Saturday 12 January 2019

भास्कर के संपादक ने चुनाव में पांच लाख डकारे तो आजन्म निकाल दिया

प्रशांत कालीधर और हेमंत शर्मा


  • दूसरे अखबार ने बेईमान संपादक को तुंरत गले लगा लिया
  • मालिकों ने चुनाव में पेड न्यूज से कितना डकारा, कोई हिसाब नहीं?
  • एथिक्स, ईमानदारी और मिशनरी पत्रकारिता छोटे पत्रकारों के लिए


पत्रकारिता अब अजीब पहेली है। संपादक अब खबरों के लिए कम और मालिकों के लिए ज्यादा काम करते हैं। अधिकांश अखबारों व चैनलों के संपादक विवादित हैं। स्वच्छ छवि के संपादक अब नजर नहीं आते हैं। मसलन हर अखबार का एडिशन निकालने के पीछे मालिकों का अलग ध्येय है। हर एक एडिशन का संपादक मोल-भाव कर रखा जाता है। जैसे उत्तराखंड में खनन और यूनिवर्सिटी खोलने के लिए अखबार और चैनल शुरू होते रहे हैं और बंद भी। इसलिए अधिकांश अखबार सरकार के भौंपू की तर्ज पर काम करते हैं।

मीडिया में अब खबरों को लेकर संग्राम नहीं होता बल्कि सरकार के नजदीकी को लेकर होता है। हाल में मेरा देहरादून के सचिवालय में एक अधिकारी से महज इसलिए झगड़ा हो गया कि वह सत्ता के पक्षधर पत्रकार को आधे घंटे से अपने पास बिठाए हुए था और मैं बाहर लॉबी में इंतजार कर रहा था। जब मैं दरवाजा खोल कर अंदर धमका तो साहब मुझ पर बरस पड़े, कि बिना पूछे आ गया। मैंने जवाब दिया कि यदि निजी काम से आऊं तो धकिया कर बाहर भगा देना, जनता के काम से आया हूं तो जवाब तो देना ही होगा। मैंने जब अधिकारी से पूछा ये भी पत्रकार हैं, इनको क्या स्पेशल खबर दे रहे हो तो वो झेंप गये। कारण, अब पत्रकारिता मिशनरी तो छाड़िए, सामाजिक पैरोकारी की भी नहीं रही। सब गोलमाल है।

एक उदाहरण और दे रहा हूं। भास्कर के रतलाम एडिशन के संपादक प्रशांत कालीधर को मालिक सुधीर अग्रवाल ने आजन्म भास्कर से निकाल दिया कि उसने हाल में हुए चुनाव में एक नेता से खबरों के बदले में पांच लाख रुपये ले लिए थे। इसके लिए सुधीर अग्रवाल जी ने बकायदा सभी ब्यूरो चीफ को मेल भी की। सबसे हैरत वाली बात यह है कि इधर भास्कर ने प्रशांत कालीधर को निकाला, उधर, प्रजातंत्र के हेमंत शर्मा ने प्रशांत को गले लगा लिया और नौकरी दे दी। अब मेरे जेहन में दो सवाल हैं कि संपादकों व बड़े पत्रकारों को एक मिनट या एक दिन में नौकरी मिल जाती है, लेकिन साधारण पत्रकार को अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने पर ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता है। क्या प्रशांत कालीधर को नौकरी दी जानी चाहिए थी जबकि उन्होंने अपना गुनाह भी स्वीकार कर लिया था? दूसरे प्रशांत कालीधर ने तो महज पांच लाख हड़पे। भास्कर ने पेड न्यूज से कितने डकारे, ये बात सुधीर अग्रवाल नहीं बताएंगे।

दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान चुनाव से पहले पूरे पेज के विज्ञापन देते हैं कि हम निष्पक्ष समाचार छापेंगे। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, नेताओं से पैकेज की बात होती है और पेड न्यूज छापे जाते हैं? लेकिन इस नक्कारखाने में किसकी तूती बोलती है। सारे नियम-कायदे, बेरोजगारी -शोषण हम जैसे छोटे पत्रकारों के लिए होते हैं। एथिक्स और कुछ हद तक मिशनरी पत्रकारिता भी। बाकी तो सिर्फ दलाली और विशुद्ध व्यवसायी हैं।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से]

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