Tuesday 29 December 2020

अति महत्वपूर्ण फैसलाः निर्धारित वेतनमान से कम वेतन लेने का घोषणा पत्र मान्य नहीं, डाउनलोड करें पूरा आदेश



आवेदन प्रारूप में दिया जाए जरूरी नहीं

ग्वालियर। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की युगलपीठ के न्यायमूर्ति सुजयपाल एवं न्यायमूर्ति फहीम अनवर ने राजस्थान पत्रिका लिमिटेड (आर पी एल) बनाम मध्यप्रदेश शासन की पुर्नविचार याचिका निरस्त हुए निर्णित किया है कि वेतनमान प्राप्ति के लिए निर्धारित प्रारूप के अनुसार ही आवेदन दिया जाए यह आवश्यक नहीं है। श्रम कानून सामाजिक लाभ के विधान हैं। इसमें तकनीकी त्रुटियों एवं बारिकियों को नहीं देखा जाना चाहिए। यह सिविल न्यायालय की तरह विधान नहीं है। प्रकरण के तथ्यों के अनुसार कर्मचारी ने निर्धारित वेतनमान के अनुसार वेतन की गणना कर उप श्रमायुक्त के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया था। एवं 9,6108़.00 (रूपये नौ लाख छह हजार एक सौ आठ मात्र) वेतन के अंतर की मांग थी। उप श्रमायुक्त के समक्ष मेनेजमेंट ने तकनीकी आपत्तियां उठाई एवं वेतनमान के अंतर की राशि का स्पष्ट खंडन नहीं किया। 

उप श्रमायुक्त भोपाल ने वेतनमान की सारणी के अनुसार गणना उचित मानकर 9,6108़.00 की राशि वसूली के आदेश दिए। मेनेजमेंट ने उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर उप श्रमायुक्त के वसूली आदेश को चुनौती दी। जिसे माननीय उच्च न्यायालय ने गुणदोष पर सही पाते हुए खारिज कर दी तथा उपश्रमायुक्त के आदेश का उचित माना। मेनेजमेंट द्वारा पुनः पुर्नविचार याचिका 18-07-19 के आदेश के खिलाफ प्रस्तुत की। जिसको माननीय उच्च न्यायालय की युगलपीठ ने 18 दिसंबर 2020 को खारिज कर दिया एवं निम्नानुसार व्यवस्थाएं दी।













1. पुर्नविचार याचिका केवल सात्विक त्रुटि के सुधार के लिए ही दी जा सकती है। पुनः गुणदोष पर सुनवाई नहीं की जा सकती।

2. विधान में दिए गए नियम प्रारूप के अनुसार ही आवेदन प्रस्तुत किया जाए यह जरूरी नहीं है। तकनीकी आधार पर आवेदन निरस्त नहीं किया जा सकता।

3. श्रम कानून सामाजिक लाभ के विधान है। इसके प्रावधानों को उदार रूप में देखा जाना चाहिए।

4. आवेदन के निराकरण में उच्च तकनीकी स्वरूप को ही आधार नहीं बनाया जाए।

माननीय उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय के पैरा 21 में यह भी उल्लेखित किया है कि कर्मचारी ने उप श्रमायुक्त के समक्ष जो वेतन पत्रक प्रस्तुत किया था। मेनेजमेंट ने उसे स्पष्टतया विवादित नहीं किया। इसलिए उप श्रमायुक्त का वसूली आदेश विधिवत है। इतना ही नहीं वेतनमान की सिफारिशें के अनुसार निर्धारित वेतनमान से कम वेतन का कोई घोषणा पत्र कर्मचारी से लेना विधि सम्मत नहीं है। माननीय उच्च न्यायालय ने मेनेजमेंट की पुर्नविचार याचिका निरस्त कर दी।  










वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल कृष्ण छिब्बर

Friday 25 December 2020

नई दुनिया के पत्रकारों को मजीठिया में मिली 10वीं सफलता



प्लांट में कार्यरत पदम शर्मा को मिली विजय


जागरण प्रबंधन के नई दुनिया इंदौर में पत्रकार व श्रमजीवी पत्रकारों को मजीठिया मामले में 10वीं विजयश्री प्राप्त हुई है। मंगलवार को प्लांट के मजीठिया क्रांतिकारी पदम शर्मा ने विजय प्राप्त की।


वरिष्ठ अभिभाषक वाडिया ने बताया कि प्लांट में कार्यरत पदम शर्मा के पक्ष में फैसला आया है। मंगलवार मजीठिया केस में कोर्ट ने 10,14,922 बकाया वेतन व 19,200 अंतरिम राशि तथा 3000 जुर्माना सहित देने के आदेश प्रदान किए। उक्त राशि 2011 से 2016 तक की अवधि की है।


प्रमोद दाभाड़े 

मजीठिया क्रांतिकारी 

Wednesday 23 December 2020

इंदौर में बड़ी सफलता: जागरण प्रबंधन को झटका, 7 मजीठिया क्रांतिकारियों ने पाई विजय


इंदौर में मजीठिया क्रांति आखिर रंग लाई और 7 साथियों ने इसमें विजयश्री प्राप्त की। इंदौर में मजीठिया क्रांतिकारियों का जो फैसला हुआ है उसमें नई दुनिया (जागरण प्रबंधन) को बड़ा झटका लगा है, लेकिन जागरण प्रबंधन के लिए राहत वाली बात यह रही है कि 50 हजार का ब्याज कोर्ट ने मान्य इसलिए नहीं किया कि पक्षकार इसे साबित नहीं कर पाए। वैसे माननीय जज ने फैसला ऐतिहासिक सुनाकर मजीठिया क्रांतिकारियों को राहत ही दी है। इस लड़ाई में नई दुनिया के धर्मेन्द्र हाडा और वरिष्ठ अभिभाषक वाडियाजी का सराहनीय योगदान रहा है।


केस 1

संजय पिता त्रम्बकराव हटकर जागरण प्रबंधन के नई दुनिया में ड्राइवर के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने दो वर्ष का मजीठिया वेतनमान मांगने के लिए कोर्ट की शरण ली थी। इस मामले में कोर्ट ने 55,218 रुपए का अवार्ड पारित किया साथ ही पक्षकार को 3000 रुपए न्यायिक व्यय के साथ ही 1 माह में वेतन नहीं देने पर 2000 रुपए मय ब्याज देने का आदेश जारी किया। 


केस 2

निशिकांत पिता स्व. कृष्णकांत मंडलोई नई दुनिया में सब एडिटर के पद पर कार्यरत थे। इन्होंने   दो वर्ष का मजीठिया वेतनमान मांगने के लिए कोर्ट की शरण ली थी। इस मामले में कोर्ट ने 66,625 रुपए तथा अंतरिम राहत के 1,02,786 रुपए का अवार्ड पारित किया साथ ही पक्षकार को 3000  रुपए न्यायिक व्यय के साथ ही 1 माह में वेतन नहीं देने पर 2000 रुपए मय ब्याज देने का आदेश जारी किया। 


केस-3

विजय सुखदेव चौहान नई दुनिया में ड्राइवर के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने दो वर्ष का मजीठिया वेतनमान मांगने के लिए कोर्ट की शरण ली थी। इस मामले में कोर्ट ने 78845 रुपए का अवार्ड पारित किया साथ ही पक्षकार को 3000 रुपए न्यायिक व्यय के साथ ही 1 माह में वेतन नहीं देने पर 2000 रुपए मय ब्याज देने का आदेश जारी किया। 


केस-4

दिव्या नरेश सेंगर एक्टीक्यूटिव के पद पर नई दुनिया में कार्यरत थी। उन्होंने मजीठिया वेतनमान मांगने के लिए कोर्ट की शरण ली थी। इस मामले में कोर्ट ने 9,40,118 रुपए का अवार्ड पारित किया साथ ही पक्षकार को 3000 रुपए न्यायिक व्यय के साथ ही 1 माह में वेतन नहीं देने पर 2000 रुपए मय ब्याज देने का आदेश जारी किया। 


केस 5 

सुरेश विठाराम चौधरी नई दुनिया में ड्राइवर के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने दो वर्ष का मजीठिया वेतनमान मांगने के लिए कोर्ट की शरण ली थी। इस मामले में कोर्ट ने सुरेश के पक्ष में अवार्ड पारित किया था। लेकिन किसी त्रुटिवश आदेश में अमाउंट राशि में गड़बड़ी होने से वरिष्ठ अभिभाषक वाडियाजी ने पुनः आवेदन लगाया है।


केस 6

अशोक शर्मा नई दुनिया में कार्यरत थे। उनके पक्ष में भी अवार्ड पारित हुआ है। इसकी कापी अभी हमारे पास उपलब्ध नहीं है। कोर्ट के फैसले की कापी आने के बाद पूरी डिटेल की जानकारी आप तक पहुंचाई जाएगी।


केस 7

सुरेद्र सिंह नई दुनिया (जागरण ग्रुप) में कार्यरत थे। इन्होंने भी मजीठिया वेतनमान के लिए कोर्ट की शरण ली थी। माननीय कोर्ट ने उनके पक्ष में 6,72,460 का अवार्ड पारित करने के साथ न्यायिक व्यय की राशि 3000 व एक माह में पैसा जमा नहीं करने पर 2000 रुपए ब्याज का आदेश दिया है। इस केस की कापी भी अभी उपलब्ध नहीं हुई है। 


वाडियाजी और हाडाजी की मेहनत

साथियों इन सारे केसों में वरिष्ठ अभिभाषक वाडिया और धर्मेन्द्र हाडा की मेहनत रंग लाई है। पूरी लड़ाई में दोनों साथियों ने तन, मन और धन से केस में अपना पूर्ण सहयोग देकर साथियों को विजय दिलाई है। इन दोनों साथियों को साधुवाद। ऐसे साथियों के बल पर ही आज सत्य की लड़ाई में हम विजयश्री प्राप्त कर रहे हैं। दोनों भाइयों का सम्मान होना चाहिए।


प्रमोद दाभाड़े 

इंदौर


Friday 18 December 2020

सुप्रीम कोर्ट ने भी माना, मजीठिया से बचने के लिए पत्रिका ने फर्जी कंपनी बनाई, डाउनलोड करें आर्डर


पत्रिका ने मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ देने से बचने के लिए फोर्ट फोलिएज नाम की एक कंपनी का रातों-रात गठन किया और अपने अधिकांश कर्मचारियों की सेवाओं को उसमें स्थानांतरित कर दिया। 

जब पत्रिका ने मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार कर्मचारियों को वेतन का भुगतान नहीं किया तो तमाम कर्मचारियों ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश अनुसार श्रम न्यायालय में बकाया एवं मजीठिया अनुसार वेतन के भुगतान के लिए अपने दावे प्रस्तुत किए। श्रम न्यायालय में पत्रिका द्वारा कहा गया कि उक्त कर्मचारी उनके नहीं है बल्कि मेन पावर सप्लाई कंपनी फोर्ट फोलिएज प्राइवेट लिमिटेड के कर्मचारी हैं जिन पर मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसा लागू नहीं होती है। जिसके बाद कर्मचारियों ने न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया कि पत्रिका बताए कि कर्मचारी उनके यहां किस पद पर कार्यरत था, क्या कार्य करता था, उस पर किसका सुपरविजन था, सुपरविजन करने वाले अधिकारी कर्मचारी का नाम क्या था, उसकी नियुक्ति प्रक्रिया क्या थी, वेतन का भुगतान किसके द्वारा किस माध्यम से किया जाता था इत्यादि इत्यादि। आवेदन पर माननीय श्रम न्यायालय ने आदेश दिया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के परिपालन में जल्द निर्णय के लिए इन तथ्यों का न्यायालय के संज्ञान में होना आवश्यक है। अतः पत्रिका संस्थान इन तथ्यों से न्यायालय को अवगत कराए। अवगत न कराने की स्थिति में पत्रिका संस्थान इन बिंदुओं पर कर्मचारी से प्रतिपरीक्षण करने से वंचित रहेगी।



श्रम न्यायालय के आदेश के खिलाफ पत्रिका संस्थान में ग्वालियर उच्च न्यायालय मैं अपील की, जिस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस जीएस आहलूवालिया ने आदेश दिया कि श्रम न्यायाधीश ने जो आदेश दिया है वह बिल्कुल ठीक है। उन्हें पत्रिका के विरुद्ध और कड़ा आदेश करना था। साथ ही उन्होंने अपने आदेश में कहा कि दस्तावेजों को देखने के बाद स्पष्ट होता है कि पत्रिका ने मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ कर्मचारियों को देने से बचने के लिए दस्तावेजों का दुरुपयोग करते हुए एक फर्जी कंपनी फोर्ट फोलिएज गठित की है। 


