Sunday 31 July 2022

सावधान, पत्रकार यूनियनों से सोच-विचार के बाद ही जुड़े



युवा पत्रकारों से अपील, बेवजह इन संगठनों से न जुड़े

आपके लिए चवन्नी का काम नहीं करेंगे, आपके नाम पर कमा जाएंगे

आज सुबह-सुबह मनमीत की पोस्ट पढ़ी कि उत्तराखंड पत्रकार यूनियन की मसूरी इकाई का गठन हो गया। इस पर खूब हंसा। फिर सोचा, गालियां तो खूब मिलेंगी, लेकिन युवा पत्रकारों को कुछ व्यक्तिगत अनुभव बता ही दूं। 

सितम्बर 2021 की कोरोना काल की बात है। मैंने फेसबुक पर उत्तराखंड के भ्रष्ट नौकरशाहों के खिलाफ एक सीरीज शुरू की। छह नौकरशाहों के खिलाफ तथ्यपरक रिपोर्टिंग की। सातवीं में थोड़ा बहक गया। वह पोस्ट तत्कालीन शिक्षा सचिव मीनाक्षीसुंदरम के वर्चुअल क्लासेस के कारनामे को उजागर करने वाली थी। तथ्य कम थे और भावुकता अधिक। मसूरी के पत्रकार शूरवीर भंडारी ने वह पोस्ट अपने पोर्टल पर डाल दी। नौकरशाह मौका तलाश रहे थे कि मुझ पर किस तरह से घेरें। पोस्ट में कमी थी तो मीनाक्षी सुंदरम ने मेरे और शूरवीर भंडारी के खिलाफ वसंत विहार थाने में एफआईआर करा दी। मैं खुद सीओ सुयाल के आफिस में जांचकर्ता इंस्पेक्टर महेश पूर्वाल से मिला और बयान दिये। सबूत जुटाने के लिए कुछ समय मांगा।

इस बीच पत्रकार भाइयों ने क्या किया? मुझे बताए बिना शूरवीर भंडारी को लेकर सीएम त्रिवेंद्र रावत से मिले और फिर मीनाक्षी सुंदरम से। शूरवीर भंडारी वहां समझौता कर आ गया। सही भी है। कोई भी पत्रकार क्यों दूसरे के लिए पंगा लें? मुझे शूरवीर के फैसले पर कतई अफसोस नहीं था। हर एक की अपनी मजबूरी होती है। मैं समझ सकता हूं। लेकिन मीनाक्षी सुंदरम से समझौता करने के बाद शूरवीर चुप्पी साध गया। उसने मुझे यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि कुछ पत्रकार साथियों ने उसका समझौता करा दिया और अब मुझे अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।

मीनाक्षी सुंदरम को जब लगा कि यह नहीं झुकेगा तो दबाव के लिए मेरे पास वरिष्ठ एडवोकेट आरएस राघव के माध्यम से मुझे 50 लाख की मानहानि का नोटिस भिजवा दिया। उसमें पहली लाइन ही यह थी कि शूरवीर भंडारी ने माफी मांग ली है। मुझे बहुत शॉक लगा। माफी मांग ली और मुझे बताया नहीं। मैंने शूरवीर को खूब लताड़ा। उसने स्वीकार किया कि कुछ पत्रकार ले गये थे। खैर, मैं सब खेल समझ चुका था तो मैंने भी मीनाक्षीसुंदरम से अपनी खबर के लिए नहीं, उन शब्दों के लिए जिनका मैंने गलत इस्तेमाल किया था, माफी मांग ली। वर्चुअल क्लासेस में खेल हुआ है। जल्द इसे उजागर करूंगा, इस बार तथ्यों और सबूतों के साथ।

