Friday 27 July 2018

लेबर कोर्ट में जीता ठेका कर्मी, मिलेगा मजीठिया वेतनमान, कहा- मैं आज लगभग दस साल बाद खुलकर हंसा

पत्रकारिता की अवैध संतान हैं रामकृपाल सिंह, शशि शेखर और उपेंद्र राय 
पीत पत्रकारिता, भ्रष्टाचार और निजी हितों के लिए होनहार पत्रकारों का गला घोंटा
बड़े-बड़े शब्द थूकने वाले ये दलाल किस्म के पत्रकार

मैं आज लगभग दस साल बाद खुलकर हंसा। कारण था, सहारा प्रबंधन के खिलाफ लेबर कोर्ट में केस जीतना। मैंने प्रबंधन को पहले चरण में हरा दिया और इससे मेरा न्याय व्यवस्था पर भरोसा भी बढ़ा। अदालत ने माना कि सहारा ने मेरे साथ अन्याय किया और मेरे वेतन व अन्य मदों मे अनियमिताएं कीं। मैं जानता हूं कि सहारा प्रबंधन हाईकोर्ट जा सकता है, लेकिन मुझे उसकी परवाह नहीं है। आज मैं दिल का गुबार निकाल रहा हूं। शुरुआत अमर उजाला नई दिल्ली संस्करण से। मैंने अमर उजाला में लगभग आठ वर्ष कड़ी मेहनत की। हरियाणा में अमर उजाला को उजाला सुप्रीम का ग्रुप माना जाता था। मारूति आंदोलन में अमर उजाला को एक नई पहचान दिलाने का काम किया। पहली बार मारुति ने किसी हिंदी अखबार को विज्ञापन दिया तो उसका कारण मेरी लेखनी थी, जिस पर मुझे गर्व है। इस आठ साल की नौकरी में अमर उजाला ने मेरा कई बार तबादला किया। जवान था, अपना खून चुसवा रहा था। वर्ष 2004-05 की बात है। अमर उजाला में कारपोरेट कल्चर आ गया। लाये शशि शेखर। राजनीतिक खबरें बंद कर दी गई और कारपोरेट दलाली शुरू। मुझे तब अचम्भा हुआ कि शशि शेखर के बेटे को हीरो होंडा की मोटर साइकिल चाहिए थी, वो उसे फ्री में हासिल करना चाहते थे, लेकिन हाशमी जी जो अब पायनियर हरियाणा के संपादक हैं, ने अच्छा खासा डिस्काउंट दिला दिया। आश्चर्य यह है कि उस मोटरसाइकिल को गुड़गांव से नोएडा पहुंचाने के लिए एक रिपोर्टर को भेजा गया और खर्चा दिखाया गया अमर उजाला के एकाउंट में। ये छोटी सी बात है। अमर उजाला नोएडा में एक थे मनीष मिश्रा। अब संपादक हैं, उनका काम शशि शेखर जी के घर सब्जी पहुंचाने का था। ऐसे पत्रकारों को सबसे अधिक तरक्की मिली और मुझे मिला, 311 रुपये का इंक्रीमेंट। शशि शेखर के आसपास आज भी वही चमचे टाइप संपादक हैं। खैर, मैंने उस इंक्रीमेंट लेटर पर लिखा घोर निंदनीय। तत्कालीन एनसीआर संपादक शम्भूनाथ शुक्ल जी ने मुझे नोएडा तलब कर लिया और कहा, क्यों भगत सिंह बन रहे हो। इस टिप्पणी को हटा दो। बहुत कहने पर मैंने टिप्पणी पर वाइटनर लगाया और साइन कर दिये। तय कर लिया था कि अब अमर उजाला में काम नहीं करना। चार महीने तक रिजाइन लेटर जेब में रखा और नवभारत टाइम्स में परीक्षा देकर गुड़गांव और फरीदाबाद का ब्यूरो चीफ बना दिया गया। संपादक मधुसूदन आनंद बहुत ही सुलझे हुए थे। दिन-रात एनबीटी के एनसीआर एडिशन के लिए कमरतोड़ मेहनत की। कई कई महीनों तक विकली आफ भी नहीं लिया। टाइम्स ग्रुप में ब्रांड सबसे शक्तिशाली होता है। ब्रांड मैनेजर अमन नायर बहुत खुश थे। किस्मत खराब हुई और एनबीटी में इलेक्ट्रानिक मीडिया में गये जुगाडु संपादक रामकृपाल सिंह मधुसूदन आनंद की पीठ पर छुरा भोंकने के आ गये। आपको बता दूं कि रामकृपाल सिंह जिस भी मीडिया में गये, उन्हें गधे की उपाधि दी गई। क्योंकि वो जोड़-तोड़ और राजनीति