Wednesday 30 September 2020

मोदी ने मीडियाकर्मियों के अधिकारों का कैसे किया पूर्ण सत्यानाश, विस्तार से पढ़िए-समझिए

-रविंद्र अग्रवाल–

श्रम सुधार के नाम पर मोदी सरकार ने अखबार मालिकों के साथ मिलकर श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के वैधानिक अधिकारों का एक तरह से गैंगरेप कर डाला है। पहले से ही मजीठिया वेजबोर्ड की नौ वर्ष से चली आ रही लड़ाई में कठिन आर्थिक हालातों के बावजूद पूरी रसद के साथ लड़ रहे श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों की पीठ में केंद्र सरकार ने जो छूरा घोंपा है, उसकी पीड़ा से निजात पाने के लिए फिर से एक और कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

नए कानूनों में जहां श्रमजीवी पत्रकार की हालत एक दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर कर दी गई है, तो वहीं अन्य अखबार कर्मचारियों को भी आम मजदूरों की श्रेणी में ला खड़ा किया गया है। वो भी तब जबकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद पहली बार हजारों की संख्या में श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी अपने संशोधित वेतनमान और एरियर के लिए अखबार मालिकों के जुल्‍मोसितम सहते हुए पिछले नौ वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ने को एकजुट हुए थे।

हमारी इस एकता को 56 इंच के सीने वाली मोदी सरकार का सीना झेल नहीं सका और अखबार मालिकों के घड़ियाली आंसूओं और चापलूसी के सामने सिकुड़ गया। ऐसे में एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत श्रम सुधारों के नाम पर श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को विशेष अधिकार, केंद्रीय कर्मचारियों के समान वेतनमान और अन्य विशेष रियायतें देने वाले अधिनियमों को ही खत्म कर दिया गया। श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 विधेयकों की रचना एक श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारी को अन्य श्रमिकों से अलग दर्जा, वेतन और विशेष कानूनी अधिकार देने के लिए की गई थी, ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव ना हिलने पाए और पत्रकारिता के प्रोफेशन को पूंजीपतियों की रखैल मात्र बनकर ना रहना पड़े।

हालांकि प्रिंट मीडिया में कार्पोरेट कल्चर आने के बाद से खासकर श्रमजीवी पत्रकार काफी कठिन दौर से गुजर रहे हैं और अब तक किसी भी पार्टी या विचारधारा की सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। ऐसे में जब 56 इंच का सीना होने का दावा करने वाली मोदी सरकार से उपरोक्त श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों में संशोधन करके इन्हें और मजबूत करने की उम्मीद की जा रही थी तो इस सरकार ने इस पर मेहनत करने के बजाय इस मर्ज को जड़ से उखाड़ने के लिए पत्रकारिता के हाथ ही कलम कर दिए हैं।

खासकर अनुबंध अधिनियम के तहत श्रमजीवी पत्रकारों के भविष्य को असुरक्षित करके रख दिया गया था। इस पर रोक लगाने की मांग लंबे अर्से से की जा रही थी। अब हालत यह हो गई है कि अखबार मालिक नए श्रम नियमों के तहत एक श्रमजीवी पत्रकार को कभी भी सड़क पर ला सकते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना में काम करने वाला अन्य कर्मचारी अचानक नौकरी चले जाने पर एक आम मजदूर की तुलना में रोजगार ही प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आम मजदूर को तो कहीं भी मजदूरी करके परिवार चलाने के साधन मौजूद हैं, मगर श्रमजीवी पत्रकार और अखबारों में काम करने वाले अन्य कर्मचारियों के परिवारों के लिए तो भूखों मरने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचेगा।

अगर ऐसा नहीं है तो उपरोक्त अधिनियमों को समाप्त करने वाली मोदी सरकार और उसके अधिकारी ही बताएं कि एक श्रमजीवी पत्रकार और अन्य अखबार कर्मचारी के लिए नौकरी जाने के बाद परिवार चलाने को क्या-क्या विकल्प होंगे।

उधर, मौजूदा परिस्थिरतियों में जबकि प्रिंट मीडिया को चुनौती देने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया दस्तक दे चुका है, तो ऐसे में उपरोक्तर अधिनियमों को और सशक्त बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी।

श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठन लंबे अर्से से इन अधिनियमों में इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार कर्मचारियों को भी शामिल करने की मांग करते आ रहे थे। इन्हें नए श्रम कानूनों में जगह तो दे दी गई, मगर विशेषाधिकार समाप्त करने के कारण इसके कोई मायने ही नहीं बचे हैं। वहीं इन अधिनियमों के उल्लंघन पर सख्त प्रावधान करने की भी जरूरत थी, जो किए भी गए हैं, मगर नेकनीयती से नहीं। वहीं श्रमजीवी पत्रकारों की ठेके पर नियुक्तियों को रोकना भी जरूरी समझा जा रहा था, मगर ऐसा करके सरकार अखबार मालिकों को नाराज नहीं करना चाहती, भले ही लाखों अखबार कर्मचारी और उनके परिवार सरकार से नाराज हो जाएं। ऐसे में अधिनियमों  को सशक्त बनाने के बजाय समाप्त करने का निर्णय केंद्र सरकार की बदनीयती को ही दर्शा रहा है।

यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अखबारों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकार और अन्य कमर्चारी आम मजदूरों से अलग परिस्थितियों में काम करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को अखबार मालिकों की याचिकाओं पर सुनाए गए अपने फैसले (इससे पूर्व के फैसलों सहित) में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि अखबार कर्मचारियों को आम श्रमिकों से अलग परिस्थितियों, खास विशेषज्ञता और उच्च दर्जें के प्रशिक्षण के साथ काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें वेजबोर्ड की सुरक्षा के साथ ही इस बात का भी ख्याल रखना जरूरी है कि समाज की दिशा और दशा तय करने वाले पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों की जीवन शैली कम वेतनमान के कारण प्रभावित ना होने पाए।