यानी इस मामले में पत्रकारों की दोगली भूमिका रही। क्योंकि मैंने उत्तरांचल प्रेस क्लब की कार्यप्रणाली के खिलाफ भी लिखा था, तो अधिकांश पत्रकार मुझसे चिढ़े हुए हैं, तो उन्होंने शूरवीर का गुपचुप समझौता करा दिया। यह पहला मौका नहीं था जब पत्रकारों ने मुझे धोखा दिया। 2015 के दौरान मैं सहारा में चीफ सब एडिटर था। भूपेंद्र कंडारी रिपोर्टिंग में। महीनों से वेतन नहीं मिल रहा था। हमने तय किया कि हड़ताल करेंगे। पहले ही दिन सबसे पहले आफिस से बाहर मैं आया। इसके बाद सभी लोग सड़क पर आ गये। भूपेंद्र कंडारी और जितेंद्र नेगी जो अब एडिटर हैं, ये पत्रकारों के साथ नहीं आए। खैर, हड़ताल तीन दिन तक चली। नतीजा जीरो, आज भी सहारा में सेलरी नहीं मिल रही। हम 42 लोग लेबर डिपार्टमेंट में मामला लेकर गये। भूपेंद्र कंडारी ने समर्थन नहीं दिया। मैं सहारा में एकमात्र पत्रकार था जो लेबर कोर्ट गया और जीता भी। लेबर कोर्ट ने मेरे पक्ष में फैसला सुनाते हुए सहारा को मुझे 20 लाख रुपये देने का आदेश दिया। सहारा ने हाईकोर्ट में स्टे ले लिया। मैं भी हाईकोर्ट पहुंच गया। लड़ाई जारी है बशर्ते कोर्ट मेरे मामले की सुनवाई करे।

पिछले दिनों सहारा में वेतन न मिलने पर एक बार फिर हड़ताल हुई। गढ़वाल-कुमाऊं एडिशन नहीं छपा। भूपेंद्र कंडारी तब भी हड़ताल में शामिल नहीं हुआ। मैं भूपेंद्र के खिलाफ कुछ भी नहीं लिखता, यदि वह पत्रकार यूनियन का अध्यक्ष नहीं होता। मेरा सवाल है कि जो व्यक्ति अपने वेतन के लिए लड़ाई नहीं लड़ सकता, वह कैसे एक पत्रकार संगठन का अध्यक्ष बनने लायक है? ऐसा अध्यक्ष भला अन्य पत्रकार साथियों की लड़ाई कैसे लड़ सकता है जो मैनेजमेंट का आदमी हो?

कोरोना काल की बात लो। आश्चर्य होता है कि मनमीत की पोस्ट पर वह पत्रकार भी बधाई दे रहे हैं, जिनकी कोराना काल में नौकरी चली गयी थी। तब किसी भी पत्रकार संगठन ने उनके हित में आवाज नहीं उठाई। जागरण ने फोटो पत्रकारों को हटा दिया, अमर उजाला ने अपकंट्री के पत्रकारों का कद घटा दिया। कोई आवाज नहीं उठी। कोरोना काल में लाला पत्रकारों को आफिस बुलाता रहा, लेकिन उनकी हिफाजत के लिए कुछ नहीं किया. अकेले मैं आवाज उठाता रहा। सत्ता के गलियारे और मीडिया संस्थानों के प्रबंधन में मैं खलनायक बनकर उभरा हूं, पत्रकार संगठन नहीं।

कोई भी पत्रकार संगठन युवाओं के लिए न तो कोई वर्कशॉप आयोजित करता है न उनको कारपोरेट जर्नलिज्म की चुनौती बताता है। न ही पथप्रदर्शक बनता है। प्रिंट मीडिया और न्यूज चैनलों में युवा पत्रकारों का इतना उत्पीड़न हो रहा है, कहीं कोई आवाज उठा रहा है क्या? सुनी क्या कोई आवाज? अधिकांश पत्रकार यूनियनों के पदाधिकारी सत्ता की चासनी से लिपटे हुए हैं। मनमीत जैसे पत्रकार का इस कुचक्र में फंसना समझ से परे है।

मैं युवा पत्रकारों को यह किस्सा आप-बीती के आधार पर सुना रहा हूं। किसी खबर की तरह पत्रकार संगठनों के पदाधिकारियों के इतिहास-भूगोल की जानकारी लेने के बाद ही सदस्य बने। दोस्ती या सहकर्मी होने पर बहकें नहीं। ये संगठन जीरो हैं, तुम्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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