पत्रिका ने जस्टिस जीएस आहलूवालिया के आदेश को डिविजनल बेंच ग्वालियर हाईकोर्ट में चुनौती दी जहां माननीय उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि सिंगल बेंच का आदेश ठीक है। साथ ही उन्होंने अपने आदेश में कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मजीठिया मामलों को 6 माह में निराकृत करने का आदेश दिया है पर प्रकरण को देखते हुए स्पष्ट होता है कि पत्रिका संस्थान जानबूझकर प्रकरण में विलंब कार्य कर रही है ऐसे में पत्रिका पर माननीय न्यायालय ने ₹10000 का अर्थदंड और ₹25000 न्यायालय में दंड स्वरूप जमा कराने के निर्देश दिए थे।

पत्रिका के षड्यंत्र का माननीय न्यायालय द्वारा पर्दाफाश होने से बौखलाए मालिका ने बचने के लिए माननीय उच्च न्यायालय के आदेशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी दिनांक 17 दिसंबर 2020 को कोर्ट क्रमांक 9 में मामले की सुनवाई हुई जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रिका की याचिका को खारिज कर दिया।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद उच्च न्यायालय ग्वालियर की उस टिप्पणी पर स्थाई मोहर लग गई जिसमें कहा गया था कि पत्रिका ने मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं का लाभ कर्मचारियों को देने से बचने के लिए पेपर अरेंजमेंट करते हुए एक फर्जी कंपनी का गठन किया है।

Tuesday 1 December 2020

श्रम न्यायालय कोटा ने शेष बचे भास्कर कर्मचारियों का अवार्ड जारी किया

कोटा 1 दिसंबर। श्रम न्यायालय ने दैनिक भास्कर से निलंबित एवं नौकरी से हटाने के मामले में मंगलवार को सभी श्रमिकों को सेवा की निरंतरता मानते हुए  50% बैक वेज सहित लाभ दिलाए जाने काअधि निर्णय पारित किया है। साथ ही श्रम न्यायालय कोटा द्वारा यह भी निर्देश दिए हैं कि उक्त अधि निर्णय की पालना 2 माह में किया जाना सुनिश्चित किया जाए। उक्त मामले में भास्कर कर्मचारियों की ओर से वकील अनिल दाधीच  ने पैरवी की। ।

उल्लेखनीय है कि मंगलवार को शेष बचे भास्कर कर्मचारियों में संतोष श्रीवास्तव देवेंद्र दाधीच सहित छह  भास्कर कर्मचारियों के मामले में उक्त अधि निर्णय पारित किया है।

Friday 20 November 2020

‘‘जनरूचिकारी नहीं जनहित वाली हो पत्रकारिता’’


बाबूराव विष्णु पराड़कर की जयंती पर ‘‘आज की पत्रकारिता’’ गोष्ठी का आयोजन

वाराणसी, 20 नवम्बर। बाबूराव विष्णु पराड़कर जी की जयंती पर आज पराड़कर स्मृति भवन में ‘‘आज की पत्रकारिता’’ विषयक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में वक्ताओं ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि पत्रकारों को जनरूचिकारी नहीं बल्कि जनहितकारी समाचारों पर जोर देना चाहिए। 

संगोष्ठी के मुख्यअतिथि व जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो॰ हरिकेश सिंह ने कहा कि आज की पत्रकारिता संकट के दौर से गुजर रही है। एक समय था जब पत्रकारिता एक साधना थी। लेकिन खबरों को सबसे पहले परोसने की होड़ में यह साधना भंग हो रही है। नतीजा है कि सत्यता की परख किये बगैर खबरें लाॅंच कर दी जाती है। जिससे मीडिया की विश्वसनियता घटती जा रही है। प्रो॰ सिंह ने कहा कि पराड़कर जयंती पर सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम बाबूराव विष्णु पराड़कर की प्रतिमा से अपनी प्रतिभा और उनके चित्र से अपना चित्त सवारें। 

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जन सम्प्रेषण विभाग के प्रो॰ अनुराग दवे ने कहा कि जो लोग यह कहते हैं कि पराड़कर जी के दौर और आज के दौर में बहुत अंतर है, तो इससे मैं सहमत नहीं हूं। पराड़कर जी के दौर में भी चुनौतियां थीं और आज भी हैं। उस दौर में भी सत्ता की खामी को उजागर करना पत्रकारों का धर्म था और आज भी है। यह हमें सोचना होगा कि क्या आज के पत्रकार इस धर्म को वास्तव में निभा पा रहे हैं या नहीं। उन्होंने कहा कि लोग मिशन और प्रोफेशन की बात करते हैं। यह सच है कि आज की पत्रकारिता मिशन नहीं प्रोफेशन हो चुकी है। आज के पत्रकार इस प्रोफेशन को आजीविका के लिए तो अपनाते हैं लेकिन वह अपने दायित्वों को भूल जाते हैं। पराड़कर जी को आज लोग इस लिए भी याद करते हैं कि तमाम संकटों के बावजूद वे अपने पत्रकारिता धर्म और दायित्वों से विमुख नहीं हुए।

महामना मदन मोहन मालवीय हिन्दी पत्रकारिता संस्थान (काशी विद्यापीठ) के निदेशक प्रो॰ ओम प्रकाश सिंह ने आज के दौर की पत्रकारिता पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि मीडिया ने मनुष्य के अति करीब जाकर देखना कम कर दिया है। यही आज के दौर की पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौति है। हमें यह भी देखना होगा की पराड़कर जी के दौर में किस तरह के लोग पत्रकारिता में थे और आज के दौर में कैसे-कैसे लोग पत्रकारिता में आ चुके हैं। इस कमी का तो खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। जरूरत यह है कि पत्रकार सामाजिक सरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता करे, यही संकट का समाधान है। संगोष्ठी में काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष श्री केडीएन राय, वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप समेत अन्य लोगों ने भी विचार व्यक्त किये। संगोष्ठी संचालन प्रदीप कुमार ने व धन्यवाद ज्ञापित काशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष श्री राजनाथ तिवारी ने किया। प्रारम्भ में अतिथियों का स्वागत संघ के महामंत्री मनोज श्रीवास्तव ने किया। अंत में अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया गया। संगोष्ठी में संघ के पूर्व अध्यक्ष सुभाषचन्द्र सिंह, पूर्व महामंत्री डा॰ अत्रि भारद्वाज, वाराणसी प्रेस क्लब के मंत्री पंकज त्रिपाठी, कोषाध्यक्ष शंकर चतुर्वेदी, राजेन्द्र यादव, आनन्द मौर्य, डा॰ नागेन्द्र पाठक, वरिष्ठ पत्रकार गोपेश पाण्डेय, आर संजय, जयनारायण, उमेश गुप्ता,  डा॰ जितेन्द्रनाथ मिश्र, प्रो॰ विश्वासचन्द्र श्रीवास्तव समेत काफी संख्या में लोग उपस्थित रहे।


मनोज श्रीवास्तव

महामंत्री

देश के 269,556 अखबारों के टाइटल निरस्त, 804 के विज्ञापन बंद


नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने 269,556 अखबारों के टाईटल निरस्त कर दिए हैं। साथ ही 804 अखबारों को डीएवीपी की सूची से बाहर कर दिया गया है। इतना ही नहीं पूर्व में गड़बड़ियां करके जिन अपात्र अखबारों और मैग्जीनों ने सरकारी विज्ञापन डकारे थे, उनकी जांच के निर्देश भी जारी कर दिए गए हैं। जांच के बाद रिकवरी और कानूनी कार्रवाई अमल में लाई जा सकती है। इस फैसले के चलते कुक्‍करमुत्‍ते की तरह फैल कर सरकारी विज्ञापनों को फर्जी तरीके से डकारने वाले अखबार माफिया में हड़कंप मच गया है। वहीं ऐसे अखबारों ने चैन की सांस ली है, जो इनके चलते विज्ञापनों की भारी भरकम राशि से महरुम हो गए थे।  


प्राप्‍त जानकारी के अनुसार मोदी सरकार के आदेशों के बाद समाचार पत्रों के पंजीयक के कार्यालय(आरएनआई) और विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय(डीएवीपी) इस संबंध में कड़ी कार्रवाई करने को सक्रिय हो गए हैं। इसके तहत समाचार पत्र के संचालन में नियमों के उल्लंघन पर आरएनआई समाचार पत्र के टाईटल पर रोक लगा रहा है, तो वहीं गड़बड़ियां मिलने पर डीएवीपी विज्ञापन देने पर प्रतिबंध लगा रहा है।


आरएनआई समाचार पत्रों के टाइटल की समीक्षा कर रहा है और विसंगतियां मिलने पर प्रथम चरण में प्रिवेंशन ऑफ प्रापर यूज एक्ट 1950 के तहत देश के 269,556 समाचार पत्रों के टाइटल निरस्त कर दिए गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा महाराष्ट्र के 59703 अखबार-मैग्जीन के टाइटल निरस्‍त किए गए हैं। इसके बाद उत्‍तर प्रदेश का आंकड़ा है, यहां के 36822 अखबार-मैग्जीन के टाइटल निरस्‍त किए गए हैं। वहीं बिहार के 4796, उत्तराखंड के 1860, गुजरात के 11970, हरियाणा के 5613, हिमाचल प्रदेश के 1055, छत्तीसगढ़ के 2249, झारखंड के 478, कर्नाटक के 23931, केरल के 15754, गोआ के 655, मध्य प्रदेश के 21371, मणिपुर के 790, मेघालय के 173, मिजोरम के 872, नागालैंड के 49, उड़ीसा के 7649, पंजाब के 7457, चंडीगढ़ के 1560, राजस्थान के 12591, सिक्किम के 108, तमिलनाडु के 16001, त्रिपुरा के 230, पश्चिम बंगाल के 16579, अरुणाचल प्रदेश के 52, असम के 1854,  लक्षद्वीप के 6, दिल्ली के 3170 और पुडुचेरी के 523 टाइटिल निरस्त किए गए हैं।

Monday 16 November 2020

महाराष्ट्र में वाचमैनों को लोकल ट्रेन में जाने की इजाजत लेकिन मीडियाकर्मियों को नहीं


file photo source: social media

महाराष्ट्र में मीडियाकर्मियों को लोकल ट्रेन में जाने की इजाजत नहीं है। लोकल ट्रेन में सिर्फ उन्हीं पत्रकारों को यात्रा की इजाजत है जो मंत्रालय से मान्यता प्राप्त हैं। अब जाहिर सी बात है कि मान्यता ज्यादात्तर उन्ही पत्रकारों को मिलता है जो पोलिटिकल बिट कवर करते हैं। जिनकी संख्या नाम मात्र है। मगर महाराष्ट्र में उन पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की संख्या ज्यादा है जो क्राइम बीट, इंटरटेनमेंट बीट और सोशल तथा अन्य बीट को कवर करते हैं। इन्हें लोकल ट्रेन में यात्रा की इजाजत नहीं है। यहां तक कि जो रेलवे बीट को कवर करते हैं खुद उन्हें भी लोकल ट्रेन में जाने की इजाजत नहीं है। 

न्यूज़ पेपर प्रिंटिंग, इलेक्ट्रॉनिक टीवी और वेब न्यूज़ के मीडियाकर्मियों और इनसे जुड़े ज्यादात्तर पत्रकारों को लोकल ट्रेन में यात्रा की इजाजत नहीं है। लोकल ट्रेन में वाचमैनों को यूनिफार्म पहनकर यात्रा की इजाजत है। वाचमैनों को लोकल में यात्रा के लिए आईकार्ड दिखाकर सीजन टिकट या नार्मल टिकट भी आसानी से मिल जा रहा है लेकिन बिना मान्यता प्राप्त पत्रकारों को लोकल का टिकट देने की जगह काउंटर पर बैठने वालों से जलालत झेलनी पड़ रही है। वाचमैनों के अलावा बैंकों के कर्मचारी और बैंकों के बाहर खड़े होकर क्रेडिट कार्ड बेचने वालों को भी लोकल में जाने की इजाजत है। सरकारी कर्मचारी, स्कूल कर्मचारी, मनपा कर्मचारी, अस्पताल कर्मचारी सबको लोकल ट्रेन में जाने की इजाजत है और इन्हें आवश्यक सेवा में माना जाता है लेकिन महाराष्ट्र के मीडियाकर्मियों को आवश्यक सेवा में शामिल नहीं माना जा रहा है। 

