Wednesday 9 January 2019

मजीठिया: हाथी को भारी पड़ी होशियारी, चींटी से खाई फिर मात

पैसे और पाखंड के मद में चूर हाथी को एक बार फिर चींटी ने चित्त कर दिया। ना तो फर्जी कागजात के आधार पर कब्जाए गढ़ के ऊपरी हिस्से पर बैठे कारिंदों की होशियारी काम आई और न ही भारी पैसा खर्च कर खड़े किए गए महंगे एवं नामचीन वकील। मध्यप्रदेश हाइकोर्ट की इंदौर बैंच के सामने झूठे तर्क नहीं चले और हाईकोर्ट ने पत्रिका की याचिका खारिज कर दी। साथ ही अपने फैसले को रिपोर्टेबल भी बना दिया ताकि कानून की मासिक पत्रिकाओं में फैसला छपकर ज्यादा से ज्यादा प्रचारित भी हो।

मामला वही है, मीडिया मुगल और स्वयंभू पत्रकारिता शिरोमणी के समाचार पत्र में काम करने वाली छोटी सी चींटी 'जितेंद्र सिंह जाट' का। जितेंद को पत्रिका में प्रथम नियुक्ति 01.11.2012 को मिली थी। जब स्वयंभू पत्रकारिता शिरोमणी के कारिंदों ने मजीठिया से बचने के लिए जून 2014 में सभी कर्मचारियों से जबरन एक प्री टाइप्ड कागज पर हस्ताक्षर करवाए तो जितेंद्र से भी करवाए गए। चींटियों की क्या बिसात। हाथी और उसके कारिंदे इन कागजों पर चींटियों के हस्ताक्षर पाकर मस्त हो गए। इतने मस्त कि होश ही नहीं रहा कि यही कागज बाद में चल कर उनके पस्त होने का कारण बनेगा। कागज तो कागज होता है, इसलिए कहा जाता है कि कागज बोलता है।

मजीठिया वेजबोर्ड संबंधी अधिसूचना के अनुसार किसी भी कर्मचारी से 20-जे की अंरटेकिंग 2 दिसंबर 2011 तक ही (यानी अधिसूचना 11.11.2011 से तीन सप्ताह के भीतर) ली जा सकती थी। पत्रिका ने सभी चींटियों से जिस कागज पर जून 2014 में जबरन साइन करवाए थे, उन्हें ही 20-जे की अंडरटेकिंग बताया। ग्वालियर जितेंद्र ने लेबर कमीश्नर के यहां मजीठिया के लिए 17(1) का आवेदन लगाया तो पत्रिका ने जवाब में कह दिया कि जितेंद्र ने 20-जे के तहत विकल्प दे रखा है इसलिए वे मजीठिया के तहत वेतनमान पाने के हकदार नहीं हैं।

जितेंद्र ने अपने आवेदन के साथ 22 लाख रुपये बकाया होने का ड्यू-ड्रॉन भी लगाया था। मदमस्त हाथी के डेढ़ सयाने कारिंदे अपने जवाबों में 20-जे का झुंझुना बजाते रहे लेकिन उन्हें बकाया पर आपत्ति का होश ही नहीं आया। हाथी और हाथीपुत्र को यह समझाते रहे कि मामला 20-जे के आधार पर ही खारिज हो जाएगा।  सयाने कारिंदे जून 2014 में लिए गए जिस कागज को दिखाकर फूले नहीं समा रहे थे, उसी कागज पर हमारी समझदार चींटी की नजरें टिकी थीं। चींटी ने इसी कागज को अपना हथियार बनाया और लेबर कमिश्नर के यहां हाथी को इसी कागज के आधार पर चित्त कर दिया।

दरअसल, जितेंद्र कंपनी में भर्ती ही उस समय हुए थे जब 20-जे के तहत विकल्प देने की तीन सप्ताह की अवधि समाप्त हो गई थी। लेबर कमीश्नर ने माना कि जितेंद्र से तो 20-जे का विकल्प लिया ही नहीं जा सकता था। जितेंद्र द्वारा बकाया मांगे गए 22 लाख रुपये के संबंध में पत्रिका ने कुछ कहा नहीं था इसलिए लेबर कमीश्नर ने पत्रिका पर बकाया माना और रिकवरी सर्टिफिकेट जारी कर दिया। पत्रिका ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी और अब हाईकोर्ट में कहा कि बकाया को लेकर भी विवाद था। 20-जे का झुंझुना भी बजाया।

उच्च न्यायालय ने भी सुनवाई के बाद माना कि 20-जे के तहत विकल्प देने की निर्धारित तीन सप्ताह की अवधि समाप्त होने के बाद किसी कर्मचारी से अंडरटेकिंग ली ही नहीं जा सकती। यदि ली गई है तो वह निरर्थक है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि जब लेबर कमीश्नर के सामने बकाया राशि को लेकर आपत्ति नहीं की तो अब ऐसी आपत्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता।


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