Thursday 30 May 2019

हिन्दी अखबार सूचना मात्र का कागज बने


  • हिन्दी पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा बदला
  • कारपोरेट जर्नलिज्म और लैंग्वेज प्रेस की उपेक्षा से चुनौतियां बढ़ी
  • हिन्दी पत्रकारिता दिवस की शुभकामना



हिन्दी पत्रकारिता के 193 वर्ष पुराने गौरवशाली इतिहास पर अब खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। कभी अंग्रेजों की नाक में दम करने वाली हिन्दी पत्रकारिता अब सत्ता की चाटुकार बन गई है। हाल के कुछ वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता का बहुत तेजी से पतन हुआ है। हालांकि हिन्दी पत्रकारिता का कार्य क्षेत्र बढ़ गया है। हिन्दी के पाठकों और दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। यही कारण है कि अंग्रेजी के चैनलों में हिंग्लिश का चलन बढ़ गया है।

रिपब्लिक के अनरब गोस्वामी को मतगणना के दिन लगभग भागते हुए हिंग्लिश यानी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी बोलते सुना गया। यह हिन्दी की जीत है लेकिन हिन्दी पत्रकारिता की नहीं। 30 मई 1826 को पंडित जुगलकिशोर शुक्ला के उदंत मार्तंद भले ही छह महीने ही चला हो लेकिन उसने अंग्रेजों की चूलें हिला दी थी।

स्वाधीनता से पहले लैंग्वेज प्रेस को लेकर अंग्रेजों के बहुत दबाव और प्रताड़ना थी। स्वाधीनता मिलने के बाद नौंवे दशक तक पत्रकारिता में जनसरोकार रहे लेकिन उदारवाद के बाद अखबारों में जनपक्षधरता और जनसरोकार गायब होने शुरू हो गए। कारपोरेट जर्नलिज्म में पत्रकारों के खादी के कुर्ते और थैले ने बैग और सूट का आकार ले लिया। पहले मिशनरी पत्रकारिता थी अब फायदे की पत्रकारिता हो गई।

टाइम्स ग्रुप में मुझे चार दिन तक यही सिखाया गया कि पत्रकारिता का उद्देश्य प्राफिट है। कारपोरेट जर्नलिज्म के बाद पत्रकारों के वेतन और भत्ते तो बढ़ गए पर चुनौतियां भी बढ़ी हैं। अब मालिक और सूचना बेचने की बात है। समाचार अब साबुन की टिकिया हो गई है कि कौन सा चैनल और कौन सा अखबार उसे कैसे बेचता है। जनसरोकार से जुड़े मुद्दे पर हाशिये पर हो गए हैं और पत्रकारों की जमात हाशिए पर हैं। हिन्दी के अखबारों में संपादक का नाम किसी कोने में दीन-हीन सा नजर आता है। तलाशना ही मुश्किल होता जा रहा है। ब्रांड और मार्केटिंग का प्रभाव बढ़ गया है। कारपोरेट जर्नलिज्म के कारण पत्रकारों के वेतन व रहन-सहन तो सुधर गया पर आंतरिक स्थिति खराब हो गई है।

आलम यह है कि प्रिंट मीडिया के अधिकांश मीडिया घरानों ने पत्रकारों का स्वाभिमान और गर्व दफन कर दिया है। उदाहरण देश की आजादी में सबसे प्रमुख भूमिका में रहे हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप से लिया जा सकता है। हिन्दी हिन्दुस्तान के सभी पत्रकारों को आउटसोर्सिंग से भर्ती किया जाता है। उन्हें दिखावे के लिए पद है लेकिन कागजों में वो साबित नहीं कर सकते कि वे किस पद पर हैं। यही आलम अमर उजाला और दैनिक जागरण में है। जागरण प्रबंधन तो पत्रकारों से नौकरी देने के समय ही प्लेन पेपर पर साइन करवा लेता है। अमर उजाला भी आउटसोर्सिंग कर रहा है। ऐसे में पत्रकारों के सामने आस्तित्व का सवाल खड़ा है। बड़े घरानों के समाचार पत्रों के मालिकों को जनसरोकारों से कोई मतलब नहीं है उन्हें कमाई दिखती है और पत्रकारों का शोषण आम बात है। आज भी प्रिंट मीडिया का शेयर 45 प्रतिशत है और उसके पाठक 23 प्रतिशत की दर से बढ़े हैं, लेकिन पत्रकारिता का पतन हो रहा है। छोटे पेपर और मैग्जीन इसलिए नहीं चल पा रहे हैं क्योंकि सरकार उनको महत्व नहीं देती है। विज्ञापन न मिलने पर उनकी स्थिति जंगल में मोर नाचा किसने देखा की हो गई है। जो पत्रकार सामाजिक सरोकारों की बात करते हैं अव्वल पहले तो उनकी खबर छपती नहीं, दूसरे उन पर जान लेवा हमले होने लगते हैं। वर्ष 2016 में देश में सर्वाधिक 62 पत्रकारों की हत्या हुई और आज तक यह आंकड़ा 100 से पार चला गया है। यह भी ठीक है कि पीत पत्रकारिता बढ़ी है लेकिन उसके लिए भी भ्रष्टाचार दोषी है। कुल मिलाकर हिन्दी पत्रकारिता को बचाए रखने का संकट है और इससे बाहर निकलने के लिए नए दर्शन और नीति की जरूरत है। वरना हिन्दी पत्रकारिता सूचना का कागज या बोल बनकर रह जाएगी।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से]

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