Saturday 23 July 2016

मजीठिया: 20J के साथ ही इन मुद़दों पर भी हो बहस

धर्मशाला। मजीठिया वेजबोर्ड को लेकर 19 जुलाई को माननीय सुप्रीम कोर्ट का जो आदेश आया है, उसमें पांच राज्यों के बैच को विस्तृत सुनवाई के लिए चुना गया है। इनमें उत्तर प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड, नागालैंड और मणिपुर राज्य शामिल हैं। यहां असमंजस की स्थिति यह है कि इस आदेश में माननीय न्यायालय ने सिर्फ 20j को ही बहस का मुद्दा घोषित किया है। हालांकि अधिकतर बड़े अखबारों ने इसी 20j के सहारे अपने कर्मचारियों से जबरन हस्ताक्षर करवा कर मजीठिया वेजबोर्ड लागू करने से बचने की नाकाम कोशिश की है। वहीं कई अखबारों ने इसके अलावा भी कई तरह के हथकंडे अपनाए हैं।

यह बात तो तय है कि मजीठिया वेजबोर्ड के पैरा 20j के प्रावधान वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को दरकिनार करके लागू किए गए हैं। इस पैरा का कम वेतन के लिए इस्तेमाल किए जाने के चलते निरस्त होना या व्याख्या होना तय है मगर इसके अलावा मैं जो अन्य तीन मुख्य खतरों की बात कर रहा हूं, ये खतरे हमारा पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं। अगर इन्हें भी 23 अगस्त से शुरू हो रही राज्यों की बैच आधारित सुनवाई के दौरान नहीं उठाया गया तो 20j पर मात खाने वाले अखबार इनको ढाल बनाकर केस उलझा सकते हैं। लिहाजा इनके बारे में अपने वकीलों के माध्यम से कोर्ट का ध्यान आकर्षित करने की जरूरत है। ये तीन मुद्दे इस प्रकार से हैं:-

1. सकल राजस्व की गणना में हेराफेरी

20j के बाद सबसे बड़ा इश्यू या मुद्दा सकल राजस्व/समाचार स्थापना की कुल वार्षिक आमदनी का है। अमर उजाला सरीखे अखबारों ने अपने सभी प्रकाशन केंद्रों या यूनिटों को सकल राजस्व को कम करने के लिए अलग-अलग बांट दिया है। इसके तहत जहां यह कंपनी सकल राजस्व के मामले में श्रेणी दो की समाचार स्थापना में आती थी, तो वहीं राजस्व के मामले में केंद्रों को विभाजित करके सभी यूनिटें श्रेणी पांच में डाल दी गईं। इससे वेतनमान की गणना इस तरह की गई कि नया वेतन पुराने वेतन के बराबर ही बने। हालांकि इसके चलते कुछ विभागों के नवनियुक्त कर्मचारियों को इसका कुछ फायदा हुआ, मगर अधिकतर पुराने कर्मचारी और खासकर संपादकीय विभाग के कर्मियों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ। अमर उजाला की इस हेराफेरी के खिलाफ मैंने हिमाचल प्रदेश श्रम विभाग में शिकायत की थी। इस पर समझौता वार्ता भी हुई। इसमें अमर उजाला ने इंडियन एक्सप्रेस बनाम भारत सरकार के वर्ष 1995 में आए एक निर्णय की प्रति दिखाकर श्रम विभाग को गुमराह करने की कोशिश भी की थी। जबकि वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट की धारा 10(4) 2(d) में स्पष्ट लिखा गया है कि वेजबोर्ड का निर्धारण समाचार स्थापना की सकल आय के आधार पर ही होगा। इतना ही नहीं इस आय में संबंधित समाचार स्थापना द्वारा अन्य प्रकार से अर्जित की गई आय भी शामिल होगी। वहीं एक्ट में शामिल शेड्यूट के तहत परिभाषित धारा 2डी में भी इस बारे में स्पष्ट किया गया है। अमर उजाला जैसे अखबार वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन करके यह झूठा दावा कर रहे हैं कि उन्होंने माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू कर दिया है। यह बात अभी तक माननीय कोर्ट के समक्ष नहीं उठाई जा सकी है। सारा मामला 20j पर ही घुमा कर रख दिया गया है।

2. नए या पुनरीक्षित वेतनमान में प्रारंभिक वेतनमान का निर्धारण

कई समाचारपत्र प्रतिष्ठानों ने नए या पुनरीक्षित वेतनमान में प्रारंभिक या बेसिक का निर्धारण करने में भी मजीठिया वेजबोर्ड के पैरा 20 के विभिन्न खंडों में किए गए प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए किया है। उदाहरण के तौर पर अमर उजाला ने पहले तो अपनी सभी यूनिटों को अलग-अलग बांट कर समाचार पत्र का सकल राजस्व कम दिखाया और श्रेणी दो के बजाय श्रेणी पांच में आकर वेतनमान की गणना की। इसके बाद नए वेतनमान के तहत बेसिक की गणना में भी हेराफेरी कर दी।