नए श्रम कानूनों में सभी विशेष अधिकार समेटे गए

मोदी सरकार के नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा कोई भी विशेष प्रावधान नहीं शामिल किया है, जो उन्हें उपरोक्त दो अधिनियमों में दिया गया था। इसमें खासकर हर दस वर्ष की अवधि के बाद वेजबोर्ड का गठन, छंटनी की स्थिति में विशेष प्रावधान, काम के घंटे, छुट्टियों की व्यवस्था, पहले से घोषित वेतनमान ना दिए जाने पर बिना किसी समयसीमा के रिकवरी की व्यवस्था और संशोधित वेमनमान के तहत एरियर लंबित होने पर नौकरी से ना हटाए जाने की व्यवस्था शामिल हैं। नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना की परिभाषा तो शामिल की गई है, मगर बाकी सभी विशेष अधिकार छीन लिए गए हैं।

पूर्व के वेजबोर्डों के तहत बकाए की रिकवरी का प्रावधान नहीं

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955 निरस्त किए जाने के साथ ही अब इसकी रिकवरी की धारा 17 भी निष्प्रभावी हो जाएगी। ऐसे में नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्तााक्षर होते ही माननीय सुप्रीम कोर्ट के 19 जून, 2017 के फैसले के तहत मजीठिया वेजबोर्ड के तहत संशोधित वेतनमान के एरियर की रिकवरी का वाद (नए मामलों में) दायर करने के लिए कोई प्रावधान ही नहीं बचेगा, क्योंकि नए श्रम कानूनों में पूराने मामलों में रिकवरी के लिए आवेदन करने की व्यवस्था ही नहीं है। मोदी सरकार द्वारा पहले ही पारित की जा चुकी श्रम संहिता 2019 के प्रावधानों के तहत ही रिकवरी की व्यवस्था की गई है। इसमें सिर्फ न्यूनतम वेतनमान के मामलों में दो वर्ष के भीतर रिकवरी के लिए आवेदन करने का प्रावधान है।

ऐसे में जो अखबार कर्मचारी यह सोच कर मजीठिया वेजबोर्ड के तहत रिकवरी नहीं डाल रहे थे कि पहले से लड़ रहे साथियों का फैसला आने पर उन्हें भी घर बैठे नोटों का बैग मिल जाएगा, वो अब कहीं के भी नहीं रहे हैं। इनके लिए अब रिकवरी का केस डालने का अवसर तब तक के लिए ही बचा है, जब तक कि नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर नहीं हो जाते। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जिन साथियों ने रिकवरी के केस डीएलसी के पास डाल दिए हैं या जिनके विवाद लेबर कोर्ट में लंबित हैं, उन्हें नए श्रम कानूनों के तहत कोई नुकसान नहीं होने वाला है। उनके ये लंबित विवाद नए कानूनों के तहत गठित होने वाले नए इडंस्ट्रिनयल ट्रिब्यूनल में स्वत: ही शिफ्ट हो जाएंगे।


वेजबोर्ड नहीं अब न्यूनतम मजदूरी पर पलेंगे अखबार कर्मचारी

नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को अब तक मिले वेजबोर्ड के अधिकार को ही समाप्त कर दिया गया है। वो भी ऐसे समय में जबकि मजीठिया वेजबोर्ड के लिए हजारों अखबार कर्मचारी अपनी नौकरी गंवा कर श्रम न्यायालयों में लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि अखबार मालिकों ने कभी भी अपनी मर्जी से कोई भी वेजबोर्ड को अक्षरश: लागू नहीं किया है और हर बार इसे माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर मुंह की खाई है।

अखबार मालिक शुरू से ही खासकर वेजबोर्ड को लेकर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों को निरस्त करवाने की कोशिशों में जुटे रहे हैं, मगर किसी भी सरकार ने उनके इस मंसूबे का समर्थन नहीं किया था। मोदी सरकार ने उनकी इस मंशा को पूरी करते हुए यह कलंक अपने माथे सजा लिया है और अब उसे इसका खामियाजा भुगतने को तैयार रहना होगा। नए कानूनों में मोदी सरकार ने श्रमजीवी पत्रकारों को न्यूानतम मजदूरी तय करने के लिए एक कमेटी का गठन करने का लॉलीपाप भी दिया है, जो हाथी से उतारकर गधे की सवारी करवाने के समान है। ऐसा इसलिए क्योंकि श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के लिए पहले लीविंग वेजेज के तहत वेजबोर्ड का गठन होता था, जो केंद्रीय कर्मचारियों के समान था। अब मिनिमम वेजेज के सिद्धांत पर दिहाड़ी मजदूरों की तर्ज पर न्यूनतम वेतन तय होगा। वह भी सिर्फ श्रमजीवी पत्रकारों के लिए। अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा प्रावधान कहीं नजर नहीं आ रहा है।


देश के स्वततंत्र होते ही शुरू हुआ था चिंतन, अब सजा दी चिता

खासकर श्रमजीवी पत्रकारों के काम के जोखिम और विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें पूंजीपतियों का बंधुआ बनने से रोकने और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने को लेकर देश के आजाद होते ही चिंतन शुरू हो गया था। पहले अखबारों का प्रकाशन और संचालन व्यक्तिगत तौर पर समाज चिंतक, देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल सेनानी और प्रबुद्ध पत्रकार करते थे। आजादी के बाद जैसे ही पूंजीपतियों या उद्योगपतियों ने अखबारों को व्यवसाय के तौर पर संचालित करना शुरू किया तभी से पत्रकारों के वेतनमान, काम के घंटों और बाकी श्रमिकों से अलग विशेषाधिकार देने की मांग उठनी शुरू हो गई।

