोर्ट में दाखिल किए लेकिन जज साहब ने कर्मचारी के कोर्ट में पेश होकर स्वयं स्वतंत्र सहमति दिए बिना समझौता स्वीकारने से मना कर दिया। अगली तारीख पर ये दोनों कर्मचारी कोर्ट में पेश हुए तो अधिवक्ता प्रदीप बंधवारजी ने उनका पक्ष मजबूती से रखा और दोनों कर्मचारियों ने समझौता पत्र दबाव में साइन होना बताते हुए मजीठिया का केस लड़ने का निवेदन किया।

पीठासीन अधिकारी आशीष प्रताप सिंह ने कर्मचारियों का आवेदन स्वीकार करते हुए समझौता-पत्र खारिज कर दिया। इस तरह एक ही दिन दैनिक भास्कर को दोहरे झटके लगे जिससे मैनेजमेंट सकते में है। खास बात यह है कि केस करनेवालों में रिपोर्टर, सब एडिटर, मार्केटिंग, एचआर, एडमिन, अकाउंट, विज्ञापन, प्रिंटिंग प्लांट/मशीनरी यानी हर विभाग के कर्मचारी शामिल हैं। जज साहब ने अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय छह माह की समय सीमा में केस का फैसला किए जाने का भी उल्लेख किया है।

बन जाता है हरेक का खास
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के दौरान मैनेजमेंट का एक खास चमचा कोर्ट पहुंचा और मजीठिया का केस लगाने के लिए जरूरी जानकारी पता करने की आड़ लेकर कोर्ट की पलपल की जानकारी ऑफिस में बैठे संपादक तक बेशर्मी से पहुंचाता रहा। ऑफिस में भी यह इसी तरह की ओछी हरकतें करता है। इस कर्मचारी की खासियत यही है। इसी कारण “पत्रकारिता का प” ठीक से मालूम नहीं होने के बावजूद रतलाम में पदस्थ होने वाले हर संपादक का यह खास बन जाता है और “जेल में सुरंग” की खबर पहुंचाने वाला भी यही है।

हौंसला सातवें आसमान पर
बहरहाल कोर्ट से स्टे मिलने से एक ओर जहां इन कर्मचारियों का हौंसला सातवें आसमान पर है वहीं अन्य कर्मचारी भी केस लगाने के लिए जरूरी जानकारी और दस्तावेज जुटा रहे हैं। जब से उन्हें पता चला है कि दबावपूर्वक लिखे समझौते को कोर्ट नहीं मान रही तो बड़ी संख्या में कर्मचारी केस लगाने की तैयारियों में जुट गए हैं।

[साभार: harmudda.com]

Saturday 2 March 2019

भविष्य निधि गणना में विशेष भत्ता शामिल न करने वाली कंपनियों पर गिरेगी गाज

नई दिल्ली। कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) ने भविष्य निधि गणना में विशेष भत्ते को मूल वेतन में शामिल नहीं करने वाली कंपनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का निर्णय किया है। उच्चतम न्यायालय के ईपीएफ गणना में मूल वेतन के हिस्से में विशेष भत्ते को शामिल करने की व्यवस्था के एक दिन बाद शुक्रवार को ईपीएफओ ने यह निर्णय किया है।

शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में यह व्यवस्था दी कि कर्मचारियों के भविष्य निधि गणना मामले में विशेष भत्ता मूल वेतन का हिस्सा है। कर्मचारियों को अपने मूल वेतन का 12 प्रतिशत हिस्सा ईपीएफ की सामाजिक सुरक्षा योजना मद में देना होता है। इतना ही योगदान नियोक्ता भी करता है। मामले से जुड़े एक सूत्र ने कहा, ”फैसले को देखते हुए ईपीएफओ उन कंपनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा जो ईपीएफ योगदान के लिये विशेष भत्ते को उसमें शामिल नहीं करते। ईपीएफओ फैसले का अध्ययन कर रहा है और उसे लागू करने के लिये जल्दी ही विस्तृत योजना लाएगा।”

सूत्र ने कहा, ”ईपीएफओ ने शीर्ष अदालत में कहा है कि मूल वेतन को जानबूझकर कम रखा जाता है और इसी के आधार पर ईपीएफ की गणना होती है। इस प्रकार, इसीलिए निकाय के लिए यह जरूरी है कि इसे सही तरीके से लागू करे।” ईपीएफओ न्यासी तथा भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय ने कहा, ”हम शीर्ष अदालत के निर्णय का स्वागत करते हैं। यह लंबित मामला है।