अचरज की बात यह है कि महाराष्ट्र में दर्जनों पत्रकार संगठन हैं लेकिन ज्यादात्तर इस मामले पर चुप हैं। एक दो संगठन ने इस मुद्दे पर लेटरबाजी और ट्वीट भी राज्य सरकार और रेलमंत्री को किया लेकिन न राज्य सरकार उनकी सुन रही है न रेल मंत्रालय। रेलवे के ज्यादात्तर पीआरओ की हालत है कि रेलवे के किसी बड़े अधिकारी की बीबी किसी कार्यक्रम का फीता काटेंगी तो वो खबर भेज देंगे लेकिन सभी मीडियाकर्मियों को लोकल ट्रेन में जाने की इजाजत कब मिलेगी इसपर वे कहते हैं राज्य सरकार को यह तय करना है कि सभी मीडियाकर्मियों को लोकल में कब से यात्रा की अनुमति मिलेगी। लोकल में यात्रा की अनुमति न मिलने से अधिकांश मीडियाकर्मी बेचारे सैकड़ो रुपये और 5 से 6 घंटे बर्बाद कर कार्यालय जाने को मजबूर होते हैं। राज्य सरकार और रेल मंत्रालय से निवेदन है कि इस ओर जल्द ध्यान दें।


शशिकांत सिंह

वॉइस प्रेसिडेंट

न्यूज़ पेपर एम्प्लॉयज यूनियन ऑफ इंडिया

9322411335

Thursday 5 November 2020

पंचतत्व में विलीन हुए कर्मचारियों के मसीहा, मीडियाकर्मियों में शोक की लहर


नई दिल्ली, 5 नवंबर। कर्मचारियों के मसीहा हरीश शर्मा आज पंचतत्व में विलीन हो गए। लगभग 80 वर्षीय हरीश शर्मा का कल घर पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। उनके निधन से मजीठिया का केस लड़ रहे मीडियाकर्मियों में शोक की लहर है। 

आज सुबह उनका अंतिम संस्कार कड़कड़डूमा अदालत के पास स्थित ज्वाला नगर के श्मशान घाट पर किया गया। बेटे के कनाड़ा से नहीं पहुंच पाने के कारण उनकी चित्ता को नजदीक रिश्तेदार ने अग्नि दी। 

हरीश शर्मा कर्मचारियों के बहुत बडे़ शुभचिंतक थे। वे उस बात का खुलकर विरोध करते थे, जो कर्मचारियों के खिलाफ होती थीं। उन्होंने बैंक से सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पेशे को पूरी तरह से कर्मचारियों को समर्पित कर दिया था। मजीठिया आंदोलन में शामिल पत्रकार पहली बार उनसे 2016 में मिले और उनके कायल हो गए। उसके बाद हरीश शर्मा ने वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का अध्ययन करने के बाद उसकी बारिकियों से मीडियाकर्मियों को अवगत करवाना शुरू किया। हरीश शर्मा की इस कर्मठता और ईमानदारी से उनके पास देखते ही देखते लगभग 250 मीडियाकर्मियों के मामले आ गए। उनका इस नश्वर संसार से जाना कर्मचारियों विशेषतौर मीडियाकर्मियों के लिए बहुत बड़ा सदमा है।


Wednesday 4 November 2020

नहीं रहे कर्मचारियों के मसीहा एडवोकेट हरीश शर्मा



नई दिल्ली, 4 नवंबर। कर्मचारियों के मसीहा हरीश शर्मा का आज दिल का दौरा पड़ने से यहां निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार कल सुबह किया जाएगा। 

हरीश शर्मा को आज दिल का दौरा पड़़ने के बाद अस्पताल ले जाया गया। वहां पर डाक्टरों ने उन्हें म़ृत घोषित कर दिया। हरीश शर्मा के बेटा और बेटी इस समय विदेश में होने के कारण उनके अंतिम संस्कार के वक्त मौजूद नहीं रह पाएंगे। उनकी बड़ी बेटी का पहले ही निधन हो चुका है, जो कि उनके दिल के काफी करीब थी। 

हरीश शर्मा बैंक में नौकरी करते थे। तब से वे कर्मचारी यूनियन से जुड़े रहे और प्रबंधन की हर गलत नीति का पुरजोर विरोध करते रहे। इस दौरान उन्होंने वकालत की और इस पेशे से जुड़ गए। कई सरकारी कर्मचारियों के मामलों में वे वकील रहे। उन्होंने अपनी काबलियत से अपना एक ही अलग मुकाम मनाया। जिस केस को वे हाथ में लेते थे उसका वह गहनता से अध्ययन कर उसकी तैयारी करते थे। वर्ष 2016 में उनके पास मजीठिया के मामले आने शुरू हुए और उन्होंने पूरी शिद्दत से उनपर काम किया। वे जल्द ही मजीठिया मामलों के पूरे जानकार बन गए और उनके पास दिल्ली से लेकर मुंबई तक के मजीठिया केस आने लगे। वे मजीठिया केस से जुड़े हर बारीक से बारीक पहलुओं को खोज कर कर्मचारियो को जानकारी दिया करते थे। उनका निधन मजीठिया केस लड़ रहे साथियों के लिए अपूरणीय क्षति है। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।

-राजेश निरंजन

Tuesday 3 November 2020

सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस देश की सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (29.10.2010) को विशेष अनुमति याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि इस देश की सभी अदालतें शीर्ष अदालत के फैसले से बंधी हुई हैं।

न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन के नेतृत्व वाली पीठ भूमि अधिग्रहण मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर एसएलपी (SLP) पर विचार कर रही थी।

पीठ के समक्ष यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता को यह लगता है कि कार्यकारी अदालत ने गुरप्रीत सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2006) 8 एससीसी 457 में दिए गए उच्चतम न्यायालय के फैसले का पालन नहीं किया। 

इस संदर्भ में पीठ ने कहा, "हम यह स्पष्ट करते हैं कि यह आशंका पूरी तरह से बिना किसी आधार के है और इस देश के सभी न्यायालय, जिनमें कार्यकारी न्यायालय भी शामिल हैं, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से बंधे हैं।"

इस प्रकार, पीठ ने विशेष अनुमति याचिका का निपटारा किया।

गुरप्रीत सिंह मामले में संविधान पीठ ने कहा था कि दावेदार सोलटियम और अतिरिक्त बाजार मूल्य पर ब्याज पाने का हकदार होगा यदि संदर्भ न्यायालय या अपीलीय अदालत का अवॉर्ड विशेष रूप से सोलाटियम और अतिरिक्त बाजार मूल्य पर ब्याज के प्रश्न का उल्लेख नहीं करता है या जहां दावे को या तो स्पष्ट रूप से या निहित रूप से अस्वीकार नहीं किया गया था। 

याचिकाकर्ता आशंका इसलिए थी व्यक्त की गई थी क्योंकि निर्णय के पैराग्राफ 27 में उच्च न्यायालय ने कहा था कि सरकार द्वारा दायर रिट याचिका अनुमति देने योग्य है, हालांकि इसे केवल आंशिक रूप से अनुमति दी गई थी।

न्यायमूर्ति नरीमन के नेतृत्व वाली पीठ ने हाल ही में एक अन्य आदेश में इसी तरह की टिप्पणी की थी।

उन्होंने कहा था कि "हमें देश भर के मजिस्ट्रेटों को याद दिलाना चाहिए कि भारत के संविधान के तहत हमारी पिरामिड संरचना में सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है और फिर उच्च न्यायालय, हालांकि प्रशासनिक रूप से अधीनस्थ नहीं हैं, निश्चित रूप से न्यायिक रूप से अधीनस्थ हैं।"

संविधान का अनुच्छेद 141 कहता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून भारत के क्षेत्र के भीतर सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी होगा।


नए श्रम कानूनों पर रायशुमारी शुरू, आपत्तियां और सुझाव 30 दिन के भीतर दें


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नई दिल्ली। केंद्र सराकर ने नए श्रम कानूनों पर रायशुमारी का काम शुरू कर दिया है। श्रम मंत्रालय ने औद्योगिक संबंध संहिता 2020 के ड्राफ्ट नियम जारी करते हुए इससे जुड़े कानूनों पर आपत्तियां और सुझाव 30 दिन के भीतर मांगे है। सरकार का लक्ष्य है कि अगले साल मार्च तक देश भर में नए श्रम कानून लागू कर दिए जाएं। ड्राफ्ट नियम में प्रावधान किया गया है कि यदि नियोक्ता अपने ऐसे कर्मचारी की छंटनी करना चाहता है, जो एक साल तक निरंतर सेवा दे चुका है तो उसे इसके बारे में केंद्र सरकार और संबंधित केंद्रीय उप मुख्य श्रमायुक्त को ई-मेल या फिर पंजीकृत या स्पीडपोस्ट से इसका नोटिस देना होगा।


छंटनी किए गए कामगार को देना होगा मौका

वहीं यह भी प्रावधान किया गया है कि अगर किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान में कोई वैकेंसी होती है और उसे भरने के प्रस्ताव से पहले एक साल के भीतर छंटनी किए गए कामगार मौजूद हों तो उन्हें ई-मेल या पोस्ट के जरिए कम से कम 10 दिन पहले जानकारी देते हुए नौकरी के लिए वरीयता देनी होगी। साथ ही सरकार ने नए नियमों में ऐसी व्यवस्था का भी प्रावधान रखा है कि छंटनी का शिकार हुए कर्मचारी के स्किल डेलवपमेंट की भी व्यवस्था हो सके। नियोक्ताओं के लिए ये जरूरी होगा कि वो छंटनी किए गए कर्मचारी के 15 दिन के वेतन के बराबर की राशि केंद्र सरकार के बताए गए खाते में ट्रांसफर करेगा। उस रकम को सरकार कर्मचारी के खाते में ट्रांसफर करेगी जिसका उपयोग कर्मचारी पुनर्कौशल के लिए कर सकेगा।


छंटनी की संख्या की पूरी जानकारी सरकार के साथ साझा करनी होगी

यह भी निर्देश दिए गए हैं कि कंपनियों को छंटनी की संख्या की पूरी जानकारी सरकार के साथ साझा करनी होगी। ताकि इस व्यवस्था में पारदर्शिता बनी रह सके। यही नहीं कंपनियों को इन सभी चीजों की जानकारी की एक एक प्रति श्रम ब्यूरो के महानिदेशक के साथ भी साझा करनी होंगी ताकि देश में नौकरियों के आंकड़ों की जानकारी इकट्ठा रखी जा सके। 30 दिनों के बाद मिले सुझावों के अनुसार जरूरी बदलावों के बाद इसे कानूनी रूप देने का काम शुरू कर दिया जाएगा। साथ ही वेज कोड को लेकर नोटिफिकेशन ड्राफ्ट 15 दिनों के भीतर जारी कर दिया जाएगा।


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एक कर्मचारी को ट्रेनी का दर्जा देकर, उसे ग्रेच्युटी एक्ट के लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता हैः केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि एक नियोक्‍ता, एक कर्मचारी को ट्रेनी का दर्जा देकर, जबकि उससे नियमित कर्मचारी जैसे काम लेते हुए, उसे ग्रेच्युटी एक्ट के लाभ से वंचित नहीं कर सकता है। 

जस्टिस एएम बदर ने कहा कि एक ट्रेनी को ग्रेच्युटी एक्ट के तहत 'कर्मचारी' शब्द की परिभाषा से बाहर नहीं किया गया है, बल्‍कि केवल एक 'अप्रेंटिस' को बाहर रखा गया है। 

अदालत ने आईआरईएल (इंडिया) लिमिटेड/ नियोक्ता की रिट याचिका रद्द करते हुए उक्त टिप्पणियां की हैं। याचिका के पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट, 1972 के तहत नियंत्रण प्राध‌िकारी द्वारा पारित एक आदेश को चुनौती गई दी थी।

यह दलील दी गई थी कि ट्रेनी या शिक्षार्थी वास्तव में अप्रेंटिस है और इसलिए, ग्रेच्युटी एक्ट की धारा 2 (ई) के तहत परिभाषित एक कर्मचारी नहीं है। मामला यह था कि एक कर्मचारी के पास दो साल की शुरुआती अवधि के लिए, जब उसे ट्रेनी के रूप में नियुक्त किया जाता है, जो अप्रेंटिस की नियुक्ति के बराबर है, ग्रेच्युटी प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। 

नियोक्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा किया था, जिसमें कहा गया था कि ग्रेच्युटी एक्ट के तहत किसी भी वैधानिक प्रावधान के अभाव में, जिसे सेवा में लागू किया जा सकता है, एक ट्रेनी ग्रेच्युटी का हकदार नहीं हो सकता है।

ज‌स्टिस बदर ने इस दृष्टिकोण से असहमति जताई और कहा कि एक ट्रेनी को ग्रेच्युटी एक्ट के तहत 'कर्मचारी' शब्द की परिभाषा से बाहर नहीं रखा गया है, बल्‍कि एक 'अप्रेंटिस' को बाहर रखा गया है। 

अदालत ने कहा, "ट्रेनी तथाकथित प्रशिक्षण की अव‌ध‌ि में विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों का निर्वहन करता है और जिसे विशेष रूप से नामित व्यापार में प्रतिनियुक्त नहीं किया गया हैं, उसे अप्रेंटिस या शिक्षार्थी नहीं कहा जा सकता है। कल्याणकारी कानून के लाभकारी प्रावधानों की व्याख्या करते हुए पद का नामकरण अधिक परिणामदायक नहीं होता है।

