Wednesday 22 April 2020

कोरोना से जंग: लॉकडाउन के शिकार मीडियाकर्मियों की आवाज कौन उठाएगा?


भारत के कनाडाई नागरिक अक्षय कुमार ने जब 25 करोड़ दान देने का एलान किया तो तुमने उन्हें सदी का सबसे बड़ा दानदाता घोषित किया।

सिल्वर स्क्रीन के दबंग और बॉक्स ऑफिस के सुल्तान सलमान खान ने जब फिल्मनगरी के दिहाड़ी मजदूरों का पेट भरने की घोषणा की तो तुम्हारे शब्दों में सलमान से बड़ा कोई दलायु, कृपालु नहीं था।

और जब कsssकsssकsssकsssकिंग यानि शाहरुख खान ने अपने ऑफिस को 14 दिनों के एकांतवासियों के लिए क्वारंटिन भवन बना दिया... तो तुम्हारे शब्दों में उसकी महिमा और भी शोभायमान हो गई।

अमिताभ बच्चन की वीआर फैमिली के सदस्य बनने में भी तुम्हीं सबसे आगे थे।

उद्योगपतियों की दानराशियों के आकर्षक ग्राफिक्स से लेकर, उनके ट्विट, वीडियो संदेश के बॉक्स आइटम बनाने में अपनी कल्पनाशीलता और ऊर्जा का उपयोग करने में तुमने ही सबसे अधिक पसीने बहाये।

इसके बावजूद तुम बेगाने की शादी के अब्दुल्ला दीवाने नहीं थे।

क्योंकि तुम्हारी ड्यूटी थी, जैसे कि सीमा पर सैनिक, अस्पताल में डॉक्टर, चौराहे पर खाकीवर्दी या कि घर घर सिलेंडर और हरी सब्जियां पहुंचाने वालों ने रोजमर्रा की जिंदगी और ज़िद नहीं छोड़ी थी।

इतना ही नहीं, अपने-अपने गांव, घर जाने के उतावले हुए सड़कों पर पैदल रेंगने वाले दिहाड़ी मिल्खा सिंहों के हुजूम को भी तुमने सदी का सबसे रिच विजुअल समझा और उसे कभी लाइव काटा तो कभी म्यूजिक के साथ मोंटाज में सजाया तो कभी उस पर राष्ट्रीय बहसें कर लीं और तब तक लूप में घुमाता रहे जब तक कि उसके बारे में सत्ताधारियों के अनमोल वचन नहीं आ गए।

यकीन मानिये उतने पर भी तुम बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाने नहीं थे।

क्योंकि तुम्हारी कलम को खून के आंसू बहाने की लत है। तुम्हारे कलेजे को चट्टानी काया बनने का बड़ा शौक है। तुम्हारी फितरत को संवेदना से एकतरफा मोहब्बत करने की आदत है।

याद करो तुमने ही चलाया न इस वक्त की सबसे बड़ी खबर है- प्रधानमंत्री ने कारोबारी जगत के स्वामियों से अपील की है कि कोरोना संकट को देखते हुए किसी कर्मचारी की सैलरी ना काटे। तुमने ही इसे सत्तर साल का सबसे संवेदनशील बयान बताया था न! स्क्रीन पर दनादन चलाया था न! और तो और जब प्रधानमंत्री ने कहा कि लॉकडाउन के चलते किसी भी कर्मचारी की नौकरी ना जाए तो तुमने ही इसे सदी का सबसे मसीहाई स्टेटमेंट कहा था न! और सबके सब लट्टू हो गए थे। उत्साह इतना कि नौ मिनट के बदले नब्बे मिनट तक दीया जलाते रहे। जोश इतना कि ताली, थाली तो क्या बंदूक, पिस्तौल सब चलाने लगे। लेकिन क्या कभी फॉलोअप किया कि प्रधानमंत्री के बयान और अपील का किस किस बिजनेस घराने ने पालन किया?

क्या कभी इस मुद्दे पर बहस कराई कि जब प्रधानमंत्री समाज में सभी को मिलकर रहने की अपील करते हैं तो लोगों पर उसका असर क्यों नहीं होता है?

