Monday 27 April 2020

सुब्रत राय के नक्शे कदमों पर चल रहे अर्नब


- दोनों ही सत्ता के नशे में चूर, दोनों चाट रहे धूल
- अर्नब की बात सुनने वाला केवल रिपब्लिक, सुब्रत का सहारा

अर्नब गोस्वामी पत्रकारिता जगत में दूसरे सुब्रत रॉय सहारा साबित हो रहे हैं। फर्क इतना है कि सुब्रत राय ने जनता को लूट कर साम्राज्य बनाया तो अर्नब कुछ नेताओं के सहारे सम्राट बनना चाहते हैं। इस कड़ी में वो स्तरीय पत्रकारिता को छोड़ छिछली पत्रकारिता कर रहे हैं और यही कारण है कि आज जब वो मुंबई पुलिस द्वारा पूछताछ करने के लिए बुलाने पर एन. एम जोशी पुलिस स्टेशन पहुंचे तो वो अकेले थे यहां तक कि मीडिया वालों ने भी साथ नहीं दिया।

हास्यापद लग रहा था कि अर्नब का बयान लेने के लिए रिपब्लिक के ही रिपोर्टर थे, ठीक वैसे ही जैसे तिहाड़ जेल जाते सुब्रत की बात सहारा ही सुनता था। बाकी सब एंगेस्ट में लिखते थे। अर्नब की अकड़ वही सुब्रत रॉय जैसी कि कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा? अपने ही रिपोर्टर से कहा, राजनीतिक षडयंत्र है और मैंने कोई गलत नहीं कहा। ये वाड्रा कांग्रेस मुझे फंसा रही है। अर्नब जानते हो क्या बोल रहे हो? आखिर क्यों हो अकेले? मनन तो करो? ये जो आप कर रहे हो, क्या वो पत्रकारिता है? यदि नहीं बदले तो एक दिन सुब्रत रॉय की तरह जमीन में पड़े मिलोगे।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

मीडिया कंपनियों के छंटनी करने पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब तलब किया



उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को उन सभी मीडिया संगठनों के खिलाफ दायर याचिका पर नोटिस जारी किया, जिन्होंने कर्मचारियों को देशव्यापी लॉकडाउन के मद्देनजर या तो उनकी छंटनी कर कर दी है या उन पर कम वेतन लेने का दबाव बनाया है। जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस बी आर गवई ने कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन के बीच कर्मचारियों की नौकरी से छंटनी और उनकी नौकरी समाप्ति के उक्त मुद्दे पर चिंता व्यक्त की और कहा कि इस मुद्दे पर विचार की आवश्यकता है। पीठ ने निर्देश दिया कि याचिका की एक प्रति केंद्र को दी जाए और दो सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल किया जाए, जिसके बाद इसे पीठ द्वारा फिर से सुना जाएगा।

यह याचिका नेशनल एलायंस ऑफ जर्नलिस्ट्स, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स और बृहन मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने मिलकर संयुक्त रूप से दायर की है। इसमें आरोप लगाया गया है कि केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय द्वारा जारी की जा रही एडवाइजरी और प्रधानमंत्री द्वारा दो बार अपील करने के बावजूद भी मीडिया क्षेत्र में नियोक्ता अपनी मनमानी कार्यवाही कर रहे हैं और लॉकडाउन के बहाने औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 का उल्लंघन कर रहे हैं।

याचिका में ऐसे 9 उदाहरणों का हवाला भी दिया गया है, जिनमें 15 मार्च, 2020 के बाद से ऐसी ही कार्रवाई की गई है। याचिका में मांग की गई है कि इस संबंध में केंद्र, इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन को निर्देश दिए जाएं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लॉकडाउन का दुरुपयोग करके ऐसी कोई मनमानी कार्रवाई न की जा सके।

सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्वेस ने कई मीडिया संगठनों के पत्रकारों की लगातार समाप्त हो रही नौकरियों पर पीठ का ध्यान आकर्षित किया। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि नोटिस जारी किया जाए और एक प्रति केंद्र को भी दी जाए। पीठ ने कहा कि कुछ गंभीर मुद्दों को उठाया गया है। इसके लिए सुनवाई की आवश्यकता है।

अन्य यूनियनों ने भी कहा है कि अगर कारोबार शुरू नहीं होता है, तो लोग कब तक बिना नौकरी रह सकेंगे। इस मुद्दे पर सुनवाई की जरूरत है।

याचिका (पीआईएल) में अखबारों के नियोक्ताओं और मीडिया सेक्टर पर आरोप लगाया गया है कि वह अपने कर्मचारियों के प्रति अमानवीय और गैरकानूनी व्यवहार कर रहे हैं। इस याचिका में मांग की गई है कि लॉकडाउन की घोषणा के बाद, नौकरी से हटाने के लिए जारी नोटिस, वेतन कटौती, इस्तीफे के लिए नियोक्ताओं को किए गए मौखिक या लिखित अनुरोध और बिना वेतन पर छुट्टी पर जाने के जारी किए सभी निर्देश को तुंरत प्रभाव से निलंबित या रद्द कर दिया जाए।

याचिका में कहा गया है कि भारत सरकार ने विशेष रूप से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों को कामकाज जारी रखने की अनुमति दी है। वहीं भारत सरकार ने भी एडवाइजरी जारी की है कि किसी की भी सेवाएं समाप्त न की जाए या कर्मचारियों के वेतन में कटौती न की जाए. इन तथ्यों के बावजूद भी कई नियोक्ताओं/समाचार पत्र संस्थानो/ मीडिया सेक्टर के मालिकों ने लॉकडाउन के बहाने एकतरफा फैसला लेते हुए कई कर्मचारियों की सेवाओं को समाप्त कर दिया है, वेतन में कटौती की गई और कर्मचारियों को जबरन अनिश्चित काल के लिए बिना वेतन के अवकाश पर भेज दिया गया है।

सरकारी एडवाइजरी और कानूनी प्रावधानों से साफ है कि बिना किसी उचित प्रक्रिया के छंटनी करना, निलंबित करना या नौकरी समाप्त करना और प्रकाशनों को बंद करने की अनुमति नहीं है, इसके बावजूद मीडिया कंपनियां इन उपायों के साथ आगे बढ़ी हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि मौजूदा लॉकडाउन की स्थिति में लोगों को घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं है और वह इन कर्मचारियों को नई नौकरी खोजने के लिए अकेला या बेसहारा छोड़ रही हैं।


[वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार जेपी सिंह की रिपोर्ट]
[bhadas4media.com से साभार]

Sunday 26 April 2020

दैनिक जागरण हल्द्वानी ने हाय ये क्या कर डाला!