वास्तव में ईपीएफओ का निर्णय लेने वाला शीर्ष निकाय केंद्रीय न्यासी बोर्ड ने ईपीएफ देनदारी कम करने के लिए वेतन को विभिन्न मदों में विभाजित करने के मामले तथा उससे निपटने के बारे में सुझाव देने को लेकर एक समिति बनाई थी।” उन्होंने कहा, ”समिति ने मसले से निपटने को लेकर अपना सुझाव दिया था। लेकिन उसी समय मामला न्यायालय में गया और विभिन्न भत्तों को मूल वेतन में शामिल करने की समिति की सिफारिशों को लागू नहीं किया जा सका।” शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में ईपीएफ की अपील की अनुमति दे दी। इसमें ईपीएफ योगदान की गणना के लिए विशेष भत्ते जैसे भत्तों को मूल वेतन में शामिल करने की अनुमति देने का आग्रह किया गया था।

[साभार: भाषा]

Friday 1 March 2019

उच्‍चतम न्‍यायालय का आदेश- विशेष भत्‍ता मूल वेतन का हिस्सा, पीएफ पर होगा फायदा


नई दिल्‍ली। उच्‍चतम न्‍यायालय ने विशेष भत्ता (Special Allowance) को मूल वेतन (Basic Pay/Basic Wages) का हिस्सा मानते हुए उस पर अपनी मुहर लगा दी है। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने बृहस्‍पतिवार को इस पर अपना आदेश दिया। इस आदेश के बाद कर्मचारियों के खाते में ज्यादा पीएफ जमा हो सकेगा। विशेष भत्‍ते को मूल वेतन में शामिल करने पर पीएफ के तौर पर जमा की जाने वाली राशि में इजाफा होगा।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार न्‍यायमूर्ति अरुण मिश्रा और नवीन सिन्‍हा की खंडपीठ के सामने यह सवाल पूछा गया था कि क्या कंपनियों द्वारा कर्मियों को दिए जा रहे विशेष भत्ते को सेक्शन 2 (b)(ii) के तहत मूल वेतन के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। खंडपीठ ने उस अपील को ठुकरा दिया जिसमें पीएफ कमिश्नर के फैसले को लेकर कंपनियों ने सवाल उठाया था।

पीएफ कमिश्नर ने अपने फैसले में कहा था कि विशेष भत्ता और मूल वेतन को एक साथ मिलाकर पीएफ जोड़ा जाना चाहिए। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इस पर फैसला देते हुए कहा कि कंपनियों द्वारा कोई ऐसा तर्क नहीं रखा गया, जिससे लगे कि विशेष भत्ता कर्मियों को उनके अच्छे प्रदर्शन के तौर पर दिया जाता हो।

न्यायमूर्ति सिन्हा ने कहा, भत्ते की संरचना (Allowance structure) और वेतन (Salary) के घटकों की जांच तथ्यों पर की गई है, यह अधिनियम के तहत प्राधिकरण और अपीलीय प्राधिकारी दोनों के द्वारा की गई है। जो एक तथ्यात्मक निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जिस भत्‍ते पर सवाल उठाए जा रहे थे वह मूल वेतन का ही हिस्सा है, जबकि इसे पीएफ का हिस्सा बताकर दिया जा रहा है। इस फैसले का फायदा पीएफ के तौर पर 15000 तक के मूल वेतन और भत्ता जमा कराने वालों को मिलेगा।

वेतन संरचना (salary structure)
वेतन संरचना मुख्‍य रूप से दो तरह की होती है। पहला मूल वेतन (basic salary) और दूसरा विशेष भत्‍ते। मूल वेतन एक निश्चित राशि होती है। वहीं, विशेष भत्‍तों में महंगाई भत्ता (डीए), परिवहन भत्ता, मकान किराया, गाड़ी भत्ता और टेलीफोन/मोबाइल फोन भत्ता आदि आते हैं। कई कंपनियां सीटीसी में पीएफ और  ग्रेच्युटी आदि को भी शामिल करती हैं।

आदेश को पड़ने के लिए इस लिंक का प्रयोग करें- 
https://barandbench.com/special-allowance-definition-basic-wages-provident-fund-act-supreme-court/

Will Special Allowance fall within the definition of “Basic Wages” under Provident Fund Act, SC answers



Murali Krishnan February 28 2019

The Supreme Court has held that variable earning which may vary from individual to individual according to their efficiency and diligence will stand excluded from the term “Basic Wages” under the Employees Provident Fund and Miscellaneous Provisions Act, 1952 (Provident Fund Act).