मजीठिया वेजबोर्ड में पुनरीक्षित यानि नए वेतनमान के तहत प्रारंभिक वेतन/बेसिक का निर्धारण करने का फार्मूला पैरा 20 में स्पष्ट तौर पर दिया गया है। इसके तहत प्रारंभिक वेतन यानि बेसिक की गणना पहले से कार्यरत कर्मचारी के 11 नवंबर 2011 से पूर्व मनीसाना वेजबोर्ड के तहत दिए जा रहे बेसिक, डीए और इस बेसिक पर दिए जा रहे 30 फीसदी अंतरिम राहत को जोड़ कर तय किया जाएगा। इन्हें वर्तमान परिलब्धियां / एग्जिस्टिंग अमोल्युमेंट्स कहा गया। अब सबएडिटर कम रिपोर्टर पद के तहत मुझे नवंबर, 2011 से पूर्व जो वेतन मिल रहा था। उसके आधार पर मेरी वर्तमान परिलब्धियां बेसिक 7345 + डीए 8111 + अंतरिम राहत 2204 रुपये जोड़ कर 17660 रुपये बन रही थीं।

अब पैरा 20 का खंड ग/c कहता है कि अगर पहले से तैनात कर्मी की वर्तमान आहरित परिलब्धियां मजीठिया वेजबोर्ड के तहत दिए गए वेतनमान के न्यूनतम से अधिक हैं, तो उसके बेसिक का निर्धारण पुनरीक्षित वेतनमान के अगले चरण में किया जाएगा। यानी नए वेतनमान के तहत नया बेसिक 17660 रुपये से अधिक बनना था, मगर अमर उजाला ने इस खंड के प्रावधान का उल्लंघन करते हुए 17660 से कहीं कम करते हुए 11275 रुपये कर दिया। इस तरह यहां भी हेराफेरी की गई। इसी तरह अन्य अखबारों ने भी इस खंड की गलत परिभाषा गढ़ कर कर्मियों से धोखा किया है।

3. डीए प्वाइंट का निर्धारण
मजीठिया वेजबोर्ड में डीए/महंगाई भत्ते का निर्धारण अखिल भारतीय औसत 167 अंकों के आधार पर तय करने का फार्मूला दिया है। वहीं अधिकतर समाचरपत्रों ने इस अंक को मनमाने तरीके से बढ़ाकर 189 कर दिया है। अमर उजाला ने इस प्रावधान का भी उल्लंघन किया है।
इस तरह मजीठिया वेजबोर्ड को माननीय सुप्रीम कोर्ट के सात फरवरी, 2014 के आदेशों के तहत लागू करने का झूठा दावा कर रहे अमर उजाला जैसे समाचारपत्रों ने कई तरीके से इसके प्रावधानों और माननीय अदालत के आदेशों का उल्लंघन किया है। ये सारी बातें मैंने श्रम विभाग हिमाचल के अधिकारियों के समक्ष पूरे साक्ष्यों व नियमों/प्रावधानों का हवाला देते हुए रखी थीं, मगर विभाग ने कोई कार्रवाई नहीं की।

संभावित आशंका
मौजूदा मामले में अवमानना के आरोपी बनाए गए देशभर के अखबारों ने मजीठिया वेजबोर्ड लागू न करके एक जैसा ही अपराध किया है, मगर यह अपराध अलग-अलग हथकंडे अपनाकर किया गया है। अब तक जो बात सामने आ रही है, उसमें महज पैरा 20जे ही उछाला जा रहा है। बाकी की उपरोक्त तीन बातों को कोर्ट के समक्ष नहीं लाया जा सका है। ऐसे में अगर 20जे के अलावा बाकी तीन मुद्दों को एक साथ नहीं उठाया गया तो मामला लंबा खिंचेगा। यह हो सकता है कि इसके तहत प्रभावित याचिकाकर्ता खुश हो जाएं, मगर वे यह बात जान लें कि उनके अखबार बाकी तीन मुद्दों का फायदा उठाकर मामले को उलझा सकते हैं। या यह भी हो सकता है कि बाकी मुद्दों को बाद में ध्यान में लाए जाने पर कोर्ट इन पर फिर से अलग-अलग राज्यों को बुलाकर सुनवाई करने को विवश हो जाए। इससे अनावश्यक देरी होगी। इससे होने वाली देरी से प्रताड़ित किए जा रहे कर्मियों की परेशानियां और बढ़ जाएंगी।

रविंद्र अग्रवाल (वरिष्ठ पत्रकार)
हिमाचल प्रदेश
संपर्क: 9816103265
mail: ravi76agg@gmail.com

मजीठिया: समझौतों को फरवरी 2014 के फैसले में खारिज चुका है सुप्रीम कोर्ट http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2016/07/2014.html