- जिन्दा आदमी को दो कॉलम खबर में मार डाला
- तनाव में ऐसी खबर न लिखो भाई

दैनिक जागरण के 26 अप्रैल के हल्द्वानी से प्रकाशित अल्मोड़ा संस्करण में पेज नम्बर 3 पर बागेश्वर से एक खबर छपी है- ‘कोरोना के डर व आर्थिक तंगी से हुआ हार्ट अटैक’। इस खबर के लास्ट में व्यक्ति का निधन बता दिया गया है। यह व्यक्ति अभी जिंदा है। इस खबर में बीमार व्यक्ति नवीन सिंह की तस्वीर भी लगाई गई है। सच्चाई ये है कि नवीन को हार्ट अटैक आया जरूर पर समय रहते इलाज मिलने से अब सुरक्षित है।

दरअसल, कोरोना की वजह से सब मीडियाकर्मी तनाव में जी रहे हैं। ऐसे में हो सकता है कि रिपोर्टर से गलती हुई हो, लेकिन किसी को मारने की इतनी जल्दी क्यों है भाई। ये भी हो सकता है कि न्यूज दो कॉलम में बैलेंस करने के लिए सब एडिटर ने लास्ट में लाइन जोड़ दी कि नवीन को हार्ट अटैक आया और वो मर गया।

संपादक महोदय, अब खबर का खंडन छाप देना। भूल-चूक-लेनी-देनी।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

दैनिक जागरण अखबार के मालिकों की हठधर्मिता की वजह से शहर के पत्रकार, कोरोना के घेरे में


जागरण दफ्तर को सील किया जाए
जागरण के मालिकों के ऊपर कानूनी कार्रवाई की मांग
प्रेस क्लब के बाहर उपवास का दिया नोटिस/ ज्ञापन

कानपुर (प्रेस विज्ञप्ति)। शहर के नंबर 3 अखबार दैनिक जागरण (हिंदुस्तान नंबर वन व अमर उजाला नंबर 2) की वजह से शहर के सभी कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार और मीडिया कर्मी जानलेवा करोना वायरस के घेरे में आ गए हैं। इसका खुलासा तब हुआ जब दैनिक जागरण के एक स्थानीय संवाददाता में करोना वायरस के लक्षण दिखाई दिए, उन्हें खांसी आ रही थी। जागरण के पत्रकार भाइयों ने उन्हें मजबूर किया कि वे जांच कराएं। उन्होंने जांच कराई,जांच रिपोर्ट आई तो सब के सब आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि वह संवाददाता करोना + पाया गया। दैनिक जागरण में बिना किसी शारीरिक दूरी (विदाउट social distance) के काम करवाया जा रहा है, पहले घर से रिपोर्टिंग का काम हो रहा था, मगर स्टाफ को मजबूर किया गया कि आफिस में आकर काम करो।

देश के गृहमंत्री अमित शाह ने सभी मुख्यमंत्रियों से स्पष्ट कहा था कि अपने-अपने जिलों में करोना संभावित इलाके पहचाने और उन्हें हॉटस्पॉट घोषित कर सील कर दें। केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला ने तत्काल सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी किया कि अपने-अपने राज्यों में हॉटस्पॉट बनाएं और उन्हें सील करें। कानपुर नगर के जिलाधिकारी ब्रह्म देव राम तिवारी ने कानपुर में हॉटस्पॉट बनाए और उन्हें सील भी कर दिया।

हॉटस्पॉट का पूरे शहर के लोगों ने ईमानदारी से पालन किया मगर दैनिक जागरण ने उल्लंघन करवाया। कोरोना + पाया गया संवाददाता हॉटस्पॉट में रहते थे उन्हें मजबूर किया गया कि वह ऑफिस आकर खबर बनाएं, जबकि इससे पहले सभी पत्रकार अपने अपने घरों से समाचार बना रहे थे, लेकिन दैनिक जागरण के निदेशक संदीप गुप्ता ने अपना फरमान जारी कर कहा कि सभी लोग ऑफिस से अपना काम करें, इसी के अनुपालन में उस संवाददाता को ऑफिस आना पड़ा और उसकी वजह से आज दैनिक जागरण के समस्त स्टाफ में दहशत है वे सब बारूद के ढेर पर बैठे हुए हैं। और बहुत से पत्रकार भाई छुट्टी के लिए प्रयासरत हैं और कई जान हथेली में लेकर काम करने के लिए मजबूर है। मेरी जिला प्रशासन, उत्तर प्रदेश शासन एवं केंद्र सरकार से मांग है कि वह तत्काल दैनिक जागरण के मुख्यालय को सील करें और वहां के परिसर को सैनिटाइज किया जाए।

देश में इस तरह के कई मामले सामने आए है और प्रशासन ने मालिकों के विरूद्ध सख्त कार्रवाई कर उनके प्रतिष्ठान सील कर दिए गए है। शासन से मेरी मांग है कि करोना कि कवरेज कर रहे पत्रकारों का 50 लाख रुपये का बीमा किया जाए। पत्रकार भाइयों से भी मेरी अपील है कि वे कोरोना से बचते हुए काम करें। हाल ही में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री ने भी इस आशय की अपील की है। प्रेस काउंसिल आफ इंडिया व सूचना प्रसारण मंत्रालय ने भी मार्ग दर्शन दिया है। अतः पत्रकार हित में दैनिक जागरण ऑफिस को हॉटस्पॉट घोषित कर तत्काल सील किया जाए और दैनिक जागरण के चेयरमैन महेंद्र मोहन, संपादक संजय गुप्ता और निदेशक संदीप गुप्ता के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर कानूनी कार्रवाई की जाए। अगर प्रशासन ने उचित कार्रवाई नहीं की तो मैं कानपुर प्रेस क्लब के बाहर सामाजिक दूरी व लॉकडाउन का पालन करते हुए अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठूंगा। इस आशय का ज्ञापन/ सूचना श्रीमान जिलाधिकारी महोदय, श्रीमान आयुक्त महोदय, श्रीमान मुख्य सचिव, श्रीमान केंद्रीय गृह सचिव को भेज दिया है। यदि मेरे ऊपर कोई भी हमला या कार्रवाई होती है तो उसकी पूर्णता जिम्मेदारी जागरण समूह एवं प्रशासन की होगी। यदि मुझे करोना होता है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार की होगी

शुक्रिया 
आपका नरेंद्र सिंह उर्फ पिंटू ठाकुर
महामंत्री श्याम मिश्रा 
पूर्व विधायक 
स्मारक सेवा संस्थान कानपुर 
महानगर .94 55 650 460

Saturday 25 April 2020

कोरोना: प्रेस क्लब शिमला ने की मीडियाकर्मियों के लिए 50 लाख के बीमे की मांग


शिमला, 25 अप्रैल। प्रेस क्लब शिमला ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से कोरोना संक्रमण के बीच काम करने वाले हिमाचल प्रदेश के मीडिया कर्मियों का 50 लाख रुपये का मेडिकल बीमा कराने की मांग की है। प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल भारद्वाज (हैडली) के नेतृत्व में कार्यकारिणी समिति के पदाधिकारी शनिवार को मुख्यमंत्री से उनके आवास ओकओवर में मिले और ज्ञापन सौंपा। मुख्यमंत्री ने प्रेस क्लब की इस मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया।

मुख्यमंत्री को दिए गए ज्ञापन में कहा गया कि कोरोना के खिलाफ जंग में मीडिया कर्मी एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम कर रहे हैं। मीडिया ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके जरिए आम जनता को इस जंग की सही जानकारी मिल पा रही है।

