Tuesday 4 August 2020

खत्म होती पत्रकारिता और गैंग में बंटे पत्रकार


- एजेंडा पत्रकारिता ने मीडिया को लाइजनर बना दिया

- वास्तविक पत्रकारिता अब केवल सोशल मीडिया पर

उत्तराखंड के मीडिया जगत में इन दिनों जो कुछ चल रहा है वह नेशनल मीडिया की प्रतिछाया मात्र है। उत्तराखंड में केरल के बाद सबसे अधिक साक्षरता है लेकिन साक्षरता का आकलन बुद्धिमानी से नहीं किया जा सकता है। साक्षर होने का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता है कि लोग बहुत पढ़े-लिखे हैं। बस हस्ताक्षर करना जानते हैं। यही हाल यहां के मीडिया का है। अध-कचरा ज्ञान, सड़ी-गली हिन्दी और बेहद कमजोर अंग्रेजी का ज्ञान, दिमाग में खुराफात और मेहनत किए बिना जल्द ही बहुत बड़ा और नामी पत्रकार बनने की चाहत लिए हैं यहां के अधिकांश पत्रकार। कुंए के मेढ़क की तरह अपने को बड़ा और बडे़ पत्रकार समझने वालों की यहां कोई कमी नहीं है। मैं देहरादून के दर्जनों ऐसे पत्रकारों को जानता हूं जो छुटमुलपुर या सहारनपुर तक भी नहीं गए। न ही उन्हें पहाड़ की समझ है और न यहां के मुद्दों की। लेकिन अंदर फट्टा गारमेंट पहन आंखों पर चश्मा लगा गर्दन अकड़ा कर चलते हैं और कहते हैं कि पत्रकार हैं। देहरादून के मुख्यधारा की मीडिया में इस तरह के दिमागी दिवालियेपन के शिकार पत्रकारों की एक बड़ी भीड़ है।

मैं पिछले दस साल से यहां के मुख्यधारा के तथाकथित बड़े पत्रकारों को देख रहा हूं, गिने-चुने पत्रकारों को छोड़कर कोई एक ढंग की स्टोरी या याद करने लायक स्टोरी नहीं निकाल सका है क्योंकि उनकी पत्रकारिता प्रेस नोट के इर्द-गिर्द घूमती है। स्‍पॉट रिपोर्टिंग, फेक्ट फाइंडिंग, एसआईटी, स्कूप या सीरीज स्टोरीज से इनका कोई लेना-देना नहीं हैं। उनका एकसूत्रीय एजेंडा है कि मालिकों के लिए सत्ता पक्ष के साथ लाइजिंग करना। सुबह अखबार या टीवी देखो तो पत्रकारिता कम और डाकिया का काम अधिक लगता है। जो पत्रकार कुछ करना भी चाहते हैं तो डीएनई, एनई या संपादक या मालिक उनका खुमार उतार देते हैं। यही हाल इलेक्ट्रानिक मीडिया का है। पांच-दस हजार रुपये पगार पाने वाला स्ट्रिंगर खुद ही कैमरा भी चलाएगा और पीटू भी करेगा। ऐसे में उसका ध्यान पत्रकारिता से कहीं अधिक लिफाफे पर होता है जिसमें प्रेस नोट के साथ गांधीजी की पावर होती है। यह उसकी मजबूरी भी है और निकम्मापन भी।

इस दौर में जब लोकतंत्र में एक ओर तंत्र है और दूसरी ओर लोक। तो मीडिया की भूमिका अहम होनी चाहिए थी, लेकिन मीडिया स्पष्ट तौर पर बंट गया है। मीडिया एजेंडा पत्रकारिता कर रहा है। यानी गैंग में बंट गया है। इन दिनों उत्तराखंड में पत्रकारों के बीच गैंगवार सा छिड़ा हुआ है। दो ग्रुप बन गए हैं सत्ता पक्ष और सत्ता के खिलाफ। इस गैंगवार के बीच जनता और जनपक्षधरता हाशिए पर चली गई है। एजेंड़ा पत्रकारिता में मुद्दे गौण हैं और पक्षधरता हावी हो गई है।

निश्चित तौर पर एजेंडा पत्रकारिता कर रहे एक ग्रुप को लाभ हो रहा है और दूसरे को नुकसान। पर गैंग तो गैंग है। सभी जानते हैं कि मुख्यधारा का मीडिया अब सरकारी भौंपू बनकर रहा गया है। पृथ्वीराज रासौ लिखने वाले चदबरदाई टाइप चारण, जो राजा के गीत गाए और राजदरबारी कहलाए। असल पत्रकारिता अब सोशल मीडिया पर हो रही है, इसलिए गैंगवार का कारण भी सोशल मीडिया है। मुख्यधारा के पत्रकारों की बेचैनी भी यही है। लोग झूठ को करीने से परोसने वाले न्यूज चैनलों पर होने वाली गुंडा-गिर्दी, अभद्रता, छदम युद्ध, महिमा मंडन और व्यक्ति पुराण से उबकाई करने लगे हैं। अधिकांश अच्छे और नामी पत्रकारों ने अखबार पढ़ने बंद कर दिए हैं और टीवी देखना छोड़ दिया है। उनका समय अब सोशल मीडिया पर बीतता है और उनके विचार भी वहीं नजर आते हैं। दरअसल, रियल जर्नलिज्म अब सोशल मीडिया पर ही हो रहा है। सोशल मीडिया परं साख बन और बिगड़ रही हैं।

टीवी न्यूज चैनल और मुख्यधारा के अखबारों ने जिस तेजी के साथ जनता का साथ छोड़ कर सत्ता का दामन थामा है, जनता उससे भी अधिक तेजी से चैनल और अखबारों का साथ छोड़ रहे हैं। मुख्यधारा के अखबार भले ही एबीसी की झूठी रिपोर्ट दिखा रहे हों लेकिन सच यही है कि उनकी प्रसार संख्या तेजी से घट रही है, तो टीआरपी में उत्तराखंड-यूपी के सभी चैनलों की वाट लग रही है। कारण, मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। या तेजी से खो रही है। लोग अब खबर को खबर मानने को तैयार नहीं है। उन्हें लग रहा है कि वो अखबार या वो चैनल बता रहा है तो उन्हें वो न्यूज बायस लगती है, चाहे वो सच्ची हो। लोगों की यह धारणा मीडिया के लिए सबसे खतरनाक है। खतरनाक बात यह भी है कुछ पत्रकार अच्छे हैं, तटस्थ हैं, लेकिन सब देख चुप हैं। यह चुप्पी भी खतरनाक है।

उत्तराखंड के पत्रकारों की कहानी उस मासूम कबूतर जैसी हो गई है जो बिल्ली को देख आंख बंद कर देता है कि खतरा टल गया है। दरअसल, खतरा अब शुरू हुआ है। यदि यह गैंगवार जारी रहेगी तो देखना सत्ता में कोई भी हो, और कोई भी सत्ता में आए, हर हाल में पत्रकार ही मारा जाएगा। खतरा सबको है। अंतर यह है कि आज मेरी बारी-कल तेरी बारी। लेकिन समझाएं तो किसे? कुछ पावर के नशे में हैं तो कुछ पावर की तलाश में। यही तथाकथित पावर उनका भ्रम है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

No comments:

Post a Comment