Wednesday 28 December 2022

मजीठिया केस में जवाब देने से भाग रहा अमर उजाला, मिला आखिरी मौका



- यशवंत सिंह

अयोध्या में अमर उजाला के ब्यूरो चीफ/चीफ सब एडिटर धीरेंद्र सिंह की ओर से दायर मजीठिया वेजबोर्ड केस में अमर उजाला प्रबंधन को अपना जवाब देते नहीं बन रहा है। पिछले 6 महीने से कभी क्षेत्राधिकार तो कभी जवाब दाखिल करने के लिए बार-बार समय की मांग से आजिज आकर श्रम न्यायालय ने 11 जनवरी को आखिरी मौका दिया है, अब जवाब दाखिल नहीं हुआ तो वादी को तारीखी खर्च देने के साथ 36 लाख रुपए बकाये की आरआरसी की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।

आमतौर पर नौकरी करते वक्त बगैर किसी विवाद के कोई भी पत्रकार अपने संस्थान से वेजबोर्ड मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, लेकिन धीरेंद्र सिंह ने दैनिक हिंदुस्तान में 11 साल के कार्यकाल में सोनभद्र, मऊ और बलिया का ब्यूरो चीफ रहने के दौरान भी वेजबोर्ड के रिकमेंडेशन की मांग की थी जिसे प्रबंधन को स्वीकार करना पड़ा और भुगतान भी करना पड़ा।

2013 में अमर उजाला ज्वाइन करने पर मजीठिया वेजबोर्ड देने का पत्र जारी करने के बाद भी प्रबंधन भुगतान नहीं कर रहा था। अलबत्ता बीते डेढ़ साल से अमर उजाला के स्टाफ को रिजाइन करा कर संवाद न्यूज एजेंसी में आधे वेतन पर ज्वाइन करने के लिए सभी यूनिटों में अभियान चल रहा था। इसके लिए दूरदराज के इलाकों में ट्रांसफर का आदेश जारी किया जा रहा था, फिर मजबूर कर्मचारियों से समझौता करके उन्हें संवाद में ज्वाइन कराया जा रहा था।

अयोध्या के ब्यूरो चीफ धीरेंद्र सिंह का ट्रांसफर भी इसी उद्देश्य से जनवरी 2022 में शिमला ब्यूरो में किया गया लेकिन प्रबंधन की चाल को समझते हुए धीरेंद्र सिंह ने उप श्रम आयुक्त से स्थानांतरण के खिलाफ स्टे आदेश ले लिया। बाद में प्रबंधन ने मजीठिया वेजबोर्ड देने का आश्वासन देते हुए श्रम आयुक्त कार्यालय में समझौता किया। इसके बाद भी मार्च माह में स्थानांतरण आदेश को बदलते हुए आगरा यूनिट में कर दिया लेकिन वहां जाने पर भी मजीठिया वेजबोर्ड देने की जगह दिखाया गया कि आगरा के आसपास के सभी जिलों के ब्यूरो चीफ स्टाफर को संवाद में नहीं शामिल होने पर हटा दिया गया है। दूसरे को संवाद एजेंसी से ब्यूरो प्रभारी बनाया गया है।

सच्चाई का दम भरने वाले और कर्मचारियों के हित की बात करने वाले अमर उजाला के मालिकान की ऐसी अनीति और धोखाधड़ी सभी यूनिटों के जिलों में देखते हुए धीरेंद्र सिंह ने प्रबंधन के आगे झुकने के बजाय मजीठिया वेजबोर्ड के तहत करीब 3600000 बकाया को लेकर बीते जून माह में श्रम आयुक्त कार्यालय अयोध्या में मुकदमा दायर किया।

इसके बाद घबराए प्रबंधन ने क्षेत्राधिकार का मुद्दा उठाते हुए लिखित जवाब दिया कि यह केस आगरा में हो सकता है, अयोध्या में नहीं। प्रत्युत्तर में धीरेंद्र सिंह की ओर से अधिवक्ताओं ने तर्क दिया कि क्षेत्राधिकार दिल्ली, लखनऊ आगरा और अयोध्या चारों जगह है, लेकिन धीरेंद्र सिंह ने अपने मजीठिया वेजबोर्ड की मांग अयोध्या के कार्यकाल के दौरान 9 साल 6 माह का बकाया मांगा है इसलिए अयोध्या में ही इसकी सुनवाई हो सकती है।

दरअसल अमर उजाला प्रबंधन ने क्षेत्राधिकार का मुद्दा उठाने के पीछे षड्îंत्र रचा था कि श्रम कार्यालय इसे खारिज करता है तो हाईकोर्ट में मामले को लटका देंगे लेकिन श्रम कार्यालय ने अमर उजाला प्रबंधन से मूल केस का जवाब दाखिल करने का निर्देश देते हुए कहा कि क्षेत्राधिकार का मुद्दा वाद के अंतिम निस्तारण में तय करेंगे। इसके बाद अमर उजाला प्रबंधन मेरिट पर जवाब देने से भाग रहा है। पिछली 15 दिसंबर की तारीख पर अमर उजाला ने जवाब नहीं तैयार होने की लिखित माफी मांगते हुए और वक्त मांगा तो श्रम कार्यालय सख्त हो गया और चेतावनी देकर अगली तारीख 11 जनवरी को जवाब देने का आखिरी मौका दिया है। अब यदि अमर उजाला ने जवाब नहीं दिया तो मामले में एकतरफा आदेश पारित हो सकता है।


मजीठिया के दो दर्जन और मुकदमे जल्द दाखिल होंगे

रातोंरात अमर उजाला से हटाकर संवाद न्यूज एजेंसी में ज्वाइन कराए जा रहे स्टाफ की ओर से सिर्फ लखनऊ में दो दर्जन से अधिक मुकदमे मजीठिया वेजबोर्ड के तहत दाखिल होने जा रहे हैं। अमर उजाला की कई यूनिटों से भी अयोध्या केस की कॉपियां मंगाई गई हैं। दरअसल वेजबोर्ड का मुकदमा करने के बाद अमर उजाला न ट्रांसफर कर सकता है न ही निकाल सकता है।


ये सावधानियां बरतनी है-

औद्योगिक विवाद की जगह केवल मजीठिया वेजबोर्ड की 17(1) के तहत मुकदमा दाखिल किए जाए। उद्योग विभाग विवाद का मामला लंबा चलता है और ट्रिब्यूनल में जाने के बाद लटक जाता है। जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से वेजबोर्ड का बकाया का केस जिला स्तरीय एएलसी कार्यालय में दाखिल हो सकता है और वहीं से संक्षिप्त सुनवाई के बाद ही आरआरसी जारी होने का प्रावधान है। इस सच्चाई को जानने वाले पत्रकारों में अब मजीठिया वेजबोर्ड मांगने का क्रेज तेजी से बढ़ रहा है। यह केस करने के बाद प्रबंधन की कोई भी परेशान करने वाली कार्रवाई कोर्ट के निगरानी में आ जाएगी।

[साभारः भड़ास4मीडिया.कॉम]

https://www.bhadas4media.com/jawab-dene-se-bhag-raha-amar-ujala/


Wednesday 30 November 2022

इतिहास याद रखेगा एक पत्रकार से डर गई सरकार



रवीश को लेकर सरकार का यह डर अच्छा लगा

रवीश जहां खड़ें होंगे, उनके पीछे लाइन दोबारा खड़ी हो जाएगी

यह तो होना ही था। अगस्त में जब अडाणी ग्रुप ने एनडीटीवी के 29.18 फीसदी शेयर अप्रत्यक्ष रूप से खरीद लिए थे तो तभी से कयास लग रहे थे कि रवीश को अब जाना होगा या समझौता करना होगा। सत्ता की चाटुकारिता करने की बजाए रवीश ने इस्तीफा देना बेहतर समझा। एनडीटीवी की प्रेसीडेंट सुपर्णा सिंह ने एनडीटीवी के कर्मचारियों को आंतरिक मेल जारी कर इसकी जानकारी दी। इससे पहले एनडीटीवी के संस्थापक प्रणय राय और राधिका राय ने भी आरआरपीआर होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के डायरेक्टर पद से इस्तीफा दे दिया था।

इतिहास इस बात को याद रखेगा कि सत्ता के सामने निडरता से सच बोलने का साहस दिखाने वाले एक पत्रकार के लिए सत्ता ने पूरा संस्थान खरीद डाला। यानी एक पत्रकार ने पूरी सत्ता झुका दी। जब देश में बड़ी-बड़ी संस्थाएं ढह रही हों तो एक एनडीटीवी का ढहना कोई बड़ी बात नहीं है। जनता में संदेश यह गया है कि सरकार एक पत्रकार से डर गयी। यह डर बहुत अच्छा लगा।

रवीश कुमार प्रकरण से मेरे जैसे पत्रकारों के हौसले और अधिक बुलंद हुए हैं। मेरा लोकतंत्र और जनपक्षधरता में और अधिक विश्वास बढ़ा है। मैं अब और मुखरता और निडरता से भ्रष्ट और जनविरोधी तंत्र पर जोर से प्रहार करूंगा। सच यही है कि कलम की ताकत तलवार की मार से अधिक होती है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Wednesday 9 November 2022

मजीठिया की पिच पर दैनिक जागरण क्लीन बोल्ड, देना होगा 57 कर्मियों को ब्याज समेत 21 करोड़


मजीठिया वेजबोर्ड की कानूनी लड़ाई के मैदान पर स्वर्गीय एआर हरीश शर्मा की तैयार पिच पर कर्मियों के मजबूत इरादों, एआर राजुल गर्ग की दमदार पारी और ऐन टाइम पर रविंद्र अग्रवाल की दस्तावेज मांगने की सुझाव रूपी गुगली से जागरण प्रबंधन क्लीन बोल्ड हो गया। अदालत में जागरण द्वारा तैयार किए 20जे के कागजात, जिसे प्रबंधन ने ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल किया था, बेकार साबित हुए। 17-2 पर भी जागरण हिट विकेट हो गया। 7 साल का संघर्ष सोमवार को नोएडा के 57 कर्मियों के जीवन में मुस्कान लेकर आया और जागरण के लिए ब्याज समेत लगभग 21 करोड़ की देनदारी।

इस संघर्ष की नींव तो 2014 में ही पड़ गई थी, जब दैनिक जागरण ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार कर्मचारियों को मजीठिया बेजबोर्ड का लाभ नहीं दिया। इसके बाद कर्मचारियों ने जागरण प्रबंधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर कर संघर्ष का बिगुल बजा दिया था। इसके बाद अवमानना का केस लगाने वाले और पुराने कर्मचारियों को परेशान करने का सिलसिला तेज हो गया। परंतु कर्मचारियों ने हार नहीं मानी और एकजुटता का जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए प्रबंधन की हर ज्‍यादती सहन की। कर्मचारियों ने कड़ी से कड़ी चुनौती और आर्थिक तंगहाली के बावजूद हार नहीं मानी और अपने प्रतिनिधियों का चयन कर लड़ाई जारी रखी। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बीच कर्मचारियों ने डीएलसी स्‍तर पर भी मजीठिया की मांग जारी रखी।

प्रबंधन लगातार दवाब बनाने का प्रयास करता रहा। कर्मचारियों ने 8 जून 2015 को एक मांगपत्र प्रबंधन को सौंपा। इस बीच कर्मचारी काम के दौरान काली पट्टी बांध कर रोष जताते रहे और अपनी एकजुटता प्रदर्शित की। परिणामस्वरूप 14 जुलाई 2015 को डीएलसी नोएडा में देररात चली वार्ता के दौरान समझौता हुआ, जिसमें अवमानना याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने पर उसे लागू करने की बात कही गई।

लेकिन अंदर ही अंदर खार खाए बैठे जागरण प्रबंधन ने चाल चली और कर्मचारियों को दबाने के लिए 2 महिला कर्मियों को निकाल दिया। इससे भी कर्मचारियों के हौसले डगमगाए नहीं। इसके कुछ दिन बाद ही प्रबंधन ने इष्टदेव, रतन भूषण, विवेक त्यागी, सीपी पाठक, प्रदीप कुमार तिवारी समेत 16 कर्मचारियों को बिना जांच किए सीधे नौकरी से निकाल दिया। इनमें से ज्यादातर कर्मचारियों के प्रतिनिधि थे।

इसका भी असर कर्मचारियों पर नहीं पड़ा और वे प्रबंधन के खिलाफ एकजुट खड़े रहे और वे 2 अक्टूबर 2015 को गांधी जयंती के मौके पर मजीठिया को लेकर एक मांगपत्र देने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन तक गए। इसके बाद आनन-फानन में प्रबंधन ने लगभग 200 कर्मचारियों की गेट पर नो एंट्री लगा दी और कार्यालय के बाहर भारी पुलिस बल तैनात करवा दिया। प्रबंधन यहीं नहीं रूका और नोएडा के 200 कर्मचारियों समेत दिल्ली, हिसार, लुधियाना, जालंधर व धर्मशाला के लगभग 350 कर्मचारियों को अवैध हड़ताल व अन्‍य फर्जी आरोप लगाकर निलंबित कर दिया और फरवरी-मार्च 2016 में अवैध बर्खास्तगी कर दी।

अपनी अवैध बर्खास्तगी के बाद भी कर्मचारियों ने हार नहीं मानी और कानूनी लडाई के मैदान पर वे अंगद की तरह पांव जमाए खड़े रहे। उन्‍होंने मजीठिया वेजबोर्ड के एरियर के अलावा अवैध बर्खास्‍तगी के दो अलग-अलग केस दायर किए जो माननीय श्रम न्‍यायालयों में लंबित थे। इसका सुखद फल सोमवार, 7 नवंबर को नोएडा की माननीय अदालत ने मजीठिया वेजबोर्ड एरियर मामले में 57 कर्मचारियों के पक्ष में अपना फैसला सुनाकर दिया। ज्ञात रहे कि यह फैसला दो भागों में आया है। पहले कोर्ट ने जागरण प्रबंधन के सबसे बड़े मगर खोखले हथियार 20जे को निरस्‍त कर दिया था और कर्मचारियों को मजीठिया वेजबोर्ड व अंतरिम राहत का हकदार माना था। इस फैसले में प्रबंधन को रिकार्ड दाखिल करने के निर्देश दिए थे, जो नहीं माने गए। 

नोएडा लेबर कोर्ट में अभी बाकी कर्मचारियों की सुनवाई जारी है और जल्द ही उनका भी फैसला आ जाएगा। अन्य जगहों के कर्मचारी भी मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे हैं। आशा है, नोएडा लेबर कोर्ट की तरह हर जगह के कर्मचारी विजयी होंगे।

शशिकांत सिंह

वरिष्ठ पत्रकार व आरटीआई कार्यकर्ता

मोबाइल नंबर 9322411335

Tuesday 1 November 2022

अरूण खरे जी हिंदी पत्रकारिता के एक सशक्त हस्ताक्षर थे!