आपदा की इस घड़ी में मीडिया कर्मी अपनी व अपने परिवार की जान जोखिम में डालकर सरकार और जनता के बीच सेतु का काम कर पल-पल की सुचनाएं उपलब्ध करवा रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में मीडिया कर्मियों को 50 लाख रूपये के स्वास्थ्य बीमा की सुविधा राज्य सरकार के माध्यम से उपलब्ध करवाई जाए। ताकि मीडिया कर्मी देश व राज्य की जनता के लिए निश्चिंत होकर अपनी सेवाएं दे सकें।

प्रेस क्लब शिमला के अध्यक्ष अनिल हैडली ने बताया कि ज्ञापन में बीमा के साथ-साथ मीडिया कर्मियों के कोरोनो टेस्ट करवाने की भी मांग की गई है। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री ने उनकी मांगों को जल्द पूरा करने का आश्वासन दिया है।

उत्तराखंड के पत्रकार तंगी में तो करें हमसे संपर्क


- जो भी मदद संभव होगी, हम करेंगे प्रयास साथी
- उत्तरजन टुडे और महिला उत्तरजन की एक पहल
- साथियों का नाम ताउम्र गुप्त रखा जाएगा

साथियों,
कोरोना संकट और मंदी के इस दौर में हम सबको एकजुट होने की जरूरत है। पहल उत्तरजन टुडे परिवार कर रहा है। प्रदेश भर के पत्रकारों को यदि किसी तरह की समस्या आर्थिक मसलन राशन, इलाज और दवाओं की है तो आप निसंकोच हमसे बात कर सकते हैं। हमारा प्रयास होगा कि हम आपके कुछ काम आ सकें।

यह अहम बात है कि मीडिया के साथी दूसरों का दुख बांटते हैं, लेकिन स्वाभिमानी होने के कारण वो अपनी समस्या दूसरों को नहीं बताते हैं। ऐसे समय में उत्तरजन टुडे परिवार ने तय किया है कि शायद हम अपने साथियों की कुछ मदद कर सकें।

हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि किसी भी जरूरतमंद साथी का नाम जीवन में कभी उजागर नहीं किया जाएगा। ये बात केवल उत्तरजन टुडे परिवार तक ही सीमित रहेगी।

आप हमसे इन नम्बरों पर 9411326181, 8267006008 और 9410960088, रुद्रप्रयाग में 9897248163 पर संपर्क कर सकते हैं।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Thursday 23 April 2020

मत बांधों कारपोरेट पत्रकारों से इतनी उम्मीदें!


- अर्नब, सुधीर, रवीश, राजदीप सब बाजार का हिस्सा हैं
- अब कारपोरेट जर्नलिज्म का जमाना है मिशनरी नहीं

रिपब्लिक के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी ने कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी पर की गई टिप्पणी और अर्नब पर कथित हमले के विवादों के बीच मैं आपको ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ के वार्षिक विश्लेषण की जानकारी दे दूं। इस विश्लेषण के अनुसार वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों के समूह में भारत 142वें नंबर पर है, जबकि पिछले साल भारत 140वें स्थान पर था। यानि की भारत में प्रेस की स्वतंत्रता बहुत खतरे में है। पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं। प्रेस पर भारी दबाव है। मोदी सरकार प्रथम और मोदी सरकार दो के दौरान लैंग्वेज प्रेस दम तोड़ चुकी है। देश के बड़े-बड़े मीडिया घराने भारी दबाव में हैं। पत्रकारों पर अंधाधुंध केस दर्ज किए जा रहे हैं। पत्रकारों पर खूब हमले हो रहे हैं। 2018 तक तो भारत में दर्जनों पत्रकारों की हत्याएं भी हुई।

मंदी आते ही सबसे पहले मीडिया ने ही पत्रकारों को निकालना शुरू कर दिया। अरबों रुपये कमाने वाले मीडिया घराने सबसे पहले गरीब पत्रकारों की छंटनी करता है। लाभ की स्थिति में भी उन्हें क्या मिलता है? हां, सही है कि लाख रुपये महीना पगार वाले पत्रकारों की लंबी फौज है। लेकिन हजारों पत्रकार ऐसे भी हैं जो महानगरीय पत्रकारिता के तमाम जोखिमों के बावजूद 25-30 हजार रुपये ही कमाते हैं। जैसे ही मीडिया घरानों की आय कम होती है, सबसे पहले गाज इन्हीं छोटे पत्रकारों पर गिरती है। यानि जो फील्ड में होते हैं।

जनता एक पत्रकार को देती क्या है? खबर अच्छी लिखो तो उसका जिक्र नहीं, विरोध में लिखो तो आरोप कि मीडिया बिका हुआ है। जबकि सच्चाई यह है कि इस देश में सबसे सस्ता पत्रकार है, जिसको एक कप चाय पिलाकर आप आधे-एक घंटे तक अपनी व्यथा कह सकते हो, जिस व्यथा को आपका बेटा या पत्नी भी सुनने के लिए तैयार नहीं है। आज तक मैंने अपने दो दशक से भी अधिक पत्रकारिता के करियर में नहीं सुना कि जनता ने कभी पत्रकारों के हित में आंदोलन किया हो या जोरदार आवाज उठाई हो? विडम्बना है कि जब पत्रकारों को रोज निकाला जा रहा हो, तब भी समाज का हर वर्ग उनके पास भूख, गरीबी, समस्या लेकर जा रहा है, लेकिन कोई पत्रकार से नहीं पूछता कि भाई तुम्हें भी कोई दुख है क्या? क्या पत्रकार का परिवार नहीं है, क्या उसकी समस्या नहीं हैं। निष्पक्षता और जनपक्षधरता की सारी उम्मीदें हम पत्रकारों से ही क्यों?

पत्रकारों और मीडिया घरानों की मजबूरी को इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जो विरोध में गया तो उसके विज्ञापन बंद। उस पर मौका मिलते ही केस दर्ज कर दिया जाए या फिर उस पर हमले कर दो, या मार डालो। डर या दबाव क्या होता है, इसे सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जस्टिस और मौजूदा राज्यसभा सदस्य से पूछा जा सकता है। डर तो डर होता है जनाब। पत्रकार इससे अछूते कैसे? मोदी शासन में कई दिग्गज पत्रकारों जिनकी बहुत फेहरिस्त है, उनको किसी कोने में बिठा दिया गया। कश्मीर में धारा 370 हटाने के बाद पत्रकारों का क्या हाल हुआ? सुप्रीम कोर्ट न होता तो वहां प्रेस के नाम पर सबकुछ खत्म हो गया होता।

