Monday 7 January 2019

एक मार्मिक अपील... इस मिशन को बचा लीजिए



आज से लगभग दस वर्ष पहले जब स्व. भवानी शंकर ने मुझसे संपर्क कर “रीजनल रिपोर्टर” मासिक पत्रिका निकालने का इरादा इजहार किया तो मेरी ठंडी प्रतिक्रया का शायद उसे पहले से ही अंदाजा था। हालांकि उसके दृढ़ निश्चय और मेरी कायम आशंका के बाबजूद मैंने साथ देने का वायदा कर दिया था। मुझे उम्मीद थी कि कुछ महीने बाद इसका भूत उतर जाएगा और बाजार के दबावों के कारण जल्दी ही “मिशन”कुरुकुरु स्वाहा हो जाएगा। क्योंकि कुछ एक पत्रिकाओं का हम हश्र देख चुके थे जिनसे हम जुड़े थे। दूसरी आशंका मुझे यह भी थी कि यदि येनकेन प्रकारेण पत्रिका जारी भी रही तो भी सामग्री की गुणवत्ता की निरंतरता बनाए रखना बेहद चुनौती पूर्ण होता है। अच्छे लेखकों से निरंतर लिखाते रहना उस समय असंभव सा प्रतीत हो रहा था। परन्तु जब पत्रिका निकली फिर एक के बाद एक निकलती चली गई... बीच में थोड़ा बहुत इधर...उधर के अतिरिक्त पत्रिका की निरंतरता और सामग्री की उत्क्रिस्टता लगातार बनी रही। भवानी का सपना इसे सदस्यता आधारित पत्रिका बनाने का था... ताकि विज्ञापनों पर निर्भरता और उसके कारण समझौतों से बचा जा सके।

साढ़े छह सात साल तक भवानी ने तमाम दबावों के बाबजूद अपना मिशन जारी ही नहीं रखा उसको लगभग आंदोलन का रूप भी दिया... इन्हीं दबावों के कारण उसने स्वस्थ्य से समझौता भी किया और अंततः उनकी मृत्यु का कारण भी यह दबाव बहुत हद तक रहा। उनके शोक में उनके पिता श्री उमाशंकर भी उसी दिन चल बसे। इसके बाद पत्रिका का सम्पूर्ण जिम्मा भवानी की पत्नी गंगा अस्नोड़ा थपलियाल, जोकि पेशे से पत्रकार थी और कुछ साल से सम्पूर्णता में पत्रिका के लिए काम कर रही थे, के कन्धों पर आ गया। सारे परिवार, बूढ़ी सास, दो बच्चों की जिम्मेदारी के साथ इस पत्रिका को चलाने में गंगा असनोडा थपलियाल ने खुद को झोंक दिया। इस दौर में हम जैसे लोग चाह कर भी कुछ ज्यादा कर नहीं पाए इस पत्रिका और गंगा की मदद की दृष्टि से देखें तो। अक्‍टूबर में भवानी शंकर के जन्मदिवस पर पत्रिका के दसवीं वर्षगांठ पूरी होने पर एक कार्यक्रम था। (उसमें भी श्रीनगर ना जा पाया)। इस दौरान पत्रिका पर एक और कुठाराघात हुआ। भाई ललित मोहन कोठियां जोकि एक मूर्धन्य पत्रकार और एक सोने जैसे आदमी थे, पत्रिका के वरिष्ठ सहयोगी थे, भी चल बसे। 
दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर पिछले दस साल में पत्रिका में प्रकाशित कुछ चुनिन्दा लेखों के पुनर्प्रकाशन का एक संकलन निकाला गया जोकि एक सुन्दर कलेवर में उपलब्ध है।

इस दौरान गंगा की तबियत भी खराब हो गई। लंबे समय बाद गंगा से कल मुलाक़ात हुई। गंगा को पहली बार मैंने चिंतित देखा। इतने गंभीर झंझावातों को झेलने के बाबजूद यह आयरन लेडी विचलित नहीं हुई थी।

इस दौरान कुछ लोगों ने संपर्क कर पत्रिका के अधिकार खरीदने की मुहिम भी चलाई। परंतु गंगा का इरादा इस पत्रिका को बेचने का इसलिए नहीं है क्योंकि स्व. भवानी शंकर के सपने को वाह हरगिज नहीं तोड़ना चाहती। जो लोग रीजनल रिपोर्टर को जानते हैं उन्हें भी लगता है कि यह पत्रिका प्रकाशनों के मरुस्थल में एक नखलिस्तान की तरह है।

आइए इस मिशन को बचाने में हमारा सहयोग करें। अपने सामर्थ्य से पत्रिका को सहयोग करें और कमसे कम इसे आर्थिक दबावों से बचाइए।

गंगा का फ़ोन नंबर है: 8126921909 and 9412079290
Account Number :
34956580402..SBI Srinagar Garhwal..
IFASC: SBIN0003181

[सहयोगाकांक्षी : एस. पी. सती]

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