अरविंद कुमार सिंह-

कुछ देर पहले भाई ओम पीयूष के फोन से खबर मिली कि अरुण खरे जी चुपचाप चले गए। खबर सच थी। फिर भी कुछ जगह फोन किया। फिर फेसबुक पर मुकुंद, सीमा किरणजी, हिमांशु और कई साथियों की पोस्ट देख कर समझ गया कि खबर सच है।

वे हिंदी पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर और बेहतरीन दोस्त थे। ऐसे दोस्त, जो सुख में भले न दिखें लेकिन तकलीफ में हमेशा साथ होते थे। अपना नुकसान सह कर भी साथ होते थे। यह सब तजुर्बा से कह रहा हूं क्योंकि दो तीन साल तो हमने साथ काम किया था। बाकी जानता तो जाने कब से था।

2011 में मां के निधन के बाद मन बहुत खिन्न था। अरुण जी ने फोन किया, कहा कि सीधे जबलपुर आ जाइए कुछ दिन दोनों मित्र यहीं रहेंगे। मैं उनके पास गया और उनके सात भेड़ाघाट से लेकर जाने कितनी जगहें देखीं, रानी दुर्गावती की समाधि और बहुत कुछ। पुराने मित्र चैतन्य भट्ट जी भी मिले थे। जो तस्वीर साझा कर रहा हूं उसमें पहली तस्वीर उनके साझ भेड़ाघाट जबलपुर की है।


अरुण खरे और अरविंद कुमार सिंह

वे जहां जिस भूमिका में रहे परफेक्ट काम करते थे। दिल्ली लोकल की जबरदस्त जानकारी थी, राजनीतिक विषयों पर गहरी समझ थी और संसदीय मामलों में भी श्रम से उन्होने एक अलग पहचान बनायी थी। साहित्य, कला और संस्कृति पर भी उनकी समझ बहुत गहरी थी।

उनके संपर्कों का दायरा विशाल था। उन्होने कई पत्रकार साथियों को निखारा और मदद की। बुंदेलखंड के मामले में वे बहुत गहरी समझ रखते थे। मैने उनको कई बार कहा कि एक पुस्तक इस पर लिखिए। टाला नहीं, लेकिन लिखा भी नहीं। दरअसल उनसे लिखवा सकता था लेकिन जिद करके बैठना पड़ता।

चंद माह पहले मैं संसद भवन में था तो उनका फोन आया। हाल चाल के बाद तय हुआ था कि जल्दी वे दिल्ली आएंगे और फिर विस्तार से बात होगी। वे नहीं आये, लेकिन उनके न होने की खबर आयी।

बहुत सी यादें हैं और बहुत कुछ लिखने के लिए भी है। लेकिन लिखा नहीं जा रहा हूं। मन बहुत भारी है। कोई ऐसे भी जाता है अरुण भाई।

[source: https://www.bhadas4media.com/arun-khare-ki-yaad/]

नहीं रहे वरिष्ठ पत्रकार अरुण खरे



मुकुंद मित्र-

अपने बेहद अभिन्न और बड़े भाई अरुण खरे का आज कानपुर ले जाते समय रास्ते में निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार कल सुबह बांदा में होगा। हे परमात्मा उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान जरूर देना।


राजू मिश्र-

बांदा जिले के छोटे से नरैनी कस्बे से निकलकर जिला मुख्यालय और फिर राष्ट्रीय राजधानी में कलम का लोहा मनवाने वाले अरुण खरे ने संक्षिप्त बीमारी के बाद आज दुनिया को अलविदा कह दिया।

गोरे थे सो देखने मे बिल्कुल अंग्रेज लगते थे। बाजदफे लोग धोखा भी खा जाते थे। पाठा के जंगलों में सूखे की रिपोर्टिंग करते हुए ऐसे कई वाक्ये हुए। मुफलिसी से लेकर शाहखर्ची तक का लंबा साथ रहा। ट्रेन में बिना टिकट भी चले और टिकट लेकर एसी फर्स्ट क्लास में भी।

बीते दिन आंखों के सामने सपने के मानिंद तैर रहे हैं। कमासिन में हम दोनों ने एक औरत के सती होने का खौफनाक दृश्य देखा। सिगरेट बहुत पीते थे, पीते ही नहीं बल्कि चेनस्मोकर थे। दैनिक कर्मयुग प्रकाश के दिनों में वह पहला पेज देखते थे और हम शहर/ग्रामीण।

कभी कहते कि आकाशवाणी वाले धीमी गति के समाचार पत्रकारों को काहिल बनाने के लिए चलाते हैं, हम कहते कि नहीं, यह तो पत्रकारों के प्रति उनकी सदाशयता है।

तमाम झंझावातों के बावजूद हमारी बरात में वह गए, उनकी बरात में हम। बहुत ही नेक, शरीफ और सह्रदय व्यक्ति थे। मिलनसारिता के तो कहने ही क्या!

रिक्शेवाले या भिखारी को मनमाना पैसा दे देना उनकी फितरत थी, भले ही अपनी खातिर कुछ न बचे।

परमात्मा इस असीम वेदना को सहन करने की भाभी जी और बच्चों को अपार शक्ति दें। अरुण जी आप बहुत याद आएंगे। अंतिम प्रणाम।

[source: https://www.bhadas4media.com/arun-khare-death/]

Saturday 29 October 2022

IFWJ Demands Retention of Expanded Working Journalist Act


New Delhi, 29 October. Indian Federation of Working Journalists (IFWJ) celebrated its 73rd foundation day yesterday i.e., 28th October 2022 all over the country. In a function held at the Press Club of India, the IFWJ President B V Mallikarjunaih, who specially came from Bengaluru to attend the meeting, underlined the need for retention of the exclusive Working Journalist Act, which must have the journalists of genres in its ambit. He said that the Press Council should be scrapped to be replaced by an effective Media Council.

The meeting was attended by a large number of journalists from different media organisations.

DUWJ President Alkshendra Singh Negi expressed concern over the apathetic attitude of government(s) over the unabated exploitation of workers and violation of labour laws by the owners of media houses. Negi said that more than 30,000 journalists all over the country have been thrown out of their jobs after they asked for the implementation of the Majithia Wage Board recommendations but the sad part of it was that neither the government (s) nor judiciary or even trade unions was bothered about the harrowing plights of journalists.

Journalist Vinod Takiawala emphasised that a uniform Pension scheme should be introduced to take care of old and retired journalists. Vivek Tyagi of Dainik Jagran said that on the occasion of the Foundation Day of the IFWJ we should reiterate our vow to fight for the honour and the dignity of the profession which could not be allowed to be swallowed by the Labour Codes. Other participants expressed their views on such laws which must mitigate the problems and difficulties of the journalists. It was resolved that the IFWJ would write letters to different departments and ministries highlighting the problems of the journalists and demanding their solutions. The struggles waged by the IFWJ for the economic and professional betterment of the journalists were recalled by the speakers in the meeting.

Vijay Verma said that for the sake of transparency in government departments, journalists should have to be at the forefront. Gita Rawat of the Rashtriya Sahara was of the view that unless the workers were aware of their rights, it would be too much to expect that others would provide them. Rachna wanted the journalists to devote some of their energy and time to some social work also.


Parmanand Pandey

Secretary General (IFWJ)


Wednesday 19 October 2022

32 साल लंबी कानूनी लड़ाई जीते राजेंद्र, मिलेगा 100 प्रतिशत बकाया वेतन

 


17 साल बाद हाइकोर्ट ने भोपाल लेबर कोर्ट के फैसले को सही माना


भोपाल। एक कहावत है अंत भला तो सब भला। आज ये कहावत वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र मेहता के संदर्भ में सटीक बैठती है। वरिष्ठ पत्रकार  राजेंद्र मेहता ने 32 साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़कर नवभारत अखबार को चारों खाने चित कर दिया है। मप्र उच्च न्यायालय ने नवभारत प्रबंधन की लेबर कोर्ट के आदेश के खिलाफ लगी याचिका को खारिज कर दिया है। अब नवभारत को वर्ष 1990 से लेकर अब तक का पूरा वेतन राजेंद्र मेहता को देना होगा। 

दरअसल बात सन 1990 की है जब मेहता नवभारत भोपाल में उप सम्पादक के पद पर पदस्थ थे। प्रबंधन ने उनके बेहतर काम को देखते हुए उन्हें बच्छावत वेतनमान देकर 2700 रुपये प्रतिमाह  वेतन फिक्स कर दिया। लेकिन ये बात वहाँ काम कर रहे कई चापलूस पत्रकारों को रास नहीं आई, जिसके बात उन्होंने मालिकों के कान भरना शुरू कर दिए। परिणामस्वरूप 14 जून 1990 को प्रबंधन ने अकारण ही मेहता की सेवाएं समाप्त कर दीं। अपना काम निष्ठा और ईमानदारी से कर रहे राजेंद्र को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने नवभारत मालिकों के इस तुगलकी फरमान के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने की जिद पाल ली। इस दौरान वरिष्ठ पत्रकारों और कई साथियों ने उन्हें समझाया भी कि नवभारत के खिलाफ लड़ना कितना मुश्किल है। 

गौरतलब है कि 90 के दशक में मध्यप्रदेश में नवभारत का जो स्वर्णिम काल था वो न तो पहले न बाद में किसी को नसीब हो पाया। फिर भी राजेंद्र अपनी धुन के पक्के आदमी थे, जो ठान लिया उसे पूरा करना ही है। अंजाम कुछ भी हो। 1990 में भोपाल श्रम न्यायालय में नवभारत प्रबंधन के खिलाफ अवैध सेवा समाप्ति का वाद दायर हुआ। स्वर्गीय शरद शुक्ला ने इस मामले को पूरी जी जान और ताकत के साथ लड़ा। भोपाल श्रम न्यायालय में 17 साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आखिरकार मार्च साल 2007 में लेबर कोर्ट ने मेहता के हक में अवार्ड पारित करते हुए उन्हें पिछले समस्त बकाया वेतन के साथ बहाल करने के निर्देश दिए। नवभारत प्रबंधन ने इस फैसले को मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय जबलपुर में चुनौती दी। हाइकोर्ट में ये मामला करीब 15 साल तक चला। हाल ही में 12 अक्टूबर 2022 को मामले में आदेश सुनाते हुए हाइकॉर्ट की एकलपीठ ने नवभारत की याचिका खारिज करते हुए लेबर कोर्ट भोपाल के वर्ष 2007 के आदेश को उचित माना है। 32 साल की लम्बी तपस्या के बाद मेहता को पूरा न्याय और पिछला वेतन और समस्त हितलाभ भी मिलेंगे। ये केस उन निराशावादी लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो कहते हैं कोर्ट में लड़ाई लड़ने से कुछ हासिल नहीं होता। 

गौरतलब है कि जबलपुर हाइकोर्ट में भी  मेहता की ओर से शुरुआत में वरिष्ठ अधिवक्ता सुजय पॉल ने मामले में पक्ष रखा। पॉल बाद में मप्र उच्च न्यायालय में ही न्यायाधीश बन गए, जिसके बाद अशोक श्रीवास्तव रूमी और स्वप्निल खरे ने मामले में पैरवी की और केस को अंजाम तक पहुंचाया। राजेन्द्र मेहता वर्तमान में स्टेट वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के संयोजक हैं और पूरे प्रदेश में पत्रकार और गैर पत्रकार साथियों की मदद को तत्पर रहते हैं। 

(साभार: स्टेट वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन एमपी)



Sunday 9 October 2022

हिमाचल हाईकोर्ट ने अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामलों को निपटाने के लिए बनाए नियम


हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामलों को निपटाने के लिए प्रारूप तैयार किया है। इसके तहत निर्धारित मामले निपटाए जाने पर जजों के कार्य का मूल्यांकन किया जाएगा। जिला एवं सत्र न्यायाधीश के लिए एक महीने में कम से कम 10 मामले निपटाने के नियम बनाए गए हैं। इसी तरह ट्रायल को निपटाने के लिए 60 दिन का समय तय किया गया है। सिविल जज के लिए एक दिन में एक मामला निपटाने का नियम बनाया गया है।

हाईकोर्ट ने 15 अक्टूबर तक सभी जजों से इस बाबत सुझाव मांगे हैं। अधीनस्थ न्यायालयों में इस समय कुल 4,74,011 मामले लंबित हैं। एक जज के लिए औसतन 3,361 मामले निपटाने का जिम्मा है। इन मामलों को शीघ्रता से निपटाने के लिए हाईकोर्ट ने प्रारूप तैयार किया है। जजों के कार्य का मूल्यांकन अंकों के आधार पर किया जाएगा। एक महीने में जितने मामले निपटाए जाएंगे, उसके हिसाब से अंक दिए जाएंगे। 140 अंक से अधिक अंक लेने पर सर्वश्रेष्ठ कार्य गिना जाएगा। 121 से 140 अंक लेने पर बहुत अच्छा, 101 से 120 अंक लेने के लिए अच्छा, 89.50 से 100 अंक पर सामान्य और 89.50 अंक से नीचे अपर्याप्त माना जाएगा।

डिमोट भी किए जाएंगे जज

प्रारूप में स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई जज निर्धारित मामलों को निपटाने में विफल रहता है तो उसे अयोग्य आंका जाएगा। लगातार दो मूल्यांकन अवधि में निर्धारित मामलों को निपटाने में विफल रहने पर संबंधित जज को डिमोट किया जाएगा। ऐसे जज को 50 वर्ष की आयु पूरी करने पर उपयोगिता की समीक्षा करते समय इस कारक को ध्यान में रखा जाएगा। सभी जजों के कार्य का मूल्यांकन वर्ष में चार बार किया जाएगा।


Tuesday 4 October 2022

DUJ Blasts Himachal Diktat on Press as Unprecedented and Ominous

New Delhi, 4 Oct 2022. The Delhi Union of Journalists (DUJ) is appalled at the Himachal Pradesh government's diktat that all journalists wishing to cover the Pradhan Mantri's visit to Bilaspur, should submit a character certificate to the CID. We welcome the last minute move by the government to withdraw the ill conceived order, the statement added.

