Sunday 25 February 2018

पत्रकारों की सुरक्षा में सरकार और विपक्ष नाकाम

हमलावरों के साए में कलम के सिपाही
कब तक होता रहेगा सच कहने वाले पर हमला?
पत्रकार सुरक्षा कानून अधर में लटका


-उन्मेष गुजराथी

मुंबई। जनता की सुरक्षा के लिए आवाज उठाने वाले पत्रकार आजकल खुद अपनी सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित हैं। लगातार हो रहे हमलों से ‘कलम के सिपाही’ की जान को हर पल खतरा बना हुआ है। भाजपा सरकार पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अधिकारों को लेकर तनिक भी सतर्क नहीं है। इसके अलावा इससे पहले की कांग्रेस सरकार भी पत्रकारों पर हमले को लेकर बेहद ठंडा रवैया अनपाए हुए थी। गौरतलब है कि इंडिया टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार सुधीर शुक्ला पर कुछ असामजिक तत्वों ने हमला कर दिया है। इस हमले के बाद पत्रकारों द्वारा यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि जिस तरह सरकार ने पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद सुस्ती बरती, उसी तरह क्या अब हो रहे हमलों को भी वह नजरअंदाज कर रही है?

सत्तासीन पार्टी और अन्य पार्टियों के बीच साठगांठ
पत्रकारों के प्रति सत्तासीन पार्टी का तो उदासीन रवैया बना ही है, वहीं अन्य विपक्षी पार्टियां भी पत्रकारों की हक की बात करने से कतराती हैं। दरअसल, ईमानदार और साहसी पत्रकारों को कमजोर बनाने के लिए सत्तासीन पार्टी और अन्य पार्टियों के बीच साठगांठ होती है। सत्तासीन पार्टी के नेता हों या विपक्षी पार्टियों के नेता, दोनों ही तरफ से किसी भी साहसी पत्रकार को उपेक्षा के अलावा कुछ नहीं मिलता। जो भी पार्टी सत्ता में आती है, वह चाहती है कि हर सच्चा और साहसी पत्रकार उसकी ही तरफ हो जाए। वहीं सरकार के विरोध में सच दिखाने वाला कोई भी पत्रकार सत्ताधारी नेताओं की आंखों में चुभता है। इन परिस्थितियों में पत्रकारों पर हुए हमले के बाद सत्तासीन पार्टी और अन्य पार्टियां मौन रुख अपनाते हुए मुंह फेर लेती हैं, तो संदेह लाजिमी है।

पहले भी हुए हमले, कब जागेगी भाजपा सरकार?
पत्रकारों-लेखकों और सच उठाने वाले एक्टिविस्टों पर इस तरह के कई हमले पहले भी हो चुके हैं। गौरी लंकेश हों या इससे पहले महाराष्ट्र के नरेंद्र दाभोलकर या गोविंद पानसरे हों। सच कहने का साहस करने वाले इन सभी पत्रकारों -लेखकों की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी गई। पत्रकारों और डॉक्टरों को संरक्षण देने के बारे में कई बार आवाजें भी उठती रही हैं। नया कानून लाने के आश्वासन भी कई बार दिए गए, लेकिन अमल के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ है। अगर पत्रकार तथा डॉक्टरों की सुरक्षा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए, तो डॉक्टरों की स्थिति ज्यादा अच्छी कही जा सकती है, क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए मार्ड जैसा संगठन उनके साथ खड़ा है। डॉक्टरों पर हमला होने की स्थिति में मरीजों की सेवा बंद करके उनका संगठन सरकार पर दबाव ला सकता है, लेकिन पत्रकारों के साथ यह सुविधा नहीं है।