इसे देखते हुए पहली बार वर्ष 1947 में गठित एक जांच समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, फिर 27 मार्च 1948 को ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार (Central Provinces and Berar) प्रशासन ने समाचारपत्र उद्योग के कामकाज की जांच के लिए गठित जांच समिति ने सुझाव दिए और 14 जुलाई 1954 को भारत सरकार द्वारा गठित प्रेस कमीशन ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी थी। इसके अलावा एक अप्रैल 1948 को जिनेवा प्रेस एसोसिएशन और जिनेवा यूनियन आफ न्‍यूजपेपर पब्लिसर्श ने 01 अप्रैल 1948 को एक संयुक्त समझौता किया था। इस तरह व्यापक जांच और रिपोर्टों के आधार पर तत्कालीन भारत सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार व अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को लागू किया था। इतना ही नहीं भारत के संविधान के अनुच्छेद 43 (राज्य के नीति निदेशक तत्व) के तहत भी उपरोक्त दोनों अधिनयम संवैधानिक वैधता रखते हैं। ऐसे में इन विधेयकों को इस तरह चोरीछिपे लागू करवाना असंवैधानक है और इसे हर हालत में माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की जरूरत है। इसके लिए हमारी यूनियन के अलावा अन्य यूनियनें भी प्रयासों में जुट गई हैं।

Sunday 27 September 2020

कितना खतरनाक है नया संशोधित श्रम कानून, पढ़ें

श्रम कानून में संशोधन से बंधुवा मजदूरी को बढ़ावा मिलेगा: अजय मुखर्जी

अब दुकान कर्मचारी की भंति पत्रकारों को सिर्फ मंहगाई भत्ता दिया जाएगा, छंटनी भी बढ़ेगी

केन्द्र सरकार द्वारा श्रम कानूनों में संशोधन को कोविड -19 की महामारी के समय चोरी छिपे लाकर बिना प्रश्नोउत्तरी के पेश कर बिना बहस के पास करवाना श्रम कानूनों के जरिए मिले सामाजिक सुरक्षा की हत्या करने के समान है।

वर्षों से प्राप्त श्रमिकों के अधिकार को इस संशोधन बिल 2020 के जरिये समाप्त कर दिया गया। वर्तमान श्रम संशोधन बिल 2020 में 300 कर्मचारी के नीचे के किसी भी संस्थान को बन्द करना मालिक के अधिकार क्षेत्र में आ गया है। वह बंद करना चाहे तो अब उसके लिए किसी की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी।

किसी कर्मचारी की सेवासमाप्ति, छंटनी करना जायज कर दिया गया है. श्रमिकों को वर्षों से प्राप्त औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को खत्म किया जाना, समाजिक सुरक्षा का हनन, रोजगार की गारंटी आदि को पूंजीपतियों के हाथों में सौप दिया गया है।

वर्तमान श्रम संशोधन बिल 2020 से पूर्व पत्रकार व गैर पत्रकार के हितों की सुरक्षा के लिए वेज बोर्ड का गठन किया जाता था. इसे नए बिल में समाप्त कर दिया गया है। 

अब दुकान कर्मचारी की भांति पत्रकारों को सिर्फ मंहगाई भत्ता दिया जाएगा। आने वाले दिनों में इस बिल की आड़ में बैंक, बीमा, रेलवे, भेल, कोल आदि संस्थानों में भी वेज बोर्ड को भी खत्म कर दिया जाएगा।

यह श्रम संशोधन बिल 2020 एक तानाशाही शासक की सनक की बानगी है।

देश के 70 प्रतिशत कामगार असुरक्षित हो गए हैं। जो बिल लाया गया है उस बिल के तहत राज्य बीमा कर्मचारी निगम, कर्मचारी भविष्य निधि के जरिए जो सामजिक सुरक्षा थी वो मिलेगा या नहीं मिलेगा, यह कहना बेहद मुश्किल हो गया है। इस सब कुछ को अन्धेरे में रखा गया है। इस श्रम संशोधन बिल में सेवायोजक संस्थानों को मात्र 2 घंटे, 4 घंटे के लिए नियुक्ति कर कार्य लिए जाने की व्यवस्था प्रदान की गई है। न्यूनतम मजदूरी पाने का जो कामगारों का अधिकार होता है उसे भी छीन लिया गया है, जो काला कानून व तुगलकी फरमान है।

इस श्रम संशोधन बिल 2020 में वर्ष 1926 में बनी ट्रेड यूनियन ऐक्ट को भी निष्प्रभावी कर दिया गया है। अब कोई नया यूनियन बनना चाहेगा तो उस संस्थान से अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। क्या सेवायोजक अपने संस्थान में यूनियन बनाने की अनुमति प्रदान करेगा?

कोविड-19 की महामारी के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बिल की आड़ मे 39 श्रम कानूनों में से 36 श्रम कानूनों को अगले तीन वर्षों के लिए स्थगित कर दिया। इससे कामगार असुरक्षित हो गए और उनके लिए कोई कानून का दरवाजा खुला नहीं रह गया।

कोविड-19 की महामारी के दौरान इस बिल के आने से पूर्व श्रम कानूनों में वेतन न दिए जाने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि सेवायोजक व कामगार आपसी बातचीत करके अपनी समस्या का समाधान करें। इस कानून से 15 करोड़ श्रमिकों को अपने वेतन से हाथ धोना पड़ जाएगा।

इस बिल के तहत ग्रेचुटी ऐक्ट में जो नियमित कामगार भुगतान रजिस्टर में होगे वो एक वर्ष पश्चात् सिर्फ उपादान राशि प्राप्त करने के अधिकारी होंगे। ऐसे में कैजुअल, पार्टटाइम व संविदा कर्मचारियों को कुछ भी नही मिलेगा। इस श्रम संशोधन बिल 2020 को तत्काल वापस लिया जाए ताकि श्रमिक सुरक्षित हो सकें।


अजय मुखर्जी

मंत्री / राज्य सचिव

उ0 प्र0 आखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काँग्रेस

समाचार पत्र कर्मचारी यूनियन (पत्रकार व गैर-पत्रकार)