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Friday 22 July 2016

मजीठिया: एक्ट बड़ा ना कि वेजबोर्ड की सिफारिशें

नई दिल्ली। ‘एक्ट बड़ा है ना कि वेजबोर्ड की सिफारिशें’ ये बात माननीय सुप्रीम कोर्ट के 19 जुलाई 2016 के आदेश से साबित हो ही गई। कई दिनों से 20जे को लेकर कयास लगाए जा रहे थे कि अखबार मालिक 20जे का फायदा ले लेंगे। लेकिन अखबार के मालिक शायद ये भूल गए की 20जे का जनक कौन है? कहने का मतलब है कि 19 जुलाई के आदेश में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 20जे को लेकर जो बहस होगी वह Working Journalists Act -1955 में दिए गए संबंधित प्रावधानों के अनुसार ही होगी।

अदालत हमेशा कानून एवं एक्ट के अनुसार ही चलती है न की अखबार मालिकों की मनमर्जी से। मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशें वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 के अनुसार बनी हैं। एक्ट की धारा 13 बताती है कि केंद्र सरकार द्वारा वेजबोर्ड को लेकर जारी आदेश के बाद कोई भी संस्थान कर्मचारी को सिफारिशों में दर्शाई गई मजदूरी से किसी भी दशा में कम वेतन नहीं दे सकता।

धारा 16 स्‍पष्‍ट करती है कि यदि आप किसी भी वेजबोर्ड में निर्धारित न्‍यूनतम वेतनमान से ज्‍यादा वेतन प्राप्‍त कर रहे हैं तो यह आपके उस ज्‍यादा वेतन को प्राप्‍त करने के अधिकार की रक्षा करता है।

यानि कोई भी करार आपको ज्‍यादा से ज्‍यादा फायदा देने के लिए हो सकता है ना कि आपको न्‍यूनतम वेतनमान से वंचित करने के लिए। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं की 20जे का खौफ किस तरह बेवजह फैलाया जा रहा है।

वहीं, दूसरी ओर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारियों की तरफ से केस लड़ रहे वकीलों में से एक वरिष्‍ठ वकील कोलिन गोनसालविस की केस से संबंधित सभी मुद्दों पर एक विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने की प्रार्थना स्‍वीकार कर ली, ताकि माननीय अदालत द्वारा एक सही व प्रभावशाली आदेश पारित किया जा सके।

आपके हितों की रक्षक धारा 13 और 16 इस प्रकार हैं- 
[धारा 13 श्रमजीवी पत्रकारों का आदेश में विनिर्दिष्‍ट दरों से अन्‍यून दरों पर मजदूरी का हकदार होना-- धारा 12 के अधीन केंद्रीय सरकार के आदेश के प्रवर्तन में आने पर, प्रत्‍येक श्रमजीवी पत्रकार इस बात का हकदार होगा कि उसे उसके नियोजक द्वारा उस दर पर मजदूरी दी जाए जो आदेश में विनिर्दिष्‍ट मजदूरी की दर से किसी भी दशा में कम न होगी।]।


धारा 16- इस अधिनियम से असंगत विधियों और करारों का प्रभाव-- (1) इस अधिनियम के उपबन्‍ध, किसी अन्‍य विधि में या इस अधिनियम के प्रारम्‍भ से पूर्व या पश्‍चात् किए गए किसी अधिनिर्णय, करार या सेवा संविदा के निबंधनों में अन्‍तर्विष्‍ट उससे असंगत किसी बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे :
परन्‍तु जहां समाचारपत्र कर्मचारी ऐसे किसी अधिनिर्णय, करार या सेवा संविदा के अधीन या अन्‍यथा, किसी विषय के संबंध में ऐसे फायदों का हकदार है जो उसके लिए उनसे अधिक अनुकूल है जिनका वह इस अधिनियम के अधीन हकदार है तो वह समाचारपत्र कर्मचारी उस विषय के संबंध में उन अधिक अनुकूल फायदों का इस बात के होते हुए भी हकदार बना रहेगा कि वह अन्‍य विषयों के संबंध में फायदे इस अधिनियम के अधीन प्राप्‍त करता है।
(2) इस अधिनियम की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह किसी समाचारपत्र कर्मचारी को किसी विषय के संबंध में उसके ऐसे अधिकार या विशेषाधिकार जो उसके लिए उनसे अधिक अनुकूल है जिनका वह इस अधिनियम के अधीन हकदार है, अनुदत्‍त कराने के लिए किसी नियोजक के साथ कोई करार करने से रोकती है।       

-महेश कुमार
kmahesh0006@gmail.com


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Monday 18 July 2016

मजीठिया: समझौतों को फरवरी 2014 के फैसले में खारिज चुका है सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली। माननीय उच्चतम न्यायालय में मंगलवार को होने वाली अवमानना की अंतिम सुनवाई को लेकर कर्मचारी बेहद ही बेस्रबी से इंतजार कर रहे हैं, तो वही 20जे को लेकर भी उनके मन में कहीं न कहीं डर बैठा हुआ है। कर्मचारियों को इससे डरने की जरूरत नहीं हैं। अखबार प्रबंधन 20जे की गलत तरीके से व्याख्या करता आ रहा है, लेकिन माननीय कोर्ट को सब पता है। कुछ प्रमुख महत्वपूर्ण बिंदुओं को देखने के बाद शायद 20जे का डर आपके मन से निकल जाए।

1. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 के अनुसार बनी हैं। एक्ट की धारा13 बताती है कि केंद्र सरकार द्वारा वेजबोर्ड को लेकर जारी आदेश के बाद कोई भी संस्थान कर्मचारी को सिफारिशों में दर्शाई गई मजदूरी से किसी भी दशा में कम वेतन नहीं दे सकता। यहां ध्यान देने वाली बात है कि जब कानून कहता है कि मजदूरी आदेश में दर्शाई गई मजदूरी से किसी भी दशा में कम नहीं हो सकती, तो अखबार मालिक किस तरह कानून को धत्ता बता 20जे की गलत व्याख्या कर रहे हैं।

 2. वहीं, 20जे आखिर किनने के लिए है यह धारा 16 स्‍पष्‍ट करती है कि यदि आप किसी भी वेजबोर्ड में निर्धारित न्‍यूनतम वेतनमान से ज्‍यादा वेतन प्राप्‍त कर रहे हैं तो यह आपके उस ज्‍यादा वेतन को प्राप्‍त करने के अधिकार की रक्षा करता है। यानि कोई भी करार आपको ज्‍यादा से ज्‍यादा फायदा देने के लिए हो सकता हैए नाकि आपको न्‍यूनतम वेतनमान से वंचित करने के लिए। अब आप स्वयं जान सकते हैं कि 20जे क्या है।

3. अब एक महत्वपूर्ण बात अखबार मालिकों ने कर्मचारियों के हित के लिए बनने वाले वेजबोर्डों को ही जड़ से समाप्त करने के लिए रिट पीटिशन सिविल संख्या 246/2011 लगाई थी। इस याचिका में अखबार मालिकों ने वेजबोर्ड को समाप्त करने के लिए एक से एक तर्क रखे थे।

माननीय उच्चतम न्यायालय के 7 फरवरी 2014 के आदेश में इन तर्कों का उल्ल्लेख पैरा 13 में है। इसमें चार बिंदुओं पर रोशनी डाली गई है। जिसमें से पैरा13 बी के अनुसार अखबार मालिकों ने माननीय उच्चतम न्यायालय को ये बताया था कि हमारा बड़ी संख्या में पत्रकारों से द्विपक्षीय समझौता व बातचीत हो गई है और हम कर्मचारियों को वेज सैलरी व क्षतिपूर्ति पैकेज प्रदान कर रहे हैं।

SC order 7 Feb 2014 page No. 13 and para 13 (b):-
(b) Through bilateral negotiations and discussions, the petitioners have entered into contracts with a vast majority of journalists and offered them wages, salaries and compensation package to retain top class talent.


7 फरवरी 2014 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अखबार मालिकों की याचिका को खारिज कर दिया। याचिका खारिज होते ही सुप्रीम कोर्ट में दायर अखबार मालिकों के वेजबोर्ड खारिज करने के तर्क भी खारिज हो गए। जिसमें पैरा 13बी जोकि कर्मचारी से समझौते को लेकर था वह भी शामिल है।

अब इसमें दो राय नहीं है कि माननीय सर्वोच्च न्यायलय मंगलवार को सिर्फ अवमानना की ही सुनवाई करेगी और कोई तर्क माननीय अदालत के लिए मायने नहीं रखता।
-महेश कुमार


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Sunday 17 July 2016

मजीठिया: तारीख नहीं फैसला, सजा दिलाने के साथ मिले पैसा, काउंट डाउन शुरू

नई‍ दिल्‍ली। फैसले की घड़ी आ चुकी है और काउंट डाउन शुरू हो चुका है। समाचार पत्रों में काम करने वाले कामगार पत्रकार और गैर पत्रकार खासे उत्साहित हैं। जिन लोगों ने माननीय सुप्रीम कोर्ट में केस किया है सिर्फ वही नहीं बल्कि जिन लोगों ने केस नहीं किया है वह भी अब फैसले का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। सभी लोग 19 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई और फैसले की तरफ टककटी लगाए हुए हैं। कामगारों को जहां भरोसा है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट में उन्हें न्याय मिलेगा वहीं समाचार पत्र मालिकों को कोर्ट के कोपभाजन बनने का डर सता रहा है। उनकी धड़कनें तेज है कि कहीं सुप्रीम कोर्ट उन्‍हें जेल ना भेज दे।

हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से फैसले सुनाए हैं उससे यही संकेत मिलता है कि गलत करने वालों को सजा अवश्‍य मिलेगी भले ही वह कितना भी ताकतवर क्यों ना हो और वे किसी तरह से भी दवाब बनवाने की कोशिश कर ले विफलता हाथ लगेगी। समाचार पत्र मालिकान इस तथ्य से भली भांति अवगत हैं कि वह भले ही सरकार में नुमाइंदगी करने वाले या फिर पूर्व में मंत्री रह चुके नामचीन वकीलों की लंबी चौड़ी फौज क्यों ना खड़ी कर लें सुप्रीम कोर्ट के न्याय के तराजू का पलड़ा हर हाल में सच के पक्ष में झुकेगा।

लेकिन कहते हैं कि सत्ता और पैसे का नशा सिर चढ़कर बोलता है और करोड़ों अरबों में खेलने वाले समाचार पत्र मालिकान के सिर से नशा इतनी आसानी से नहीं उतरेगा। यह नशा इमली या फिर नींबू चटाने से भी नहीं उतरेगा। यह नशा सिर्फ और सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की चाबुक से उतरेगा। लेकिन यहां यह स्पष्‍ट करना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट से कामगारों को न्याय दिलाने के लिए उनके वकीलों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। अपने हक के लिए कामगार संघर्ष तो कर सकते हैं और केंद्र व राज्‍यों सरकारों तक अपनी बात बेहतर तरीके से पहुंचा सकते हैं। परंतु जब कानूनी दांवपेंच की बात आती है तो कोर्ट में उनका वकील ही उनके लिए भगवान से कम नहीं होता। ऐसे में कामगारों के वकीलों की नैतिक जिम्मेदारी कहीं ज्‍यादा बढ़ जाती है।

माननीय सुप्रीम कोर्ट में अदालत की अवमानना का मुकदमा चल रहा है। यह गंभीर किस्म का अपराध है और इसकी सजा जेल भी हो सकती है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका सहित कई समाचार पत्र के मालिक 20जे की आड़ लेने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि इस तथ्य से हम सभी भली भांति अवगत हैं कि 20जे कोई मुददा नहीं है और सुप्रीम कोर्ट की पिछली सुनवाई इसका बेहतरीन उदाहरण है। वर्किंग जनलिस्ट एक्ट की धारा 13 में स्पष्‍ट रूप से लिखा है कि न्यूनतम वेतन से कम भुगतान किसी भी दशा में नहीं हो सकता है। वर्किंग जनर्लिस्ट एक्ट की धारा 16 और rule 38 में भी कहा गया है कि यदि कहीं कोई विवाद होता है तो वह बात मान्य होगी जो कर्मचारियों के लिए फायदेमंद होगी। दरअसल मजीठिया वेजबोर्ड की धारा 20जे उन कर्मचारियों के लिए है जो मजीठिया वेतनमान से अधिक तनख्वाह पा रहे हैं। मजीठिया वेजबोर्ड रिपोर्ट की पैरा 20 की सभी क्लाज को पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि वेजबोर्ड की सिफारिशों में दिए गए न्यूनतम वेतन से किसी भी दशा कम वेतन नहीं दिया जा सकता और अधिक वेतन पाने वाले 20जे के तहत अपने अधिकार की रक्षा कर सकते हैं। 20जे के तहत वही पत्रकार समझौता कर सकते हैं जिनका वेतन अधिक है। गौर करने वाली बात यह है कि जिनकी तनख्वाह मजीठिया वेतनमान से कम है वह चाहकर भी 20जे के तहत कोई समझौता नहीं कर सकते हैं।

हमारे कई साथी बार-बार सोशल मीडिया के माध्‍यम से 20जे पर अपने डर को दर्शाते रहते हैं। उन साथियों से हमारा अनुरोध है 20जे पर प्रबंधन या उनके चमचों द्वारा फैलाए जा दुष्‍प्रचार के प्रभाव में ना आएं। 20जे कोई हौव्‍वा नहीं है यह केवल आपका मनोबल तोड़ने की चाल है। पत्रकारों को बु़द्धिजीवी वर्ग माना जाता है। ऐसे में पत्रकारों को गुमराह होने से बचना चाहिए। कर्मचारियों के वकील अपनी नैतिक जिम्मेदारी को बेहतर ढंग से समझते हैं, उन्‍हें लंबे समय से संघर्ष कर रहे और कंपनियों के उत्‍पीड़न का शिकार होकर सड़क पर घूम रहे सैकड़ों बेरोजगार कामगारों की पीड़ा का भी पूरी तरह से अहसास है। वे भी जानते हैं कि कामगार अब कोई नई तारीख नहीं चाहते हैं और इसी तारीख को फैसला चाहते हैं, जोकि कामगारों के हित में भी है। साथ ही वे कानून के अनुसार मालिकों को सजा होते हुए भी देखना चाहते हैं। जहां तक कर्मचारियों को मजीठिया वेतनमान के बकाया पैसे मिलने का सवाल है तो वह माननीय सुप्रीम कोर्ट मालिकों की संपत्ति जब्त कराकर भी दिलाएगा। कर्मचारियों को माननीय सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ अपने वकीलों पर भी पूरा भरोसा है।