मजीठिया आयोग के अमल पर जोर क्यों नहीं?
मजीठिया आयोग पर अमल न करना पड़े इसलिए नियमित पत्रकारों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जाता है। कई समाचार पत्रों में यह स्थिति बन गई है कि संपादक को ही मार्केटिंग प्रतिनिधि समझकर उससे हर माह लाखों रुपए लाने का टारगेट दिया जाता है। अगर किसी कारणवश टारगेट पूरा नहीं हुआ तो उसे सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, इस बारे में कोई आवाज नहीं उठाता। ग्रामीण क्षेत्रों में संवाददाता के रूप में काम करने वालों की स्थिति ऐसी है। उन्हें यह तक पता नहीं है कि वे भी पीएफ के हकदार हैं या नहीं? उन्हें पीएफ जैसे शब्द कभी सुनने को भी नहीं मिलते और इसीलिए वे पीएफ न मिलने के मुद्दे पर कभी आवाज नहीं उठाते। ऐसी स्थिति में नियमित सेवाएं देने वाले पत्रकार पेंशन देने की मांग मुख्यमंत्री से किस आधार पर कर सकते हैं? इस विरोधाभास का उत्तर पत्रकारों के कुछ तथाकथित नेता क्यों नहीं देते? हालात यह हैं कि मेहनती पत्रकारों की कोई पूछ नहीं बची है।

किस काम के ये संगठन?
कहने के लिए पत्रकारों की अनेक संगठन हैं। गांव, तहसील, जिला, राज्य जैसे विविध स्तरों पर कई पंजीकृत संगठन तो बने हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता शून्य के बराबर मानी जाती रही है। सरकार पर दबाव डालने जैसी स्थिति इन संगठनों के लिए अभी बहुत दूर की कौड़ी है। पीड़ितों के साथ खड़े रहना, उनको धैर्य देना इन संगठनों के पदाधिकारियों को जंचता ही नहीं है। वाट्सऐप पर एकाध घटना की निंदा करके ये संगठन अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लेते हैं।

सूर्यवंशी पर हमले के बाद गरमाया था मुद्दा
‘डीएनए’ के पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी पर पिछले वर्ष अप्रैल माह में जब प्राणघातक हमला हुआ था, उस समय माहौल थोड़ा गरम जरूर हुआ था, लेकिन फिर सब कुछ पहले जैसा हो गया। इस प्रकरण में सरकार पक्ष से आरोपी के संबंधित होने के कारण विरोधियों ने इस मामले को पकड़ कर रखा था। उसी दौर में विधानसभा में पत्रकार सुरक्षा कानून मंजूर किया गया। इस बात का श्रेय लेने के लिए विभिन्न पत्रकार संगठनों में होड़ ही मच गई थी, लेकिन श्रेय लेने की लड़ाई कितनी निरर्थक साबित हो रही है, उसकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं था, क्योंकि पत्रकार सुरक्षा कानून संबंधी विधेयक मंजूर होने के बावजूद उसे कानूनी स्वरूप नहीं दिया गया।

पत्रकार सुरक्षा विधेयक को कानूनी दर्जा नहीं
पत्रकार सुरक्षा कानून संबंधी विधेयक मंजूर होने के बावजूद उसे कानूनी स्वरूप नहीं दिया गया। वर्ष 2017 के ग्रीष्मकालीन अधिवेशन में पास हुए इस विधेयक पर मानसून अधिवेशन बीत जाने पर भी राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इस विधेयक को कानून का दर्जा कब मिलेगा, इस बारे में विश्वास के साथ कोई कुछ भी नहीं कह सकता है। जब तक विधेयक को कानूनी दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक किसी भी पत्रकार को सुरक्षा नहीं दी जा सकेगी। अमरावती के प्रशांत कांबले हों या पालघर के न्यूज 24 के संजय सिंह हो या वृत्तमानस समाचार पत्र के संजय गिरी हों या फिर कल्याण के केतन बेटावदकर, ये सभी पत्रकार मारपीट की शिकायत के अलावा कुछ और नहीं कर सके।

राजनीतिक दबाव के कारण मुंह फेर लेती है पुलिस
कई बार राजनीतिक दबाव के कारण पुलिस शिकायत दर्ज करने से इनकार कर देती है। धारा 307 कई बार नहीं लगाई जाती। वहीं संगठन के मजबूत नहीं होने के कारण अकेला पत्रकार कुछ भी नहीं कर पाता। जिस समाचार पत्र के लिए दर-दर की ठोकरे खाकर संवाददाता समाचार लाते हैं, उस समाचार पत्र का संपादक भी उसके साथ खड़ा होगा, यह विश्वासपूर्वक कहना मुश्किल है। माना कि कई बार अपराध दर्ज भी हो गया, तो इस बात की क्या गारंटी है कि जांच सही दिशा में होगी। सुपारीबाज हमलावरों की धर-पकड़ यदि हो भी गई, तो भी हमले के पीछे का मूल उद्देश्य या मास्टरमाइंड कभी भी सामने नहीं आ पाता है।