In a joint statement today,  the Delhi Union of Journalists, President S.K.Pande  and General Secretary Sujata Madhok charged that the ‘diktat was itself ominous a colorable exercise of power meant to browbeat the press ‘.

It added : ‘The District administration's order has raised a controversy, forcing the Himachal Police Chief to belatedly withdraw the order a day before the visit scheduled for Oct 5, 2022’. 

The DUJ observes that such excessive surveillance of journalists is making our job more difficult by the day. The 'character certificate' edict seems absurd, a moral rearmament type move by an overzealous district administration. But it is also an ominous sign of the times and indeed unprecedented.  It smacks of a dangerous tendency to muzzle the press.

A deep-rooted suspicion of journalists and increasing moves to curb our access to government offices, ministries and even Parliament is indeed becoming a hallmark of this administration, from the centre to select states. The statement added “Only a favored few are granted access, making governance less transparent. This militates against the democratic spirit of our Constitution, and smacks of a dangerous situation akin to an undeclared Emergency, signs of which are already visible.”

Friday 30 September 2022

Circulation fraud of Navabharat !

Journalists treated like daily wage earners

Navbharat takes everyone for a ride


The newspaper owners earn crores of rupees on the sweat of the journalists, but they are treated like daily wage earners by some of the newspapers, the Special Investigation Team of the Sprouts has learnt.

The inflation has gone up and salaries of most of the employees have been increased. But the journalists and media employees continue to toil on a meagre salary. To give justice to the scribes and bring their salary on par with others, the Union Government had set up the Majithia Commission.

The Majithia Commission fixed the salary grades of DTP Operators, Artists, Editor, Executive Editor, Sub Editor and others. However “Navabharat” daily newspaper has bypassed all these recommendations and has been irregular in paying salaries to the staff.

The journalists working in Navabharat revolted against the adamant attitude of the Navabharat management and approached the Thane labour commissioner. But they faced disappointment and could not get justice. Now they have filed a writ petition in the Bombay High Court seeking justice. Besides, the labour commissioner has forwarded this matter to the labour court. Now since the issue is expected to boomerang, the agents of the Navabharat management have begun implicating the journalists and other employees in false cases.

 

Readers, advertisers, Govt were taken for a ride

“Navabharat” is published in Mumbai, Nashik and Pune. 38373 copies of the Mumbai edition, 2263 copies of the Nashik edition and 11206 copies of the Pune edition are printed per day.  However, the Registrar for Newspapers in India (RNI) is cheated by presenting inflated figures by the management. The print order of the Mumbai edition is shown as 200,9500,  the Nashik edition is shown as 100544 and that of the Pune edition is shown as 204804. These figures are as of April 14, 2018 (before lockdown).

▪︎ The circulation of most newspapers has come down by 60 per cent after the lockdown. The circulation of all three editions of Navabharat is not more than 18, 000. However, the same old figures are submitted to the RNI. This is pure cheating of the readers, advertisers and the Government. The management collects crores of rupees by hoodwinking the advertisers. The complaint has already been lodged with the Mumbai police Commissioner about this fishy affair.

 

Sprouts Exclusive

Unmesh Gujarathi

Editor in Chief

sproutsnews.com 

https://www.facebook.com/unmesh.gujarathi.1/

(9322 755098)

नवभारत का सर्कुलेशन स्कैंडल!

नवभारत मैनेजमेंट की मनमानी से सैकड़ों कर्मचारी परेशान

आवाज दबाने के लिए अपना रहा तरह-तरह के हथकंडे


पत्रकारों और गैर पत्रकारों की मेहनत पर हर महीने करोड़ों रुपये विज्ञापन के जरिए कमाने वाला मुंबई से प्रकाशित नवभारत का मैनेजमेंट कर्मचारियों का लगातार शोषण कर रहा है। कोरोना काल के पहले दर्जनों कर्मचारी मैनेजमेंट के शोषण का शिकार हुए। कोरोना काल के दौरान मानो मैनेजमेंट की लॉटरी लग गई हो। इस दौरान मैनेजमेंट ने कई कर्मचारियों से जबरन इस्तीफे लिए और उन्हें कान्ट्रैक्ट पर रखा, जिन कर्मचारियों ने कान्ट्रैक्ट स्वीकार नहीं किया उनसे जबरन इस्तीफे लेकर उनके मेहनत की कमाई मसलन ग्रेज्युटी के पैसे मात्र पांच-पांच हजार रुपये महीने का ही दिया। यह खुलासा स्प्राउट्स की स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम ने किया है। 

टीम के सदस्यों से कई कर्मचारियों ने मिलकर अपनी आपबीती सुनाई। इनमें कुछ कर्मचारी वर्षों से परमानेंट और सैलरी के लिए कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं। इस उम्मीद से कि एक दिन न्याय मिलेगा। नवभारत प्रबंधन की मनमानी यहीं समाप्त नहीं हुई। कर्मचारियों ने पीएफ डिपार्टमेंट से भी शिकायत की है, जिसमें कहा है कि अक्टूबर 1997 से शुरू हुआ अखबार 2005 तक करीब आधा दर्जन कर्मचारियों का डिडेक्शन नहीं किया। वहीं जिन लोगों का किया वह भी पीएफ के नियम के अनुसार नहीं कर रहा है। 

कर्मचारी पीएफ वाशी कार्यालय से आर्डर निकालने में सफल हुए, लेकिन मामला ट्रिब्यूनल कोर्ट में अटका हुआ है। उधर कुछ कर्मचारी ठाणे लेबर कमिश्नर के पास न्याय की उम्मीद लेकर गए, लेकिन उन्हें लेबर कोर्ट भेज दिया गया। यहां भी तारीख मिल रही है। इस बीच नवभारत मैनेजमेंट पुलिस का सहारा लेना शुरू किया है और कर्मचारियों को छूठे केस में फंसाने की कोशिश कर रहा है।

रीडर, विज्ञापनदाता व सरकार की आंखों में झोक रहा धूल

शातिर दिमाग नवभारत मैनेजमेंट यहीं तक नहीं रुका है, उसने आरएनआई अधिकारियों की मिलीभगत से लाखों प्रतियां छापने का सर्टिफिकेट लेकर हर महीने डीएवीपी और डीजीआईपीआर के अलावा प्राइवेट विज्ञापन के जरिए करोड़ों कमा रहा है।

वास्तविकता सामने यह है कि कोरोना काल के पहले नवभारत मुंबई की 30 से 40 हजार के बीच में प्रतियां छपती थीं, जबकि कोराना के बाद यह घटकर 10 से 12 हजार के बीच में आ गई हैं।

इसके बावजूद आरएनआई अधिकारियों की मिलीभगत से मैनेजमेंट ने मुंबई एडीशन 2 लाख 95 हजार, नाशिक एडीशन का 1 लाख 544 हजार और पुणे एडीशन का 2 लाख 4 हजार 804 प्रतियां प्रतिदिन छापने का सर्टिफिकेट लिया है, जबकि स्प्राउट्स की स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम की छानबीन में पता चला कि 11 अप्रैल 2018 को मुंबई के लिए 38 हजार 373, नाशिक के लिए 2 हजार 263, पुणे के लिए 11 हजार 206 प्रतियां ही नवभारत की छापी गई हैं।

 इस संबंध में 26 मई 2022 को तत्कालीन मुंबई पुलिस कमिश्नर संजय पांडेय से जांच की मांग करते हुए एक एविडेंस के साथ पत्र लिखा गया, लेकिन पुलिस की ओर से अभी तक छानबीन किए जाने की जानकारी नहीं मिली है।

Sprouts Exclusive  .

Unmesh Gujarathi

Editor in Chief

sproutsnews.com 




Thursday 29 September 2022

पीटीआई से निकाले गए 297 मीडियाकर्मियों की तुरंत वापसी के लिए मुख्यालय पर जमावड़ा

फेडरेशन ऑफ पीटीआई इम्प्लाईज यूनियन्स ने विरोध दिवस मनाया


नई दिल्ली, 29 सितंबर। फेडरेशन ऑफ पीटीआई इम्प्लाईज यूनियन्स ने चार वर्ष पूर्व आज के ही दिन अवैध ढंग से अपने 297 साथियों को पीटीआई की नियमित सेवा से निकाले जाने के खिलाफ यहां संसद मार्ग पर पीटीआई बिल्डिंग स्थित पीटीआई मुख्यालय पर विरोध दिवस मनाया और प्रबन्धन से चार वर्ष पूर्व अवैध ढंग से निकाले गये अपने सभी नियमित कर्मचारियों को ड्यूटी पर वापस लेने की आज मांग दोहरायी।

फेडरेशन ऑफ पीटीआई इम्प्लाईज यूनियन्स के महासचिव बलराम सिंह दहिया ने पीटीआई प्रबन्धन की चार वर्ष पूर्व 297 नियमित कर्मचारियों के खिलाफ की गयी रिट्रेंचमेंट की इस कार्रवाई को पूरी तरह अवैधानिक एवं अमानवीय बताया। उन्होंने कहा कि वर्ष 1948 में अपनी स्थापना के समय से ही पीटीआई के सभी पत्रकार एवं गैर पत्रकार एक परिवार की तरह मिलजुल कर देशहित को सामने रख कर काम करते थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों में पीटीआई प्रबन्धन बिलकुल मनमाना व्यवहार किया है और उसी का परिणाम है कि आज 297 नियमित कर्मचारी सड़क पर हैं। इन्हीं कर्मचारियों के खून पसीने की मेहनत से पीटीआई ने देश के समाचार की दुनिया में अपना सर्वोच्च स्थान बनाया था और आज उन्हीं को एक झटके में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

इससे पूर्व बड़ी संख्या में एकत्रित पीटीआई के कर्मचारियों एवं छंटनी किये गये कर्मचारियों ने आज संसद मार्ग पर स्थित पीटीआई बिल्डिंग में पीटीआई बोर्ड के अध्यक्ष अवीक सरकार एवं आधा दर्जन अन्य निदेशकों तथा शीर्ष प्रबंधन की उपस्थिति में जमकर नारेबाजी की और विरोध प्रदर्शन किया। पीटीआई मुख्यालय पर आज पीटीआई बोर्ड की वार्षिक आम सभा :एजीएमः भी आयोजित थी जिसमें बोर्ड के अध्यक्ष एबीपी समूह के अवीक सरकार, उपाध्यक्ष डेक्कन हेराल्ड समूह के केएन शान्त कुमार, बोर्ड के नये निदेशक दक्षिण भारत के दिनमलार समूह के एल आदिमूलम् समेत 16 सदस्यों में से सात सदस्य उपस्थित थे।

पीटीआई की सेवा से रिट्रेंच किये गये कर्मचारियों के विरोध दिवस के कार्यक्रम में रांची से आये नेशनल कान्फेडरेशन ऑफ न्यूज पेपर्स एंड न्यूज एजेंसीज इंप्लाईज ऑर्गनाइजेशन्स के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा पीटीआई फेडरेशन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य डा. इन्दुकान्त दीक्षित ने कर्मचारियों को अपना संघर्ष जारी रखने के लिए उत्साहित किया और बताया कि कर्मचारियों का मामला दिल्ली उच्च न्यायालय से होता हुआ अब मुंबई स्थित राष्ट्रीय न्यायाधिकरण :नेशनल ट्रिब्यूनलः में है जहां अब 20 अक्टूबर को निकाले गये कर्मचारियों को अंतरिम राहत देने के मुद्दे पर बहस होनी है। उन्होंने कर्मचारियों से धैर्य के साथ न्यायिक लड़ाई लड़ने की अपील की और कहा कि देश के मीडिया के इतिहास में यह पहला मामला है जो फेडरेशन ऑफ पीटीआई इंप्लाईज यूनियन्स के प्रयास से राष्ट्रीय न्यायाधिकरण में पहुंचा है और वहां कर्मचारियों को शीघ्र न्याय मिलने की पूरी संभावना है।

फेडरेशन के अनुरोध पर सक्रियता से कार्रवाई करते हुए केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने पिछले माह ही देश के अधिकतर सीजीआईटी एवं मुंबई एवं कोलकाता स्थित एनआईटी में पीठासनी पदाधिकारियों :प्रिसाइडिंग आफीसर्सः की नियुक्ति कर दी थी जिसके बाद वहां लंबित मामलों पर सुनवाई पुनः प्रारंभ हो गयी है।

पीटीआई फेडरेशन के इस विरोध दिवस का समर्थन नेशनल कान्फेडरेशन ऑफ न्यूज पेपर्स एंड न्यूज एजेंसीज इंप्लाईज ऑर्गनाइजेशन्स, दिल्ली यूनियन आफ जर्नलिस्ट, आईएफडब्लूजे, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया समेत तमाम संगठनों ने भी किया और पीटीआई प्रबन्धन से मांग की कि वह अपने इस अवैध कदम को तुरत वापस ले जिससे चार वर्ष पूर्व संस्था से अवैध ढंग से निकाले गये कर्मचारियों एवं उनके परिजनों को राहत मिल सके।