दरअसल अर्नब गोस्वामी, सुधीर या रवीश या राजदीप जैसे दिग्गज पत्रकारों से लेकर मुझ जैसे छोटे पत्रकार तक बाजार का एक हिस्सा हैं। बाजार पर जिसका कब्जा, हम उसके गुलाम। वैसे भी पत्रकारिता अब ऐसा एक पेशा है, मिशन नहीं। जो बाजार में बना है, उसकी तूती बोलती है और बाजार से गायब, तो उसको कोई नहीं पूछता। एक पत्रकार यदि एक संस्थान को छोड़ता है तो उसके साथी पत्रकार ही बाजार में बात फैलाते हैं निकाल दिया गया। यानि आपकी कुर्सी है तो पत्रकार हो। नाशुक्रा पेशा है। यही कारण है कि बाजार में बने रहने के लिए दीपक चौरसिया को कहना पड़ता है कि मोदी जी आप थकते नहीं हो क्या? अर्नब को दो भारी-भरकम चैनल चलाने के लिए सोनिया और राहुल को अनावश्यक टारगेट करना पड़ता है और सुधीर और अंजना को मोदी चालीसा पढ़ना पड़ता है तो बाजार में इन्हें टक्कर देने के लिए रवीश को सरकार पर प्रहार करने पड़ते हैं। हम सब बाजार का हिस्सा हैं, इसलिए हमारी व्यथा को समझिए और हमेशा यह उम्मीद मत कीजिए कि हम निष्पक्ष पत्रकारिता करें और आप अपना नफा-नुकसान आंक कर काम करें।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

IFWJ Condemns Physical Assault on Arnab Goswami



New Delhi, 23 April. Indian Federation of Working Journalists (IFWJ) has strongly condemned the attack on well-known journalist Arnab Goswami in Mumbai last midnight. Goswami has earned the reputation of being an acerbic and outspoken journalist. One can agree or disagree with him, but no one can ignore him. He is credited to have coined many new words in Indian journalism like ‘tukde tukde gang’ and ‘Lutyens’ Media’.

He has the unique capacity to simultaneously take on many persons in the window of his channel. He has emerged as a brand of journalism as he never feels shorts of words in speaking spade a spade. It is because of these reasons that he is loved and loathed with the same intensity by those who like and dislike him.

In a statement, the IFWJ Secretary-General Parmanand Pandey has demanded that Maharashtra government must thoroughly probe into the incident so as to bring the culprits to book. Attack on Goswami, or for that matter on any journalists, is intolerable as it amounts to an attack on the freedom of speech and expression, which must be resisted by every section of the
society with all its might and main.

Wednesday 22 April 2020

कोरोना से जंग: लॉकडाउन के शिकार मीडियाकर्मियों की आवाज कौन उठाएगा?


भारत के कनाडाई नागरिक अक्षय कुमार ने जब 25 करोड़ दान देने का एलान किया तो तुमने उन्हें सदी का सबसे बड़ा दानदाता घोषित किया।

सिल्वर स्क्रीन के दबंग और बॉक्स ऑफिस के सुल्तान सलमान खान ने जब फिल्मनगरी के दिहाड़ी मजदूरों का पेट भरने की घोषणा की तो तुम्हारे शब्दों में सलमान से बड़ा कोई दलायु, कृपालु नहीं था।

और जब कsssकsssकsssकsssकिंग यानि शाहरुख खान ने अपने ऑफिस को 14 दिनों के एकांतवासियों के लिए क्वारंटिन भवन बना दिया... तो तुम्हारे शब्दों में उसकी महिमा और भी शोभायमान हो गई।

अमिताभ बच्चन की वीआर फैमिली के सदस्य बनने में भी तुम्हीं सबसे आगे थे।

उद्योगपतियों की दानराशियों के आकर्षक ग्राफिक्स से लेकर, उनके ट्विट, वीडियो संदेश के बॉक्स आइटम बनाने में अपनी कल्पनाशीलता और ऊर्जा का उपयोग करने में तुमने ही सबसे अधिक पसीने बहाये।

इसके बावजूद तुम बेगाने की शादी के अब्दुल्ला दीवाने नहीं थे।

क्योंकि तुम्हारी ड्यूटी थी, जैसे कि सीमा पर सैनिक, अस्पताल में डॉक्टर, चौराहे पर खाकीवर्दी या कि घर घर सिलेंडर और हरी सब्जियां पहुंचाने वालों ने रोजमर्रा की जिंदगी और ज़िद नहीं छोड़ी थी।

इतना ही नहीं, अपने-अपने गांव, घर जाने के उतावले हुए सड़कों पर पैदल रेंगने वाले दिहाड़ी मिल्खा सिंहों के हुजूम को भी तुमने सदी का सबसे रिच विजुअल समझा और उसे कभी लाइव काटा तो कभी म्यूजिक के साथ मोंटाज में सजाया तो कभी उस पर राष्ट्रीय बहसें कर लीं और तब तक लूप में घुमाता रहे जब तक कि उसके बारे में सत्ताधारियों के अनमोल वचन नहीं आ गए।

यकीन मानिये उतने पर भी तुम बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाने नहीं थे।

क्योंकि तुम्हारी कलम को खून के आंसू बहाने की लत है। तुम्हारे कलेजे को चट्टानी काया बनने का बड़ा शौक है। तुम्हारी फितरत को संवेदना से एकतरफा मोहब्बत करने की आदत है।

याद करो तुमने ही चलाया न इस वक्त की सबसे बड़ी खबर है- प्रधानमंत्री ने कारोबारी जगत के स्वामियों से अपील की है कि कोरोना संकट को देखते हुए किसी कर्मचारी की सैलरी ना काटे। तुमने ही इसे सत्तर साल का सबसे संवेदनशील बयान बताया था न! स्क्रीन पर दनादन चलाया था न! और तो और जब प्रधानमंत्री ने कहा कि लॉकडाउन के चलते किसी भी कर्मचारी की नौकरी ना जाए तो तुमने ही इसे सदी का सबसे मसीहाई स्टेटमेंट कहा था न! और सबके सब लट्टू हो गए थे। उत्साह इतना कि नौ मिनट के बदले नब्बे मिनट तक दीया जलाते रहे। जोश इतना कि ताली, थाली तो क्या बंदूक, पिस्तौल सब चलाने लगे। लेकिन क्या कभी फॉलोअप किया कि प्रधानमंत्री के बयान और अपील का किस किस बिजनेस घराने ने पालन किया?

क्या कभी इस मुद्दे पर बहस कराई कि जब प्रधानमंत्री समाज में सभी को मिलकर रहने की अपील करते हैं तो लोगों पर उसका असर क्यों नहीं होता है?

क्यों तमाशा वाले बयान को भक्त जल्दी लपक लेते हैं और उनके सामाजिक सन्देश को गोल कर देते हैं। क्या कभी इस मुद्दे पर मेहमानों से बयानबाजी करवाई कि ताली, थाली के बदले बंदूक क्यों चलाई गई? क्या कभी इस सवाल की प्लेट को स्क्रीन पर फायर किया कि सरकार और रिजर्व बैंक के राहत एलान के बावजूद उद्योग, कारखाने के मालिक अपने-अपने कर्मचारियों की सुध क्यों नहीं ले रहे? क्यों कर्मचारियों की नौकरियां जा रही हैं? क्यों मालिक कर्मचारियों की छंटनी कर रहे हैं?