हाई कोर्ट ने पुलिस की निष्क्रियता पर उठाई थी उंगली
सुधीर सूर्यवंशी प्रकरण में तो हाई कोर्ट ने पुलिस की निष्क्रियता पर ही ऊंगली उठाई थी, लेकिन इसके वाबजूद इसके कुछ फर्क नहीं पड़ा। सुधीर सूर्यवंशी कम से कम उच्च न्यायालय के दरवाजे तक पहुंचने में सफल हो गए, लेकिन कई छोटे पत्रकारों के पास उतनी आर्थिक ताकत नहीं थी कि वे न्यायालय का द्वारा खटखटा सकें। हर दिन के समाचार देने के बाद न्यायालय का चक्कर लगाना ही उनकी विडंबना है। कम वेतन, नौकरी में अनिश्चितता की लटकती तलवार जैसी बातों को लेकर पत्रकार न्याय की गुहार मांगने जाए तो कैसे जाए?

फर्जी मामले किए जाते हैं दर्ज
अगर किसी पत्रकार ने हिम्मत दिखाकर गुंडागर्दी करने वालों के विरोध में आवाज उठाने का निश्चय किया, तो उसके विरोध में फर्जी अपराध दर्ज कराए जाते हैं। जिस प्रकरण में वह लिप्त नहीं है, उसमें भी उसे फंसा दिया जाता है। कभी हफ्ता वसूली, तो कभी अट्रोसिटी के अपराध में उसे फंसा दिया जाता है। शहीद अंसारी, सुनील ढेपे जैसे अनेक उदाहरण इस संदर्भ में दिए जा सकते हैं।

वे शराब पीकर करते हैं तमाशा
मुंबई के प्रतिष्ठित समझे जाने वाले प्रेस क्लब के कार्यालय में कानूनी तौर पर शराब बेचने की सुविधा है। नीति के दायरे में सभी को रहने की सीख देने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर इस संगठन के अध्यक्ष हैं। सस्ती दर पर मिलने वाली शराब के नशे में रहने वाले कुछ गिने-चुने पत्रकार तथा संगठन के पदाधिकारी सर्वसामान्य पत्रकारों के साथ खड़े रहेंगे, ऐसी उम्मीद करना ही मूर्खता है। ये लोग दिखावे के लिए पत्रकारों को पेंशन दिलाने की मांग को लेकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन देते हैं, लेकिन चार-चार माह तक पत्रकारों का वेतन बकाया रखने वाले समाचार पत्रों के मालिकों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते। इन्हीं तथाकथित पत्रकारों के दिखावे से पत्रकारिता बदनाम होती है।

पत्रकारों की चिंता किसी को नहीं
पत्रकार संगठन अगर मजबूत होते तो संभवत: आज पत्रकारों को इस तरह की समस्या से जूझना नहीं पड़ता, लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकार संगठनों के पास उतना वक्त नहीं है। अपने अपने गुट के पत्रकारों के पुरस्कृत करने जितना ही उनका  अस्तित्व रह गया है। ग्रामीण स्तर के पत्रकारों के लिए अच्छे योजनाएं अमल में लाने के बारे में कोई गंभीरता से सोचता तक नहीं है। मंत्रियों के साथ निकटता की डिंग हांकने वाले कई पत्रकार हैं, लेकिन उसी पहचान का लाभ उठाकर पत्रकारों की हालत के बारे में सरकार को बताने वाले पत्रकार नहीं के बराबर हैं। पत्रकार संगठन के नाम पर अपना स्वार्थ कैसे सिद्ध किया जाए, इस ओर ज्यादातर पत्रकारों की नजर रहती है।

महज आश्वासन से क्या होगा?
कानून मंत्री रामपाल सिंह ने कहा कि पत्रकारों का सम्मान-संरक्षण जरूरी है, उनके लिए क्या अच्छा कर सकते हैं, जो जरूरत होगी उसको प्रभावी ढंग से लागू करेंगे। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने 2015-16 के आंकड़े दिए, जबकि 2017 में भी मध्यप्रदेश में मंदसौर में कमलेश जैन की हत्या के साथ पत्रकारों पर हमले के आधा दर्जन से ज्यादा मामले दर्ज हुए। लेकिन इन सबके बावजूद हमले रोकने के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता कहीं नजर नहीं आती।

