Tuesday 11 July 2017

एक कलमकार की मौत और सौ सवाल

कहने को तो अब हिमाचल प्रदेश का शहर धर्मशाला प्रदेश की दूसरी राजधानी है और स्मार्ट सिटी भी बनने जा रही है, मगर आज से दो दशक पहले भी धर्मशाला की प्रदेश की राजनीति में काफी अहमियत थी। तब की पत्रकारिता आज के दौर से कहीं अलग और काफी मुश्किल भरा टास्क थी। कुछ गिनी चुनीं अखबारें प्रदेश के बाहर से छपकर आती थीं और इनके पत्रकारों के तौर पर घाघ लोगों का कब्जा था। किसी नए खबरनवीस के लिए अखबार में जगह तलाशना कोयले के खान में हीरा तलाशने जैसा मुश्किल काम था। सीनियर भी ऐसे थे, जो उस समय के दौर में मिलने वाली तबज्जों और आवभगत के चलते किसी को करीब फटकने नहीं देते थे, और शागिर्द की बात करें तो ऐसा सांप सुघ जाता था कि मानो वह एकलव्य बनकर उनके लक्ष्य को भेदने को तैयार हो।

ऐसे ही दौर में कुछ अच्छे लोगों की अंगुली पकड़ कर एक दुबले पतले लड़के ने भी कलम को हथियार बनाकर एक लक्ष्य निर्धारित किया। तब पत्रकार बनने के लिए तनख्वाह की सोचना तो दूर की बात खबर भेजने तक के लिए जेब ढिली करनी पड़ती थी। वो समय ऐसा था जब पत्रकारिता का जुनून जिसके सिर पर चढ़ता, वो वेतन की परवाह किए बिना खुद की जेब से भी खर्चा करके पत्रकार बनना चाहता था। पत्रकार भी वही बनते जो फक्कड़पन की परवाह किए बिना अपनी खबर के प्रकाशित होने पर अपना सीना चौड़ा किए संतोष के साथ शान से जीते थे। तब जनसत्ता जैसी व्यवस्था से लडऩे वाली अखबार का साथ मिलना किसी सपने के साकार होने जैसा ही था।

ऐसे ही दौर में कलम थामने वाला यह पतला दुबला युवक था राकेश पठानिया। पत्रकारिता के शोक या कहें जुनून ने उसके सामान्य से व्यक्तित्व को तराशने के साथ-साथ कुछ ऐब भी दे दिए। लगातार धूम्रपान करना और जमकर शराब पीने की लत एक दाग की तरह थी। शायद यही लत इस कलमकार को हम सब से दूर ले जाने वाली थी। या कहें कि उसका शांत स्वभाव और गुस्से व रोष को अंदर ही दबाए रखने की कला उसे अंदर से खोखला कर सकती थी। ये सब बातें इसलिए कर रहा हूं कि रविवार को गुरु पूर्णिमा के दिन सुबह-सुबह उठते ही राकेश पठानिया की असमय मृत्यु का दहलाने वाला समाचार मिला। सिर्फ मैं ही नहीं उन्हें जानने व उनके साथ उठने बैठने वाला हर इनसान सकते में था। यह बात तो हर कोई जानता था कि राकेश पठानिया की तबीयत ठीक नहीं चल रही है और काफी समय से उनका ईलाज चल रहा है। इसकी बीमारी के चलते उन्हें सीटी आफिस से हटाकर बनोई स्थित प्रकाशन कार्यालय के डैस्क में भेज दिया गया है। दो दशक से जो जगह जिसकी कर्मस्थली रही हो और अचानक बूरा समय आते ही उस जगह से बेदर करना भी किसी सदमे से कम नहीं रहा होगा। डैस्क में काम के साथ-साथ ईलाज भी चलता रहा, मगर दुबले शरीर में काम व चिंता के बोझ के अलावा भ_ी की तरह जलते सिगरेट के धूंए से बेदम हो चुके फेफड़े साथ छोड़ चुके थे। चरमरा चुकी चिकित्सा व्यवस्था भला किसी पत्रकार को छोड़ती भी कैसे। बीमारी कुछ और ईलाज कुछ। जब असल बीमारी को पता चला तब तक मौत का केंकड़ा फेफड़ों को कुतर चुका था। शांत स्वभाव भला बदलता भी कैसे। दर्द व रोष को अंदर ही दबाने की कला अब धीरे-धीरे इस खबरनवीस को किसी ओर ही दुनिया में ले जाने को आतूर थी। किसी को इसकी भनक तक नहीं चली थी, नहीं तो बाद में अफसोस करने वाले भला इस तरह उसे तिल-तिल मरता नहीं देखते।

महज 54-55 वर्ष की उम्र में राकेश पठानिया की मौत से पत्रकार समाज सकते में है। पगार से ज्यादा बेगार की चीज बन चुकी पत्रकारिता के चलते राकेश पठानिया की शादी भी काफी अधिक उम्र में हुई थी। एक बेटा महज सात साल का और बेटी 12 वर्ष की है। छोटे-छोटे बच्चों के सिर पर से बाप का साया उठना और भी चिंता का विषय है। घर-परिवार की बात करें तो वर्षों से किराए के मकान में रहने वाला परिवार आज भी वहीं पर है। ऐसे में परिवार की  चिंता भी हर किसी के जहन में है। दैनिक जागरण में सीनियर चीफ रिपोर्टर की पोस्ट पर नियमित कर्मी होने के चलते अब सबका ध्यान कंपनी से मिलने वाली आर्थिक सहायता पर टिका है। सभी मदद को तैयार हैं, मगर कितनी मदद होगी इस पर स्वत: सोचा जा सकता है। आखिर आज दिन तक एक पत्रकार की मौत पर परिवार को मिला भी क्या है। अफसोस और जीवन में किए कार्यों की प्रशंसा के चंद शब्दों से ज्यादा कोई दे भी क्या सकता है। आर्थिक मदद भी कर देंगे तो क्या इतने छोटे बच्चों के लंबे पड़े भविष्य की सफलता के लिए इनके साथ टिके रहना हर किसी के बस में है। पत्रकारों की हालत तो यह है कि दूसरों के दुखों को बखान तो कर सकते हैं, मगर खुद पर मुसीबत आती है तो अपने ही कन्नी काटे जाते हैं। कुल मिलाकर पत्रकारिता संकट के दौर में है। वेतन के लिए पत्रकार नौकरियां खोए बैठे हैं। अधिकार मिल नहीं पा रहा, ऊपर से एक पत्रकार का इस तरह जाना पत्रकारिता के भविष्य की तस्वीर नहीं तो ओर क्या है।

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