विरोध दिवस के पूरे कार्यक्रम की मेजबानी पीटीआई वर्कर्स यूनियन दिल्ली ने की जिसकी अध्यक्ष रेणू सिन्हा एवं महासचिव सीएल गुप्ता विरोध दिवस के इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सभी ट्रेड यूनियन्स एवं कर्मचारियों का धन्यवाद किया तथा कर्मचारियों की शंकाओं एवं प्रश्नों का समाधान किया।

(source: https://www.bhadas4media.com/pti-se-nikale-gaye-karmiyo-ka-virodh-diwas/)

Friday 16 September 2022

भास्कर ग्रुप की गजब बेइज्जती, ऑफिस सील करने आ गए सरकारी कर्मचारी, काट दी बिजली, मचा हड़कंप

 



मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ न देने पर  दिव्य मराठी के कार्यालय की आधे घंटे लाइट काटी गई 


कर्मचारियो की पहल से डीबी कॉर्प  प्रबंधन को दिखे दिन में तारे


कंपनी को करना होगा हाईकोर्ट में 21 सितंबर को कर्मचारियों का  आधा पैसा जमा


 जस्टिस मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार   अपने कई कर्मचारियों की वेतन वृद्धि न करने एवं उनका एरियर नहीं देने पर दैनिक भास्कर समूह (डीबी कॉर्प लिमिटेड) के   दैनिक दिव्य मराठी के औरंगाबाद कार्यालय को गुरुवार को सरकारी महकमे ने दिन में ही तारे दिखा दिए जिसके बाद कंपनी प्रबंधन को भागकर पहले सरकारी विभाग फिर अंत मे  हाईकोर्ट की शरण मे जाना पड़ा तब जाकर उन्हें इस आश्वासन पर राहत मिली कि वे 21 तारीख को कर्मचारियों का बकाया आधा पैसा  हाईकोर्ट में जमा करेंगे। सरकारी महकमे द्वारा दिव्य मराठी ऑफिस सील करने की प्रक्रिया लगभग पांच घंटे चली।

   


बताते हैं कि दैनिक  दिव्य मराठी का प्रकाशन करने वाली कंपनी डीबी कॉर्प के डिप्युटी न्यूज़ एडिटर सुधीर जगदाले सहित अन्य कई कर्मचारियों ने जस्टिस मजीठिया वेज बोर्ड मामले में  अपने बकाए एरियर का मामला माननीय श्रम श्रम न्यायालय से जीता था।श्रम न्यायालय से कर्मचारियों के पक्ष में फैसला आने के बाद डीबी कॉर्प बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ गयी जहां हाईकोर्ट ने डीबी कॉर्प को निर्देश दिया कि पहले निर्धारित अवार्ड का 50 परसेंट रकम कोर्ट में जमा करें।मगर डीबी कॉर्प ने ये रकम नहीं जमा की। इसके बाद इन कर्मचारियों के पक्ष में आये अवार्ड को लेकर डीबी कॉर्प  को सरकारी महकमे द्वारा कर्मचारियों को पैसा देने के लिए चार नोटिस भेजी गई मगर डीबी कॉर्प ने फिर भी कर्मचारियों को पैसा नहीं दिया।जिसके बाद सरकारी महकमा जिसमे तहसील ऑफिस के लोग और बिजली विभाग के लोग  दिव्य मराठी के औरंगाबाद स्थित ऑफिस में उसे सील करने लाव लश्कर के साथ गुरुवार को  आधमके और ऑफिस में कार्यरत सभी कर्मचारियों को थोड़ी देर के लिए बाहर कर दिया गया ।ऑफिस सील करने की प्रक्रिया शुरू होते ही भास्कर प्रबंधन में हड़कंप मच गया। उन्होंने तुरंत अपनी टीम को इस ऑफिस सील प्रक्रिया को रुकवाने के लिए सरकारी ऑफिसों में दौड़ाया । इस दौरान सरकारी अधिकारियों को फोन पर फोन किये गए।उधर दिव्य मराठी गयी सरकारी टीम ऑफिस सील करने पर अड़ी थी। मगर डीबी कॉर्प प्रबंधन को हर जगह निराशा हाथ लगी  जिसके बाद निराश प्रबंधन तुरंत हाईकोर्ट भागा।इस दौरान दिव्य मराठी ऑफिस का लाइट कनेक्शन काट दिया गया।जिससे पूरा ऑफिस अंधेरे में डूब गया।सूत्र बताते हैं कि डीबी कॉर्प में हाईकोर्ट को बताया  है कि 21सितंबर को  वह कर्मचारियों का बकाया आधा पैसा जमा कर रहा है तब तक ऑफिस सील करने की कारवाई रोकी जाए।जिसके बाद हाईकोर्ट ने कारवाई रोकने का आदेश दिया।अब डीबी कॉर्प को दिव्य मराठी के इन कर्मचारियों का अवार्ड के हिसाब से आधा पैसा 21 सितंबर को हाईकोर्ट  में जमा करना पड़ेगा।फिलहाल इस पूरी कारवाई के बाद भास्कर प्रबंधन को दिन में तारे नजर आरहे हैं।और कर्मचारियों में खुशी की लहर है।



शशिकान्त सिंह

पत्रकार और आरटीआई एक्सपर्ट तथा उपाध्यक्ष न्यूज़ पेपर एम्प्लॉयज यूनियन ऑफ इंडिया 

9322411335

Sunday 4 September 2022

प्रेस क्लब आफ इंडिया के खिलाफ केस जीत गए ये तीन कर्मचारी


प्रेस क्लब आफ इंडिया के प्रबंधन ने अपने तीन कर्मचारियों को तानाशाही तरीके से निकाल दिया था. ये मामला दस साल पुराना है।

इन कर्मचारियों श्याम कनौजिया, राकेश पंत और नरेश कुमार ने अपने टर्मिनेशन के खिलाफ लेबर कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया।

कई बरस तक चली सुनवाई के बाद अब तीनों कर्मचारियों के पक्ष में फैसला आया है. क्लब को अपने इन तीनों कर्मियों को लाखों रुपये की पिछली तनख्वाह देनी होगी और इन्हें नौकरी पर भी रखना होगा।

इस फैसले से प्रेस क्लब आफ इंडिया में कार्यरत कर्मचारियों में खुशी की लहर है।

(source: https://www.bhadas4media.com/press-club-of-india-case-shyam-rakesh-naresh/)


मुजफ्फरपुर के कुणाल बने ‘मजीठिया’ का ब्याज समेत पूरा एरियर पाने वाले पहले क्रांतिकारी


कुणाल प्रियदर्शी का फोटो उनके फेसबुक वॉल से साभार

-    57 महीने की लंबी लड़ाई के बाद हासिल की उपलब्धि

-    सिविल कोर्ट के आदेश पर बैंक ने कंपनी के खाते से काटी राशि, कुणाल के खाते में किया   स्थानांतरित

-    30 अगस्त से न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड का बैंक अकाउंट था अटैच

-     आठ प्रतिशत ब्याज के साथ हुआ बकाया राशि का भुगतान

मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों के लिए शनिवार का दिन ऐतिहासिक रहा।

देश में पहली बार एक क्रांतिकारी को न सिर्फ वेजबोर्ड के अनुसार बकाया वेतन का पूरा भुगतान हुआ, बल्कि उस राशि पर आठ प्रतिशत की दर से ब्याज भी मिला।मामला ‘गणतंत्र की जननी’ बिहार की धरती से जुड़ा है। यह उपलब्धि हासिल की है मुजफ्फरपुर जिला निवासी कुणाल प्रियदर्शी ने.। वे बीते 57 महीने से प्रभात खबर अखबार प्रबंधन (न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड) के खिलाफ मजीठिया वेजबोर्ड की लड़ाई लड़ रहे थे।

शनिवार को सिविल कोर्ट मुजफ्फरपुर के आदेश पर आइसीआइसीआइ बैंक प्रबंधन ने कंपनी के खाते से लगभग 24 लाख रुपये की राशि काट कर न सिर्फ कुणाल के बैंक अकाउंट में स्थानांतरित किया, बल्कि इसकी सूचना लिखित रूप से कोर्ट को भी दी है।बीते 30 अगस्त को ही कोर्ट के आदेश से बैंक प्रबंधन ने न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड के बैंक अकाउंट को अटैच कर दिया था।

प्रभात खबर मुजफ्फरपुर यूनिट में न्यूज राइटर के रूप में काम करने वाले कुणाल ने 3 दिसंबर 2017 को मजीठिया वेजबोर्ड की आधिकारिक लड़ाई शुरू की थी। जून 2019 में मामला मुजफ्फरपुर लेबर कोर्ट में स्थानांतरित हुआ। कुणाल ने शुरूआत से ही अपने केस की पैरवी खुद करने का फैसला लिया। करीब एक साल तक चली लंबी लड़ाई के बाद लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर ने जून 2020 में कुणाल के पक्ष में अवार्ड पारित किया। इसमें कंपनी को बकाया वेतन के साथ-साथ उस पर 3 दिसंबर 2017 से अंतिम भुगतान की तिथि तक आठ प्रतिशत ब्याज देने का आदेश भी दिया गया।कंपनी की ओर से जब भुगतान नहीं किया गया तो कुणाल ने आइडी एक्ट के सेक्शन 11(10) के तहत लेबर कोर्ट में अवार्ड एग्जीक्यूशन के लिए आवेदन दिया। मामला सिविल कोर्ट मुजफ्फरपुर रेफर हुआ, जहां सब जज-1 पूर्वी, मुजफ्फरपुर में 7 फरवरी 2021 से सुनवाई शुरू हुई।यहां भी कुणाल ने खुद अपने केस की पैरवी करने का फैसला लिया। सुनवाई के दौरान कंपनी की ओर से एग्जीक्यूशन की प्रक्रिया पर सवाल उठाये गये. पर, कोर्ट ने कुणाल की दलील को सही मानते हुए 23 जुलाई, 2022 को एग्जीक्यूशन के आवेदन को स्वीकार करते हुए अवार्ड की राशि की वसूली प्रक्रिया शुरू करने का फैसला लिया। 30 अगस्त 2022 को कोर्ट ने बैंक प्रबंधन को कंपनी का अकाउंट अटैच कर अवार्ड की राशि कुणाल के खाते में ब्याज सहित भुगतान का लिखित आदेश दिया था।

एग्जीक्यूशन केस में कई ऐतिहासिक क्षण भी आये।देश में पहली बार कोर्ट ने स्वीकार किया कि वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(2) के तहत पारित अवार्ड का एग्जीक्यूशन कोर्ट के माध्यम से हो सकता है।शुरुआत में कोर्ट नोटिस के बावजूद जब अखबार प्रबंधन हाजिर नहीं हुआ, तो कोर्ट के आदेश पर हिन्दुस्तान अखबार के रांची संस्करण में उन्हें हाजिर होने का नोटिस छपा। यह पहला मौका था, जब मजीठिया वेजबोर्ड की लड़ाई में एक अखबार के प्रबंधन के खिलाफ दूसरे अखबार में इस तरह का नोटिस छपा।वेजबोर्ड के अनुसार बकाया राशि की वसूली के लिए दूसरी बार कोर्ट के आदेश पर किसी अखबार का बैंक अकाउंट अटैच हुआ। 


शशिकान्त सिंह

पत्रकार,मजीठिया क्रांतिकारी और उपाध्यक्ष न्यूज़ पेपर एम्प्लॉयज यूनियन ऑफ इंडिया (एन इ यू)j

9322411335

गौरतलब है इससे पहले स्टेटसमैन के साथी मजीठिया के अनुसार एरियर की आधी राशि दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद पा चुके हैं।

गौरतलब है कुणाल ने अदालत में खुद अपनी पैरवरी की थी और इस दौरान कुणाल मजदूरों के मसीहा वकील स्वर्गीय हरीश शर्मा जी से भी संपर्क में आए थे और उनसे समय-समय पर कानूनी राय भी लेते रहे थे। 

Saturday 3 September 2022

मजीठिया पर सबसे बड़ी खबर: कुणाल को मिला 24 लाख, साथियों में खुशी की लहर

 


दोस्तों  गुड न्यूज


अपने एक साथी और मजीठिया क्रांतिकारी प्रभात खबर अर्थात न्यूट्रल पब्लिसिग हाउस प्राईवेट लिमिटेड से केस जितने के बाद कंपनी ने मजीठिया मामले में  एरियर का बकाया बड़ा एमाउंट (23 लाख 75 हजार रुपए) कल शनिवार (3 सितंबर 2022) को उनके खाते में ट्रांसफर कर दिया। इस तरह हम सबका एक साथी बना मजीठिया का पहला विजेता जिसके खाते में पैसा आगया है।इस साथी ने खुद इस बात की जानकारी दी।इस साथी का नाम कुणाल प्रियदर्शी है जो मुजफ्फरपुर के प्रभात खबर यूनिट में कार्यरत थे।

 कुणाल प्रियदर्शी ने अपने दावे के लिए राज्य सरकार के समक्ष आवेदन दिया था। जो राज्य सरकार के प्रतिनिधि संयुक्त श्रमायुक्त के समक्ष वाद संख्या 76/2017 के नाम से दर्ज था। जिसमें उन्होंने 37,32,137 रुपया का दावा व नौकरी पुनः बहाली की मांग की थी। 

राज्य सरकार ने संयुक्त के रिपोर्टर पर अपने आदेश से मामले को 18/06/2019 को न्याय निर्णयारथ श्रम न्यायालय को भेज दिया।

 जहां वाद संख्या 01/2019 के तहत श्रम न्यायालय ने दिनांक 8 फरबरी 2020 को कामगार के पक्ष में अपना आदेश पारित किया है। न्यायालय ने अपने आदेश में कुणाल प्रियदर्शी को 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से दावे की राशि को भुगतान की वास्तविक तारीख तक के सूद के साथ अदा करने को कहा। 