शांति मार्च के बाद क्या?
कई बड़े शहरों में पत्रकारों पर बढ़ते जानलेवा हमले हत्या, हिंसा और उन्हें मिल रही धमकियों के विरोध में शांति मार्च निकाला जाता रहा है, लेकिन सवाल यह है कि इन शांति मार्च के बाद क्या होता है। गौरतलब है कि दिल्ली के अलावा गोरखपुर, चेन्नई और अरुणाचल प्रदेश में भी पत्रकारों ने शांति मार्च निकाला है। इस सिलसिले में जगह जगह संगोष्ठियों के साथ मानवश्रृंखला बनाकर विरोध दर्शाया गया। लेकिन इस तरह के मार्च से भी सरकार जागती नहीं है।

सिलसिला रुकना चाहिए
कन्नड़ भाषा की पत्रकार गौरी लंकेश की बेंगलुरु में हत्या के बाद अब त्रिपुरा में शांतनु भौमिक की रिपोर्टिंग के दौरान अपहरण कर हत्या कर दी गई। इसके बाद आज केजे सिंह की हत्या खबर आई है। केजे सिंह अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व समाचार संपादक थे। वॉचडॉग हूट ने एक संकलित रिपोर्ट में कहा कि सांसदों और कानून लागू करने वालों द्वारा पत्रकारों पर 16 महीनों में 54 बार हमलों की सूचना मिली थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तविक आंकड़ा बहुत अधिक हो सकता है क्योंकि एक मंत्री ने संसद में बताया कि 2014-15 के बीच पत्रकारों पर 142 हमले हुए। रिपोर्ट के मुताबिक इन हमलों में से प्रत्येक के पीछे स्पष्ट कहानियां प्रकट होती हैं। पंजाब के मोहाली में वरिष्ठ पत्रकार केजे सिंह और उनकी मां गुरुचरन कौर संदिग्ध अवस्था में मृत पाई गई। सवाल यह उठता है कि हमलों का यह सिलसिला कब रुकेगा?

हत्याकांड के आरोपियों ने कराया हमला!
गौरतलब है कि एक निजी टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार सुधीर शुक्ला पर बुधवार सुबह कुछ आसामजिक तत्वों ने हमला किया। इस हमले में उन्हें बहुत गंभीर चोट लगी है। यह हमला पत्रकार शुक्ला पर मीरा रोड में ट्रेन से यात्रा करने के दौरान किया गया। आशंका है कि उषाबाई कांबले और उनकी डेढ़ वर्ष की नतिनी राशि के दोहरे हत्याकांड के आरोपियों के परिवार के लोगों का इस हमले में हाथ है।

घटना के दिन मुख्य आरोपी के माता-पिता भी नागपुर में ही थे, ऐसी चर्चा है। इस कारण पुलिस ने मंगलवार को आरोपियों के परिजन से खूब पूछताछ की। इसी तरह उषाबाई का मोबाइल भी खोजने की कोशिश की गई। जिस हथियार से गला काटा गया, वह हथियार अभी तक पुलिस को नहीं मिल सका है। पुलिस का कहना है कि आरोपी उस हथियार के बारे में कोई जानकारी नहीं दे रहा है।

मध्य प्रदेश पहले नंबर पर
देश में मध्य प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं।  यह जानकारी खुद केंद्र सरकार ने दी है। बलात्कार, बुजुर्गों के साथ अपराध जैसे कई मामलों में पहले पायदान के आसपास खड़ा मध्यप्रदेश, पत्रकारों पर हमलों के मामले में भी नंबर वन है, यह जानकारी खुद केंद्र सरकार ने लोकसभा में दी है।

पिछले दो साल में हमले

43   - मध्यप्रदेश

07 - आंध्र प्रदेश

05 - राजस्थान

05 - त्रिपुरा

04 - उत्तर प्रदेश

Related Link:  https://goo.gl/gMcj3n

Unmesh Gujarathi

Resident Editor, #DabangDunia
www.unmeshgujarathi.com
twitter.com/unmeshgujarathi

https://www.facebook.com/unmesh.gujarathi.1/
(09322 755 098)

(साभार: दबंग दुनिया)

#MajithiaWageBoardsSalary, MajithiaWageBoardsSalary, Majithia Wage Boards Salary

No comments:

Post a Comment