मोबाइल नंबर- 9838438210


प्रस्तुति- शशिकांत सिंह, मुंबई


Friday 25 September 2020

छंटनी के खिलाफ नई दुनिया के मीडियाकर्मियों का गुस्सा फूटा, काम बंद कर सड़क पर उतरे, देखें फोटो


इंदौर। नईदुनिया (जागरण समूह) में अनेक मीडियाकर्मियों ने छंटनी के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया लिया। पिछले 3-4 दिन से हो रही छंटनी के खिलाफ मीडियाकर्मी ऑफिस से नीचे उतर आए और उन्‍होंने जबरदस्‍त नारेबाजी और हंगामा किया। 



कल एक साथ ऑफ रोल वाले 7-8 कर्मचारियों को निकाल दिया गया। इससे 2-3 को छोड़ सभी कर्मचारी भड़क गए। वो सब ऑफिस से बाहर आ गए और हंगामा और नारेबाजी की। 

ऑफिस के कर्मचारियों का गुस्सा सहयोगी कर्मचारी जितेंद्र रिछारिया और जितेंद्र व्यास के खिलाफ भी भड़क गया है। पूरा ऑफिस एकजुट हो गया, लेकिन जितेंद्र रिछारिया ने उनका साथ नहीं दिया और वो नए आए संपादक सद्गुरु शरण अवस्थी के पिट्ठू बनकर काम करते रहे।


जितेंद्र व्यास का भी यही हाल है। संपादक इन सबसे बेफिक्र हैं। उन्होंने साफ बोल दिया कि जिसको जाना है जाए और अखबार तो निकलेगा ही। उन्होंने भोपाल एडिशन से पेज मंगवाकर इंदौर एडिशन छापने की तैयारी कर ली है।

ज्ञात हो कि पत्रकार, डेस्क कर्मचारी व अन्य कर्मचारियों को नौकरी से हटाने के विरोध में कल शाम यानी बृहस्‍पतिवार को नई दुनिया में भारी हंगामा हुआ और सभी कर्मचारी नई दुनिया के परिसर में आकर बैठ गए। सभी ने काम करने से मना कर दिया और मालिकों, संपादक और आला अधिकारियों को मनमानी बंद करने की बात कही। इस पर सीईओ संजय शुक्ला ने सभी को मनाने की कोशिश की। कई चाटुकार अब भी संपादक की गोद मे बैठे हुए हैं।


इसी प्रकरण पर आदित्य पांडेय फेसबुक पर लिखते हैं-


नईदुनिया ने जो सुनहरे दिन देखे थे आज उनका अंत इस तरह हुआ कि इसके मीडियाकर्मी सड़क पर उतरने को मजबूर हो गए।

बुरे दिन तभी शुरू हो चुके थे जब यह पुराने मालिकों के पास था लेकिन अब तो हद हो गई है। सारे अखबार मालिक एक हो गए हैं इसलिए बड़ी मुश्किल भी झेल पा रहे हैं लेकिन मीडिया कर्मियों का एकजुट होना मुश्किल रहा है।

आज सड़क पर आने की नौबत ही न आती यदि हंट मैन की तरह लाए गए श्रवण गर्ग की ज्यादती पर ही सब साथ खड़े हो गए होते।

जब कुछ साथियों ने मजीठिया केस लगाए तो नौकरी कर रहे कर्मी उनसे उनसे नजरें चुराते थे, साथ देने की बात तो बहुत दूर है। मालिकों की हिम्मत इसी वजह से बढ़ती रही।

आज भी कुछ लोग मालिकों के लिए खड़े हैं और बाकी सड़क पर हैं। मालिकों को शर्म नहीं आती क्योंकि वो तो उन्होंने बेच खाई है लेकिन कुछ बातों पर हमें भी शर्म आनी ही चाहिए।

[साभार: bhadas4media.com]

मीडियाकर्मियों और श्रमिकों के वेतन कटौती तथा छंटनी के मामले की सुनवाई 23 नवंबर को करेगा सुप्रीमकोर्ट


एक तरफ जहां श्रम सुधार बिल के  ससंद में पास हो जाने के बाद 300 या उससे कम कर्मचारियों वाली कंपनियों में छंटनी के लिए किसी तरह की सरकारी अनुमति न लेने के मामले की हर तरह आलोचना श्रमिक संगठन कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ मीडियाकर्मियों और श्रमिकों के वेतन कटौती तथा छंटनी के मामले की सुनवाई 23 नवंबर को सुप्रीमकोर्ट करेगा। इस मामले को सुप्रीमकोर्ट की साइट पर 23 नवंबर को सुनवाई की संभावित सूची में इस मामले को लिस्टेड किया गया है। इस मामले की सुनवाई जस्टिस अशोक भूषण,जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम.आर.शाह की बेंच करेगी। इससे पहले पिछले महीने में इस मामले की सुनवाई हुई थी। देश भर के मीडियाकर्मियों की लॉक डाउन में हुई छंटनी और वेतन कटौती मामले पर सुनवाई करते हुए पिछले महीने माननीय सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले को डायरी नम्बर 10983/2020 से टैग कर दिया। अब दोनों मामलों को एक साथ सुना जाएगा।

डायरी नम्बर 10983 /2020 में इसी तरह के एक मामले की सुनवाई विचाराधीन थी। इन दोनों मामलों को 23 नवंबर को सुना जाएगा। डायरी नम्बर 10983 /2020 की सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने निजी नियोक्ताओं, कारखानों, उद्योगों को फौरी राहत देते हुए कहा था कि निजी नियोक्ताओं, कारखानों, उद्योगों के खिलाफ सरकार कोई कठोर कदम नहीं उठाएगी, जो लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को मजदूरी देने में विफल रहे। ये व्‍यवस्‍था देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार के श्रम विभाग वेतन भुगतान के संबंध में कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच बातचीत करवाएं। मजदूरों को 54 दिन के लॉकडाउन की मजदूरी के भुगतान के लिए बातचीत करनी होगी। उद्योग और मज़दूर संगठन समाधान की कोशिश करें।

इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को 29 मार्च के अपने आदेश की वैधानिकता पर जवाब दाखिल करने के लिए 4 और सप्ताह दिए थे, जिसमें सरकार ने मजदूरी के अनिवार्य भुगतान का आदेश दिया था। अगली सुनवाई जुलाई के अंतिम सप्ताह में होनी थी। जिसकी लिस्टिंग 27 जुलाई को हुई थी।

अब इन दोनों मामलों को एक साथ सुना जाएगा। इसके पूर्व मीडियाकर्मियों की तरफ से प्रस्तुत एडवोकेट को संशोधित याचिका पेश करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया गया था।


शशिकांत सिंह

पत्रकार और मजीठिया क्रांतिकारी

9322411335

Thursday 24 September 2020

रिपब्लिक के जोकर को मीडियाकर्मियों ने धुना


- मुंबई में बीच सड़क पर सरेआम हुई प्रदीप की पिटाई

- जोकर प्रदीप बोला, चाय-बिस्किट वाले हैं मुंबई के पत्रकार

मुंबई में कल एनसीबी के आफिस के आगे मुंबई के पत्रकारों ने रिपब्लिक भारत के जोकर प्रदीप भंडारी को धो डाला। कारण, प्रदीप लाइव कवरेज करते हुए कैमरा घुमाकर अन्य पत्रकारों को दिखाते हुए बोला कि ये चाय-बिस्किट वाले पत्रकार हैं। ये क्या सच दिखाएंगे, हम आपको सच दिखाएंगे। इसका विरोध करने पर प्रदीप ने एनडीटीवी और एवीपी के पत्रकारों के साथ अभद्रता की तो पत्रकारों ने प्रदीप को धुन दिया। प्रदीप ने भी ट्वीट कर मारपीट की बात कही है।

दरअसल, देश के मुख्यधारा के इलेक्ट्रानिक मीडिया में अब पत्रकार नहीं हैं। पत्रकार रूपी एक्टर और जोकर भर गए हैं। अधिकांश न्यूज चैनलों के एंकर और पत्रकार सर्कस के जोकर लगते हैं, क्योंकि अब न्यूज चैनलों का फंडा पत्रकारिता करना नहीं है, बल्कि जनता का इंटरटेंनमेंट करना है। स्टूडियों में एक मुख्य जोकर चार अन्य चिल्लाने वाले जोकरों को बुलाकर मुर्गा फाइट कराता है। सब अजीब-अजीब से हास्यापद टॉपिक होते हैं। भारत की बुनियादी समस्याओं से कहीं अधिक चीन और पाकिस्तान की बर्बादी दिखाई जाती है। रोजी-रोटी की बात न कर हिन्दू-मुसलमान की बात की जाती है। कारण यह भी है कि कारपोरेट घरानों के एक विशेष वर्ग ने मीडिया पर कब्जा कर लिया है और वो नहीं चाहता है कि मीडिया सत्ताविरोधी या जनपक्षधरता की बात करे। 

दूसरी बात न्यूज चैनलों को टीआरपी के लिए इतनी मेहनत करने के बाद पता चलता है कि स्टार और सोनी जैसे चैनल उनसे पांच से दस गुणा अधिक देखे जा रहे हैं और विज्ञापनों का अधिकांश हिस्सा भी वहीं ले जाते हैं तो चैनलों के आकाओं ने उन्हें कह दिया है कि जोकरी करो, एंकरिंग करो, लेकिन पत्रकारिता नहीं। इसी का परिणाम रिपब्लिक के जोकर प्रदीप भंडारी की पिटाई के रूप में हुई है। देखिए अभी तो बहुत इंटरटेनमेंट बाकी है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

Thursday 17 September 2020

मीडिया को भी बेरोजगारी दिवस की बधाई



- हिन्दुस्तान देहरादून, अमर उजाला ऋषिकेश के साथियों को बधाई

- हिन्दी खबर के पवन लालचंद को भी बधाई

लगभग 15 दिन पहले किसी साथी पत्रकार का फोन आया कि हिन्दुस्तान ने देहरादून से स्टाफर फोटोग्राफर प्रवीण डंडरियाल, डेस्क पर कार्यरत नरेंद्र शर्मा और प्रदीप बहुगुणा को विदाई दे दी है। सात अन्य को भी निकाल दिया गया है। मेरे सभी साथी चाहते हैं कि मैं मार्केट में बदनाम हूं तो मैं ही ये पोस्ट भी लिखूं। मुझे लगा मैं सच में बदनाम हो गया हूं सच लिखने के लिए। मुझे अपने पर गुस्सा आया कि मैं ही क्यों लिखूं। दूसरे क्यों नहीं लिखते। गालियां अकेले मैं ही क्यों खाऊं। सो नहीं लिखा। गुस्सा यह भी था कि सब पत्रकार चुप बैठे हैं। डरपोक कहीं के। जब पत्रकार अपनी आवाज नहीं उठाते हैं तो मैं क्यों भगत सिंह बना फिरूं इनके लिए। यही सोचकर नहीं लिखा।

लिखने से होगा भी क्या? दुश्मन ही बढ़ रहे हैं मेरे। सच की कीमत चुका रहा हूं। अभी 50 लाख रुपये के मानहानि के दावे से निपटा हूं। कोरोना महामारी के बीच पिछले तीन महीने में देहरादून से लेकर ऋषिकेश के थानों और पुलिस चौकियों के चक्कर काटे हैं। अब जाकर कुछ राहत मिली है और फिर शुरू। पर कमबख्त दिल ही नहीं मानता। देहरादून के सहारा में मैं अकेला पत्रकार हूं जो नैनीताल हाईकोर्ट में सहारा के खिलाफ केस लड़ रहा है। 