[मजीठिया की जंग लड़ रहे पत्रकार]





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मजीठिया: 20जे तो याद, परंतु नई भर्ती को भूले, अवमानना तो हुई है

नई‍ दिल्‍ली। साथियों, ज्‍यादातर राज्‍यों की रिपोर्ट आ गई हैं। इनमें उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड की तरह कई राज्‍यों ने अखबार मालिकों को बचाने के लिए 20जे की आड़ देने की कोशिश की है। जिनमें दर्शाया गया है कि कर्मचारियों ने 20जे को अपनाया हुआ है और 20जे के तहत वहां मजीठिया वेजबोर्ड की अनुशंसाएं लागू हैं। परंतु उन राज्‍यों के श्रमअधिकारियों ने मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशें लागू होने के बाद भर्ती होने वाले नए कर्मियों के वेतनभत्‍तों को लेकर कोई जांच नहीं की और न ही उन कर्मियों का कहीं कोई जिक्र किया।

यह रिपोर्ट एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के आंखों में धूल झोंकने की तरह है। क्‍योंकि सिफारिशें लागू होने के बाद भर्ती होने वाले कर्मियों चाहें वे स्‍थायी हो या ठेके पर या अंशकालिक उनको भी न्‍यूनतम वेतनमान के अनुसार वेतन नहीं मिल रहा। वे भी न्‍यूनतम वेतनमान से कहीं कम पर काम कर रहे हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तो अवमानना हुई ही है। बस अब इंतजार है तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णायक फैसले का।

हम यहां उत्‍तराखंड की रिपोर्ट का उदाहरण दे रहे हैं जिसमें उसने दैनिक जागरण के संदर्भ में लिखा है- कर्मी 20जे में उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार 3 सप्‍ताह के अंदर अपनी सहमति व्‍यक्‍त कर चुके हैं। जिसमें उनके द्वारा प्रतिष्‍ठान में पूर्व में लागू वेतन भत्‍तों को बनाए रखने का विकल्‍प दे दिया गया था। कर्मियों द्वारा प्राप्‍त किए जा रहे वेतन व मजीठिया वेजबोर्ड की संस्‍तुतियों में कोई विसंगति नहीं है। अत: मजीठिया वेजबोर्ड की अनुशंसा भारत सरकार की अधिसूचना के अनुरुप लागू है।




साथियों, आपको इस तरह की रिपोर्टों से परेशान होने की जरुरत नहीं है। राज्‍य सरकारों ने भले ही 20जे की आड़ में कुछ खास अखबारों को बचाने की कोशिश की हो। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में आखिर न्‍याय की ही जीत होगी। सुप्रीम कोर्ट के 14 मार्च 2016 के आदेश से भी स्‍पष्‍ट होता है कि उसको इन तथ्‍यों की पूरी जानकारी है कि अखबार मालिक कैसे कर्मियों को मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों से प्राप्‍त हक को छलपूर्ण तरीकों से वंचित रखना चाहते हैं और इसके लिए विभिन्‍न हथकंडे अपना रहे हैं। इसलिए उसने कर्मियों को लेबर कमिशनरों के पास जाने का निर्देश दिया था।

साथियों, हम एक बार फि‍र से आपको बता रहे हैं कि 20जे कहीं भी वेजबोर्ड की सिफारिशों के अनुसार न्‍यूनतम वेतनमान पाने के आपके हक के आड़े नहीं आ रहा है। क्‍योंकि वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट 1955 की धारा 13 में स्‍पष्‍ट उल्‍लेख है कि कर्मचारियों को आदेश में विनिर्दिष्‍ट मजदूरी की दर से किसी भी दशा में कम मजदूरी नहीं दी जा सकती हैं।
[धारा 13 श्रमजीवी पत्रकारों का आदेश में विनिर्दिष्‍ट दरों से अन्‍यून दरों पर मजदूरी का हकदार होना-- धारा 12 के अधीन केंद्रीय सरकार के आदेश के प्रवर्तन में आने पर, प्रत्‍येक श्रमजीवी पत्रकार इस बात का हकदार होगा कि उसे उसके नियोजक द्वारा उस दर पर मजदूरी दी जाए जो आदेश में विनिर्दिष्‍ट मजदूरी की दर से किसी भी दशा में कम न होगी।]।

साथियों, एक बात और एक्‍ट बड़ा होता है, नाकि वेजबोर्ड। क्‍योंकि एक्‍ट के द्वारा ही वेजबोर्ड का गठन होता है।

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई को अब मात्र एक दिन बचा है। सुप्रीम कोर्ट दूध का दूध और पानी का पानी करेगा। इसी शुभकामना के साथ।
सत्‍यमेव जयते।

(दैनिक भास्‍कर के एक पत्रकार साथी से प्राप्‍त तथ्‍यों पर आधारित)






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Wednesday 13 July 2016

MAJITHIA: Action Taken Report of Rajasthan speaks more about its inaction

Govt. of Rajasthan has yesterday filed ‘Action Taken Report’ on the implementation of the Majithia Wage Board Award in the Supreme Court. The State Government had earlier filed a status report, which contained the appointment of the Labour Inspectors and the submissions of employers and employees. In this report the State Government has informed that notices were issued to 893 newspaper establishments out of it 298 were daily newspapers, 220 weekly newspapers, 358 fortnightly newspapers and 17 monthly newspapers. As a matter of fact, this humongous exercise of the Public Relations Department has created more confusion than clarity with regard to the implementation by the newspaper owners and steps taken by the State Government to accelerate the implementation process.