मैं जानता हूं इन सवालों को आप नहीं उठाएंगे। आप यह भी नहीं पूछेंगे कि जिस वक्त प्रधानसेवक लिट्टी चोखा खा रहे थे और जब उसकी तस्वीर न्यूज मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में अवतारी पुरुष की तरह छाई हुई थी उस वक्त कोरोना दुनिया में कितनी दहशत मचा रहा था और अपने देश में उससे बचाव के लिए क्या-क्या किया जा रहा था? आप कम से कम यह भी नहीं लिखेंगे कि होली से पहले ही देश में एक दिन का जनता कर्फ्यू क्यों नहीं लग जाना चाहिए था? और तो और यह कि जनता कर्फ्यू के एक दिन बाद ही संपूर्ण लॉकडाउन क्यों हो गया...? जब लॉकडाउन करना ही था तो जनता कर्फ्यू क्यों? आप के पास यह सवाल भी नहीं होगा कि ताली, थाली बजाने और दीया जलाने से देश को क्या मिला? जबकि आप इस तरह के सवालों पर पहले खूब बहसें करते रहे हैं। इन अपीलों के बाद सिवाय अनुशासनहीनता की तस्वीरों के क्या देखने को मिला? इन आयोजनों में दिखी अनुशासनहीनता की तस्वीरों को आप किस पंथ या संप्रदाय से जोड़ेंगे? आप ये सब नहीं पूछेंगे क्योंकि जेनुइन सवाल को इन दिनों सरकार विरोधी माना जाता है। और सरकार विरोधी छवि होने पर दर्शक और पाठक कम होते हैं और विज्ञापन गिरने का खतरा बढ़ता है।

खैर छोड़िये...। ये सवाल शायद छोटा मुंह बड़ी बात हो।

लेकिन चलिए अपने बारे में या अपने हित को लेकर खुद से ही सवाल पूछ लीजिए।

मीडिया जगत पढ़ा लिखा तबका है, इसलिए यहां दिहाड़ी मजदूर शब्द का इस्तेमाल शायद बहुत से लोगों को अच्छा न लगे उनके लिए चलिए ठेका कर्मचारी कह लेते हैं। कोरोना के बाद हजारों की संख्या में पत्रकार बंधु घर से काम कर रहे हैं। लेकिन जो बेरोजगार हैं, किसी संस्थान से संबद्ध नहीं हैं... क्या फिल्म इंडस्ट्री की तरह किसी संगठन या नामचीन हस्ती ने उनकी मदद के लिए एलान किया? जिस सरकार की योजनाओं और बयानों पर जान न्योछावर करते रहे उस सरकार की तरफ से किसी योजना या पैकेज का ऐलान हुआ? कितने बेरोजगार या फ्रीलांस पत्रकारों को मदद मिली? है कोई संख्या? शायद नहीं।

अपने रिसर्च विभाग को इस काम में लगाइए। जब तक कोई आंकड़ा निकले तब तक यह विचार कर लीजिए कि इस खबर को चलाएगा या छापेगा कौन?

सोशल मीडिया पर भी लिखेंगे तो लोग आप ही को हिकारत की नजरों से देखेंगे और दया भावना में कहेंगे - कितना गिरा हुआ है? लेकिन जो उठे हुए हैं...

चलिये उन्हीं के बारे में बात कर लेते हैं। मीडिया ने ही प्रधानमंत्री के उस बयान को प्रमुखता से चलाया न कि उन्होंने कारोबारी जगत से कहा है कि किसी की नौकरी न जाए! लेकिन अब कोरोना और ल़ॉकडाउन के चलते कई मीडिया हाउसों में छंटनी और बंदी का जो हाल है, उसके बारे में क्या किसी ने सोचा या सवाल उठाया...?

शायद इसकी इसलिए जरूरत नहीं, क्योंकि मेंढ़क खुद को बड़े बुद्धिमान समझते हैं और उन्हें तराजू पर एकजुट रखा नहीं जा सकता।

-एक मीडियाकर्मी

Video: मुजफ्फरपुर दैनिक जागरण ने अपने चार गरीब मीडियाकर्मियों को निकाला, धरने पर बैठे पीड़ित

दूसरों को शिक्षा देने वाले खुद कर रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी की कही बातों का उल्लंघन… दैनिक जागरण ने अपने कई चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों को लॉक डाउन में निकाला..

कोरोना वायरस के वैश्विक महामारी के कारण विश्व के कई देशों में लॉक डाउन की स्थिति बनी हुई है, भारत में भी कई दिनों से लॉक डाउन चल रहा है जिसके कारण गरीब और जरूरतमंद तबके के लोग काफी परेशान है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर सभी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को यह निर्देश दिया है कि इस परिस्थिति में आप अपने किसी भी कर्मचारी को संस्था से नहीं हटाए लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के निर्देशों की धज्जियां मीडिया हाउसेस में भी उड़ाई जा रही हैं।



ताजा मामला बिहार के मुजफ्फरपुर का है जहां के जाने-माने अखबार दैनिक जागरण ने अपने कई चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों को लॉक डाउन में घर बैठने का आदेश दे दिया और उन्हें कंपनी से हटा दिया। इन सभी कर्मचारियों में उन तबके के लोग हैं जो पारिवारिक रूप से कमजोर है। इनमें सफाई कर्मी, ट्रक ड्राइवर और प्यून आदि शामिल हैं। कर्मचारियों का कहना है कि 17 अप्रैल 2020 को संस्थान ने उन्हें घर बैठने के लिए कह दिया और कहा कि लॉकडाउन के बाद अगर जरूरत पड़ेगी तो उन्हें बुला लिया जाएगा।

समाज को लंबा चौडा़ निर्देश देने का काम करने वाली संस्थाएं ही जब ऐसा करेंगी तो आम संस्थाओं की बात हीं छोड़ दीजिए।
दैनिक जागरण के पीड़ित कर्मचारी अवधेश कुमार का मोबाइल नंबर 9304629823 है।

Thursday 16 April 2020

डरपोक पत्रकार संगठनों, अपनी दुकानों में आग लगा दो, निकम्मो!


- हजारों मीडियाकर्मी बेरोजगार, अब दलाल पत्रकारों की नई पौध उगेगी
- आईएफडब्ल्यूजे जैसी संस्था ने महज जताई चिन्ता, कोई वर्कप्लान नहीं

आज कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लगे देशव्‍यापी लॉकडाउन के चलते देश भर के मीडिया कर्मियों की नौकरी खतरे में है। दूसरों के लिए आवाज उठाने वाले मीडियाकर्मी अपने हक की आवाज कभी नहीं उठाते, लेकिन मीडिया कर्मियों के नाम पर दुकान चलाने वाले संगठन भी चुप्पी साधे बैठे रहेंगे तो फिर ऐसे संगठनों की सदस्यता का क्या लाभ? आउटलुक जैसी मैग्जीन झटके से बंद हो गई। इस कोरोना वायरस के संक्रमण काल में टाइम्स, एचटी, अमर उजाला, सहारा समेत अनेक मीडिया संस्थान गुपचुप और गैरकानूनी तरीकों से मीडियाकर्मियों की छंटनी कर रहे हैं। इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट ने मीडिया संस्थानों की इस गैर-कानूनी तरीकों पर चिंता जताई है, लेकिन ये संगठन भी नाममात्र का ही है। इसका कारण यह है कि इन संगठनों के जो पदाधिकारी होते हैं वो स्वयं मीडिया घरानों के गुलाम होते हैं। ये महज दलाली करते हैं और अपनी नौकरी बचाते हैं।

ऐसे में पत्रकार क्या करें? हर कोई कोर्ट कचहरी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता है। क्योंकि मीडिया की दुनिया बहुत छोटी और संकुचित होती है। यहां मीडिया प्रबंधन का विरोध का अर्थ ब्लैकलिस्ट होना है। ऐसे में पत्रकार सोचते हैं कि बुरा वक्त बीतेगा तो नई नौकरी मिल जाएगी। लेकिन बाद में जो मिलती है, वो बहुत छोटी नौकरी होती है। और तब जन्म होता है एक नए दलाल पत्रकार का। इस तरह से हमारे मीडिया संस्थान ही देश में लाखों दलाल मीडियाकर्मियों को पोषित करने का काम करते हैं। क्योंकि जब पत्रकार का सैलरी में गुजारा नहीं होता तो वह दूसरे तरीके तलाशेगा ही।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Monday 13 April 2020

पत्रकारों को कोरोना ने नहीं, मंदी ने मार डाला!