में ही माहिर थे, पत्रकारिता में नहीं। उनका झुकाव अपने पुराने एक चेले पर था, जो फरीदाबाद ब्यूरो में तैनात था। न पहले किसी काम का था और न ही आज है। रामकृपाल के सत्ता संभालते ही एनबीटी की अच्छी खासी टीम बर्बाद होने लगी। एनसीआर एडिटर अभय किशोर और मुझे परेशान किया जाने लगा। रामकृपाल सिंह मुझे मधुसूदन जी का आदमी मानते थे जबकि मैंने उन्हें बता दिया कि परीक्षा और साक्षात्कार के बाद ही मेरा चयन हुआ। साजिशों का दौर चला। सबसे पहले निशाना मैं बना। अनाप-शनाप आरोप लगे। रामकृपाल सिंह और अमन नायर ने टाइम्स भवन के एक घनघोर अंधेरे कमरे में टेबल लैंप की रोशनी में मुझसे ऐसी पूछताछ की कि जैसे मैं शातिर अपराधी हूं। अमन नायर आज भी टाइम्स में हैं और उनके चेहरे को देख मुझे आज भी आईआईएम के होनहार बच्चों पर तरस आता है कि किस तरह प्रतिभावान होते हुए भी अवसरवादियों के सामने बेबस हो जाते हैं। अमन नायर बेबस थे और रामकृपाल पूरे डिक्टेटर। मुझे कहा गया कि आपके खिलाफ आरोपों की जांच होगी। मैं तैयार हो गया। तीन महीने तक जांच चली और कुछ हासिल नहीं हुआ, तो मुझे तीन महीने के वेतन के साथ इस्तीफा देने का जोर दिया। मैं इतने तनाव में था कि दो लाइन का इस्तीफा दे दिया। तब मैं कोर्ट जाना चाहता था लेकिन 20 साल से अधिक करियर सामने था। मुझे पता था कि यदि कोर्ट गया तो मुझे दूसरे अखबार भी ब्लैक लिस्ट कर देंगे। सो, चुप रहा। नतीजा अच्छा निकला और राष्ट्रीय सहारा में देहरादून में एक पद बड़े यानी चीफ सब एडिटर की नौकरी मिल गयी। देहरादून में सहारा के छह साल संघर्ष में ही बीते। कुछ साथी इसलिए परेशान हो गये कि विधानसभा चुनाव का स्टेट हेड बना दिया गया। कुछ साथी इसलिए नाराज हो गये कि मुंहफट हूं। एक बदतमीज संपादक एलएन शीतल मेरे विरोधियों से मिले और मुझे नौकरी से बेदखल करवाने में जुट गये। लेकिन मैंने ठान लिया था कि एनबीटी वाली गलती अब नहीं करूंगा। यदि पत्रकार अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ सकता तो फिर उसके लिए यह पेशा नहीं है। सहाराश्री की करीबी समरीन जैदी मैडम ने मदद की और मेरी नौकरी बच गयी। उपेंद्र राय ने सहारा का बेड़ागर्क किया और सहाराश्री के जेल जाते ही आम कर्मचारियों को परेशान करना शुरू कर दिया। ग्रुप एडिटर उपेंद्र राय अपने चमचों को किसी न किसी तरह से सेलरी या खर्चा दिलवा देते और हम रात दो बजे तक नौकरी करने वालों को वेतन नहंी मिलता। बच्चों की फीस, कमरे का किराया, राशनवाले का उधार और दूध जैसी दैनिक उपयोगी वस्तुओं से भी बेजार हो गये। मैंने विरोध किया तो प्रबंधन ने मेरा कांट्रेक्ट नहीं बढ़ाया। मैं अपना बकाया और मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के तहत पहले श्रम विभाग और फिर लेबर कोर्ट चला गया। इसमें मेरी जीत हुई है, लेकिन हर पत्रकार संघर्ष नहीं कर पाता है क्योंकि हर एक की आर्थिक व पारिवारिक समस्या भिन्न है। यह जीत छोटी सी है और प्रबंधन के रूख का मुझे पता नहंी, लेकिन मेरा दिल आज बहुत खुश है। मैं इस जीत में शशि शेखर, रामकृपाल सिंह और उपेंद्र राय जैसे तुच्छ मानसिकता के संपादकों की हार देख रहा हूं।
(गुणानंद जखमोला)

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