ग्रेच्युटी एक्ट निस्संदेह एक कल्याणकारी कानून है, जो केवल अप्रेंटिस को प्रशिक्षण अवधि में ग्रेच्युटी प्राप्त करने के लाभ से रोक देता है। हालांकि, एक कर्मचारी को ट्रेनी के रूप में नामित करना, उससे नियमित काम लेना और फिर उसे ग्रेच्युटी एक्ट के लाभ से इस बहाने से वंचित करना कि एसा कर्मचारी ट्रेनी है, निश्‍चित रूप से कल्याणकारी कानून के उद्देश्य को पराजित करेगा।" 

अदालत ने उड़ीसा हाईकोर्ट द्वारा अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक, उड़ीसा खनन निगम लिमिटेड बनाम नियंत्रण प्राधिकरण, ग्रेच्युटी एक्ट भुगतान के संबंध में व्यक्त किए गए दृष्टिकोण से भी सहमति व्यक्त की कि रोजगार के अनुबंध के तहत नियोजित एक ट्रेनी अप्रेंटिस एक्ट के तहत अप्रेंटिस नहीं है, जब तक कि वह अप्रेंटिसशिप के अनुबंध के अनुसरण में एक विशेष ट्रेड में अप्रेंटिस ट्रेनिंग से गुजर रहा हो।

अदालत ने कहा कि कर्मचारी इस प्रकार 16.07.1991 से 15.07.1993 तक की अवधि के लिए ग्रेच्युटी का हकदार था, जैसा कि उन्होंने साबित किया है कि, उक्त अवधि के दौरान, वह किसी भी प्रशिक्षण से हीं गुजर नहीं रहे थे और इस तरह से एक अप्रेंटिस नहीं थे ताकि उन्हें पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट, 1972 के लाभकारी कानून से बाहर किया जा सके। 

केस: आआरईएल (इं‌डिया) ‌लिमिटेड बनाम पीएन राघव पनिक्कर [WP (C) .No.2254 of 2020]

कोरम: जस्टिस एएम बदर

प्रतिनिधित्व: एडवोकेट एम गोपीकृष्‍णन नांबियर, एडवोकेट सीएसअजीत प्रकाश


(source: https://hindi.livelaw.in/)

मजीठिया: राष्ट्रीय सहारा बनारस के मीडियाकर्मी को मिली जीत


वाराणसी में मजीठिया वेज बोर्ड मामले की लड़ाई लड़ रहे काशी पत्रकार संघ व समाचारपत्र कर्मचारी यूनियन को आज एक और सफलता हासिल हुई। मजीठिया मामले में राष्ट्रीय सहारा के खिलाफ बनारस में विनोद शर्मा ने केस जीत लिया है। वाराणसी श्रम न्यायालय ने विनोद शर्मा के पक्ष में फैसला सुनाते हुए राष्ट्रीय सहारा प्रबंधन को आदेश दिया है कि वह विनोद शर्मा को मजीठिया वेतन आयोग की संस्तुतियो के अनुरूप बकाये का भुगतान करे।

राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक में विनोद शर्मा उप सम्पादक पद पर स्थायी रूप से कार्य कर रहे थे। मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के अनुरूप वेतन भुगतान की उनके लगातार मांग करने पर अखबार प्रबंधन टालमटोल करता रहा। बाद में सहारा प्रबंधन ने विनोद शर्मा की सेवा अवैधानिक रूप से समाप्त कर दी।

इस बीच मजीठिया मामले की लड़ाई लड़ रहे काशी पत्रकार संघ ने समाचारपत्र कर्मचारी यूनियन के सहयोग से स्थानीय श्रम न्यायालय में वाद दाखिल किया। वरिष्ठ अधिवक्ता अजय मुखर्जी व उनके सहयोगी आशीष टण्डन की मजबूत पैरवी का नतीजा रहा कि श्रम न्यायालय ने फैसला विनोद शर्मा के पक्ष में सुनाया।

श्रम न्यायालय के पीठासीन अधिकारी अमेरिका सिंह ने अपने फैसले में विनोद शर्मा के बकाये का भुगतान मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार करने का आदेश दिया है। साथ ही यह भी कहा है कि सेवायोजक के ऐसा न करने पर अभिनिर्णय की तिथी से श्रमिक सम्पूर्ण वेतन पर सात प्रतिशत वार्षिक व्याज पाने का अधिकारी होगा।

काशी पत्रकार संघ अध्यक्ष राजनाथ तिवारी, महामंत्री मनोज श्रीवास्तव, पूर्व अध्यक्ष प्रदीप कुमार, संजय अस्थाना, विकास पाठक, योगेश गुप्त के साथ ही समाचारपत्र कर्मचारी यूनियन के मंत्री अजय मुखर्जी ने इस फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा है कि इसके लिए पूरी कार्यसमिति बधाई के पात्र है, जिसकी एकजुटता और संघर्ष का परिणाम है कि लगातार सार्थक नतीजे आ रहे है।


शशिकांत सिंह

पत्रकार और मजीठिया क्रांतिकारी

9322411335

वेजबोर्ड न देने वाले मालिकों को पत्रकार ने कोर्ट में घसीटा, सम्मन जारी




नई दिल्ली। खुद की तिजोरी भरने वाले मीडिया मालिकों को अपने अधीन काम करने वाले कर्मियों का तनिक खयाल नहीं रहता। ये सरकारी नियमों के तहत मिलने वाले वेतन व अन्य देय को भी देने में कतराते हैं। ऐसे ही एक मामले में एक पत्रकार ने अपने मालिकों को कोर्ट में तलब कराया है। कोर्ट ने सम्मन जारी करते हुए सबको तलब किया है।

मामला श्रमजीवी पत्रकार चन्द्र प्रकाश पाण्डेय का है। ये 1 जनवरी 2006 से लेकर 30 जून 2016 तक एनएनएस ऑनलाईन प्राइवेट लिमिटेड नामक मीडिया कंपनी में न्यूज कोआर्डीनेटर के पद पर कार्यरत रहे।

पत्रकार चन्द्र प्रकाश पाण्डेय ने मजीठिया वेतनमान न मिलने की शिकायत श्रम विभाग में की। उनका आरोप है कि जबसे वे एनएनएस ऑनलाईन प्रा लि में न्यूज कोआर्डीनेटर के पद पर कार्य कर रहे हैं, तबसे उनको कंपनी ने मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार कोई लाभ नहीं दिया।

श्रमजीवी पत्रकार चन्द्र प्रकाश पाण्डेय की शिकायत पर श्रम अधिकारी ए के बिरूली एवं इंस्पेक्टर मनीश कुमार ठाकुर ने एनएनएस आनलाइन मीडिया प्रबंधन को शोकॉज नोटिस जारी कर दिया। इस शोकाज नोटिस में मीडिया प्रबंधन का पक्ष मांगा गया। साथ ही जरूरी दस्तावेज के साथ उपस्थित होने का निर्देश दिया गया।

प्रबंधन ठेंगा दिखाते हुए किसी सुनवाई पर उपस्थित नहीं हुआ। न ही कोई प्रत्युत्तर दिया। इस तरह एनएनएस आनलाइन मीडिया प्रबंधन ने श्रम विभाग, इसके अधिकारियों और दिल्ली सरकार की अवहेलना की।

श्रम इंस्पेक्टर मनीष कुमार ठाकुर ने जवाब न देने वाले मीडिया प्रबंधन के खिलाफ कोर्ट में आपराधिक शिकायत प्रस्तुत की। न्यायालय ने दस्तावेजों को देखने के बाद आरोपी नंबर एक राजेश गुप्ता (डायरेक्टर एवं मालिक) एवं पांच अन्य आरोपियों के खिलाफ सम्मन जारी किया है।

(source: bhadas4media.com)

Sunday 18 October 2020

सर्वोच्‍च न्यायालय ने दोहराया- कोई भी स्टे छह महीने के भीतर स्वतः हो जाएगा समाप्त


उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले को दोहराते हुए कहा है कि उच्च न्यायालय सहित किसी भी अदालत द्वारा दिया गया कोई भी स्टे छह महीने के भीतर स्वतः समाप्त हो जाएगा, जब तक कि अच्छे कारणों के लिए विस्तारित न किया जाए। एशियन रेसुरफेसिंग रोड एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड बनाम सीबीआई मामले में उच्चतम न्यायालय ने छह महीने के भीतर स्थगन आदेश की अवधि समाप्त करने की व्यवस्था दी थी। बृहस्‍पतिवार को जस्टिस रोहिंग्टन फली नरीमन, नवीन सिन्हा और केएम जोसेफ की तीन-जजों की पीठ ने इसे पुनः दोहराया है।


पीठ ने न्यायमूर्ति एके गोयल, रोहिंग्टन नरीमन और नवीन सिन्हा की पीठ द्वारा दिए गए फैसले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा है कि ऐसे मामलों में जहां स्थगन आदेश दिया जाता है, वह आदेश की तारीख से छह महीने की समाप्ति पर स्वतः खत्म हो जाएगा, जब तक कि एक स्पीकिंग आदेश द्वारा उसे बढ़ा नहीं दिया जाता है। स्पीकिंग आदेश में यह शामिल किया जाना चाहिए कि मामला इतनी असाधारण प्रकृति का था कि स्थगन आदेश मुकदमे को अंतिम रूप देने से अधिक महत्वपूर्ण था। ट्रायल कोर्ट जहां सिविल या आपराधिक कार्यवाही के स्थगन आदेश का प्रस्तुतिकरण किया जाता है, वहां स्थगन आदेश के छह महीने से आगे की तारीख तय नहीं की जा सकती है, ताकि प्रवास की अवधि समाप्त होने पर कार्यवाही शुरू हो सके, जब तक कि स्टे के विस्तार के आदेश का प्रस्तुतिकरण न हो जाए।

जस्टिस रोहिंग्टन फली नरीमन, नवीन सिन्हा और केएम जोसेफ की तीन-जजों की पीठ ने कहा कि दिसंबर 2019 में, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, पुणे ने एक आदेश पारित करके उच्चतम न्यायालय द्वारा अनिवार्य रूप से छह महीने की अवधि समाप्त होने के बाद मुकदमे को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय पार्टियों को मुकदमे को फिर से शुरू करने के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय का रुख करने के लिए कहा। पीठ ने कहा कि हमें देश भर के मजिस्ट्रेटों को याद दिलाना चाहिए कि भारत के संविधान के तहत हमारी पिरामिड संरचना में उच्चतम न्यायालय शीर्ष पर है, और फिर उच्च न्यायालय। इस तरह के आदेश हमारे फैसले के पैरा 35 के सामने उड़ान भरते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि देश भर के मजिस्ट्रेट हमारे पत्र और भाव के आदेश का पालन करेंगे।

इस प्रकार, पीठ ने अपना फैसला दोहराते हुए कहा कि उच्च न्यायालय सहित किसी भी न्यायालय द्वारा जो भी ठहराव दिया गया है, वह स्वचालित रूप से छह महीने की अवधि के भीतर समाप्त हो जाता है, और ‘जब तक कि हमारे निर्णय के अनुसार, अच्छे कारण के लिए विस्तार नहीं दिया जाता है, ट्रायल कोर्ट छह महीने की पहली अवधि की समाप्ति पर है, मुकदमे की तारीख तय करके उसकी सुनवाई शुरू करेगी।’ पीठ ने अब एसीजेएम, पुणे को मामले की सुनवाई तुरंत शुरू करने का निर्देश दिया है।

गौरतलब है कि जस्टिस आदर्श कुमार गोयल, जस्टिस रोहिंग्टन और जस्टिस नवीन गुप्ता की पीठ ने मार्च 2018 में एशियन रिसर्फेसिंग रोड एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो मामले में एक अहम फैसला दिया था है। पीठ ने कहा कि किसी भी दीवानी और आपराधिक मुकदमे की कार्यवाही पर छह महीने से अधिक रोक अर्थात स्थगनादेश नहीं रह सकता। पीठ ने यह भी कहा कि जिन मुकदमों की कार्रवाई पर पहले से रोक लगी हुई है, उस पर रोक आज से छह महीने बाद खत्म हो जाएगी। पीठ ने कहा था कि मुकदमे की कार्रवाई पर अनिश्चितकालीन रोक नहीं लगाई जानी चाहिए। इस सुधार की दरकार न सिर्फ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में है, बल्कि सभी दीवानी और फौजदारी मामलों में है। पीठ ने कहा कि कार्यवाही पर रोक लगने से मामला अनिश्चितकाल के लिए लटक जाता है।