प्रबंधन ने जब इसका भुगतान नहीं किया तो कामगार ने पुनः श्रम न्यायालय मुजफ्फरपुर को इस सूचना से अवगत कराते हुए आदेश के पालन कराने को वाद को व्यवहार न्यायालय मुजफ्फरपुर को हस्तांतरित करने का आग्रह किया। जिसे न्यायालय ने स्वीकार करते हुए आदेश के अनुपालन कराने को भेज दिया गया। श्रम न्यायालय मुजफ्फरपुर से पीठासीन पादाधिकारी के आदेश से जारी पत्रांक 162/2020 दिनांक 8 फरबरी 2020 को सब जज प्रथम (पूर्वी) मुजफ्फरपुर के न्यायालय में भेज दिया। जो Execution Case No. 10/2020 (Arising Out of 01/2019) के नाम से दर्ज हुआ। 

प्रबंधन ने इसके विरोध में पटना उच्च न्यायालय में CWJC 3584/2019 दर्ज किया लेकिन न्यायालय से कोई राहत नहीं मिला जो अभी भी पेंडिंग हैं। जिसका कोई मतलब नहीं है। हाई कोर्ट में इस केस के फाइलिंग के बाद एक दो बार सुनबाई भी हुआ लेकिन प्रबंधन को कोई राहत नहीं मिला। मात्र इतना फायदा हुआ हाईकोर्ट में केस फाइलिंग के नाम पर मुजफ्फरपुर व्यवहार न्यायालय दो तीन तारीख बढ़गया। इस दौरान मुजफ्फरपुर व्यवहार न्यायालय के जज का स्थानान्तरण भी हुआ लेकिन केस के परिणाम में कोई अंतर नहीं रहा। अंततः कामगार के पक्ष में निर्णय रहा। 23 जुलाई 2022 को व्यवहार न्यायालय ने 16/8/2022 तक कामगार को बकाया अदा करने का आदेश दिया और नहीं अदा करने पर अकाउंट अटैच करने का आदेश दिया। और अंततः 16 तक जब प्रबंधन ने भुगतान नहीं किया तो एकाउंट अटैच हुआ जिसके परिणामस्वरूप कल यानी 3 सितंबर 2022 शनिवार को मजीठिया क्रांतिकारी कुणाल प्रियदर्शी जी‌ को दावे के विरुद्ध 25 लाख 75 हजार रुपए की राशि खाता में जमा किया गया। अभी करीब 2 लाख 75 हजार रुपए भविष्य निधि में भी प्रबंधन को जमा करना है।

यह लड़ाई में 2017 से 2022 तक चला। जिसमें दो साल करोना के कारण भी प्रभावित रहा लेकिन सब परेशानी के वावजूद भी कुणाल प्रियदर्शी ने हार नहीं मानी और वे सफल रहे। इस लड़ाई को खुद लड़ी है कभी भी इनके केस में इनकी तरफ से कोई अधिवक्ता नहीं था जबकि की तरफ से बड़े-बड़े अधिवक्ता पैरवी करते रहें। 

इस लड़ाई में कुणाल के साहस व धैर्य के लिए उन्हें बधाई।

मेरी पोस्ट से जिन साथियों की भावनाओं को ठेस पहुंची है, इसके लिए खेद है!

दो सितम्बर में मैंने ‘क्या भ्रष्टाचार की गंगा में पत्रकारों ने लगाईं डुबकियां‘, पोस्ट लिखी थी। इस पोस्ट में त्रुटि वश दीपक उपाध्याय का नाम उल्लेखित किया था, जबकि इस प्रकरण से दीपक का कोई लेना-देना नहीं है। इनका इस प्रकरण से कोई सरोकार नहीं है। इसके लिए मुझे खेद है। वहीं, वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर बुड़ोकोटी ने अपनी वॉल पर लिखा है उनकी पत्नी 2016 में योग्यता के आधार पर शिक्षिका चयनित हुई हैं। पत्रकार फईम तन्हा ने स्पष्ट किया है कि उनकी पत्नी को विधानसभा सचिवालय में नौकरी नहीं मिली। पत्रकार साथियों ने सोशल मीडिया के माध्यम से यह बात रखी है।

अपनी पोस्ट के माध्यम से मैंने भी यही कहने का प्रयास किया था कि सभी को अपनी बात रखनी चाहिए। चूंकि मैंने पहले ही कहा था कि जिनका भी नाम मेरे द्वारा लिया जा रहा है, वह सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर बात उठ रही थी। मुझे खुशी है कि पत्रकार साथियों ने सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी देकर स्पष्ट किया है कि उनका इन कथित भर्तियों में किसी तरह की संलिप्तता नहीं है। मैंने अपनी पोस्ट में पहले ही उल्लेख कर दिया था कि यदि इनमें से किसी का नाम गलत हुआ तो मैं सार्वजनिक तौर पर अपनी गलती मानते हुए खेद प्रकट करूंगा। मेरी पोस्ट से जिन साथियों की भावनाओं को ठेस पहुंची है, इसके लिए खेद है। 

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Friday 2 September 2022

क्या भ्रष्टाचार की गंगा में पत्रकारों ने भी लगाईं डुबकियां?

भर्ती प्रकरण में पांच पत्रकारों के नाम भी आ रहे सामने 
आरोपों के घेरे में प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष विकास धूलिया, रवि नेगी, चंद्रशेखर बुडाकोटी

प्रख्यात पत्रकार अरुण शौरी ने कहा था कि सफल पत्रकार वह है जिसके पास सबसे अधिक संपर्क सूत्र हैं, भाई लोगों ने संपर्क सूत्र बढ़ाए लेकिन न्यूज के लिए नहीं, निजी हित के लिए। आखिर अब पत्रकार भी व्यवस्था के अंग हैं। कारपोरेट युग के दौर में अधिकांश पत्रकारों की मजबूरी होती है कि वह संस्थान के लिए लाइजिनिंग करे या उन मुद्दों पर चुप्पी साध ले, जिनसे सत्ता या संस्थान को नुकसान पहुंच रहा हो। कोरपोरेट जर्नलिज्म का एक और नुकसान हुआ है कि अधिकांश पत्रकार स्वार्थी हो गये। संस्थान हित के साथ ही साथ स्वहित भी साधने लगे हैं। ऐसे में मिशनरी पत्रकारिता का दावा करना बेमानी है। विधानसभा भर्ती प्रकरण में पांच पत्रकारों के नाम सामने आ रहे हैं। हालांकि मैं यह भी बता देना चाहता हूं कि इस प्रकरण में कुछ भी नहीं होगा। सब यथावत रहेगा। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस के हर प्रभावी नेता की इस घोटाले में संलिप्तता है। ऐसे में जब सब नंगे हो रहे हैं तो पत्रकार बिरादरी घूंघट ओढ़े क्यों रहे? लाज-शर्म और नैतिकता का युग बीत चुका है। हालांकि यदि इन पत्रकारों के रिश्तेदारों का चयन नियमानुसार हुआ है या यह बात झूठ है कि उनके रिश्तेदार विधानसभा में बैक डोर से भर्ती किये गये हैं तो मैं इन पत्रकारों के समर्थन में अडिग खड़ा हूं।

मुख्यधारा के अखबार इतने बड़े प्रकरण को फ्रंट पेज की बजाए अंदर धकेल रहे हैं। यानी राजू या बड़ोनी का निलंबन उनके लिए फ्रंट पेज की न्यूज है लेकिन विधानसभा भर्ती घोटाले को दबाने की पुरजोर कोशिश हो रही है। इसका राज इस बात में भी छिपा हो सकता है कि कुछ हमारे पत्रकार साथी भी भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकियां लगा चुके हैं। पत्रकारों में एक बड़ा नाम विकास धूलिया का सामने आ रहा है। दैनिक जागरण में कार्यरत विकास पर अपने भाई को विधानसभा में नौकरी दिलाने का आरोप है। हिन्दुस्तान से रवि नेगी की पत्नी, पर्वतजन के शिव प्रसाद सेमवाल की पत्नी, इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े फईम तन्हा भी विधानसभा में नौकरी मिलने के आरोप हैं। इसके अलावा कई अन्य पत्रकार भी हैं। हिन्दुस्तान के पत्रकार चंद्रशेखर बुडाकोटी का नाम भी पूर्व शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे द्वारा अशासकीय स्कूलों में की गयी भर्तियों में उछल रहा है। आरोप है कि उनकी पत्नी को पांडे ने नियुक्ति दी है।

मुझे लगता है कि इन पत्रकारों को सामने आकर यह तथ्य झुठलाने चाहिए ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके। कुछ पत्रकारों की आड़ में सब पत्रकार क्यों गाली खाएं? उम्मीद है कि पत्रकारों की संलिप्तता के मामले में स्पष्टीकरण आएगा। दीपक उपाध्याय अपना नाम इस प्रकरण में आने से व्यथित है। उसका कहना है कि उसका कोई परिजन इस प्रकरण में शामिल नहीं है उसकी भावनाओं को मैंने ठेस पहुंचाई है। इसके लिए मुझे खेद है। मैंने पोस्ट में स्पष्ट कहा है कि यदि और भी पत्रकार साथी इस प्रकरण में नहीं हैं। तो मैं उनके बयान को पोस्ट पर लिखूंगा और खेद प्रकट करूंगा। इसमें मुझे आत्मिक संतोष होगा कि मेरे साथी साफ छवि के हैं। 

क्या भ्रष्टाचार की गंगा में पत्रकारों ने भी लगाईं डुबकियां? 

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Monday 29 August 2022

हिमाचल में अमर उजाला को मिली हार, दो केसों में देना पड़ेगा मुआवजा

 


मजीठिया वेज बोर्ड का भी अलग से देना पड़ेगा एरियर


हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला लेबर कोर्ट से एक अच्छीे खबर आई है। यहां वर्ष 2016 से अमर उजाला के खिलाफ चल रहे टर्मिनेशन के दो मामलों में सोमवार को लेबर कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कर्मचारियों को दो-दो लाख रुपये का मुआवजा दिया है। फैसला मिलते ही इसे डिटेल के साथ शेयर किया जाएगा। यह मामला फर्जी तरीके से ठेकेदार के नाम पर रखे गए कर्मचारियों का है, जिन्हें  कंपनियां फर्जी रिकार्ड बनाकर रखती हैं और फिर जब मर्जी होती है, उन्हें  निकाल बाहर करती हैं। जब कोर्ट में मामला जाता है, तो उसे किसी ठेकेदार का कर्मचारी बताया जाता है। 


इस मामले में अमर उजाला, धर्मशाला के प्रोडक्शन विभाग में रखे गए दो इलेक्ट्रिशियन को दो साल दो माह तक काम लेने के बाद मौखिक तौर पर नौकरी से हटा दिया गया था। जब मामला लेबर इंस्पेक्टेर के पास पहुंचा तो कंपनी ने इन्हें किसी ठेकेदार का कर्मचारी बताया और उस ठेकेदार को पार्टी बना दिया। मामला लेबर कोर्ट पहुंचा तो अमर उजाला और ठेकेदार इनकी नौकरी से संबंधित जरूरी दस्तादवेज नहीं प्रस्तुत कर पाए, वहीं इन कर्मियों के पक्ष में जो गवाह खड़े किए गए, उन्हों ने इन्‍हें अमर उजाला का कर्मचारी बताते हुए गवाही दी थी। 


लेबर कोर्ट ने इन्हें  अमर उजाला का कर्मचारी माना है और नौकरी से अवैध तौर पर हटाने पर दो लाख की मुआवजा राशि देने का निर्देश दिया है। वहीं अमर उजाला का कर्मचारी साबित होने पर इन्हें अपने सेवा काल के दौरान काम करने के चलते मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतनमान का लाभ व बकाया एरियर भी मिलेगा, यह केस पहले ही लंबित है और इस फैसले के चलते इनको मजीठिया वेजबोर्ड के तहत एरियर की राशि मिलना भी तय हो गया है। इन केसों की पैरवी न्यूज पेपर इम्पलाईज यूनियन आफ इंडिया के अध्यक्ष "रविंद्र अग्रवाल" ने की।

Friday 26 August 2022

अपनी ग्रेच्युटी पाने के लिए धरने पर बैठे दैनिक जागरण के मीडियाकर्मी


सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद नियमों के मुताबिक, आवेदन करने की तारीख से 30 दिन के अंदर कर्मचारी को उसकी ग्रेच्युटी का भुगतान कर दिया जाता है। अगर नियोक्ता ऐसा नहीं करते हैं तो उसे ग्रेच्युटी राशि पर साधारण ब्याज की दर से ब्याज का भुगतान करना होता है अगर यदि नियोक्ता कंपनी ऐसा नहीं करती है तो उसे ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम के उल्लंघन का दोषी माना जाता है।

मगर देश का प्रमुख समाचार पत्र दैनिक जागरण प्रबंधन अपने कुछ कर्मचारियों को उनकी ग्रेच्युटी भुगतान करने में खूब परेशान कर रहा है। इन कर्मचारियों को परेशान करने की वजह है कि उन्होंने माननीय सुप्रीमकोर्ट के आदेश के अनुसार मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार अपना वेतन और बकाया मांग लिया।

खबर है कि वाराणसी में दैनिक जागरण से अपने हक के लिए 2013 से मजीठिया वेतनबोर्ड व ग्रेच्युटी के लिए जागरण के पूर्व कर्मचारी संजय सेठ, अरविंद मिश्रा, बाबूलाल श्रीवास्तव,और अन्य लोग लगे हुए हैं। ग्रेच्युटी के लिए वाराणसी में बार-बार श्रम आयुक्त द्वारा तारीख पर तारीख दी जा रही है, जिसके कारण बृहस्पतिवार को संजय सेठ, बाबू लाल, और अरविंद मिश्रा श्रमायुक्त कार्यालय बनारस मे धरने पर बैठ गए।