अब भडास पर खबर है तो मैं हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और अमर उजाला देहरादून से निकाले गए पत्रकारों को बेरोजगार दिवस की बधाई दे रहा हूं। अमर उजाला में कोरोना की खबर लिखी तो वो भी भड़क गए। आज अमर उजाला के कई साथी कोरोनाग्रस्त हैं। भुगतो। जब मैंने हिन्दी खबर चैनल पर वेतन न दिए जाने पर एक खबर लिखी तो साथी लोग भड़क गए थे। आज वहां से पवन लालचंद की भी विदाई हो गई, जबकि वो एक अच्छे पत्रकार हैं। दरअसल, मीडिया में अब अच्छे पत्रकारों की जरूरत नहीं है। .... टाइप पत्रकार चाहिए या दलाल टाइप। जो ऐसा कुछ नहीं है, वो अब गिने-चुने बचे हैं। ऐसे में पत्रकारों को भी बेरोजगार दिवस की बधाई।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]


हिन्दुस्तान समूह के मीडियाकर्मी हार न मानें, केस ठोकें

हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में बड़े पैमाने पर कर्मचारियों को बिना कारण नौकरी से निकाला जा रहा है। कर्मचारियों पर दबाव डाला जाता है और न करने पर निकाला जाता है। कारण साफ है कि 3000 करोड़ का सालाना कारोबार करने वाले अखबार समूह में वेजबोर्ड का कोई कर्मचारी नहीं है। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह कानून को ठेंगा दिखा कर भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के दम पर निरंतर कर्मचारियों का शोषण कर रहा है। 

यहां न्याय के लिए कर्मचारियों को कितना भटकना पड़ता है इसकी एक छोटी सी मिसाल यह है कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह ने अपने यहां कार्यरत 472 कर्मचारियों को महात्मा गांधी की जन्मतिथि 02 अक्‍टूबर 2004 को निकाल बाहर किया था। 2012 में यह कर्मचारी केस जीते। कोर्ट ने साफ कहा था कि कर्मचारियों का कोई दोष नहीं है और प्रबंधन ने साजिश करके निकाला है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक मामला फाइनल होने के बावजूद कर्मचारी बकाया वेतन और नौकरी के लिए तरस रहे हैं। 

न्याय व्यवस्था ऐसी कि आम आदमी ताकता रह जाए। आम आदमी किसी मामले में बार-बार कोर्ट जाए तो जुर्माना और अगर मैनेजमेंट जाए तो बड़े-बड़े वकील और कोर्ट उनके प्रति नरम रुख रखता रहा है। 

इन दिनों अखबारों में छंटनी की बेतहाशा खबरें चिंतित करने वाली हैं। कोरोना से मीडियाकर्मियों के मरने का सिलसिला जारी है। रिपोर्टिंग करने वाले मीडियाकर्मी, न्यूज एडिटर और एडिटर आदि को तो सरकारी सहायता मिल जाती है लेकिन डेस्क पर काम करने वाले तथा अन्य मीडियाकर्मियों को न तो कोई सहायता और न ही उनके अपने संस्थानों से कोई मुआवजा ही मिल रहा है और इसके पीछे मीडिया संस्थानों के मालिकों का अपने कर्मचारियों के प्रति प्रतिकूल व्यवहार माना जा रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो मनमाने ढंग से वेतन दिया जाता है। प्रिंट मीडिया के लिए समय-समय पर वेतन आयोग गठित किए जाते रहे हैं और वर्तमान में मजीठिया वेतन आयोग के अनुसार वेतन देय है लेकिन ज्यादातर संस्थानों ने इससे बचने के लिए कम वेतन पर मीडियाकर्मियों की भर्ती की है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान अखबार चलाने वाले मीडिया ग्रुप ने तो वर्ष 2002 से ही वेज बोर्ड कर्मचारियों का शोषण शुरू कर दिया था जो अब तक जारी है। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के सैंकड़ों कर्मचारी कोर्ट से केस जीतने के बाद भी अभी तक कई सौ करोड़ रुपये बकाये के इंतजार में कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह संस्थान से शुरू हुई बीमारी आज सभी संस्थानों में पहुंच गई है जहां मैनेंटमेंट में उच्च पदों पर तो मोटी तनख्वाहों पर कर्मचारी रखे जाते हैं और उन्हें विज्ञापन और येन-केन प्रकारेण नैतिक-अनैतिक ढंग से पैसा जुटाने का काम सौंपा जाता है लेकिन रिपोर्टिंग से लेकर, डेस्क पर काम करने वाले तथा अन्य मीडियाकर्मियों को कम तनख्वाह पर मनमाने ढंग से 50 या 100 रुपये के स्टाम्प पर नौकरी के कांट्रैक्ट थमाया जाता है जिसके अनुसार उनका प्रोविडेंट फंड से लेकर, ग्रेच्युटी का अंशदान तक उनकी तनख्वाह से काटा जाता है और सारी कटौती के बाद कर्मचारी मामूली टेक-होम सेलरी लेकर बंधुआ और मजबूर जीवन जीने को मजबूर हैं। 

2014 से मोदी सरकार बनने के बाद से तो स्थिति और भी खराब हो गई है। भाजपानीत सरकारों ने कभी भी मजीठिया वेजजबोर्ड की रिपोर्ट को लागू करवाने की प्रयास नहीं किया। उल्टे भाजपानीत राज्य सरकारों के अधिकारियों से मीडिया संस्थानों के मालिकों से मिलकर संबंधित न्यायालयों में इस आशय की झूठी रिपोर्टें फाइल की कि सभी मीडिया संस्थानों में वेजबोर्ड लागू हैं। 