However, in order that the amount goes beyond the basic wages, it has to be shown that the workman concerned had become eligible to get this extra amount beyond the normal work which he was otherwise, a Bench of Justices Arun Mishra and Navin Sinha held.

The judgment was delivered by the Court in a batch of appeals involving a common question. The question was as follows:

“Whether special allowances paid by an establishment to its employees would fall within the expression “basic wages” under Section 2(b) (ii) read with Section 6 of the Act for computation of deduction towards Provident Fund.” 

Additional Solicitor General, Vikramajit Banerjee and Sanjay Kumar Jain appeared for the Regional Provident Fund Commissioner. Senior Counsel Ranjit Kumar made lead arguments on behalf of the Establishments.

Vikramajit Banerjee submitted that the special allowance paid to the teaching and non­-teaching staff of the respondent school was nothing but camouflaged dearness allowance liable to deduction as part of Basic Wage. Section 2(b)(ii) defined dearness allowance as all cash payment by whatever name called paid to an employee on account of a rise in the cost of living.

The allowance shall, therefore, fall within the term dearness allowance, irrespective of the nomenclature, since it was being paid to all employees on account of rise in the cost of living, Banerjee had submitted.

Therefore, under Section 6 of the Act, the Establishments were liable to pay contribution to the provident fund on basic wages, dearness allowance, and retaining allowance. Thus, it was Banerjee’s case that to exclude any incentive wage from basic wage, it should have a direct nexus and linkage with the amount of extra output.

The common submission on behalf of the Establishments in the remaining appeals was that basic wages defined under Section 2(b)

contains exceptions and will not include what would ordinarily not be earned in accordance with the terms of the contract of employment.

It is only those emoluments earned by an employee in accordance with the terms of employment which would qualify as Basic Wage.

Discretionary allowances not earned in accordance with the terms of employment would not be covered by basic wage, the Establishments had argued.

The Court after considering the submissions of the parties held that the test adopted to determine if any payment was to be excluded from basic wage is that the payment under the scheme must have direct access and linkage to the payment of such special allowance as not being common to all. The crucial test is one of universality, the Court stated.

The Court placed reliance on the judgments in Bridge and Roof Co. (India) Ltd. vs. Union of India [(1963) 3 SCR 978], Muir Mills Co. Ltd.,

Kanpur v. Its Workmen [AIR 1960 SC 985] and Manipal Academy of Higher Education vs. Provident Fund Commissioner [(2008) 5 SCC 428].

The basic principles as laid down in Bridge and Roof’s case as summarised in Manipal case as follows:

(a) Where the wage is universally, necessarily and ordinarily paid to all across the board such emoluments are basic wages.

(b) Where the payment is available to be specially paid to those who avail of the opportunity is not basic wages. By way of example, it was held that overtime allowance, though it is generally in force in all concerns is not earned by all employees of a concern. It is also earned in

accordance with the terms of the contract of employment but because it may not be earned by all employees of a concern, it is excluded from basic wages.

(c) Conversely, any payment by way of a special incentive or work is not basic wages.”

In the instant case, the Court noted that no material had been placed by the establishments to demonstrate that the allowances in question

being paid to its employees were either variable or were linked to any incentive for production resulting in greater output by an employee.

There was nothing to show that the allowances in question were not paid across the board to all employees in a particular category.

The Court made it clear that in order that the amount goes beyond the basic wages, it has to be shown that the workman concerned had become eligible to get this extra amount beyond the normal work which he was otherwise required to put in.

Since there was no material or data to that effect in the instant case, the appeal filed by the Regional Provident Fund Commissioner was allowed while the appeals by the Establishments were dismissed.

Read the judgment below link-
https://barandbench.com/special-allowance-definition-basic-wages-provident-fund-act-supreme-court/

[source: https://barandbench.com]