Saturday 6 October 2018

पत्रकारिता का पेशा अब दागों से भरा



कोई पत्रकार कर रहा ब्लैकमेलिंग तो कोई यौन शोषण का शिकार
उत्तराखंड में सुरक्षित नहीं महिला पत्रकार

इन दिनों अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के अभिनेता नाना पाटेकर को लेकर यौन उत्पीड़न के आरोप का मामला गरम है। फिल्म इंडस्ट्री में यह नया नहीं है। इसकी छाप कारपोरेट पत्रकारिता पर भी पड़ी है। संपादक से लेकर मालिक और ब्यूरो चीफ से लेकर पत्रकार कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने महिला पत्रकारों के सपनों को साकार करने के लिए यौन उत्पीड़न को जुगाड़ यानी सेटिंग का खेल नाम दिया है। बड़े पत्रकार अब अपने चमचों और जुगाड़ को साथ लेकर एक संस्थान से दूसरे संस्थान में जाते हैं। महिला एंकर और महिला रिपोर्टर का खेल सबको पता है। जो इस जुगाड़वाद में फिट नहीं हो पाते हैं वे नौकरी छोड़ देते हैं। या उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। हालांकि सभी महिला पत्रकार यौन शोषण का शिकार नहीं होती हैं, लेकिन उत्पीड़न की शिकार होने वाली महिला पत्रकारों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही है और यह चिन्तनीय बात है। सबसे बड़ी बात यह है कि छोटे शहरों की महिला पत्रकार उत्पीड़न के खिलाफ आगे नहीं आती हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि यदि नौकरी छिन गयी तो वहां सीमित ही अवसर होते हैं।

देहरादून में ही कई उदाहरण हैं। सहारा में वेतन न मिलने पर मैं एक अखबार का पार्ट टाइम न्यूज एडिटर था। वहां एक लड़की रिपोर्टर थी। एक इलेक्ट्रानिक चैनल ने अपना अखबार निकालने की तैयारी की, निकला भी लेकिन जल्द बंद हो गया। वो महिला रिपोर्टर वहां इंटरव्यू दे आई और सलेक्ट भी हो गयी, लेकिन कुछ दिन बाद ही वो मुझसे नौकरी पर वापस रखने की गुहार लगाने लगी। कारण पूछा तो चैंकाने वाला जवाब था। उस अखबार के ही नहीं देहरादून का एक बड़े और नामी पत्रकार पर उंगली उठाते हुए उस महिला रिपोर्टर ने बताया कि उस पत्रकार ने एक दिन अकेले में उसे अपना मोबाइल दिया और कहा कि ये बंद नहीं हो रहा, जरा इसे बंद कर दो। महिला पत्रकार का कहना था कि मोबाइल पर पोर्न फिल्म चल रही थी। इसके बाद वहां से एक अन्य महिला पत्रकार ने नौकरी छोड़ दी। मैंने उसे पुलिस में शिकायत या उसी समय उसे थप्पड़ मारने और शोर मचाने की बात कही थी, लेकिन वह चुप बैठ गयी।

राष्ट्रीय सहारा में तो एक बार गजब हो गया। मैं कुमाऊं-गढ़वाल का प्रभारी था। हल्द्वानी से खबर आई कि हमारे समाचार पत्र से जुड़े एक साथी नाबालिग लड़की को वेश्वावृत्ति के लिए देहरादून ला रहा था, संभवत: उस लड़की को सहारा के किसी अधिकारी को परोसने का आरोप लगा था। पुलिस ने उसे नाबालिग लड़की समेत बस अड्डे से पकड़ लिया। मुझे आदेश हुए कि खबर नहीं छपे क्योंकि वह अखबार से जुड़ा था। दुर्भाग्यवश मैंने वह खबर प्रकाशित कर दी। सहारा ने मुझे छह साल की नौकरी में 76 शो कॉज नोटिस जारी किये, उनमें से एक यह भी था कि यह खबर क्यों छापी? सहारा का एक संपादक तो नोएडा अटैच कर दिया गया कि उसने एक महिला पत्रकार को छेड़ा। बकायदा सहारा की इंटरनल टीम ने जांच की और ये संपादक महोदय लद गये। सहारा के देहरादून यूनिट के एक प्रबंधक ने तो एक महिला पत्रकार को बकायदा जासूस बनाकर उसे सूचनाएं देने की बात कही, लेकिन वो मुकर गयी।

इलेक्ट्रानिक मीडिया लड़कियों को किस तरह से इस्तेमाल करता है, इसका जीता जागता उदाहरण हर रोज मिल जाता है। ग्लेमर की दुनिया वाले इस मीडिया में स्याह अंधेरा है क्योंकि अब पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय है। मालिक और संपादक हर एक का इस्तेमाल करना चाहते हैं और ऐसे में यदि महिला उत्पीड़न सहती है तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। चुप्पी से मामला तो दबा रहता है लेकिन पत्रकारों की दुनिया छोटी सी है और कुछ नहीं छिपता। इसके बाद तो उसका उत्पीड़न दर उत्पीड़न होता है। सबसे अहम बात यह है कि दिन भर खबरों के पीछे दौड़ने के बाद भी गारंटी नहीं कि वेतन मिलेगा ही। ऐसे में कुछ भ्रमित हो जाते हैं और ब्लैकमेलिंग पर उतर आते हैं। विकासनगर के वेलकम न्यूज के पांच पत्रकार एक महिला की अश्लील वीडियो बनाने के आरोप में इन दिनों जेल काट रहे हैं और पत्रकारों की ब्लेकमेलिंग की शिकायतें बढ़ रही हैं। पत्रकारों पर हो रहे हमले का एक कारण यह भी माना जाता है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से]

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