मीडिया की दुर्दशा की लंबी गाथा है। वो लोग दूसरों का क्या भला करेंगे जो अपने कर्मचारियों का शोषण करने में सबसे आगे हैं और उनके कर्मचारी आम जनता का क्या भला करेंगे जब वो खुद शोषण का शिकार हों, लेकिन एक बात जो सबको ज्ञात होनी चाहिए वो यह है कि ठेके पर कार्यरत इन कर्मचारियों को चुपचाप नहीं बैठना चाहिए। लेबर कोर्ट इस तरह के मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। अत: इस प्रकार के मामलों में उच्च न्यायालय में कम्पनसेशन के तहत मीडिया संस्थानों पर केस करने के लिए एकजुट होना चाहिए, क्योंकि ऐसे ज्यादातर मामले इकतरफा एग्रीमेंट से जुड़े होते हैं और जितने वर्षों तक कम तनख्वाह में काम किया है उसके पूरे वेतनमान के भुगतान के लिए वेजबोर्ड के अनुसार वेतन की गणना करके सीधे भुगतान के लिए संबंधित लेबर कमिश्नर के यहां पूरा वेतन दिलवाने के लिए शिकायत दायर करनी चाहिए क्योंकि वेजबोर्ड में इस बात का प्रावधान किया गया है कि कर्मचारी भले ही ठेके पर हो लेकिन उसे वेजबोर्ड द्वारा अधिसूचित वेतन से कम वेतन नहीं दिया जा सकता। 

खबरें आ रही हैं कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में सबसे ज्यादा छंटनी का दौर चल रहा है इसलिए कर्मचारियों से निवेदन है कि वे अपने वेतन की गणना वेजबोर्ड के अनुसार करके अपने संबंधित लेबर कमिश्नर आफिस में बकाया वेतन भुगतान की शिकायत दायर करें व आगे के वेतन व इकतरफा नौकरी के कांट्रैक्ट को चैलेंज करते हुए मुआवजे के लिए संबंधित उच्च न्यायालयों की शरण लें। 

एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित।

[साभार:  bhadas4media.com]


हिंदुस्तान देहरादून से भी दस मीडियाकर्मी हटाए गए

हिंदुस्तान अखबार से जिस कदर निर्ममता से पूरे देश भर से पत्रकारों को नौकरी से निकाला गया, वह अपने आप में एक मिसाल है। कहने को तो इस देश में लोकतंत्र है, नियम कानून का राज है लेकिन मीडिया हाउसों के मालिकों के चरणों में लोकतंत्र नतमस्तक दिखता है। इन्हें किसी का डर नहीं। न श्रम विभाग से, न कोर्ट से, न अफसर से, न मंत्री से, न अपने कर्मियों से। ये सबसे बड़े अलोकतांत्रिक और अमानवीय लोग हैं।

हिंदुस्तान अखबार से मीडियाकर्मियों को निकाले जाने के क्रम में सूचना है कि देहरादून संस्करण से भी कइयों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 

बताया जा रहा है कि देहरादून हिंदुस्तान से कुल दस लोग निकाले गए हैं। इनमें तीन स्टाफर हैं और 7 स्टिंगर हैं। 

सूत्रों के मुताबिक जिन स्टाफर्स को कार्यमुक्त किया गया है उनके नाम हैं- प्रदीप बहुगुणा, नरेंद्र शर्मा और चीफ फोटो जर्नलिस्ट प्रवीण डंडरियाल। 

कार्यमुक्त किए गए स्टिंगर्स में कुणाल, रश्मि, संजय, अजय आदि हैं। 

एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित। 

[साभार:  bhadas4media.com]

Wednesday 16 September 2020

हिंदुस्‍तान ने दिया 10 साल से अधिक काम करने का ये स‍िला, मजीठिया मांगने पर जबरन इस्‍तीफा लिया


देहरादून। हिंदुस्‍तान देहरादून ने पिछले 10 साल से संपादकीय विभाग में कार्यरत दो कर्मचारियों का जबरन इस्‍तीफा ले लिया। 

नरेंद्र कुमार शर्मा और वरिष्‍ठ फोटो जर्नलिस्‍ट प्रवीण डंडरिवाल का कूसर बस इतना था कि उन्‍होंने प्रबंधन से मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार वेतनमान की मांग की थी। 

जिसके बाद रोजाना की तरह जब वे 4 सितंबर को कार्यालय पहुंचे तो एचआर ने पहले से तैयार इस्‍तीफे पर धमकी देकर जबरन उनके हस्‍ताक्षर करवा लिए। इसके बाद उन्‍हें जबरन कार्यालय से बाहर निकाल दिया गया। जिसके बाद उन्‍होंने संबंधित थाने में शिकायत कर न्‍याय की मांग की है। 

Wednesday 2 September 2020

Death of Vashishtha Kumar Sharma is an Immense Loss to IFWJ


It is difficult to write an obit of a person who has been your friend, philosopher, and a guide. Pandit Vasishta Kumar Sharma, who died yesterday was one such person for many of us. He was a born leader, he started wearing Khadi from his student life and steadfastly maintained it till the last breath of his life. Lean and thin Sharma ji was ever smiling. Hundreds of Urdu couplets, Hindi poems and aphorisms of Sanskrit were always in his heart to fit on every occasion. He was fearless and straight forward person and never minced words for saying spade a spade yet at the same time he was very courteous and respectful to others. He was a kind-hearted person and was always ready to help others in a time of need. His death is an immense and irreparable loss to the IFWJ.


He was the first person along with the senior journalist, Jayant Verma of Jabalpur, to have raised the voice for cleansing of the IFWJ from the corrupt persons. He used to say that the complete overhauling of the Indian Federation of Working Journalist was necessary to make it a relevant organisation, and an instrument of struggle for the cause of the working journalist of the country. When he was chosen as the Vice-President of the IFWJ, he had vowed to work for the strengthening of the organisation. He had assured to Working Committee of the IFWJ that the first thing that he would do was to prevail upon the RWJU to hold the election and true to his words he got it done with the help of Ish Madhu Talwar,   another stalwart journalist, writer and novelist, whose imprints can be seen in the Union.