इससे पहले भी वे धरने पर बैठ चुके हैं लेकिन अधिकारी फिर भी तारीख पर तारीख दे रहे हैं। आने वाले दिनों में ये धरना प्रदर्शन और तेज होगा को वे उसी के तहत बृहस्पतिवार को धरने पर बैठे थे। इस दौरान उनके एडवोकेट अजय मुखर्जी व आशीष टंडन भी धरने के दौरान मौजूद थे।

शशिकान्त सिंह

पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता

9322411335

Thursday 25 August 2022

बड़ी खबरः दैनिक जागरण लुधियाना के बर्खास्त कर्मी 40 फीसदी बकाया वेतन के साथ बहाल, आया आदेश


  

दैनिक जागरण प्रबंधन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे मजीठिया क्रांतिकारियों के लिए अच्छी खबर आ गई है। लुधियाना में चल रहे टर्मिनेशन के मामलों में लुधियाणा लेबर कोर्ट ने अपना लिखित फैसला दे दिया है। हालांकि कोर्ट ने 29 जुलाई को ही फैसला सुना दिया था, मगर लिखित आर्डर आज प्राप्त हुआ है। इसमें कोर्ट ने जागरण प्रबंधन द्वारा हड़ताल का आरोप लगाकर एकतरफा जांच में बर्खास्त किए गए कर्मचारियों को आईडी एक्ट की धारा 33(2)(बी) का लाभ देते हुए उन्हें 40 फीसदी वेतन के साथ नौकरी पर बहाल करने का आदेश सुनाया है। साथ ही बकाया राशि पर छह फीसदी ब्याज भी दिया है।

इस मामले में चालीस पन्नों की जजमेंट में कोर्ट ने दैनिक जागरण प्रबंधन को औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 33 के प्रावधानों का उल्लंघन करने का दोषी मानते हुए प्रबंधन द्वारा जांच के बाद की गई कर्मचारी बर्खास्तगी को सिरे से ही अवैध माना है और जांच रिपोर्ट को खारिज कर दिया। कोर्ट ने पाया कि जब दैनिक जागरण प्रबंधन ने श्रमिकों के खिलाफ जांच के बाद उनको नौकरी से बर्खास्तगी की कार्रवाई की, तब श्रमिकों का विवाद समझौता अधिकारी के समक्ष लंबित था और उपरोक्त एक्ट की धारा 33(2)(बी) के प्रावधान के अनुसार कर्मचारियों को बर्खास्त करने से पहले समझौता अधिकारी से लिखित तौर पर इसकी इजाजत लेना जरूरी था। इसके बिना प्रबंधन द्वारा किसी कर्मचारी की सेवाओं को समाप्त करने की कार्रवाई सिरे से अवैध व अनुचित मानी जाती है।
इस मामले में माननीय श्रम न्यायालय ने इसी धारा के प्रावधानों का विस्तार से वर्णन करते हुए प्रबंधन की चूक को अवैध मानते हुए जांच अधिकारी की कार्यवाही और इसके बाद बर्खास्तगी के आदेशों को अवैध मानते हुए कर्मचारियों को उनकी सेवा पर पुन-स्थापित करने का निर्णय सुनाया है। हालांकि प्रबंधन ने लुधियाना यूनिट बंद होने का हवाला देने हुए नौकरी पर बहाली का विरोध किया था, मगर कोर्ट ने वैध साक्ष्यों व कोर्ट के समक्ष की गई कार्यवाही में इसका उल्लेख ना होने के चलते इस दलील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कर्मचारियों को पिछले छह साल से बेरोजगार पाते हुए उन्हें बकाया वेतन देने का आदेश दिया है, मगर कोविड काल में समाचार पत्रों को हुए नुकसान का हवाला देते हुए सिर्फ 40 फीसदी बकाया वेतन देने के आदेश दिए हैं। ये आदेश आर्डर मिलने के तीन माह में लागू करने होंगे। यदि कंपनी इस समयावधि में कर्मचारियों को बकाया वेतन में विफल रहती है तो उसे 6 फीसदी की दर से ब्याज देना होगा।

Wednesday 24 August 2022

एनडीटीवी के बिकने पर हाय-तौबा क्यों?



सवाल यह है कि निष्पक्ष मीडिया को प्रोत्साहन देने के लिए हमने क्या किया?

एनडीटीवी की सराहना की जानी चाहिए कि आठ साल विपरीत परिस्थितियों में भी डटा रहा

एनडीटीवी यदि गौतम अडाणी ने खरीद लिया तो इसमें क्या बुरा है? बाजार है और बाजार में डार्बिन थ्योरी लागू है। हम खुद बाजारवाद का एक हिस्सा हैं। हम खुद बिकने के लिए तैयार बैठे हैं और जरूरी नहीं कि हमारी कीमत भी मिले। बेभाव बिक रहे हैं हम। फिर एनडीटीवी भी तो बाजार का एक हिस्सा है। बिक गया। हां, यह विचार करने की बात है कि निष्पक्ष पत्रकारिता कैसे जिंदा रहे?

प्रिंट मीडिया में संपादकीय भी अब आउटसोर्सिंग से लिए जा रहे हैं। यानी अमर उजाला, जागरण, भास्कर और नवभारत टाइम्स का संपादकीय पेज अब एक ही हो सकता है। इसमें आश्चर्य नहीं। खबरें भी लगभग समान ही होती हैं। न्यूज इंडस्ट्रीज में पहले कार्ययोजना बनती थी। खबरों की पैकेजिंग होती थी। एक्सक्लूसिव स्टोरी पर जोर दिया जाता था। भ्रष्टाचार और अनियमिताएं एक बड़ा मुद्दा होता था और ह्यूमैन एंगल की न्यूज एंकर यानी बॉटम स्टोरी होती थी। लेकिन अब यह दौर बीत गया। रिपोर्टर कम हो गये हैं और खबरों का बोझ अधिक। अब सूचना विभाग और पीआर एजेंसी न्यूज का एक बड़ा सोर्स है। पत्रकार को कोई मेहनत नहीं करनी। की-बोर्ड पर उसकी उंगलियां तेज चलनी चाहिए, बस।

इलेक्ट्रानिक मीडिया में पत्रकारों की ब्रांडिंग हो गयी है। ब्रांडिंग पर करोड़ो खर्च किये जाते हैं। इसके बावजूद यह तय नहीं की चैनल चलेगा या नहीं। देश में 900 से भी अधिक न्यूज चैनल हैं। मुख्यधारा के चैनलों में प्राइम टाइम में मुर्गा फाइट की जाती है। यानी एजेंडा जर्नलिज्म है।

अब मिशनरी पत्रकारिता का दौर बीत गया। कारपोरेट पत्रकारिता है। पहले कुर्ता-पैजामा पहनकर कंधे पर झोला टांगकर पत्रकार भूखे पेट गुजारा कर लेता था। अब लाख रुपये महीना वेतन पाने पत्रकारों की लंबी फौज है। ऐसे में बाजार से अछूता रहना बहुत मुश्किल है। सरकार विज्ञापन देने वाली सबसे बड़ी एजेंसी है। सरकार से पंगा लेकर बाजार में टिकना आसान नहीं है। हमें एनडीटीवी के साहस की सराहना करनी चाहिए कि वह आठ साल टिका रहा। निष्पक्ष लोगों ने या लोकतंत्र के समर्थक लोगों ने एनडीटीवी की बहुत मदद की है। इसके बावजूद यदि वह बिका तो रही होगी कोई मजबूरी।

हमें यह सोचना है कि लोकतंत्र को बचाने और जनपक्षधरता की बात करने वाले मीडिया संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं के लिए हमने क्या योगदान दिया?

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]


Thursday 18 August 2022

सहारा मीडिया से जुड़े पत्रकार भुखमरी के कगार पर



नोएडा मुख्यालय पर वेतन को लेकर धरने पर बैठे 

उपेंद्र राय, विजय राय जैसे लोगों ने बर्बाद किया सहारा

16 मार्च 2016 की बात है। मैं उन दिनों सहारा में चीफ सब एडिटर था। देहरादून के लालपुल के निकट स्थित एक निजी होटल में सहारा मीडिया के हेड उपेंद्र राय आए थे। सुब्रत राय तब जेल में थे और सारा चार्ज उपेंद्र राय को दिया गया था। होटल में सहारा की उत्तराखंड टीम को बुलाया गया था। एक बड़े हाल में सभा थी। उपेंद्र राय के लिए बिल्कुल अकेले सिंहासन लगा था। ठीक ऐसे जैसे मायावती बसपा की मीटिंग लेती है। उपेंद्र राय के आसपास बाउंसर थे। वह यहां सहारा की तरक्की के लिए कर्मचारियों की राय लेने आए थे, लेकिन रौब शहनशाह जैसा था। हम प्रजा बने उन्हें और उनके ड्रामे को टुकुर-टुकुर देख रहे थे। सहारा के हित को छोड़कर बहुत सी बातें हो रही थी। खास लोग ईनाम से नवाजे जा रहे थे। इस समारोह से पूर्व उपेंद्र राय ने राष्ट्रीय सहारा देहरादून का संपादक जितेंद्र नेगी को बनाकर कुर्सी पर बिठाया।

कहा जाता है कि उपेंद्र राय ने हरीश रावत सरकार में अपने एक रिश्तेदार के लिए खनन पट्टा हासिल किया। आरोप है कि यह पट्टा जितेंद्र नेगी ने दिलाया। बदले में उपेंद्र राय ने जितेंद्र नेगी को जीरो योग्यता होते हुए भी संपादक बना दिया। पिछले कई साल से जितेंद्र नेगी सहारा का संपादक है। जितेंद्र नेगी मेरा अच्छा दोस्त है, मैं उसके खिलाफ कुछ नहीं लिखता, लेकिन मजबूर हूं क्योंकि सहारा के कर्मचारियों को सेलरी नहीं मिल रही है और वो नोएडा में धरने पर बैठे हैं। जितेंद्र नेगी जैसे संपादकों की सहारा में भारी भीड़ है और ये कभी भी अपने साथियों की हित की बात मैनेजमेंट से नहीं करते।

इस कहानी का अर्थ यह है कि उपेंद्र राय जैसे अकुशल और अहंकारी प्रबंधन ने अपनी अय्याशियों में कोई कमी नहीं की और सहारा मीडिया का भट्टा बिठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब अयोग्य संपादक होंगे तो सहारा मीडिया तरक्की करेगा। मैं दावे से कह सकता हूं कि देहरादून में राष्ट्रीय सहारा से कहीं अधिक मेरी मैगजीन उत्तरजन टुडे पढ़ी जाती है। सहारा ग्रुप की बर्बादी का जिम्मेदार उपेंद्र राय जैसे लोग हैं जिन्होंने अपना घर भरा और सुब्रत राय का घर खाली किया।

दरअसल, सहारा की परम्परा है कि जो जिस काम के लिए अप्वाइंट हुआ है, उसे वही काम नहीं करने दिया जाता। कुप्रबंधन, बड़े अधिकारियों के मौज-मस्ती और भ्रष्टाचार के कारण सहारा मीडिया के कर्मचारी भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं। आज सहारा में हालत यह है कि साल में चार महीने ही सेलरी मिल रही है।

यह पेशेवर मजबूरी है कि पत्रकार चाहकर भी सहारा नहीं छोड़ रहे। क्योंकि अधिकांश को 20 से भी अधिक साल नौकरी करते हो गये। बाजार में उनकी डिमांड नहीं है। कोई उन्हें सहारा जितना वेतन भी देगा नहीं और दूसरे वे सहारा में मेहनत करना छोड़ चुके हैं। इसके अलावा उनका भारी-भरकम पैसा सहारा में बैकलॉग, भत्तों, पीएफ और ग्रेच्युटी में फंसा हुआ है। ऐसे में जाएं तो कहां जाएं? उधर, संपादक, ग्रुप एडिटर और मीडिया हेड तक अधिकांश बेईमान और अय्याश हैं। उन्हें न तो सहारा ग्रुप की चिन्ता है और न ही उनके साथ काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों की। 

अब भगवान श्रीकृष्ण ही करेंगे इन कर्मचारियों का बेड़ा पार।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

मजीठिया: बिना वकील के कुणाल प्रियदर्शी ने खुद लड़ा अपना मुकदमा और जीत कर दिखाया



मजीठिया वेजबोर्ड मामले में मीडियाकर्मियों के लिए राहत भरी खबर

पत्रकारों को अधिकार, सरकार या कोर्ट से कराएं अवार्ड Execution

मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों के लिए राहत भरी खबर है। अब वे वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट 1955 के तहत पारित अवार्ड का Execution कोर्ट के माध्यम से भी करा सकेंगे। बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर सिविल कोर्ट ने इस पर अपनी मुहर लगा दी है। कुणाल प्रियदर्शी बनाम प्रबंधन प्रभात खबर व अन्य के मामले में सब जज-1, पूर्वी जस्टिस ज्योति कुमार कश्यप ने बीते 23 जुलाई को आदेश पारित करते हुए स्वीकार किया है कि यह पत्रकारों पर है कि वे अवार्ड का Execution सरकार के माध्यम से कराये या कोर्ट के माध्यम से। इसे एक ऐतिहासिक फैसला माना जा रहा है।

अब तक मान्यता थी कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के तहत लेबर कोर्ट से पारित अवार्ड का Execution सिर्फ संबंधित राज्य सरकार के माध्यम से ही कराया जा सकता है, जिसकी प्रक्रिया भूमि राजस्व की बकाया की वसूली के समान होगी। यह काफी लंबी व जटिल मानी जाती है।

वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट, 1955 के सेक्शन 17(2) के तहत लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर से कुणाल के पक्ष में 6 जून, 2020 को अवार्ड पारित हुआ था, जिसमें न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड (प्रभात खबर) के प्रबंधन को दो महीने के भीतर अवार्ड की राशि ब्याज सहित भुगतान का आदेश दिया गया था। समय सीमा बीत जाने के बावजूद जब प्रबंधन ने राशि का भुगतान नहीं किया तो कुणाल ने आइडी एक्ट, 1947 के सेक्शन 11(10) के तहत लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर में ही अवार्ड को Execute कराने के लिए आवेदन दिया। आवेदन की जांच के बाद लेबर कोर्ट ने मामले को मुजफ्फरपुर सिविल कोर्ट रेफर कर दिया।