क्यों तमाशा वाले बयान को भक्त जल्दी लपक लेते हैं और उनके सामाजिक सन्देश को गोल कर देते हैं। क्या कभी इस मुद्दे पर मेहमानों से बयानबाजी करवाई कि ताली, थाली के बदले बंदूक क्यों चलाई गई? क्या कभी इस सवाल की प्लेट को स्क्रीन पर फायर किया कि सरकार और रिजर्व बैंक के राहत एलान के बावजूद उद्योग, कारखाने के मालिक अपने-अपने कर्मचारियों की सुध क्यों नहीं ले रहे? क्यों कर्मचारियों की नौकरियां जा रही हैं? क्यों मालिक कर्मचारियों की छंटनी कर रहे हैं?

मैं जानता हूं इन सवालों को आप नहीं उठाएंगे। आप यह भी नहीं पूछेंगे कि जिस वक्त प्रधानसेवक लिट्टी चोखा खा रहे थे और जब उसकी तस्वीर न्यूज मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में अवतारी पुरुष की तरह छाई हुई थी उस वक्त कोरोना दुनिया में कितनी दहशत मचा रहा था और अपने देश में उससे बचाव के लिए क्या-क्या किया जा रहा था? आप कम से कम यह भी नहीं लिखेंगे कि होली से पहले ही देश में एक दिन का जनता कर्फ्यू क्यों नहीं लग जाना चाहिए था? और तो और यह कि जनता कर्फ्यू के एक दिन बाद ही संपूर्ण लॉकडाउन क्यों हो गया...? जब लॉकडाउन करना ही था तो जनता कर्फ्यू क्यों? आप के पास यह सवाल भी नहीं होगा कि ताली, थाली बजाने और दीया जलाने से देश को क्या मिला? जबकि आप इस तरह के सवालों पर पहले खूब बहसें करते रहे हैं। इन अपीलों के बाद सिवाय अनुशासनहीनता की तस्वीरों के क्या देखने को मिला? इन आयोजनों में दिखी अनुशासनहीनता की तस्वीरों को आप किस पंथ या संप्रदाय से जोड़ेंगे? आप ये सब नहीं पूछेंगे क्योंकि जेनुइन सवाल को इन दिनों सरकार विरोधी माना जाता है। और सरकार विरोधी छवि होने पर दर्शक और पाठक कम होते हैं और विज्ञापन गिरने का खतरा बढ़ता है।

खैर छोड़िये...। ये सवाल शायद छोटा मुंह बड़ी बात हो।

लेकिन चलिए अपने बारे में या अपने हित को लेकर खुद से ही सवाल पूछ लीजिए।

मीडिया जगत पढ़ा लिखा तबका है, इसलिए यहां दिहाड़ी मजदूर शब्द का इस्तेमाल शायद बहुत से लोगों को अच्छा न लगे उनके लिए चलिए ठेका कर्मचारी कह लेते हैं। कोरोना के बाद हजारों की संख्या में पत्रकार बंधु घर से काम कर रहे हैं। लेकिन जो बेरोजगार हैं, किसी संस्थान से संबद्ध नहीं हैं... क्या फिल्म इंडस्ट्री की तरह किसी संगठन या नामचीन हस्ती ने उनकी मदद के लिए एलान किया? जिस सरकार की योजनाओं और बयानों पर जान न्योछावर करते रहे उस सरकार की तरफ से किसी योजना या पैकेज का ऐलान हुआ? कितने बेरोजगार या फ्रीलांस पत्रकारों को मदद मिली? है कोई संख्या? शायद नहीं।

अपने रिसर्च विभाग को इस काम में लगाइए। जब तक कोई आंकड़ा निकले तब तक यह विचार कर लीजिए कि इस खबर को चलाएगा या छापेगा कौन?

सोशल मीडिया पर भी लिखेंगे तो लोग आप ही को हिकारत की नजरों से देखेंगे और दया भावना में कहेंगे - कितना गिरा हुआ है? लेकिन जो उठे हुए हैं...

चलिये उन्हीं के बारे में बात कर लेते हैं। मीडिया ने ही प्रधानमंत्री के उस बयान को प्रमुखता से चलाया न कि उन्होंने कारोबारी जगत से कहा है कि किसी की नौकरी न जाए! लेकिन अब कोरोना और ल़ॉकडाउन के चलते कई मीडिया हाउसों में छंटनी और बंदी का जो हाल है, उसके बारे में क्या किसी ने सोचा या सवाल उठाया...?

शायद इसकी इसलिए जरूरत नहीं, क्योंकि मेंढ़क खुद को बड़े बुद्धिमान समझते हैं और उन्हें तराजू पर एकजुट रखा नहीं जा सकता।

-एक मीडियाकर्मी

No comments:

Post a Comment