- रोज धड्डले से निकाले जा रहे मीडियाकर्मी
- मीडिया संस्थानों के लिए एडवाइजरी जारी करे आईबी मिनिस्ट्री

मैं अभी सोने के लिए जा रहा था कि टाइम्स ग्रुप की पत्रकार नोना वालिया की पोस्ट पढ़ी तो दंग रह गया। सामान्य दौर में सबसे अधिक लाभ कमाने वाला टाइम्स ग्रुप मंदी आते ही सबसे पहले अपने कर्मचारियों की नौकरी खाता है। 2008 में जब मंदी आई थी तो मैं भी टाइम्स ग्रुप का हिस्सा था। टाइम्स ग्रुप की सबसे गंदी बात यह है कि प्रबंधन या यूं कहें कि ब्रांड वाले, बता दूं कि टाइम्स में ब्रांड वाले सबसे शक्तिशाली होते हैं, जिनका एडीटोरियल से कोई काम नहीं होता। ये अंग्रेजों की तर्ज पर काम करते हैं यानी खुद बीच में नहीं पड़ते, टीम लीडर को कह देते हैं कि आदमी कम कर दो यानि निकाल दो। मैं टीम लीडर था तो उन दिनों मैंने ब्रांड को साफ कह दिया कि चूंकि टीम मैंने नियुक्त नहीं की, तो छंटनी करने का काम भी आप ही करो। इसकी सजा मैंने बाद में भुगती।

खैर पुरानी बात है। आज की बात यह है कि नोना ने पोस्ट पर लिखा है कि संडे मैगजीन की पूरी टीम को निकाल दिया गया है। एक फोन पर टीम लीडर पूनम सिंह ने सभी साथियों को दे दी। नोना इस ग्रुप में पिछले दो दशक से काम कर रही थी। ये बात अकेले टाइम्स ग्रुप की नहीं है। यह फेहरिस्त बढ़ती जा रही है। न्यूज नेशन ने अपनी 15 सदस्यीय पूरी अंग्रेजी बेव टीम को झटके से निकाल दिया।

कोरोना के कहर के दौरान जान हथेली पर लेकर चल रहे मीडियाकर्मियों की सुध आखिर कौन लेगा? मुसीबत की इस घड़ी में देश के तमाम मीडिया संस्थान अपने कर्मचारियों को निकाल रहे हैं। और अधिकांश ने उनको धमका दिया है कि सेलरी में कटौती स्वीकार है तो काम करो, वर्ना नमस्ते। मैं पहले भी अपनी पोस्ट में लिख चुका हूं कि इंडियन एक्सप्रेस, सहारा, अमर उजाला समेत अनेक अखबारों ने सेलरी 10 से लेकर 50 प्रतिशत तक घटा दी है। टाइम्स और एचटी ग्रुप इस मामले में पहले से ही बदनाम हैं।

अंग्रेजी न्यूज पोर्टल द क्विंट ने भी नोटिस जारी कर अपनी टीम से कहा है कि 15 अप्रैल के बाद वे लीव विदाउट पे रहेंगे। हिन्दुस्तान टाइम्स मराठी का एडिशन 30 अप्रैल से बंद होने की बात है। इसमें चीफ एडिटर को भी घर बैठने के लिए कह दिया गया है।

न्यूज नेशन की टीम निकाले जाने को लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेसी नेता मनीष तिवारी ने आज सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर को पत्र लिखकर चिन्ता जताई कि मीडिया संस्थान धड्डले से छंटनी और संस्थान बंद कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि इससे मीडियाकर्मियों में अनिश्चितता और भय बन गया है। ऐसे समय में सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय को मीडिया संस्थानों के लिए एडवाइजरी जारी करनी चाहिए।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

CORONVIRUS: IFWJ Demands Action Against Media Houses for Victimisation of Employees

New Delhi, 13 April. It is a matter of huge concern and unease that many media houses have started large scale retrenchment of employees despite the unambiguous announcement of the Prime Minister that no employee would be eased out during the lockdown period. Indian Federation of Working Journalists (IFWJ) has condemned these inhuman and exploitative steps of the media houses. It has come to notice that even the big media house like the Bennet Coleman and Company have illegally and arbitrarily sacked the entire editorial staff of its Sunday Magazine. Another prestigious news mag 'Outlook' has completely pulled down the shutters of its print publication. An audiovisual media house the News Nation has terminated more than a dozen digital employees. Similar disturbing reports are coming from many other media houses where employees are being thrown out under the cover of the crisis caused by COVID-19.

The IFWJ president BV Mallikarjunaih and the Vice-President Hemant Tiwari have called upon the Government of India and other state governments to immediately swing into action to stop the inhuman, insensitive, illegal and arbitrary dismissal of the employees. It may be noted here that these media houses have profited and enriched themselves due to the dedicated works of the employees but in the period of the crisis, the employers are being left in the lurch.

The IFWJ has also drawn the attention of the government towards the notoriety of many media houses, which instead of paying the legitimate dues and wages of the employees have resorted to anti-labour malpractice of illegal wage cuts without consulting and getting the consent of employees. Such unwarranted dismissals and victimisation of the employees must be stopped forthwith. The IFWJ has demanded the media houses not to cause the double jeopardy to employees as they have already been undergoing the financial stress and strain in the lockdown period.

Parmanand Pandey
Secretary-General: IFWJ

Friday 10 April 2020

कोरोना से जंग: त्रिवेंद्र चचा बताओ, मीडियाकर्मियों से सौतेला व्यवहार क्यों?


- बताओ, कौन अधिकृत पत्रकार है और कौन नहीं?
- पत्रकार साथियों, बाहर अपने जोखिम पर निकलो, मरोगे तो पूछा जाएगा, अधिकृत हो या नहीं?