Needless to state, that the major grievance has been mainly against two top newspapers of the state like, Rajasthan Patrika and Dainik Bhaskar. Their owners are the main culprits, who have been circumventing the implementation of the Award with every fair and foul means. These two newspapers have used every weapon in their armory to deny and deprive the wages and allowances to their employees. Employees have been threatened, oppressed, intimidated, harassed, victimized and illegally terminated for demanding the Majithia Award. The ‘Welfare State’ should have thrown its full weight behind the employees to bring the recalcitrant managements to kneels to get the Award implemented but nothing of the sort has been done. The State Government is content with simply initiating prosecution of the employers on the complaint of the employees, which is time consuming process. This process ultimately favours employers than employees, who do not have the capacity to sustain for long. Why, at all, the notices were issued to such a large number of establishments, is beyond any body’s comprehension.

The Action Taken Report also tells that the cases of 250 employees of Dainik Bhaskar have been referred to the Labour Court for the adjudication; out of it 34 employees have been already terminated from its Jaipur unit itself. Scores of employees from other units of the newspaper have also been terminated or transferred but there is no mention of it in the Action Taken Report.
Similarly, the cases of 190 employees of Rajasthan Patrika’s Jaipur unit have been referred to the Labour Court for adjudication. The report is silent about the pathetic condition of its employees at other publication centres.
In all, the ‘Action Taken Report’ has hardly revealed any action taken by the Government to ensure the implementation of the Award. The implementation is the responsibility of the State Government and, in all fairness; the minimum the Government could have done was to stop the advertisements of all such newspapers, which have failed to comply with the notification of the Award, upheld by the Hon’ble Supreme Court of India. Thus, in a way, the action of the government does not cover itself with any glory but it is also as dark and disappointing as those of the oppressive action of the newspaper proprietors.

Parmanand Pandey
Secretary General-IFWJ



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Monday 11 July 2016

मजीठिया: वाह...!!! री उत्‍तराखंड सरकार... सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले ही कर दी जांच! एरियर व बर्खास्‍तगी के मामले गोल...!

नई‍ दिल्‍ली। उत्‍तर प्रदेश के बाद अब उत्‍तराखंड सरकार की रिपोर्ट भी सवालों के घेरे में आ गई है। 14 मार्च 2016 को सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के बाद रिपोर्ट जमा करवाने वाले उत्‍तराखंड के श्रम अधिकारी तो जैसे त्रिकालदर्शी हैं। इसलिए उन्‍होंने सुप्रीम कोर्ट के 28 अप्रैल 2015 के आदेश आने के पहले ही दैनिक जागरण के देहरादून और हल्‍द्वानी स्थित यूनिटों में मजीठिया आयोग की सिफारिशों को लेकर 3 मार्च 2015 को ही जांच कर ली थी। मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रैल 2015 को सभी राज्‍यों से मजीठिया वेजबोर्ड की संस्‍तुतियों को लागू करने की रिपोर्ट मांगी थी। वहीं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के 20 दिनों के भीतर ही 15 मई 2015 को अमर उजाला की यूनिट की जांच की गई।






इसको तो देखते हुए लगता है कि उत्‍तराखंड के श्रमअधिकारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पालना के लिए कितने तत्‍पर हैं। परंतु सच्‍चाई तो यही लगती है कि उन्‍होंने अपना होमवर्क ढंग से नहीं किया और इस रिपोर्ट के माध्‍यम से कहीं न कहीं बड़े मीडिया घरानों को अवमानना के केस से बचाने की कोशिश है! गलतियों या मानवीय भूलों व लापरवाही से भरी इस रिपोर्ट में बर्खास्‍त कर्मियों व एरियर क्‍लेम करने वालों का कहीं जिक्र नहीं है। जबकि 14 मार्च 2016 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में भी रिपोर्ट मांगी थी। दिल्‍ली व राजस्‍थान की रिपोर्ट में इनका जिक्र किया गया है, तो उत्‍तराखंड की रिपोर्ट में क्‍यों नहीं।