पीठ ने हालांकि यह कहा है कि कुछ अपवाद मामलों में कार्यवाही पर रोक छह महीने से अधिक जारी रह सकती है, लेकिन इसके लिए अदालत को बाकायदा आदेश पारित करना होगा। ये ऐसे मामले होंगे, जिनके बारे में अदालत को लगता हो कि उन मुकदमों पर रोक, उनके निपटारे से अधिक जरूरी है। पीठ ने यह फैसला भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर दिया था।

पीठ ने यह भी कहा था कि कभी-कभी तो रोक हटने की सूचना की जानकारी नहीं पहुंचती है, जिस कारण कार्यवाही भी शुरू नहीं हो पाती है। लिहाजा पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट आरोप तय करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश पर परीक्षण कर सकता है, लेकिन ट्रायल पर रोक छह महीने से अधिक तक नहीं लगा सकता। पीठ ने कहा था कि उन तमाम दीवानी और आपराधिक मामले जिनमें कार्यवाही पर रोक लगी हुई है, उन पर रोक आज से छह महीने बाद खत्म हो जाएगी।

पीठ ने यह भी कहा था कि भविष्य में किसी भी मुकदमे की कार्यवाही की रोक छह महीने की अवधि तक के लिए ही लगाई जाएगी। यदि रोक छह महीने से अधिक होती है तो अदालत को आदेश पारित करना होगा। आदेश में बताना होगा कि वह मामला क्यों अपवाद है और ट्रायल पर रोक उसके निपटारे से अधिक महत्वपूर्ण क्यों है। पीठ  ने कहा था कि मुकदमों पर रोक की अवधि छह महीने के बाद खत्म हो जाए तो ट्रायल कोर्ट को खुद बिना किसी इंतजार के कार्यवाही शुरू कर देनी होगी।

पीठ ने कहा था कि किसी मामले में आरोप तय होने का आदेश पारित किया जाता तो वह आदेश न तो अंतरिम होता है और न ही अंतिम। हाई कोर्ट के समक्ष जब मामला परीक्षण के लिए आए तो कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मामले के जल्द निपटारे में अनावश्यक बाधा न हो। हाई कोर्ट भी इस संबंध में निर्देश जारी कर सकता है। साथ ही हाई कोर्ट यह निगरानी कर सकता है कि दीवानी या आपराधिक मामले लंबे समय तक लंबित न पड़े रहें। पीठ ने इस आदेश की प्रति सभी हाई कोर्ट तक पहुंचाने के लिए कहा था, जिससे कि इस संबंध में जरूरी कदम उठाए जा सकें।

जेपी सिंह

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

[janchowk.com से साभार] 

ESIC ने बेरोजगारी भत्ते के लिए क्लेम की अंतिम तारीख बढ़ी

नई दिल्ली। कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन की वजह से जिन लोगों की नौकरी चली गई है। उन्हें अब परेशान होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि केंद्र सरकार ने बेरोजगारी भत्ते के क्लेम के लिए आखिरी तारीख 30 जून, 2021 कर दी है। यानि कोरोना काल में नौकरी गंवाने वाले कर्मचारी जो अटल बीमित व्यक्ति कल्याण योजना के तहत इंश्योर्ड हैं, वे तीन महीने की 50% वेतन पाने के लिए अब 30 जून 2021 तक आवेदन कर सकेंगे।

दूसरी ओर जिन लोगों ने 24 मार्च से 31 दिसंबर 2020 के बीच नौकरी गंवाई है, वे इस योजना के तहत तीन महीने की 50% सैलरी के हकदार होंगे। उन कामगारों को भी इसका फायदा मिलेगी जिन्हें फिर से नौकरी मिल गई है। देश में अटल बीमित व्यक्ति कल्याण योजना की सुस्त रफ्तार को देखते हुए कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) ने आवेदन करने की अंतिम तिथि को बढ़ाने का फैसला किया है।

ESIC तहत कोई भी बीमाकृत कर सकता है आवेदन

ESIC के तहत बीमाकृत कोई भी कर्मचारी बेरोजगारी भत्ता के लिए अपना दावा पेश कर सकता है। यह भत्ता तीन महीने की आधी सैलरी के रूप में दी जाएगी। ईएसआईसी इसके लिए 44 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान करने जा रही है। ESIC की तरफ से इस बेरोजगारी भत्ता के लिए 19 सितंबर को बेरोजगारी राहत को 25 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी तक दिया गया था। लेकिन बेरोजगारी भत्ते के लिए आवेदन करने वालों की संख्या उम्मीद से काफी कम दिख रही है। श्रम मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि कोरोना की वजह से बेरोजगार होने वाले अब तक 5 लाख कर्मचारियों ने इस भत्ते के लिए आवेदन नहीं किया है। इसे देखते हुए आवेदन की तिथि को आगे बढ़ाया गया है।

ऐसे कर सकेंगे क्लेम

50 फीसदी सैलरी के क्लेम के लिए कर्मचारियों को ESIC के पोर्टल पर ऑनलाइन क्लेमफॉर्म भरकर उसे सबमिट करना होगा और भरे गए फॉर्म का प्रिंटआउट, एफिडेविट, बैंक अकाउंट डिटेल्स और आधार कार्ड की कॉपी के साथ संबंधित ESIC शाखा जमा कराना होगा। आप चाहें तो पोस्ट के जरिए या फिर खुद जाकर इसे जमा कर सकते हैं। देश में अभी 3.49 करोड़ परिवार ESIC में रजिस्टर्ज हैं जिसके तहत 13.56 करोड़ लोगों को इससे जुड़ी स्वास्थ्य सेवाएं मिल रही हैं।

[ajhindidaily.in से साभार]

Sunday 11 October 2020

कोरोना काल में बड़ी खबर: SC के इस ऑर्डर के बाद मप्र में मजीठिया केसों की सुनवाई फिर शुरू, आप भी करें ऐसा...


मप्र हाईकोर्ट के इस आदेश के साथ सुप्रीम कोर्ट का छह माह में निराकरण करने वाला आदेश अपने राज्य की कोर्ट में लगाएं, जल्द शुरू हो जाएगी आपके केस की सुनवाई

इंदौर। मजीठिया क्रांतिकारियों के लिए मप्र से बहुत अच्छी और राहतभरी खबर आई है। मप्र हाईकोर्ट ने राज्य की सभी कोर्ट को सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और ट्रिब्यूनल आदि द्वारा समय-सीमा में सुनवाई करने के आदेश वाले सभी प्रकरणों में ट्रायल इत्यादि शुरू कर केस का निराकरण जल्द से जल्द करने का आदेश दिया है। इससे इंदौर-भोपाल आदि शहरों में मजीठिया केस की तारीखें लगने भी लग गई हैं। इससे यहाँ के मजीठिया क्रांतिकारियों के चेहरे खुशी से खिल उठे हैं। अन्य राज्यों के मजीठिया क्रांतिकारी भी मप्र हाईकोर्ट के इस आदेश का संदर्भ देकर अपने-अपने राज्यों की हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से अपील करें तो उनके केस की भी जल्द सुनवाई शुरू हो सकती है।

उल्लेखनीय है कि कोरोना संक्रमण के कारण देशभर में लॉकडाउन लग जाने के कारण लेबर कोर्ट भी बंद हो गए थे। पिछले दिनों कोर्ट खुल तो गए लेकिन वहां सिर्फ जमानत, चेक बाउंस और अत्यंत आवश्यक केस ही सुने जा रहे हैं। लेबर कोर्ट का हाल तो और भी बुरा है। कुछ शहरों की अदालतों को छोड़कर अधिकांश लेबर कोर्ट में स्टाफ ड्यूटी तो आ रहा है, लेकिन किसी भी केस की सुनवाई नहीं हो रही। ऐसे में मप्र हाईकोर्ट के आदेश से शुरू हुई सुनवाई ने मजीठिया क्रांतिकारियों में जान फूंक दी है। 


ऐसे खुली राह - 

मप्र हाईकोर्ट द्वारा 19 अगस्त 2020 को जारी मेमो में राज्य के सभी कोर्ट को आदेश दिया गया है कि वे अपने यहां विचाराधीन सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और ट्रिब्यूनल आदि द्वारा समय-सीमा में सुनवाई करने के आदेश संबंधी सभी प्रकरणों में ट्रायल इत्यादि शुरू कर केस का जल्द से जल्द निराकरण करें। इसके लिए हाईकोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एसएलपी (क्रिमिनल) 11315/2019 अंकित माहेश्वरी उर्फ चिंटू विरुद्ध मध्यप्रदेश राज्य में दिनांक 14 अगस्त 2020 को पारित आदेश का हवाला दिया है। 


आपको यह करना होगा-

मप्र से बाहर के मीडियाकर्मियों को अपने राज्य में मजीठिया केसों की बंद पड़ी सुनवाई शुरू करवाने के लिए मप्र हाईकोर्ट द्वारा 28 अगस्त को जारी मेमोरेंडम और सुप्रीम कोर्ट द्वारा मजीठिया केसों का निराकरण छह माह में करने संबंधी आदेश की प्रति के साथ आवेदन प्रस्तुत करना होगा। ऐसा करने से संबंधित न्यायालय भी उस राज्य की लेबर कोर्ट को मजीठिया केस की सुनवाई शुरू करने का आदेश दे सकती है।

Monday 5 October 2020

गुजरात सरकार की मनुष्य विरोधी अधिसूचना रद्द, सुप्रीम कोर्ट ने मजदूरों को ओवर टाइम देना जरूरी बताया


देश की सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को स्पष्ट आदेश दिया कि कोविड 19 के मौजूदा समय में अगर किसी श्रमिक ने 12 घंटे काम किया है तो उसे 6 घंटे की ड्यूटी पर 30 मिनट का ब्रेक दिया जाएगा, इसके बाद ही आगे कार्य लिया जाएगा। साथ ही उसे ओवरटाइम भी देना होगा।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय गुजरात मजदूर सभा द्वारा दाखिल रिट पिटीशन (सिविल) संख्या 708/2020 गुजरात मजदूर सभा एन्ड अदर्स वर्सेज द स्टेट ऑफ गुजरात के मामले की सुनवाई कर रही थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने मजदूरों को लेकर गुजरात सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को भी रद्द कर दिया है।

दरअसल गुजरात सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना में कहा गया था कि मजदूरों को ओवरटाइम मजदूरी का भुगतान किए बिना अतिरिक्त काम करना होगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था की स्थिति बुरी हो गई है, ऐसे में मजदूरों को उचित मजदूरी नहीं दिया जाना इसका एक कारण हो सकता है। साथ ही शीर्ष अदालत ने 19 अप्रैल से लेकर 20 जुलाई तक के ओवरटाइम का भुगतान करने का भी आदेश दिया।

इस मामले की सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि कोरोना लॉकडाउन के दौरान मजदूरों को गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। मजदूरों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा। पीठ ने कहा कि कानून का प्रयोग जीवन के अधिकार और मजबूर श्रम के खिलाफ नहीं किया जा सकता है।

आपको बता दें कि गुजरात सरकार द्वारा जारी 17 अप्रैल की अधिसूचना में कहा गया था कि उद्योगों को लॉकडाउन की अवधि के दौरान फैक्ट्री अधिनियम के तहत अनिवार्य कुछ शर्तों में छूट दी जाती है। इसमें श्रमिकों को 6 घंटे के अंतराल के बाद 30 मिनट का ब्रेक दिया जाएगा और आगे 6 घंटे और काम करवाया जाएगा। यानि की मजदूर को 12 घंटे तक काम करना होगा।

गुजरात सरकार द्वारा जारी अधिसूचना में यह भी कहा गया था मजदूर द्वारा किए गए ओवरटाइम काम के बदले उसे सामान्य मजदूरी का ही भुगतान किया जाएगा।

इस अधिसूचना को फैक्टरी अधिनियम की धारा 5 के तहत जारी किया गया था, जो सरकार को सार्वजनिक आपातकाल की स्थिति के दौरान फैक्ट्री अधिनियम के दायरे से कारखानों को छूट देने की अनुमति देती है।

इस धारा के मुताबिक, सार्वजनिक आपातकाल से अभिप्राय एक गंभीर आपातकाल की स्थिति है, जो भारत की सुरक्षा को खतरे में डालती है चाहे युद्ध या बाहरी आक्रमण या आंतरिक गड़बड़ी हो।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार उद्योगों को धारा 5 के तहत छूट नहीं दे सकती है, क्योंकि महामारी को सार्वजनिक आपातकाल नहीं माना जा सकता है। साथ ही अदालत ने निर्देश दिया कि 20 अप्रैल से 19 जुलाई की अवधि के दौरान सभी मजदूरों को उनके द्वारा किए गए ओवरटाइम मजदूरी का भुगतान किया जाना चाहिए।

आपको बताते चलें कि कई राज्य सरकारों ने इसी तरह कोरोना की आड़ में श्रम संशोधन किया और मजदूरो को 12 घंटा कार्य करना अनिवार्य कर दिया था। इसी रास्ते पर कई अखबार मालिक भी चलने की सोच रहे थे जिनके कदम पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है।