अपने त्रिवेंद्र चचा पर जमकर गुस्सा आ रहा है। जब देश और सारा विश्व कोरोना से जंग लड रहा है। मीडियाकर्मी अपनी जान को जोखिम में डाल कर खबरें एकत्रित कर रहे हैं। घर बैठे लोगों को जागरूक कर रहे हैं और सरकार की बात पहुंचा रहे हैं, सरकार उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कर रही है। उत्तराखंड में अपने सीएम त्रिवेंद्र चचा और उनके मुंह लगे नौकरशाहों का हाल देखिए। नौकरशाहों ने बड़ी चालाकी दिखाते हुए मीडियाकर्मियों को अधिकृत और अनाधिकृत श्रेणी में बांट दिया।
कल चचा ने कोरोना के खिलाफ जंग लड़ रहे विभिन्न विभागों के लोगों को कोरोना वारियर घोषित करते हुए उनको मुख्यमंत्री आपदा राहत कोष से सम्मान निधि के तौर पर दस लाख रुपये का कवर दिया। यानी कोई स्वास्थ्य, निगम, पुलिस या संबंधित विभाग का कर्मचारी कोरोना युद्ध में शहीद हो जाता है तो उसके परिजनों को दस लाख दिए जाएंगे। इसमें संविदा से लेकर आउटसोर्स कर्मी भी शामिल किए गए, लेकिन मीडिया कर्मियों को छोड़ दिया गया। मुख्यमंत्री की सचिव राधिका झा द्वारा आपदा प्रबंधन सचिव को जारी आदेश में मीडियाकर्मियों का उल्लेख नहीं था। इसके बाद सचिव अमित नेगी की ओर से प्रेस नोट में डेढ़ लाइन अलग से जोड़ी गई कि अधिकृत मीडियाकर्मियों को भी दस लाख मिलेंगे।
गजब हाल हैं। क्या मीडियाकर्मी पाकिस्तान के हैं? अधिकृत मीडियाकर्मियों से क्या आशय है? सरकार द्वारा अधिकृत या मीडिया हाउस द्वारा अधिकृत? या फिर जो आरएनआई या प्रसार भारती से संबंध हैं? या फिर जो सरकार की चाटुकारिता करते हैं? आखिर अधिकृत मीडियाकर्मियों का आशय क्या है? सरकार को स्पष्ट करना होगा। हकीकत तो यह है कि सरकार ने जिनको अधिकृत किया है, उनमें से दस प्रतिशत मीडियाकर्मी फील्ड में नहीं जाते। वो अपने आप को सुपर जर्नलिस्ट समझते हैं और प्रेस नोट से काम चलाते हैं। दूसरे जिनको मीडिया हाउस ने पत्रकार बना कर फील्ड में उतारा है, उनमें से अधिकांश पे-रोल पर हैं ही नहीं। फोटोग्राफर, स्ट्रिंगर, कैमरामैन इस श्रेणी में आते हैं। यानि इनको अधिकृत माना ही न जाएं। अब जो सोशल मीडिया यानी पोर्टल वाले हैं, उनको किस श्रेणी में रखेंगे सरकार। और हां, जो प्राडक्शन टीम में हैं, जो सरकुलेशन में हैं और जो मार्केटिंग में हैं, उनका क्या?
साफ है कि त्रिवेंद्र चचा और उनकी सरकार के निकम्मे अधिकारियों को हम मीडियाकर्मियों की परवाह ही नहीं है। यानी हम मीडियाकर्मी आउटसोर्स और संविदा पर काम करने वाले लोगों से भी बदतर हैं। ऐसे में यदि पोर्टल का रिपोर्टर या फोटोग्राफर, या प्रिंट-इलेक्ट्रानिक का स्टिंªगर यदि कोरोना का शिकार हो जाता है तो उसे और उसके परिवार को भगवान भरोसे रहना होगा। त्रिवेंद्र चचा, मीडिया से इस तरह का सौतले व्यवहार क्यों? जवाब दो।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Thursday 9 April 2020

कोरोना से जंग: सरकारी विज्ञापन पर सोनिया गांधी के सुझाव पर आईएनएस ने बहाए घड़ियाली आंसू



वेजबोर्ड लागू करने को लेकर बेशर्मी और ढिठाई से बोला झूठ

कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी के केंद्र सरकार को सरकारी विज्ञापनों पर रोक के सुझाव पर तिलमिलाया अखबार मालिकों का संगठन आईएनएस घड़ियाली आंसू बहा रहा है। आईएनएस ने विपक्षी नेता के सुझाव के खिलाफ जारी बयान में बेशर्मी की हदें लांघते हुए ऐसा ना करने के पीछे प्रिंट मीडिया की विश्‍वसनीयता के अलावा वेजबोर्ड लागू होने का बेतुका और सरासर झूठा हवाला दिया है। जबकि सच्‍चाई तो यह है कि आईएनएस से जुड़ा लगभग हर अखबार मालिक अपने कर्मचारियों को वेजबोर्ड की सिफारिशों के तहत वेतन दिए जाने के खिलाफ कोरोना वायरस की तरह हर उस कर्मचारी को शिकार बनाता जा रहा है या बना चुका है, जिसने भी मजीठिया वेजबोर्ड के तहत संशोधित वेतन की मांग की है। लगभग किसी भी समाचारपत्र संस्‍थान ने वर्ष 2011 से अधिसूचित मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों को माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद लागू नहीं किया है। इस वेजबोर्ड को लागू करवाने की लड़ाई में शामिल हजारों अखबार कर्मचारियों को प्रताड़ित करके उनकी नौकरियां छिन ली गई हैं।

वेजबोर्ड के तहत वेतन की रिकवरी से जुड़े हजारों विवाद सुप्रीम कोर्ट होते हुए अब श्रम न्‍यायालयों में लंबित चल रहे हैं। इस सबके बावजूद आईएनएस ने जिस ढिठाई से अपने कर्मचारियों को वेजबोर्ड के तहत वेतन देने का हवाला देकर सोनिया गांधी के सरकारी विज्ञापन बंद किए जाने के सुझाव का विरोध किया है वो इनकी बेशर्मी से झूठ बोलने की आदत और धनलोलुपता को ही दर्शाता है। न्‍यूजपेपर इम्‍पलाइज यूनियन ऑफ इंडिया (एनईयूआई) का अध्‍यक्ष होने के नाते मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग/आग्रह करता हूं कि कारोना महामारी के इस संकट में सरकार सिर्फ उन्‍हीं सामाचारपत्र संस्‍थानों को सरकारी विज्ञापन जारी करे जो अपने बीओडी के माध्‍यम से प्रस्‍ताव पारित करके इस आशय का शपथपत्र देता है कि उसने मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों को केंद्र सरकार की 11.11.2011 की अधिसूचना और माननीय सुप्रीम कोर्ट के 07.02.2014 और 19.06.2017 के निर्णय के अनुसार सौ फीसदी लागू किया है और उसके किसी भी कर्मचारी का श्रम न्‍यायालय या किसी अन्‍य न्‍यायालय में वेजबोर्ड से जुड़ा का विवाद लंबित नहीं है। साथ ही इस संस्‍थान के दावे की सत्‍यता के लिए राज्‍य और केंद्र स्‍तर पर श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारियों की यूनियनों के सुझाव और आपत्‍तियां लेने के बाद ही इन अखबारों को सरकारी विज्ञापन जारी किए जाएं और वेजबोर्ड लागू ना करने वाले समाचारपत्र संस्‍थानों को सरकारी विज्ञापन देना पूरी तरह बंद किया जाए। ऐसी ही व्‍यवस्‍था राज्‍य सरकारों को भी करने के निर्देश जारी किए जाएं।