बड़े मीडिया घरानों को बचाती हुई लग रही इस रिपोर्ट की कुछ खामियां इस तरह हैं-
1. जांच की सही तिथि क्‍या है, यदि यह 2016 में कई गई है तो जांच में इतनी देरी क्‍यों की गई। सुप्रीम कोर्ट के 28 अप्रैल के आदेश के अनुसार जांच रिपोर्ट समय से क्‍यों नहीं सौंपी गई। जब 14 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम चेतावनी देते हुए रिपोर्ट पेश न करने पर 11 राज्‍यों के मुख्‍य सचिवों को तलब करने का आदेश दिया, तो ही इसके बाद रिपोर्ट क्‍यों पेश की गई, इससे पहले नहीं पेश की जा सकती थी। (So far as the States of Uttar Pradesh(partial), Uttarakhand, Odisha, West Bengal, Telangana, Andhra Pradesh, Karnataka, Tamil Nadu, Kerala, Goa and Assam are concerned, we direct that the reports in terms of this Court's Order dated 28th April, 2015 be filed on or before the 5th July, 2016, failing which the Chief Secretaries of the States will appear in-person on 19th July, 2016. Objections, if any, to such reports as may be filed shall be brought on record on or before 12th July, 2016.)

2. 20जे की आड़ में बड़े मीडिया घरानों को बचाने की कोशिश! जबकि सही मायनों में 20जे कहीं भी मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार न्‍यूनतम वेतनमान प्राप्‍त करने के कर्मियों के अधिकार के आड़े नहीं आ सकता। क्‍योंकि पत्रकार के लिए बने विशेष एक्‍ट की धारा 13 व 16 पत्रकारों और गैर-पत्रकारों के न्‍यूनतम वेतन के अधिकार की रक्षा करती है। जिसकी श्रमअधिकारियों ने अनदेखी की और 14 मार्च के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी लगता है ध्‍यान से नहीं पढ़ा।

3. 14 मार्च को दिए गए आदेश के संदर्भ में एरियर क्‍लेमों व बर्खास्‍तगी और उत्‍पीड़न के मामलों का कहीं कोई जिक्र नहीं।

4. 1 दिसंबर 2011 के बाद भर्ती कर्मियों को मजीठिया का लाभ मिल रहा है या नहीं इसका कहीं कोई जिक्र नहीं। (20 जे में केवल तीन सप्‍ताह यानि 11 नवंबर 2011 से 30 नवंबर 2011 तक के बीच का ही जिक्र है।) 

5. मजीठिया के अनुसार ठेके वाले व अंशकालिक कर्मियों का जिक्र नहीं।

6. ग्रेड को लेकर जांच में कमी। जागरण और अमर उजाला को ग्रेड 5 में दिखाना। इसके लिए इन्‍हें दिल्‍ली सरकार से सबक सिखाना चाहिए था जिसकी रिपोर्ट जागरण के सही टर्नओवर का जिक्र करते हुए उसे ग्रेड 1 का बताया गया है। तो क्‍यों नहीं उत्‍तराखंड के श्रमअधिकारियों द्वारा अपनी तरफ से कुछ प्रयास नहीं किए गए और रिपोर्ट में इनकी सही ग्रेडिंग यानि  क्रमश: 1 और 2 क्‍यों नहीं दर्शाया गया। जैसा की आपको पहले भी जानकारी दी गई है वेजबोर्ड व जर्नलिस्‍ट एक्‍ट के अनुसार एक ही ग्रुप की कन्‍याकुमारी से लेकर कश्‍मीर तक सभी यूनिटों का ग्रेड एक होगा। उत्‍तराखंड में स्थित जागरण व अमर उजाला की यूनिटें भी क्रमश: ग्रेड 1 और 2 में ही आएंगी। (कोई साथी चाहे तो वकील से राय लेकर इन दोनों समाचारों को सरकारी तंत्र के माध्‍यम से सुप्रीम कोर्ट तक गलत जानकारी पहुंचाने के मामले में केस भी दर्ज करवा सकता है!)

(यदि आपने 30 नवंबर 2011 के बाद किसी संस्‍थान को ज्‍वाइन किया और आपको वेजबोर्ड के अनुसार वेतन नहीं मिल रहा या आपने एरियर क्‍लेम कर रखा है या आपका बर्खास्‍तगी या उत्‍पीड़न से जुड़ा कोई मामला डीएलसी में या सक्षम प्राधिकरण के समक्ष है तो आप अवमानना का केस लड़ रहे कर्मचारियों के वकीलों को 18 जुलाई से पहले इन तथ्‍यों की जानकारी दे सकते हैं।) 

(उत्‍तराखंड के एक पत्रकार साथी से प्राप्‍त तथ्‍यों पर आधारित)



हमें क्यों चाहिए मजीठिया भाग-17A: उमर उजाला के साथी इसे जरुर पढ़े-1 http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2016/02/17a-1.html

हमें क्यों चाहिए मजीठिया भाग-17B: उमर उजाला के साथी इसे जरुर पढ़े-part2 http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2016/02/17b-part2.html

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यदि हमसे कहीं तथ्यों या गणना में गलती रह गई हो तो सूचित अवश्य करें।(patrakarkiawaaz@gmail.com)

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