शशिकांत सिंह

पत्रकार और मजीठिया क्रांतिकारी तथा वाइस प्रेसिडेंट न्यूज़ पेपर एम्प्लॉयज यूनियन ऑफ इंडिया।

9322411335

Wednesday 30 September 2020

मोदी ने मीडियाकर्मियों के अधिकारों का कैसे किया पूर्ण सत्यानाश, विस्तार से पढ़िए-समझिए

-रविंद्र अग्रवाल–

श्रम सुधार के नाम पर मोदी सरकार ने अखबार मालिकों के साथ मिलकर श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के वैधानिक अधिकारों का एक तरह से गैंगरेप कर डाला है। पहले से ही मजीठिया वेजबोर्ड की नौ वर्ष से चली आ रही लड़ाई में कठिन आर्थिक हालातों के बावजूद पूरी रसद के साथ लड़ रहे श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों की पीठ में केंद्र सरकार ने जो छूरा घोंपा है, उसकी पीड़ा से निजात पाने के लिए फिर से एक और कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

नए कानूनों में जहां श्रमजीवी पत्रकार की हालत एक दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर कर दी गई है, तो वहीं अन्य अखबार कर्मचारियों को भी आम मजदूरों की श्रेणी में ला खड़ा किया गया है। वो भी तब जबकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद पहली बार हजारों की संख्या में श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी अपने संशोधित वेतनमान और एरियर के लिए अखबार मालिकों के जुल्‍मोसितम सहते हुए पिछले नौ वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ने को एकजुट हुए थे।

हमारी इस एकता को 56 इंच के सीने वाली मोदी सरकार का सीना झेल नहीं सका और अखबार मालिकों के घड़ियाली आंसूओं और चापलूसी के सामने सिकुड़ गया। ऐसे में एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत श्रम सुधारों के नाम पर श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को विशेष अधिकार, केंद्रीय कर्मचारियों के समान वेतनमान और अन्य विशेष रियायतें देने वाले अधिनियमों को ही खत्म कर दिया गया। श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 विधेयकों की रचना एक श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारी को अन्य श्रमिकों से अलग दर्जा, वेतन और विशेष कानूनी अधिकार देने के लिए की गई थी, ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव ना हिलने पाए और पत्रकारिता के प्रोफेशन को पूंजीपतियों की रखैल मात्र बनकर ना रहना पड़े।

हालांकि प्रिंट मीडिया में कार्पोरेट कल्चर आने के बाद से खासकर श्रमजीवी पत्रकार काफी कठिन दौर से गुजर रहे हैं और अब तक किसी भी पार्टी या विचारधारा की सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। ऐसे में जब 56 इंच का सीना होने का दावा करने वाली मोदी सरकार से उपरोक्त श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों में संशोधन करके इन्हें और मजबूत करने की उम्मीद की जा रही थी तो इस सरकार ने इस पर मेहनत करने के बजाय इस मर्ज को जड़ से उखाड़ने के लिए पत्रकारिता के हाथ ही कलम कर दिए हैं।

खासकर अनुबंध अधिनियम के तहत श्रमजीवी पत्रकारों के भविष्य को असुरक्षित करके रख दिया गया था। इस पर रोक लगाने की मांग लंबे अर्से से की जा रही थी। अब हालत यह हो गई है कि अखबार मालिक नए श्रम नियमों के तहत एक श्रमजीवी पत्रकार को कभी भी सड़क पर ला सकते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना में काम करने वाला अन्य कर्मचारी अचानक नौकरी चले जाने पर एक आम मजदूर की तुलना में रोजगार ही प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आम मजदूर को तो कहीं भी मजदूरी करके परिवार चलाने के साधन मौजूद हैं, मगर श्रमजीवी पत्रकार और अखबारों में काम करने वाले अन्य कर्मचारियों के परिवारों के लिए तो भूखों मरने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचेगा।

अगर ऐसा नहीं है तो उपरोक्त अधिनियमों को समाप्त करने वाली मोदी सरकार और उसके अधिकारी ही बताएं कि एक श्रमजीवी पत्रकार और अन्य अखबार कर्मचारी के लिए नौकरी जाने के बाद परिवार चलाने को क्या-क्या विकल्प होंगे।

उधर, मौजूदा परिस्थिरतियों में जबकि प्रिंट मीडिया को चुनौती देने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया दस्तक दे चुका है, तो ऐसे में उपरोक्तर अधिनियमों को और सशक्त बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी।

श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठन लंबे अर्से से इन अधिनियमों में इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार कर्मचारियों को भी शामिल करने की मांग करते आ रहे थे। इन्हें नए श्रम कानूनों में जगह तो दे दी गई, मगर विशेषाधिकार समाप्त करने के कारण इसके कोई मायने ही नहीं बचे हैं। वहीं इन अधिनियमों के उल्लंघन पर सख्त प्रावधान करने की भी जरूरत थी, जो किए भी गए हैं, मगर नेकनीयती से नहीं। वहीं श्रमजीवी पत्रकारों की ठेके पर नियुक्तियों को रोकना भी जरूरी समझा जा रहा था, मगर ऐसा करके सरकार अखबार मालिकों को नाराज नहीं करना चाहती, भले ही लाखों अखबार कर्मचारी और उनके परिवार सरकार से नाराज हो जाएं। ऐसे में अधिनियमों  को सशक्त बनाने के बजाय समाप्त करने का निर्णय केंद्र सरकार की बदनीयती को ही दर्शा रहा है।

यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अखबारों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकार और अन्य कमर्चारी आम मजदूरों से अलग परिस्थितियों में काम करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को अखबार मालिकों की याचिकाओं पर सुनाए गए अपने फैसले (इससे पूर्व के फैसलों सहित) में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि अखबार कर्मचारियों को आम श्रमिकों से अलग परिस्थितियों, खास विशेषज्ञता और उच्च दर्जें के प्रशिक्षण के साथ काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें वेजबोर्ड की सुरक्षा के साथ ही इस बात का भी ख्याल रखना जरूरी है कि समाज की दिशा और दशा तय करने वाले पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों की जीवन शैली कम वेतनमान के कारण प्रभावित ना होने पाए।

नए श्रम कानूनों में सभी विशेष अधिकार समेटे गए

मोदी सरकार के नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा कोई भी विशेष प्रावधान नहीं शामिल किया है, जो उन्हें उपरोक्त दो अधिनियमों में दिया गया था। इसमें खासकर हर दस वर्ष की अवधि के बाद वेजबोर्ड का गठन, छंटनी की स्थिति में विशेष प्रावधान, काम के घंटे, छुट्टियों की व्यवस्था, पहले से घोषित वेतनमान ना दिए जाने पर बिना किसी समयसीमा के रिकवरी की व्यवस्था और संशोधित वेमनमान के तहत एरियर लंबित होने पर नौकरी से ना हटाए जाने की व्यवस्था शामिल हैं। नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना की परिभाषा तो शामिल की गई है, मगर बाकी सभी विशेष अधिकार छीन लिए गए हैं।

पूर्व के वेजबोर्डों के तहत बकाए की रिकवरी का प्रावधान नहीं

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955 निरस्त किए जाने के साथ ही अब इसकी रिकवरी की धारा 17 भी निष्प्रभावी हो जाएगी। ऐसे में नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्तााक्षर होते ही माननीय सुप्रीम कोर्ट के 19 जून, 2017 के फैसले के तहत मजीठिया वेजबोर्ड के तहत संशोधित वेतनमान के एरियर की रिकवरी का वाद (नए मामलों में) दायर करने के लिए कोई प्रावधान ही नहीं बचेगा, क्योंकि नए श्रम कानूनों में पूराने मामलों में रिकवरी के लिए आवेदन करने की व्यवस्था ही नहीं है। मोदी सरकार द्वारा पहले ही पारित की जा चुकी श्रम संहिता 2019 के प्रावधानों के तहत ही रिकवरी की व्यवस्था की गई है। इसमें सिर्फ न्यूनतम वेतनमान के मामलों में दो वर्ष के भीतर रिकवरी के लिए आवेदन करने का प्रावधान है।

ऐसे में जो अखबार कर्मचारी यह सोच कर मजीठिया वेजबोर्ड के तहत रिकवरी नहीं डाल रहे थे कि पहले से लड़ रहे साथियों का फैसला आने पर उन्हें भी घर बैठे नोटों का बैग मिल जाएगा, वो अब कहीं के भी नहीं रहे हैं। इनके लिए अब रिकवरी का केस डालने का अवसर तब तक के लिए ही बचा है, जब तक कि नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर नहीं हो जाते। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जिन साथियों ने रिकवरी के केस डीएलसी के पास डाल दिए हैं या जिनके विवाद लेबर कोर्ट में लंबित हैं, उन्हें नए श्रम कानूनों के तहत कोई नुकसान नहीं होने वाला है। उनके ये लंबित विवाद नए कानूनों के तहत गठित होने वाले नए इडंस्ट्रिनयल ट्रिब्यूनल में स्वत: ही शिफ्ट हो जाएंगे।


वेजबोर्ड नहीं अब न्यूनतम मजदूरी पर पलेंगे अखबार कर्मचारी

नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को अब तक मिले वेजबोर्ड के अधिकार को ही समाप्त कर दिया गया है। वो भी ऐसे समय में जबकि मजीठिया वेजबोर्ड के लिए हजारों अखबार कर्मचारी अपनी नौकरी गंवा कर श्रम न्यायालयों में लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि अखबार मालिकों ने कभी भी अपनी मर्जी से कोई भी वेजबोर्ड को अक्षरश: लागू नहीं किया है और हर बार इसे माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर मुंह की खाई है।

अखबार मालिक शुरू से ही खासकर वेजबोर्ड को लेकर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों को निरस्त करवाने की कोशिशों में जुटे रहे हैं, मगर किसी भी सरकार ने उनके इस मंसूबे का समर्थन नहीं किया था। मोदी सरकार ने उनकी इस मंशा को पूरी करते हुए यह कलंक अपने माथे सजा लिया है और अब उसे इसका खामियाजा भुगतने को तैयार रहना होगा। नए कानूनों में मोदी सरकार ने श्रमजीवी पत्रकारों को न्यूानतम मजदूरी तय करने के लिए एक कमेटी का गठन करने का लॉलीपाप भी दिया है, जो हाथी से उतारकर गधे की सवारी करवाने के समान है। ऐसा इसलिए क्योंकि श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के लिए पहले लीविंग वेजेज के तहत वेजबोर्ड का गठन होता था, जो केंद्रीय कर्मचारियों के समान था। अब मिनिमम वेजेज के सिद्धांत पर दिहाड़ी मजदूरों की तर्ज पर न्यूनतम वेतन तय होगा। वह भी सिर्फ श्रमजीवी पत्रकारों के लिए। अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा प्रावधान कहीं नजर नहीं आ रहा है।


देश के स्वततंत्र होते ही शुरू हुआ था चिंतन, अब सजा दी चिता

खासकर श्रमजीवी पत्रकारों के काम के जोखिम और विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें पूंजीपतियों का बंधुआ बनने से रोकने और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने को लेकर देश के आजाद होते ही चिंतन शुरू हो गया था। पहले अखबारों का प्रकाशन और संचालन व्यक्तिगत तौर पर समाज चिंतक, देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल सेनानी और प्रबुद्ध पत्रकार करते थे। आजादी के बाद जैसे ही पूंजीपतियों या उद्योगपतियों ने अखबारों को व्यवसाय के तौर पर संचालित करना शुरू किया तभी से पत्रकारों के वेतनमान, काम के घंटों और बाकी श्रमिकों से अलग विशेषाधिकार देने की मांग उठनी शुरू हो गई।

इसे देखते हुए पहली बार वर्ष 1947 में गठित एक जांच समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, फिर 27 मार्च 1948 को ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार (Central Provinces and Berar) प्रशासन ने समाचारपत्र उद्योग के कामकाज की जांच के लिए गठित जांच समिति ने सुझाव दिए और 14 जुलाई 1954 को भारत सरकार द्वारा गठित प्रेस कमीशन ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी थी। इसके अलावा एक अप्रैल 1948 को जिनेवा प्रेस एसोसिएशन और जिनेवा यूनियन आफ न्‍यूजपेपर पब्लिसर्श ने 01 अप्रैल 1948 को एक संयुक्त समझौता किया था। इस तरह व्यापक जांच और रिपोर्टों के आधार पर तत्कालीन भारत सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार व अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को लागू किया था। इतना ही नहीं भारत के संविधान के अनुच्छेद 43 (राज्य के नीति निदेशक तत्व) के तहत भी उपरोक्त दोनों अधिनयम संवैधानिक वैधता रखते हैं। ऐसे में इन विधेयकों को इस तरह चोरीछिपे लागू करवाना असंवैधानक है और इसे हर हालत में माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की जरूरत है। इसके लिए हमारी यूनियन के अलावा अन्य यूनियनें भी प्रयासों में जुट गई हैं।

