Sunday 17 January 2021

एक पत्रकार के निधन के बाद उसका परिवार क्यों बदहाल?


-  क्या पत्रकार का ही समाज के प्रति दायित्व है समाज का नहीं?

- सबक भी, जिन नेताओं की चाटुकारिता करते हैं पत्रकार, वो पल में मुंह फेर लेते हैं। 

15 जनवरी। देहरादून के मेहंुवाला के वन विहार स्थित एक मकान। ढाई साल का शिवांश मुझे देखते ही अपनी मां के पल्लू से चिपक गया और रोने लगा। पिछले चार महीने से उसका यही हाल है। वह अजनबी को देखते ही डर जाता है। इस मासूम ने कोरोना को तो मात दे दी लेकिन कोरोना ने उसके पिता आशुतोष और दादी प्रेमा ममगाईं को उससे छीन लिया। पिछले चार महीने से उसे पिता नजर नहीं आता। पहले रट लगाता था पापा-पापा, लेकिन अब इस शब्द से सरोकार नहीं रहा। पापा की सरपरस्ती हटते ही मासूम अजनबियों से डर जाता है और रोने लगता है।


31 अगस्त 2020 वो मनहूस दिन था जब आशुतोष ममगाईं का आकास्मिक निधन हो गया। 33 वर्षीय आशुतोष युवा पत्रकार था और चुनावी बिगुल साप्ताहिक अखबार निकालता था। उसे बुखार था। परिजन समझ नहीं पाये कि वो कोरोना का शिकार है। उसके निधन के पांचवें दिन उसकी मां का कोरोना से निधन हो गया। इसके बाद जांच में आशुतोष के पिता कालिका ममगाईं, पत्नी संतोषी और ढाई साल के बेटे को कोरोना की पुष्टि हुई और एम्स ऋषिकेश में उनका उपचार हो गया।


आशुतोष केंद्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक का कट्टर समर्थक था। जब निशंक हरिद्वार सांसद थे वो सांसद प्रतिनिधि था। हर समय निशंक के बुलावे या समर्थन में कहीं भी पहुंच जाता। मैंने एक स्टोरी निशंक के गांव पिनानी जाकर की तो वो चिढ़ गया था और मुझसे जबरदस्त झगड़ा भी किया। मगर देखिए, नेता किसका होता है। उसके तो हजारों समर्थक होते हैं। इसी तर्ज पर रमेश पोखरियाल आशुतोष को भुला बैठे। चार महीने तक उसे याद नहीं किया। भीगी पलकों को हाथों से पोंछते पिता कालिका ममगाईं कहते हैं कि निशंक पिछले दिनों घर आए थे सांत्वना देने। कुछ मदद की या वादा किया? इस सवाल पर कालिका ममगाईं सिर इनकार में हिला देते हैं। आशुतोष ममगाईं किसी की मदद के लिए हरसमय तत्पर रहता था। कोरोना काल में उसने सैकड़ों लोगों को भोजन कराने के लिए अन्नपूर्णा अभियान में हिस्सा लिया। रात दिन प्रवासी मजदूरों और जरूरतमंदों की सेवा में लगा रहा। शायद यह कोरोना भी उसे वहीं से मिला होगा। किसी ने मदद की? पत्रकारों की संस्था ने डेढृ लाख दिये। जबकि पत्रकार कल्याण कोष से पांच लाख और कोरोना वारियर्स के तौर पर पत्रकारों को भी दस लाख देने की सरकार की घोषणा थी, लेकिन आशुतोष के परिवार को यह मदद नहीं मिली। 


अब पति और सास की आकास्मिक मौत के बाद 27 वर्षीय संतोषी टूट चुकी है। ससुर बताते हैं कि वह गुमसुम रहती है बहुत कम बोलती है। संतोषी एमए पास है लेकिन अब भविष्य अंधकार में है। ससुर कालिका ममगाई सेवानिवृत्त शिक्षक हैं। उन्हें चिन्ता सता रही है कि मेरे बाद मां-बेटे का क्या होगा? 


मेरा सवाल यह है कि पत्रकार समाज के प्रति अपना दायित्व पूरा करने के लिए हरसमय तत्पर रहता है। भले ही आज वह बदनाम है उसे गोदी मीडिया या बिकाऊ कहा जा रहा हो, लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि एक पत्रकार चाय की एक प्याली में बिक जाता है। वह आपका हर सुख-दुख सुन लेता है जबकि आपके बच्चे आपकी पांच मिनट भी नहीं सुनते। ऐसे में क्या समाज का दायित्व नहीं कि वो ऐसे पत्रकारों के परिजनों की मदद के लिए आगे आएं?


[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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