रविंद्र अग्रवाल
[वरिष्‍ठ पत्रकार एवं अध्‍यक्ष,एनयूईआई]
संपर्क- 9816103265

एक पत्र प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के नाम


कानपुर [शारदा त्रिपाठी]। देश की राजधानी सहित अन्य कई राज्यों से मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार बकाया मांगने पर विभिन्न समाचार पत्रों से निकाले गए या भगा दिए गए करीब 20 हजार लोगो की सुध कोई लेगा या इन्हें अपनी मान मर्यादा बचाने के लिए जान देने पर मजबूर होना पड़ेगा। इन कर्मचारियों के जीवन यापन के लिए न तो सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान ले रही हैं और न किसी राज्य की हाई कोर्ट। सरकारें तो यह कहकर पल्ला झाड़ ले रही हैं कि मामला कोर्ट में है।

बीते वर्ष 2014 से जैसे कर्मचारियों की बाढ़ मजीठिया वेज बोर्ड का बकाया लेने के लिए बढ़ी। अखबार मालिक स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से एक-एक कर कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा। धीरे धीरे यह संख्या हजारों में पहुंच गई। इनमें ज्‍यादातर सभी कर्मचारियों द्वारा इसकी शिकायत प्रधानमंत्री सहित माननीय सुप्रीम कोर्ट में भी की गईं, लेकिन इन बेसहारा कर्मचारियों को सहारा नहीं मिल पाया। चाहे वह हाई कोर्ट हो या माननीय सुप्रीम कोर्ट अथवा प्रशासनिक अधिकारी। किसी से कोई मदद नहीं मिल पाई। अखबार में कार्यरत कुछ दलाल टाइप लोग ही मालिकों से धन ऐंठकर खुद करोड़पति बन गए। मारा गया तो वह कर्मचारी जो मजीठिया के अनुसार वेतन और अन्य सुविधाएं चाहता था।

खैर कोई बात नही मजीठिया के आर्डर आने शुरू हो गए हैं, सिर्फ उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां पर मालिकान मिलीभगत करके कर्मचारियों को धोखा दे रहा है, क्योंकि यहां पदस्त जज न तो अधिसूचना को सही मान रहे हैं और न ही माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश को! कोई न कोई आपत्ति लगाकर मामले को निस्तारण के पहले हाई कोर्ट जाने को मजबूर कर दे रहे हैं। अभी हाल के दो दिन पहले कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया जी के प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में यह भी सुझाव दिया गया कि 2 वर्ष तक अखबार के विज्ञापन रोक दिए जाए, जिस पर कुछ चुनिदा अखबार विरोध शुरू कर दिए। अधिकतर अखबार मालिक न तो सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को मान्य करते हैं और न ही सुप्रीम कोर्ट का आदेश। अभी भी कई अखबारों में कई कंपनी संचालित हैं जो सभी सिर्फ अखबार का ही काम देखती हैं। इन्हें न तो श्रम विभाग का डर रहता है और न तो कोर्ट का। जो कर्मचारी हिम्मत कर लड़ाई शुरू करता है उसे वर्षों लग जाते हैं न्याय मिलने में।

अतः मेरी उन सभी कर्मचारियों की ओर से सम्माननीय प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सहित माननीय सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश महोदय व हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश महोदय से आग्रह है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन कराया जाए और वर्षों से दबे कुचले कर्मचारियों को न्याय दिलवाकर इन्हें भी राहत दिलवाई जाए।

Wednesday 8 April 2020

अमर उजाला भी चला सहारा ग्रुप की राह



- मीडियाकर्मियों के वेतन में कटौती, कहा, बाद में देंगे
- इंडियन एक्सप्रेस पहले ही कर चुका है कटौती
- उत्तराखंड सरकार ने मीडियाकर्मियों को उसके हाल पर छोड़ा

भारत में यदि कोई सबसे शोषित वर्ग है तो वह है मीडिया। मीडिया में लाभ मालिक कमा लेते हैं और शोषण होता है वहां कार्यरत मीडियाकर्मियों का। आज लॉकडाउन के साथ ही कोरोना का खतरा है। इसके बावजूद मीडियाकर्मी जगह-जगह जाकर समाचार बटोरते हैं, यह सीधे-सीधे जान जोखिम में डालना है, लेकिन लाला जी को इससे क्या? वह उनका वेतन तक पूरा देने को तैयार नहीं है। सहारा 2014 से अपने मीडियाकर्मियों का आधा या स्लैब वाला वेतन दे रहा है। अमर उजाला भी अब सहारा के नक्शेकदम पर चल रहा है। अमर उजाला के प्रबंधन ने सीनियर सब एडिटर से ऊपर रैंक के कर्मचारियों को आधी सैलरी देने का फैसला किया है। गजब हाल है। मालिक एक महीने भी घाटा नहीं झेल पाता और लाभ की स्थिति में कर्मचारी को उसका हिस्सा नहीं देता।

अमर उजाला और जागरण में यदि किसी मीडियाकर्मी को 2000 रुपये का इंक्रीमेंट मिलता है तो समझो महान बढ़ोतरी हुई है। लाला की जान निकल जाती है लाभ की स्थिति में भी। मैं बता दूं कि सहारा ने मीडियाकर्मियों को स्लैब सैलरी देकर ही लगभग 500 करोड़ से अघिक राशि डकार ली है। 2014 से अब तक सहारा में सेलरी संकट है और बैकलॉग देने को कंपनी तैयार नहीं है।
इंडियन एक्सप्रेस ने भी अपने कर्मचारियों की सैलरी घटा दी है लेकिन पांच लाख रुपये से ऊपर वालों की। वहां लाखों में सैलरी होती है तो इस कटौती का
असर नहीं। टाइम्स ग्रुप भी ऐसा ही करता है, लेकिन उनका सैलरी स्ट्रक्चर अधिक है। यानि लाभ की स्थिति में अधिक सैलरी देते हैं तो मंदी के टाइम कुछ कम भी कर देते हैं। लेकिन अमर उजाला जैसा लालाओं का संस्थान इस तरह की कटौती करे, जो समझ से परे है। अमर उजाला में कई न्यूज एडिटर रैंक के पत्रकार 30-35 हजार पर कार्यरत हैं, ऐसे में यदि आधी सेलरी आएगी तो घर कैसे चलेगा?
उधर, उत्तराखंड सरकार ने लॉकडाउन के दौरान सभी आवश्यक सेवाओं में कार्यरत कर्मचारियों का पांच-पांच लाख का बीमा किया है, लेकिन मीडियाकर्मियों को उसके हाल पर छोड़ दिया है, यानि यदि कोरोना से मीडियाकर्मी की मौत होती है तो उसके परिवार को मिलेगी महज सांत्वना। यदि पत्रकार स्ट्रिंगर हुआ तो अखबार या चैनल उसका नाम भी नहीं छापेगा न दिखाएगा। यानि सबसे शोषित और उपेक्षित है मीडिया वर्ग।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]