 कंपनी का तर्क-‘कोर्ट नहीं, सरकार करे Execute’ खारिज

सुनवाई के दौरान कंपनी के वकील का तर्क था कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट एक स्पेशल एक्ट है। ऐसे बकाया राशि की वसूली के लिए आइडी एक्ट का सहारा नहीं लिया जा सकता है।

ऐसे में बकाया राशि की वसूली कोर्ट के माध्यम से नहीं सरकार के माध्यम से ही होनी चाहिए।

वहीं, अपने केस की खुद पैरवी कर रहे कुणाल प्रियदर्शी ने कंपनी के दावे को निराधार बताया।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के “एक्सप्रेस न्यूजपेपर लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया” व “बेनेट कोलमैन कॉरपोरेशन लिमिटेड व अन्य बनाम मुंबई मजदूर सभा” में दिये गये फैसले के आधार पर दावा किया कि WJ Act पत्रकारों को आइडी एक्ट के तहत वर्कमैन के दायरे में लाने के लिए ही बना है। वहीं, उन्होंने कर्नाटक व आंध्रप्रदेश हाइकोर्ट के जजमेंट का हवाला देते हुए वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(1) में पत्रकारों के पास आइडी एक्ट के तहत राशि वसूली का विकल्प होने की बात कही. दोनों पक्षों को सुनने बाद कोर्ट ने भी माना कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(1) में प्रयुक्त “…without prejudice to any other mode of recovery” पत्रकारों को यह विकल्प देता है कि वे चाहे तो आइडी एक्ट के सेक्शन 11(10) का विकल्प चुन सकते हैं। कोर्ट ने इसके लिए ट्रिब्यून ट्रस्ट बनाम प्रेजाइडिंग ऑफिस लेबर कोर्ट केस में पंजाब व हरियाणा हाइकोर्ट के फैसले का हवाला भी दिया है। यहां जानकारी हो कि वर्किंग जॉर्नलिस्ट एक्ट के सेक्शन 17(3) के अनुसार यदि लेबर कोर्ट से बकाया राशि तय हो जाने के बाद उसकी वसूली की प्रक्रिया सेक्शन 17(1) में दी गयी प्रक्रिया ही होगी।

प्रोपर्टी अटैच या अरेस्ट वारंट का है प्रावधान 

सीपीसी के नियमों के तहत आइडी एक्ट में Execution के लिए तीन प्रक्रियाएं तय है।

पहला, जजमेंट डेबटर का बैंक अकाउंट या अन्य चल संपत्तियों को अटैच कर राशि का भुगतान कराना।

दूसरा, जजमेंट डेबटर के ऑफिस या अन्य अचल संपत्तियों, जिससे की वह लाभ कमाता है, को अटैच करना।

तीसरा, जजमेंट डेबटर के विरुद्ध अरेस्ट वारंट जारी करना।

यूं तो अवार्ड होल्डर को यह अधिकार होता है कि वह इन तीनों में से एक विकल्प का चयन करें। पर, कुणाल ने राशि वसूली की क्या प्रक्रिया हो, यह जिम्मेदारी कोर्ट को ही सौंपी है, जैसा की नियमों में प्रावधान है।


शशिकान्त सिंह

मजीठिया क्रांतिकारी और आरटीआई कार्यकर्ता

9322411334

Saturday 6 August 2022

मजीठिया पर बड़ी खबरः हाईकोर्ट के आदेश के बाद स्टेटमैन के साथियों को मिल चुका है आधा भुगतान


साथियों, खबर तो पुरानी है, परंतु सभी के उत्साह बढ़ाने वाली है। क्योंकि हम सभी इस खबर का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, कि कहीं से कोई खबर मिले कि हमारे किसी साथी को मजीठिया का पैसा मिला है। तो ये इंतजार अब खत्म हो गया है। साथियों स्टेटमैन के जुझारू साथी मजीठिया का आधा भुगतान पा चुके हैं। बाकि आधे के लिए उनका संघर्ष जारी है। ये राशि करीब 49 लाख रुपये है।

स्टेटमैन यूनियन के पदाधिकारी महावीर सिंह के अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद ये राशि सभी साथियों को मिल चुकी है। ये राशि उन्हें 2019 में ही प्राप्त हो चुकी है। एक आदेश के बाद इस राशि को कंपनी ने जमा करवाया था। जिसे जारी करने का आदेश दिल्ली हाईकोर्ट ने दिया था।

मालूम हो कि स्टेटमैन के इन्हीं जुझारू साथियों की वजह से मनिसेना का केंद्र सरकार ने फिर से नोटिफेक्शन किया था। इन्हीं की बदौलत मनिसेना वेजबोर्ड फिर से जीवित हुआ, जिसके लिए इन्होंने लंबी कानूनी ल़ड़ाई ल़ड़ी। यहां एक बात और याद दिलाना चाहते हैं कि हमारे महाराष्ट्र से साथी महेश साकुरे को भी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद उन्हें संस्थान ने फिर से कार्य पर लिया था। महेश साकुरे निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक अपनी ज्वाइनिंग से लेकर अब तक के सारे वेजबोर्ड प्राप्त करने का हक प्राप्त कर चुके हैं। 

महावीर सिंह का मोबाइल नंबर 9968275311 है। यदि किसी साथी ने देश के किसी भी कोने में मनिसेना की रिकवरी में विजयश्री प्राप्त की हो तो वे महावीर सिंह से संपर्क कर उसकी जानकारी देने का कष्ट करें।

Sunday 31 July 2022

सावधान, पत्रकार यूनियनों से सोच-विचार के बाद ही जुड़े



युवा पत्रकारों से अपील, बेवजह इन संगठनों से न जुड़े

आपके लिए चवन्नी का काम नहीं करेंगे, आपके नाम पर कमा जाएंगे

आज सुबह-सुबह मनमीत की पोस्ट पढ़ी कि उत्तराखंड पत्रकार यूनियन की मसूरी इकाई का गठन हो गया। इस पर खूब हंसा। फिर सोचा, गालियां तो खूब मिलेंगी, लेकिन युवा पत्रकारों को कुछ व्यक्तिगत अनुभव बता ही दूं। 

सितम्बर 2021 की कोरोना काल की बात है। मैंने फेसबुक पर उत्तराखंड के भ्रष्ट नौकरशाहों के खिलाफ एक सीरीज शुरू की। छह नौकरशाहों के खिलाफ तथ्यपरक रिपोर्टिंग की। सातवीं में थोड़ा बहक गया। वह पोस्ट तत्कालीन शिक्षा सचिव मीनाक्षीसुंदरम के वर्चुअल क्लासेस के कारनामे को उजागर करने वाली थी। तथ्य कम थे और भावुकता अधिक। मसूरी के पत्रकार शूरवीर भंडारी ने वह पोस्ट अपने पोर्टल पर डाल दी। नौकरशाह मौका तलाश रहे थे कि मुझ पर किस तरह से घेरें। पोस्ट में कमी थी तो मीनाक्षी सुंदरम ने मेरे और शूरवीर भंडारी के खिलाफ वसंत विहार थाने में एफआईआर करा दी। मैं खुद सीओ सुयाल के आफिस में जांचकर्ता इंस्पेक्टर महेश पूर्वाल से मिला और बयान दिये। सबूत जुटाने के लिए कुछ समय मांगा।

इस बीच पत्रकार भाइयों ने क्या किया? मुझे बताए बिना शूरवीर भंडारी को लेकर सीएम त्रिवेंद्र रावत से मिले और फिर मीनाक्षी सुंदरम से। शूरवीर भंडारी वहां समझौता कर आ गया। सही भी है। कोई भी पत्रकार क्यों दूसरे के लिए पंगा लें? मुझे शूरवीर के फैसले पर कतई अफसोस नहीं था। हर एक की अपनी मजबूरी होती है। मैं समझ सकता हूं। लेकिन मीनाक्षी सुंदरम से समझौता करने के बाद शूरवीर चुप्पी साध गया। उसने मुझे यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि कुछ पत्रकार साथियों ने उसका समझौता करा दिया और अब मुझे अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।

मीनाक्षी सुंदरम को जब लगा कि यह नहीं झुकेगा तो दबाव के लिए मेरे पास वरिष्ठ एडवोकेट आरएस राघव के माध्यम से मुझे 50 लाख की मानहानि का नोटिस भिजवा दिया। उसमें पहली लाइन ही यह थी कि शूरवीर भंडारी ने माफी मांग ली है। मुझे बहुत शॉक लगा। माफी मांग ली और मुझे बताया नहीं। मैंने शूरवीर को खूब लताड़ा। उसने स्वीकार किया कि कुछ पत्रकार ले गये थे। खैर, मैं सब खेल समझ चुका था तो मैंने भी मीनाक्षीसुंदरम से अपनी खबर के लिए नहीं, उन शब्दों के लिए जिनका मैंने गलत इस्तेमाल किया था, माफी मांग ली। वर्चुअल क्लासेस में खेल हुआ है। जल्द इसे उजागर करूंगा, इस बार तथ्यों और सबूतों के साथ।

यानी इस मामले में पत्रकारों की दोगली भूमिका रही। क्योंकि मैंने उत्तरांचल प्रेस क्लब की कार्यप्रणाली के खिलाफ भी लिखा था, तो अधिकांश पत्रकार मुझसे चिढ़े हुए हैं, तो उन्होंने शूरवीर का गुपचुप समझौता करा दिया। यह पहला मौका नहीं था जब पत्रकारों ने मुझे धोखा दिया। 2015 के दौरान मैं सहारा में चीफ सब एडिटर था। भूपेंद्र कंडारी रिपोर्टिंग में। महीनों से वेतन नहीं मिल रहा था। हमने तय किया कि हड़ताल करेंगे। पहले ही दिन सबसे पहले आफिस से बाहर मैं आया। इसके बाद सभी लोग सड़क पर आ गये। भूपेंद्र कंडारी और जितेंद्र नेगी जो अब एडिटर हैं, ये पत्रकारों के साथ नहीं आए। खैर, हड़ताल तीन दिन तक चली। नतीजा जीरो, आज भी सहारा में सेलरी नहीं मिल रही। हम 42 लोग लेबर डिपार्टमेंट में मामला लेकर गये। भूपेंद्र कंडारी ने समर्थन नहीं दिया। मैं सहारा में एकमात्र पत्रकार था जो लेबर कोर्ट गया और जीता भी। लेबर कोर्ट ने मेरे पक्ष में फैसला सुनाते हुए सहारा को मुझे 20 लाख रुपये देने का आदेश दिया। सहारा ने हाईकोर्ट में स्टे ले लिया। मैं भी हाईकोर्ट पहुंच गया। लड़ाई जारी है बशर्ते कोर्ट मेरे मामले की सुनवाई करे।

पिछले दिनों सहारा में वेतन न मिलने पर एक बार फिर हड़ताल हुई। गढ़वाल-कुमाऊं एडिशन नहीं छपा। भूपेंद्र कंडारी तब भी हड़ताल में शामिल नहीं हुआ। मैं भूपेंद्र के खिलाफ कुछ भी नहीं लिखता, यदि वह पत्रकार यूनियन का अध्यक्ष नहीं होता। मेरा सवाल है कि जो व्यक्ति अपने वेतन के लिए लड़ाई नहीं लड़ सकता, वह कैसे एक पत्रकार संगठन का अध्यक्ष बनने लायक है? ऐसा अध्यक्ष भला अन्य पत्रकार साथियों की लड़ाई कैसे लड़ सकता है जो मैनेजमेंट का आदमी हो?

कोरोना काल की बात लो। आश्चर्य होता है कि मनमीत की पोस्ट पर वह पत्रकार भी बधाई दे रहे हैं, जिनकी कोराना काल में नौकरी चली गयी थी। तब किसी भी पत्रकार संगठन ने उनके हित में आवाज नहीं उठाई। जागरण ने फोटो पत्रकारों को हटा दिया, अमर उजाला ने अपकंट्री के पत्रकारों का कद घटा दिया। कोई आवाज नहीं उठी। कोरोना काल में लाला पत्रकारों को आफिस बुलाता रहा, लेकिन उनकी हिफाजत के लिए कुछ नहीं किया. अकेले मैं आवाज उठाता रहा। सत्ता के गलियारे और मीडिया संस्थानों के प्रबंधन में मैं खलनायक बनकर उभरा हूं, पत्रकार संगठन नहीं।

कोई भी पत्रकार संगठन युवाओं के लिए न तो कोई वर्कशॉप आयोजित करता है न उनको कारपोरेट जर्नलिज्म की चुनौती बताता है। न ही पथप्रदर्शक बनता है। प्रिंट मीडिया और न्यूज चैनलों में युवा पत्रकारों का इतना उत्पीड़न हो रहा है, कहीं कोई आवाज उठा रहा है क्या? सुनी क्या कोई आवाज? अधिकांश पत्रकार यूनियनों के पदाधिकारी सत्ता की चासनी से लिपटे हुए हैं। मनमीत जैसे पत्रकार का इस कुचक्र में फंसना समझ से परे है।

मैं युवा पत्रकारों को यह किस्सा आप-बीती के आधार पर सुना रहा हूं। किसी खबर की तरह पत्रकार संगठनों के पदाधिकारियों के इतिहास-भूगोल की जानकारी लेने के बाद ही सदस्य बने। दोस्ती या सहकर्मी होने पर बहकें नहीं। ये संगठन जीरो हैं, तुम्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Friday 22 July 2022

IFWJ Welcomes the E-Registration of Newspapers and Magazines

New Delhi, 22 July. The Indian Federation of Working Journalists (IFWJ) has welcomed the decision of introducing the new bill in the Parliament for the E-registration of the Press and Periodicals. In fact, the bill was to be initially introduced in the year 2019.