Sunday 27 September 2020

कितना खतरनाक है नया संशोधित श्रम कानून, पढ़ें

श्रम कानून में संशोधन से बंधुवा मजदूरी को बढ़ावा मिलेगा: अजय मुखर्जी

अब दुकान कर्मचारी की भंति पत्रकारों को सिर्फ मंहगाई भत्ता दिया जाएगा, छंटनी भी बढ़ेगी

केन्द्र सरकार द्वारा श्रम कानूनों में संशोधन को कोविड -19 की महामारी के समय चोरी छिपे लाकर बिना प्रश्नोउत्तरी के पेश कर बिना बहस के पास करवाना श्रम कानूनों के जरिए मिले सामाजिक सुरक्षा की हत्या करने के समान है।

वर्षों से प्राप्त श्रमिकों के अधिकार को इस संशोधन बिल 2020 के जरिये समाप्त कर दिया गया। वर्तमान श्रम संशोधन बिल 2020 में 300 कर्मचारी के नीचे के किसी भी संस्थान को बन्द करना मालिक के अधिकार क्षेत्र में आ गया है। वह बंद करना चाहे तो अब उसके लिए किसी की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी।

किसी कर्मचारी की सेवासमाप्ति, छंटनी करना जायज कर दिया गया है. श्रमिकों को वर्षों से प्राप्त औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को खत्म किया जाना, समाजिक सुरक्षा का हनन, रोजगार की गारंटी आदि को पूंजीपतियों के हाथों में सौप दिया गया है।

वर्तमान श्रम संशोधन बिल 2020 से पूर्व पत्रकार व गैर पत्रकार के हितों की सुरक्षा के लिए वेज बोर्ड का गठन किया जाता था. इसे नए बिल में समाप्त कर दिया गया है। 

अब दुकान कर्मचारी की भांति पत्रकारों को सिर्फ मंहगाई भत्ता दिया जाएगा। आने वाले दिनों में इस बिल की आड़ में बैंक, बीमा, रेलवे, भेल, कोल आदि संस्थानों में भी वेज बोर्ड को भी खत्म कर दिया जाएगा।

यह श्रम संशोधन बिल 2020 एक तानाशाही शासक की सनक की बानगी है।

देश के 70 प्रतिशत कामगार असुरक्षित हो गए हैं। जो बिल लाया गया है उस बिल के तहत राज्य बीमा कर्मचारी निगम, कर्मचारी भविष्य निधि के जरिए जो सामजिक सुरक्षा थी वो मिलेगा या नहीं मिलेगा, यह कहना बेहद मुश्किल हो गया है। इस सब कुछ को अन्धेरे में रखा गया है। इस श्रम संशोधन बिल में सेवायोजक संस्थानों को मात्र 2 घंटे, 4 घंटे के लिए नियुक्ति कर कार्य लिए जाने की व्यवस्था प्रदान की गई है। न्यूनतम मजदूरी पाने का जो कामगारों का अधिकार होता है उसे भी छीन लिया गया है, जो काला कानून व तुगलकी फरमान है।

इस श्रम संशोधन बिल 2020 में वर्ष 1926 में बनी ट्रेड यूनियन ऐक्ट को भी निष्प्रभावी कर दिया गया है। अब कोई नया यूनियन बनना चाहेगा तो उस संस्थान से अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। क्या सेवायोजक अपने संस्थान में यूनियन बनाने की अनुमति प्रदान करेगा?

कोविड-19 की महामारी के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बिल की आड़ मे 39 श्रम कानूनों में से 36 श्रम कानूनों को अगले तीन वर्षों के लिए स्थगित कर दिया। इससे कामगार असुरक्षित हो गए और उनके लिए कोई कानून का दरवाजा खुला नहीं रह गया।

कोविड-19 की महामारी के दौरान इस बिल के आने से पूर्व श्रम कानूनों में वेतन न दिए जाने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि सेवायोजक व कामगार आपसी बातचीत करके अपनी समस्या का समाधान करें। इस कानून से 15 करोड़ श्रमिकों को अपने वेतन से हाथ धोना पड़ जाएगा।

इस बिल के तहत ग्रेचुटी ऐक्ट में जो नियमित कामगार भुगतान रजिस्टर में होगे वो एक वर्ष पश्चात् सिर्फ उपादान राशि प्राप्त करने के अधिकारी होंगे। ऐसे में कैजुअल, पार्टटाइम व संविदा कर्मचारियों को कुछ भी नही मिलेगा। इस श्रम संशोधन बिल 2020 को तत्काल वापस लिया जाए ताकि श्रमिक सुरक्षित हो सकें।


अजय मुखर्जी

मंत्री / राज्य सचिव

उ0 प्र0 आखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काँग्रेस

समाचार पत्र कर्मचारी यूनियन (पत्रकार व गैर-पत्रकार)

मोबाइल नंबर- 9838438210


प्रस्तुति- शशिकांत सिंह, मुंबई


Friday 25 September 2020

छंटनी के खिलाफ नई दुनिया के मीडियाकर्मियों का गुस्सा फूटा, काम बंद कर सड़क पर उतरे, देखें फोटो


इंदौर। नईदुनिया (जागरण समूह) में अनेक मीडियाकर्मियों ने छंटनी के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया लिया। पिछले 3-4 दिन से हो रही छंटनी के खिलाफ मीडियाकर्मी ऑफिस से नीचे उतर आए और उन्‍होंने जबरदस्‍त नारेबाजी और हंगामा किया। 



कल एक साथ ऑफ रोल वाले 7-8 कर्मचारियों को निकाल दिया गया। इससे 2-3 को छोड़ सभी कर्मचारी भड़क गए। वो सब ऑफिस से बाहर आ गए और हंगामा और नारेबाजी की। 

ऑफिस के कर्मचारियों का गुस्सा सहयोगी कर्मचारी जितेंद्र रिछारिया और जितेंद्र व्यास के खिलाफ भी भड़क गया है। पूरा ऑफिस एकजुट हो गया, लेकिन जितेंद्र रिछारिया ने उनका साथ नहीं दिया और वो नए आए संपादक सद्गुरु शरण अवस्थी के पिट्ठू बनकर काम करते रहे।


जितेंद्र व्यास का भी यही हाल है। संपादक इन सबसे बेफिक्र हैं। उन्होंने साफ बोल दिया कि जिसको जाना है जाए और अखबार तो निकलेगा ही। उन्होंने भोपाल एडिशन से पेज मंगवाकर इंदौर एडिशन छापने की तैयारी कर ली है।

ज्ञात हो कि पत्रकार, डेस्क कर्मचारी व अन्य कर्मचारियों को नौकरी से हटाने के विरोध में कल शाम यानी बृहस्‍पतिवार को नई दुनिया में भारी हंगामा हुआ और सभी कर्मचारी नई दुनिया के परिसर में आकर बैठ गए। सभी ने काम करने से मना कर दिया और मालिकों, संपादक और आला अधिकारियों को मनमानी बंद करने की बात कही। इस पर सीईओ संजय शुक्ला ने सभी को मनाने की कोशिश की। कई चाटुकार अब भी संपादक की गोद मे बैठे हुए हैं।


इसी प्रकरण पर आदित्य पांडेय फेसबुक पर लिखते हैं-


नईदुनिया ने जो सुनहरे दिन देखे थे आज उनका अंत इस तरह हुआ कि इसके मीडियाकर्मी सड़क पर उतरने को मजबूर हो गए।

बुरे दिन तभी शुरू हो चुके थे जब यह पुराने मालिकों के पास था लेकिन अब तो हद हो गई है। सारे अखबार मालिक एक हो गए हैं इसलिए बड़ी मुश्किल भी झेल पा रहे हैं लेकिन मीडिया कर्मियों का एकजुट होना मुश्किल रहा है।

आज सड़क पर आने की नौबत ही न आती यदि हंट मैन की तरह लाए गए श्रवण गर्ग की ज्यादती पर ही सब साथ खड़े हो गए होते।

जब कुछ साथियों ने मजीठिया केस लगाए तो नौकरी कर रहे कर्मी उनसे उनसे नजरें चुराते थे, साथ देने की बात तो बहुत दूर है। मालिकों की हिम्मत इसी वजह से बढ़ती रही।

आज भी कुछ लोग मालिकों के लिए खड़े हैं और बाकी सड़क पर हैं। मालिकों को शर्म नहीं आती क्योंकि वो तो उन्होंने बेच खाई है लेकिन कुछ बातों पर हमें भी शर्म आनी ही चाहिए।

[साभार: bhadas4media.com]

मीडियाकर्मियों और श्रमिकों के वेतन कटौती तथा छंटनी के मामले की सुनवाई 23 नवंबर को करेगा सुप्रीमकोर्ट


एक तरफ जहां श्रम सुधार बिल के  ससंद में पास हो जाने के बाद 300 या उससे कम कर्मचारियों वाली कंपनियों में छंटनी के लिए किसी तरह की सरकारी अनुमति न लेने के मामले की हर तरह आलोचना श्रमिक संगठन कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ मीडियाकर्मियों और श्रमिकों के वेतन कटौती तथा छंटनी के मामले की सुनवाई 23 नवंबर को सुप्रीमकोर्ट करेगा। इस मामले को सुप्रीमकोर्ट की साइट पर 23 नवंबर को सुनवाई की संभावित सूची में इस मामले को लिस्टेड किया गया है। इस मामले की सुनवाई जस्टिस अशोक भूषण,जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम.आर.शाह की बेंच करेगी। इससे पहले पिछले महीने में इस मामले की सुनवाई हुई थी। देश भर के मीडियाकर्मियों की लॉक डाउन में हुई छंटनी और वेतन कटौती मामले पर सुनवाई करते हुए पिछले महीने माननीय सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले को डायरी नम्बर 10983/2020 से टैग कर दिया। अब दोनों मामलों को एक साथ सुना जाएगा।

डायरी नम्बर 10983 /2020 में इसी तरह के एक मामले की सुनवाई विचाराधीन थी। इन दोनों मामलों को 23 नवंबर को सुना जाएगा। डायरी नम्बर 10983 /2020 की सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने निजी नियोक्ताओं, कारखानों, उद्योगों को फौरी राहत देते हुए कहा था कि निजी नियोक्ताओं, कारखानों, उद्योगों के खिलाफ सरकार कोई कठोर कदम नहीं उठाएगी, जो लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को मजदूरी देने में विफल रहे। ये व्‍यवस्‍था देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार के श्रम विभाग वेतन भुगतान के संबंध में कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच बातचीत करवाएं। मजदूरों को 54 दिन के लॉकडाउन की मजदूरी के भुगतान के लिए बातचीत करनी होगी। उद्योग और मज़दूर संगठन समाधान की कोशिश करें।

इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को 29 मार्च के अपने आदेश की वैधानिकता पर जवाब दाखिल करने के लिए 4 और सप्ताह दिए थे, जिसमें सरकार ने मजदूरी के अनिवार्य भुगतान का आदेश दिया था। अगली सुनवाई जुलाई के अंतिम सप्ताह में होनी थी। जिसकी लिस्टिंग 27 जुलाई को हुई थी।

अब इन दोनों मामलों को एक साथ सुना जाएगा। इसके पूर्व मीडियाकर्मियों की तरफ से प्रस्तुत एडवोकेट को संशोधित याचिका पेश करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया गया था।


शशिकांत सिंह

पत्रकार और मजीठिया क्रांतिकारी

9322411335

Thursday 24 September 2020

रिपब्लिक के जोकर को मीडियाकर्मियों ने धुना


- मुंबई में बीच सड़क पर सरेआम हुई प्रदीप की पिटाई

- जोकर प्रदीप बोला, चाय-बिस्किट वाले हैं मुंबई के पत्रकार

मुंबई में कल एनसीबी के आफिस के आगे मुंबई के पत्रकारों ने रिपब्लिक भारत के जोकर प्रदीप भंडारी को धो डाला। कारण, प्रदीप लाइव कवरेज करते हुए कैमरा घुमाकर अन्य पत्रकारों को दिखाते हुए बोला कि ये चाय-बिस्किट वाले पत्रकार हैं। ये क्या सच दिखाएंगे, हम आपको सच दिखाएंगे। इसका विरोध करने पर प्रदीप ने एनडीटीवी और एवीपी के पत्रकारों के साथ अभद्रता की तो पत्रकारों ने प्रदीप को धुन दिया। प्रदीप ने भी ट्वीट कर मारपीट की बात कही है।