Pandit ji was not keeping well for a quite long time, but we never knew that he would leave us so sad and so soon. That is why, when the President of Rajasthan Working Journalist Union, Harish Gupta telephoned to IFWJ’s Treasurer, Rinku Yadav about his demise, who immediately conveyed it to me, I got drowned in deep sorrow. However, after some time I mustered the courage to speak to his family members to express the condolences on behalf of IFWJ and thereafter the messages mourning his death started pouring through emails, Facebook, and WhatsApp accounts of the IFWJ.


Pandit ji, as we would fondly call him, was a prominent student leader in his university days. Once when the police were searching for him, he stayed at the house of Praveen Chandra Chhabra, a veteran journalist, and the doyen of the IFWJ, who was then associated with the Lok Vani.  The Then Chief Minister of Rajasthan, the late Jai Narayan Vyas, an astute politician that he was, wanted to win over Vashishta Kumar ji by offering him to make a RAS officer. In those days, the Chief Minister could nominate any bright young person to the post of the RAS. However, Pandit ji declined to accept the coveted offer and preferred to remain in journalism and got attached to the Navyug newspaper.


Pandit ji, worked hard to have a strong journalist organisation so that every journalist could feel proud to be a member of the Rajasthan Working Journalist Union. He lived the life of an ascetic. Spiritual to the core he was a good connoisseur of Hindi poetry. A compilation of his poems has also been published. His son Manoj Sharma, an IAS officer has got the qualities of a prolific and facile pen from his late father. His second son is a senior officer in Rajasthan’s Information department. He was a good host, which I along with my other colleagues have had the good opportunity to saviour at his house in Jaipur.


IFWJ President, BV Mallikarunaih, Vice Presidents- Hemant Tiwari, Keshab Kalita, Vibhuti Bhushan Kalita and KM Jha and many others like Sidharth Kalhans, K Asadullah and Bhaskar Dube have joined me in condoling the death of Pandit ji. Indian Federation of Working Journalist (IFWJ) dips its banner in the memory of Pandit ji.  May his soul rest in Heaven.

Parmanand Pandey

Secretary-General: IFWJ

Tuesday 1 September 2020

IFWJ Asks for Tripartite ‘Technical Committee’ as Envisaged in the ‘Code of Wages’ for Revising the Wages of Journalists

Indian Federation of Working Journalist (IFWJ) has demanded to the Government of India that the 'Technical Committee' as envisaged by the Code on Wages must be tripartite to have the representatives from among the journalist organisations. It has, however, welcomed to the proposal of setting up of the Technical Committee, which will replace the constitution of Wage Boards, at the interval of every five years to revise the wages and allowances of the working journalists.


In a statement, the IFWJ President BV Mallikarjunaih and Secretary-General Parmanand Pandey have said that journalists should be treated as ‘knowledge workers’ as no other profession is comparable to their job. Therefore, in no case, their hours of work should be more than 144 in a month. It is on the persistent demand of the IFWJ, that the Government has decided to expand the definition of a working journalist from the print medium to all other media including those of the electronic and other portals.


IFWJ has also demanded/ suggested that no journalist should be appointed on contract for less than five years, although it will be desirable to completely prohibit the contractual appointment of journalists. The payment of gratuity in relation to journalists should be changed in conformity to the Payment of Gratuity Act 1972, which may entitle them to claim the benefits after five years of service. At present, as per the Working Journalists Act, it is ten years, while it is five years for the other employees. Although a journalist can claim gratuity after three years if he/she resigns on the ground of conscience, which is well-nigh impossible to prove. That vis the reason that if a journalist leaves the job even after three and a half years, he/she loses the benefit of the gratuity and therefore this anomaly must go.

उत्तरजन टुडे ग्रुप का अब यूटयूब चैनल भी जल्द


- एक कदम और मंजिल की ओर

- आईटीएम और उत्तरजन की पहल उत्तरजन टीवी


उत्तरजन टुडे मैगजीन की शुरूआत 12 फरवरी 2016 को हुई। इस पत्रिका का उद्देश्य रचनात्मकता और सकारात्मकता को बढ़ावा देना था। पिछले चार साल में इस पत्रिका को आप लोगों ने खूब सराहा। हमारी टीम ने भी उत्तरजन टुडे के लिए खूब मेहनत की है। जो लोग उत्तरजन टुडे पढ़ते हैं, वो जानते हैं कि उत्तरजन टुडे का कंटेंट और ले-आउट जैसा पहले दिन था, उससे बेहतर हुआ है। हमने पत्रिका के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। पत्रकारिता के सिद्धांत, जनपक्षधरता और जीवन मूल्यों को हमने हमेशा प्रमुखता देने का प्रयास किया है। हमारी मेहनत को आप लोगों का सहयोग मिला है। उत्तरजन टुडे परिवार इतना मजबूत है कि कोरोना काल में जब देश के प्रमुख मीडिया घराने सिकुड़ रहे हैं, कई पत्र-पत्रिकाओं पर संकट आ गया और वो प्रकाशित नहीं हो पा रही हैं, ऐसे संकट में हम आगे बढ़ रहे हैं। इसका श्रेय आपको जाता है। आपके सहयोग और समर्थन से हम निरंतर आगे बढ़ रहे हैं।


अब हम जल्द ही उत्तरजन टीवी यू-टयूब चैनल लांच कर रहे हैं। निश्चित तौर पर यह चैनल भी अलग ही होगा। सबसे अलग। हमारी टीम में इस बार एक बड़ा कुनबा जुड़ा है आईटीएम यानी इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट एडं टेक्नोलॉजी। आईटीएम के चेयरमैन निशांत थपलियाल ने इस सपने को पंख दिए हैं। इसके लिए हम उनके आभारी हैं। आईटीएम के सहयोग से उत्तरजन टीवी जल्द लांच होगा। तैयारियां जोरों से चल रही हैं। हमारे पंखों को विस्तार भी आप ही देंगे। हमारी उड़ान मंजिल तक पहुंचाने के लिए आपका स्नेह, आशीर्वाद और सहयोग मिलता रहे, यही कामना है।


[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]