It will go a long way to remove the rampant corruption in the office of Registrar Newspapers of India. In a statement, the IFWJ’s President BV Mallikarjunaih and Vice President Hemant Tiwari have said that the office of the RNI has been stinking with corruption. So much so, that it is almost unthinkable to get any work done in the RNI without making many rounds to its office or without greasing the palms of concerned officers and clerks. The existing labyrinthine system is so tiring that a person from far-off places is compelled to take the assistance of dalals (touts and brokers) by paying them money to get their work done.

The IFWJ has emphatically reiterated its demand for the constitution of a Media Commission to study the fast-changing patterns, particularly in the wake of the explosion of digital media in the country. It has further demanded that the government must make good use of technology for verifying the inflated circulations of newspapers and periodicals. It is as clear that dishonest publishers make huge money, grab the advertisements by keeping the authorities in good humour, obviously by adopting corrupt means, while on the other, honest ones suffer because they do not follow the dirty tricks.

The government must also ensure that newspaper owners who do not implement labour laws and do not pay even the minimum wages to their employees must be hauled up and stringent action should be taken against them, otherwise, the whole exercise of the introduction of the E registration will come to a nought.

Parmanand Pandey

Secretary General: IFWJ

Friday 1 July 2022

अभी लागू नहीं होगा नया लेबर कोड, मंथन जारी


नई दिल्ली, 1 जुलाई। केंद्र सरकार 1 जुलाई से नए लेबर कोड लागू नहीं करेगी। श्रम और रोजगार मंत्री जिनेवा में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के सम्मेलन के दौरान किया वादा निभाने और लेबर कोड लागू करने से पहले एक बार सभी पक्षों से वार्ता अवश्य करेंगे। चारों लेबर कोड में कुछ अच्छा है और कुछ विषयों को लेकर जबरदस्त आशंकाएं हैं। बता दें कि केंद्र सरकार ने 29 श्रम कानूनों को 4 कोड में समाहित कर दिया है।

श्रम मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार अभी चारों लेबर कोडों पर राज्यों, उद्योगों और अन्य हितधारकों से बातचीत जारी है। ये वार्ता सही दिशा में आगे बढ़ रही है। हालांकि, माना जा रहा है कि नजदीकी भविष्य में नए लेबर कोड के लागू होने की संभावना कम है।

अधिकारियों के अनुसार नए कानूनों के 4 कोड, औद्योगिक विवाद, सामाजिक सुरक्षा, वेतन और पेशेवर सुरक्षा पर अभी मंथन चल रहा है। 

अधिकारियों के अनुसार यह ढांचागत बदलाव है और मंत्रालय श्रम कल्याण व व्यापार की सुगमता में संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने कहा कि केंद्रीय श्रम मंत्रालय राज्यों, उद्योगों और अन्य हितधारकों के साथ बातचीत कर रहा है और अभी तक की वार्ता अच्छी रही है। बकौल अधिकारी, लेकिन 1 जुलाई को कोड नहीं लागू होने वाले हैं।

अधिकारियों ने कहा है कि एक बार सारी चीजें तय होने के बाद मंत्रालय औपचारिक घोषणा करेगा, लेकिन निकट भविष्य में इससे आसार कम हैं। बता दें कि संसद ने वेतन संबंधी कोड को 2019 में और अन्य 3 कोड को 2020 में पारित कर दिया था, लेकिन अभी इनमें से किसी को भी लागू नहीं किया है।

इनका नियोक्ता और कर्मचारी दोनों पर बड़ा प्रभाव होगा। कंपनियों के लिए कर्मचारियों को भर्ती करना और निकालना और आसान हो जाएगा। इसके अलावा औद्योगिक हड़तालें करना बेहद मुश्किल हो जाएगा। नया राष्ट्रीय वेतन नियम लागू होगा, जिससे कर्मचारियों को लाभ मिलेगा और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सोशल सिक्योरिटी के घेरे में लाया जाएगा। साथ ही वेतन की परिभाषा बदलेगी और संभवतः कर्मचारियों के हाथ में आने वाला वेतन घट जाएगा, जबकि रिटारयमेंट के लिए बचाई जाने वाली बचत बढ़ जाएगी। इस बिंदु का उद्यमी व नियोक्ता विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे उन पर वित्तीय दबाव बढ़ सकता है।

इसके अलावा नए कोड में साप्ताहिक काम के घंटों में कोई बदलाव नहीं है, लेकिन दैनिक कार्य समय में बदलाव हो सकता है। अगर कर्मचारी और नियोक्ता चाहें तो एक दिन में 12 घंटे काम के साथ हफ्ते में 4 कार्यदिवस रख सकते हैं और 3 दिन का साप्ताहिक अवकाश दे सकते हैं।

एक सर्वे के अनुसार, 64 फीसदी कंपनियां मान रही हैं कि इन बदलावों से उनके मुनाफे-घाटे पर सीधा असर होगा। एडवाइजरी फर्म विलिस टावर्स वॉट्सन के इस सर्वे के मुताबिक, कम से कम 71 फीसदी कंपनियों ने इसके प्रभावों का आकलन करने के लिए कदम उठाए हैं। हालांकि, 34 फीसदी कंपनियां नए वेतन कोड के संदर्भ में किसी तरह के बदलाव को लेकर किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है। 53 फीसदी कंपनियां रिटायरमेंट की आयु और लंबी अवधि में दिए जाने वाले बेनेफिट्स की समीक्षा पर विचार कर रही हैं।

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट समाप्त हो जाएगा

लेबर कोड में से एक वेज कोड लागू होने पर वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट भी इसमें ही समाहित हो जाएगा। वर्किंग जर्नलिस्ट शब्द देश के इसी एक्ट में है। ऐसा होने पर प्रिंट मीडिया के लिए आगे से वेज बोर्ड का भी गठन किया जाएगा। दरअसल, वेजबोर्ड में तीनों श्रेणी प्रिंट, टेलीविजन और डिजिटल के पत्रकारों को एकसाथ शामिल किया गया है। 

(साभारः राष्ट्रीय सहारा/न्यूज18.com)


Friday 24 June 2022

सुलह अधिकारी 4 सप्ताह में लेबर कोर्ट या ट्रिब्यूनल में भेजें रेफरेंस



नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में कहा है कि सुलह अधिकारी के पास आईडी एक्ट के अंतर्गत् सुनवाई के लिए जो मामले आते हैं उन्हें 4 सप्ताह के अंदर लेबर कोर्ट या ट्रिब्यूनल में हर हाल में रेफर किया जाना चाहिए।

Friday 13 May 2022

सीएम शिवराज के निर्देश पर श्रम मंत्री ने किया न्याय पालिका के अधिकारों पर अतिक्रमण



मजीठिया के मामले भोपाल लेबर कोर्ट से होशंगाबाद ट्रांसफर के लिए दिए थे आदेश

भोपाल। मप्र सरकार का असंवैधानिक और न्यायालय के अधिकारों में सीधे हस्तक्षेप देने वाले गैर कानूनी कृत्य का प्रमाण ये नोटशीट है। प्रकरण का बैकग्राउंड ये है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भोपाल श्रम न्यायालय क्रमांक 1 में पत्रकार और गैर पत्रकारों के वेतनमान संबंधी मजीठिया के प्रकरण समाचार पत्र संस्थान के खिलाफ चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हर हाल में 6 माह में इन केसों को निपटाने के आदेश किए हैं। इसी तारतम्य में लेबर कोर्ट नंबर 1 में सुनवाई चल रही थी। लेकिन समाचार पत्र प्रबंधन ने माननीय न्यायाधीश पर बहुत सतही और असत्य आरोप लगाकर राज्य सरकार को औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 33 बी धारा अंतर्गत् मामलों को भोपाल से अन्यत्र स्थानांतरित करने के लिए आवेदन दिया।

राज्य सरकार के श्रम मंत्री ब्रजेंद्र सिंह ने बिना कानूनी पक्ष जाने, यहां तक कि प्रभावित और पीडि़तों का पक्ष सुने बिना ही केस को स्थानांतरित करने का असंवैधानिक आदेश 7/04/2022 को निकाल दिया। हालांकि मप्र उच्च न्यायालय ने सरकार के असंवैधानिक आदेश पर रोक लगा दी है। लेकिन सूत्रों से पता लगा है कि इस असंवैधानिक अपराध को करने के निर्देश मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने श्रम मंत्री ब्रजेंद्र सिंह को दिए थे जिसके बाद श्रम मंत्री ने गैर कानूनी और असंवैधानिक आदेश निकाला है। लेकिन ये इस बात का प्रमाण है कि मप्र सरकार असंवैधानिक काम कर रही है और सरकार स्वयं ही अपराधी है। ऐसे में राज्य में न्याय का शासन कैसे रहेगा ये बड़ा सवाल है।


संविधान के मुताबिक लेबर कोर्ट उच्च न्यायालय के अधीन 

मामले के संवैधानिक पहलू की बात की जाए तो विधि विशेषज्ञ की राय है कि आर्टिकल 235 में न्यायालय को लेकर स्थिति अपने आप में स्पष्ट है। इसके मुताबिक देशभर के समस्त उच्च न्यायालय माननीय सुप्रीम कोर्ट के अधीन काम करेंगे। यानी इन पर प्रशासनिक कंट्रोल सुप्रीम कोर्ट का होगा। वहीं राज्य के अधीनस्थ न्यायालय जिनमें तमाम सिविल कोर्ट से लेबर कोर्ट श्रम न्यायालय तक शामिल है इनका कंट्रोल वहां के उच्च न्यायालय के पास होगा। यानी अधीनस्थ न्यायालय के जज के स्थानांतरण से लेकर पदोन्नति और अनुशासनात्मक कारवाई भी उच्च न्यायालय ही कर सकता है कोई राज्य सरकार नहीं। यदि राज्य सरकार ऐसा करती है तो वह लक्ष्मण रेखा तो लांघती ही है साथ ही ये कृत्य संविधान के खिलाफ भी है।

[मप्र के पत्रकार से प्राप्त जानकारी के आधार पर]

Tuesday 3 May 2022

Majithia: Statutory Protection U/S 33 Of ID Act Applicable In Pending Reference U/S 17(2) Of Working Journalists Act: MP HC


The Madhya Pradesh High Court, Indore Bench recently held that the provisions under Section 33 of the Industrial Disputes Act restraining the employer from changing service conditions of workman during pendency of a dispute can be applied in pending referenceunder Section 17(2) of the Working Journalists and Other Newspaper Employees (Conditions of Service) and Miscellaneous Provisions Act, 1955 (Act of 1955).

Deciding the writ petition in favour of the Petitioner/journalist, the division bench of Justice Vivek Rusia and Justice A.N. Kesharwani held-

Learned Labour Court has failed to examine that the Act, 1955 only regulates the certain conditions of service of working employees and other persons working in the Newspaper establishment. Under Section 3, the provisions of the Industrial Dispute Act,1947 have been made applicable to the working journalist as they apply to or in relation to the workman within the meaning of this Act., therefore, section 33 of the Industrial Dispute Act applies in the pending reference under Section17(2) of the Act, 1955. The working journalist are having the same protection as has been given to the workman under the Industrial Dispute Act,1947. Apart from this Section 16A of the Act, 1955, also gives protection to the working journalist and other employees.

Facts of the case were that the Petitioner was working as a news editor under the company of Respondents. He had moved a reference before the labour court, seeking directions to the Respondents to comply with the recommendations of the Majithia Pay Board. Subsequently, he had moved an application before the Labour Court under Section 33 of the Industrial Disputes Act, seeking injunction against the Respondents that during pendency of reference, they be restrained from changing his services conditions or transfer him to some other place. However, his application was dismissed.

The labour court had refused to interfere with his transfer order and also declined to prosecute the Respondents under Section 25 (T) (U) of the Industrial Disputes Act for adopting unfair labour practice. Aggrieved by the same, the Petitioner moved the Court.

The Petitioner contended before the Court that under Section 33 of Industrial Disputes Act, the Respondents were not permitted to change the service conditions by transferring him. By doing so, he added, they violated the provisions under Section 25(U) by committing unfair labour practice.

The Petitioner submitted that Section 16A of the Act, 1955 bars the employer in relation to a newspaper establishment to dismiss, discharge or retrench any newspaper employee, and therefore, interim order was liable to him. He further argued that all the provisions of Industrial Disputes Act apply to working journalist and other news paper employees, and hence, provision under Section 33 of Industrial Disputes Act was also Applicable to his case and in violation of the aforesaid, the Respondents wrongly transferred his service.

Per contra, the Respondents submitted that the Petitioner was required to challenge theorder of termination before the labour court in accordance with law. However, he was not challenging the validity of the termination order in the petition by way amendment. In absence of the main relief, it was argued, the interim relief could not be granted to him. With respect to the applicability of Section 33 of Industrial Disputes Act, the Respondents asserted that the said provision was applicable by virtue of Section 3 of Act, 1955. Therefore, they prayed for dismissal of the petition.

Considering the submissions of the parties and the documents on record, the Court concurred with the arguments of the Petitioner and corollary to the same, the matter was remitted to labour court to decide on whether the Petitioner was being victimized for seeking the implementation of the Majithia Pay Board from the Respondents-

Admittedly, during pendency of reference before the Labour Court, the respondents have transferred the petitioner and thereafter terminated him from services due to non-compliance of transfer order. The Trial Court is required to examine whether the petitioner has been transferred in order to victimize him as he is claiming the implementation of Majithia Pay Board which might casts heavy financial liability on the respondent and in such situation provision of Section 16A of the Act, 1955 will apply or not, therefore, matter is remitted back to the Labour Court to examine the act of the respondents under Section 33 of Industrial Act, 1947 as well as Section16A of the Act, 1955.

With the aforesaid observations and directions, the matter was remitted to the labour court and the accordingly, the petition was disposed of.

Source: https://www.livelaw.in/news-updates/madhya-pradesh-high-court-industrial-disputes-act-pending-reference-working-journalists-act-197733?infinitescroll=1

Case Title: NEERAJ v. SUDHIR AGRAWAL AND ORS.

Citation: 2022 LiveLaw (MP) 129

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