दरअसल, देश के मुख्यधारा के इलेक्ट्रानिक मीडिया में अब पत्रकार नहीं हैं। पत्रकार रूपी एक्टर और जोकर भर गए हैं। अधिकांश न्यूज चैनलों के एंकर और पत्रकार सर्कस के जोकर लगते हैं, क्योंकि अब न्यूज चैनलों का फंडा पत्रकारिता करना नहीं है, बल्कि जनता का इंटरटेंनमेंट करना है। स्टूडियों में एक मुख्य जोकर चार अन्य चिल्लाने वाले जोकरों को बुलाकर मुर्गा फाइट कराता है। सब अजीब-अजीब से हास्यापद टॉपिक होते हैं। भारत की बुनियादी समस्याओं से कहीं अधिक चीन और पाकिस्तान की बर्बादी दिखाई जाती है। रोजी-रोटी की बात न कर हिन्दू-मुसलमान की बात की जाती है। कारण यह भी है कि कारपोरेट घरानों के एक विशेष वर्ग ने मीडिया पर कब्जा कर लिया है और वो नहीं चाहता है कि मीडिया सत्ताविरोधी या जनपक्षधरता की बात करे। 

दूसरी बात न्यूज चैनलों को टीआरपी के लिए इतनी मेहनत करने के बाद पता चलता है कि स्टार और सोनी जैसे चैनल उनसे पांच से दस गुणा अधिक देखे जा रहे हैं और विज्ञापनों का अधिकांश हिस्सा भी वहीं ले जाते हैं तो चैनलों के आकाओं ने उन्हें कह दिया है कि जोकरी करो, एंकरिंग करो, लेकिन पत्रकारिता नहीं। इसी का परिणाम रिपब्लिक के जोकर प्रदीप भंडारी की पिटाई के रूप में हुई है। देखिए अभी तो बहुत इंटरटेनमेंट बाकी है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Thursday 17 September 2020

मीडिया को भी बेरोजगारी दिवस की बधाई



- हिन्दुस्तान देहरादून, अमर उजाला ऋषिकेश के साथियों को बधाई

- हिन्दी खबर के पवन लालचंद को भी बधाई

लगभग 15 दिन पहले किसी साथी पत्रकार का फोन आया कि हिन्दुस्तान ने देहरादून से स्टाफर फोटोग्राफर प्रवीण डंडरियाल, डेस्क पर कार्यरत नरेंद्र शर्मा और प्रदीप बहुगुणा को विदाई दे दी है। सात अन्य को भी निकाल दिया गया है। मेरे सभी साथी चाहते हैं कि मैं मार्केट में बदनाम हूं तो मैं ही ये पोस्ट भी लिखूं। मुझे लगा मैं सच में बदनाम हो गया हूं सच लिखने के लिए। मुझे अपने पर गुस्सा आया कि मैं ही क्यों लिखूं। दूसरे क्यों नहीं लिखते। गालियां अकेले मैं ही क्यों खाऊं। सो नहीं लिखा। गुस्सा यह भी था कि सब पत्रकार चुप बैठे हैं। डरपोक कहीं के। जब पत्रकार अपनी आवाज नहीं उठाते हैं तो मैं क्यों भगत सिंह बना फिरूं इनके लिए। यही सोचकर नहीं लिखा।

लिखने से होगा भी क्या? दुश्मन ही बढ़ रहे हैं मेरे। सच की कीमत चुका रहा हूं। अभी 50 लाख रुपये के मानहानि के दावे से निपटा हूं। कोरोना महामारी के बीच पिछले तीन महीने में देहरादून से लेकर ऋषिकेश के थानों और पुलिस चौकियों के चक्कर काटे हैं। अब जाकर कुछ राहत मिली है और फिर शुरू। पर कमबख्त दिल ही नहीं मानता। देहरादून के सहारा में मैं अकेला पत्रकार हूं जो नैनीताल हाईकोर्ट में सहारा के खिलाफ केस लड़ रहा है। 

अब भडास पर खबर है तो मैं हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और अमर उजाला देहरादून से निकाले गए पत्रकारों को बेरोजगार दिवस की बधाई दे रहा हूं। अमर उजाला में कोरोना की खबर लिखी तो वो भी भड़क गए। आज अमर उजाला के कई साथी कोरोनाग्रस्त हैं। भुगतो। जब मैंने हिन्दी खबर चैनल पर वेतन न दिए जाने पर एक खबर लिखी तो साथी लोग भड़क गए थे। आज वहां से पवन लालचंद की भी विदाई हो गई, जबकि वो एक अच्छे पत्रकार हैं। दरअसल, मीडिया में अब अच्छे पत्रकारों की जरूरत नहीं है। .... टाइप पत्रकार चाहिए या दलाल टाइप। जो ऐसा कुछ नहीं है, वो अब गिने-चुने बचे हैं। ऐसे में पत्रकारों को भी बेरोजगार दिवस की बधाई।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]


हिन्दुस्तान समूह के मीडियाकर्मी हार न मानें, केस ठोकें

हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में बड़े पैमाने पर कर्मचारियों को बिना कारण नौकरी से निकाला जा रहा है। कर्मचारियों पर दबाव डाला जाता है और न करने पर निकाला जाता है। कारण साफ है कि 3000 करोड़ का सालाना कारोबार करने वाले अखबार समूह में वेजबोर्ड का कोई कर्मचारी नहीं है। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह कानून को ठेंगा दिखा कर भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के दम पर निरंतर कर्मचारियों का शोषण कर रहा है। 

यहां न्याय के लिए कर्मचारियों को कितना भटकना पड़ता है इसकी एक छोटी सी मिसाल यह है कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह ने अपने यहां कार्यरत 472 कर्मचारियों को महात्मा गांधी की जन्मतिथि 02 अक्‍टूबर 2004 को निकाल बाहर किया था। 2012 में यह कर्मचारी केस जीते। कोर्ट ने साफ कहा था कि कर्मचारियों का कोई दोष नहीं है और प्रबंधन ने साजिश करके निकाला है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक मामला फाइनल होने के बावजूद कर्मचारी बकाया वेतन और नौकरी के लिए तरस रहे हैं। 

न्याय व्यवस्था ऐसी कि आम आदमी ताकता रह जाए। आम आदमी किसी मामले में बार-बार कोर्ट जाए तो जुर्माना और अगर मैनेजमेंट जाए तो बड़े-बड़े वकील और कोर्ट उनके प्रति नरम रुख रखता रहा है। 

इन दिनों अखबारों में छंटनी की बेतहाशा खबरें चिंतित करने वाली हैं। कोरोना से मीडियाकर्मियों के मरने का सिलसिला जारी है। रिपोर्टिंग करने वाले मीडियाकर्मी, न्यूज एडिटर और एडिटर आदि को तो सरकारी सहायता मिल जाती है लेकिन डेस्क पर काम करने वाले तथा अन्य मीडियाकर्मियों को न तो कोई सहायता और न ही उनके अपने संस्थानों से कोई मुआवजा ही मिल रहा है और इसके पीछे मीडिया संस्थानों के मालिकों का अपने कर्मचारियों के प्रति प्रतिकूल व्यवहार माना जा रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो मनमाने ढंग से वेतन दिया जाता है। प्रिंट मीडिया के लिए समय-समय पर वेतन आयोग गठित किए जाते रहे हैं और वर्तमान में मजीठिया वेतन आयोग के अनुसार वेतन देय है लेकिन ज्यादातर संस्थानों ने इससे बचने के लिए कम वेतन पर मीडियाकर्मियों की भर्ती की है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान अखबार चलाने वाले मीडिया ग्रुप ने तो वर्ष 2002 से ही वेज बोर्ड कर्मचारियों का शोषण शुरू कर दिया था जो अब तक जारी है। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के सैंकड़ों कर्मचारी कोर्ट से केस जीतने के बाद भी अभी तक कई सौ करोड़ रुपये बकाये के इंतजार में कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह संस्थान से शुरू हुई बीमारी आज सभी संस्थानों में पहुंच गई है जहां मैनेंटमेंट में उच्च पदों पर तो मोटी तनख्वाहों पर कर्मचारी रखे जाते हैं और उन्हें विज्ञापन और येन-केन प्रकारेण नैतिक-अनैतिक ढंग से पैसा जुटाने का काम सौंपा जाता है लेकिन रिपोर्टिंग से लेकर, डेस्क पर काम करने वाले तथा अन्य मीडियाकर्मियों को कम तनख्वाह पर मनमाने ढंग से 50 या 100 रुपये के स्टाम्प पर नौकरी के कांट्रैक्ट थमाया जाता है जिसके अनुसार उनका प्रोविडेंट फंड से लेकर, ग्रेच्युटी का अंशदान तक उनकी तनख्वाह से काटा जाता है और सारी कटौती के बाद कर्मचारी मामूली टेक-होम सेलरी लेकर बंधुआ और मजबूर जीवन जीने को मजबूर हैं। 

2014 से मोदी सरकार बनने के बाद से तो स्थिति और भी खराब हो गई है। भाजपानीत सरकारों ने कभी भी मजीठिया वेजजबोर्ड की रिपोर्ट को लागू करवाने की प्रयास नहीं किया। उल्टे भाजपानीत राज्य सरकारों के अधिकारियों से मीडिया संस्थानों के मालिकों से मिलकर संबंधित न्यायालयों में इस आशय की झूठी रिपोर्टें फाइल की कि सभी मीडिया संस्थानों में वेजबोर्ड लागू हैं। 

मीडिया की दुर्दशा की लंबी गाथा है। वो लोग दूसरों का क्या भला करेंगे जो अपने कर्मचारियों का शोषण करने में सबसे आगे हैं और उनके कर्मचारी आम जनता का क्या भला करेंगे जब वो खुद शोषण का शिकार हों, लेकिन एक बात जो सबको ज्ञात होनी चाहिए वो यह है कि ठेके पर कार्यरत इन कर्मचारियों को चुपचाप नहीं बैठना चाहिए। लेबर कोर्ट इस तरह के मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। अत: इस प्रकार के मामलों में उच्च न्यायालय में कम्पनसेशन के तहत मीडिया संस्थानों पर केस करने के लिए एकजुट होना चाहिए, क्योंकि ऐसे ज्यादातर मामले इकतरफा एग्रीमेंट से जुड़े होते हैं और जितने वर्षों तक कम तनख्वाह में काम किया है उसके पूरे वेतनमान के भुगतान के लिए वेजबोर्ड के अनुसार वेतन की गणना करके सीधे भुगतान के लिए संबंधित लेबर कमिश्नर के यहां पूरा वेतन दिलवाने के लिए शिकायत दायर करनी चाहिए क्योंकि वेजबोर्ड में इस बात का प्रावधान किया गया है कि कर्मचारी भले ही ठेके पर हो लेकिन उसे वेजबोर्ड द्वारा अधिसूचित वेतन से कम वेतन नहीं दिया जा सकता। 

खबरें आ रही हैं कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में सबसे ज्यादा छंटनी का दौर चल रहा है इसलिए कर्मचारियों से निवेदन है कि वे अपने वेतन की गणना वेजबोर्ड के अनुसार करके अपने संबंधित लेबर कमिश्नर आफिस में बकाया वेतन भुगतान की शिकायत दायर करें व आगे के वेतन व इकतरफा नौकरी के कांट्रैक्ट को चैलेंज करते हुए मुआवजे के लिए संबंधित उच्च न्यायालयों की शरण लें। 

एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित।

[साभार:  bhadas4media.com]


हिंदुस्तान देहरादून से भी दस मीडियाकर्मी हटाए गए

हिंदुस्तान अखबार से जिस कदर निर्ममता से पूरे देश भर से पत्रकारों को नौकरी से निकाला गया, वह अपने आप में एक मिसाल है। कहने को तो इस देश में लोकतंत्र है, नियम कानून का राज है लेकिन मीडिया हाउसों के मालिकों के चरणों में लोकतंत्र नतमस्तक दिखता है। इन्हें किसी का डर नहीं। न श्रम विभाग से, न कोर्ट से, न अफसर से, न मंत्री से, न अपने कर्मियों से। ये सबसे बड़े अलोकतांत्रिक और अमानवीय लोग हैं।

हिंदुस्तान अखबार से मीडियाकर्मियों को निकाले जाने के क्रम में सूचना है कि देहरादून संस्करण से भी कइयों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 

बताया जा रहा है कि देहरादून हिंदुस्तान से कुल दस लोग निकाले गए हैं। इनमें तीन स्टाफर हैं और 7 स्टिंगर हैं। 

सूत्रों के मुताबिक जिन स्टाफर्स को कार्यमुक्त किया गया है उनके नाम हैं- प्रदीप बहुगुणा, नरेंद्र शर्मा और चीफ फोटो जर्नलिस्ट प्रवीण डंडरियाल। 

कार्यमुक्त किए गए स्टिंगर्स में कुणाल, रश्मि, संजय, अजय आदि हैं। 

एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित। 

[साभार:  bhadas4media.com]