Saturday 25 March 2017

'मीडिया' में 'मीडिया' के ब्लैक आउट का दौर

समाजवादी नेता शरद यादव ने मीडिया के संदर्भ में बुधवार, 22 मार्च को राज्यसभा में जो भाषण दिया था, गुरुवार, 23 मार्च को हिन्दुस्तान के मीडिया में उसे कोई जगह नहीं मिली। और, गुरुवार को उन्होंने मीडिया के बारे में जो सवाल उठाए हैं, शायद अखबारों में वो भी लोगों को पढ़ने को नहीं मिलें। मीडिया के संदर्भ में शरद यादव का यह ब्लैक-आउट अकारण नहीं है। उनकी बातें मीडिया-मालिकों और सरकार की सांठगांठ को उजागर करने वाली हैं। निहित स्वार्थों पर कुठाराघात करने वाली हैं। भले ही मीडिया निहित स्वार्थों के खुलासे पर ब्लैक-आउट का रुख अख्तियार करे, लेकिन विपक्ष ने गुरुवार को भी मीडिया घरानों का पीछा नहीं छोड़ा। शरद यादव ने एक बार प्रहार करते हुए कहा कि पत्रकारों के नाम पर मीडिया को मिलने वाली आजादी वस्तुत: पत्रकारों की नहीं, बल्कि मीडिया मालिकों की आजादी बन गई है। उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि इस संबंध में एक कानून बनना चाहिए कि मीडिया-मालिक एक ही कारोबार करें। मीडिया की आड़ में मालिकों को दूसरे धंधे करने की इजाजत नहीं होना चाहिए, जिनके कारण वो पत्रकारिता के मूल्यों से खिलवाड़ करते हैं।

वैसे, बुधवार, 22 मार्च को देश के वरिष्ठ समाजवादी नेता शरद यादव जब मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए पत्रकारों की पैरवी और हिमायत कर रहे थे, तब उन्हें पता था कि समाज के सवालों को मानवीय सरोकारों से जोड़ने का दम भरने वाले टीवी चैनलों के एंकर उनकी आवाज को सुनकर भी नहीं सुन पाएंगे। और, प्रिंट मीडिया के रिपोर्टर चाहकर भी उनकी खबर को रिपोर्ट नहीं कर पाएंगे। पत्रकारिता के लिहाज से मीडिया के लिए यह दौर काफी कठिनाइयों भरा है। बहुआयामी कठिनाइयों के बीच मीडिया और अभिव्यक्ति के पैरोकारों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि लोगों के बीच मीडिया की विश्वसनीयता निरन्तर कम होती जा रही है। मीडिया में पूंजी का प्रताप और प्रभाव अपनी जगह है, लेकिन टीआरपी की दौड़ उसका दूसरा पहलू है, जहां गंभीर मुद्दे लगभग ओझल हो चुके हैं। 

शरद यादव ने बुधवार को चुनाव-सुधार पर चर्चा के दौरान कहा था कि मीडिया लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण इंस्ट्रूमेंट है। चुनाव में मीडिया की भूमिका अहम् होती है। चुनाव में तटस्थ और निष्पक्ष रिपोर्टिंग राजनीति की फिजाओं में सकारात्मकता जोड़ने के लिए जरूरी है। दिक्कत यह है कि भारतीय मीडिया पर इन दिनों बड़े औद्योगिक घरानों ने कब्जा कर रखा है। इन घरानों के अपने स्वार्थ होते हैं, एजेण्डा होता है, जिसके अनुसार वो अपने अखबारों की रीति-नीति निर्धारित करते हैं। उद्योगपति चौबीस घंटों चलने वाले खबरिया चैनलों और सुबह-शाम छपने वाले अखबारों का उपयोग अपने हितों के लिए कर रहे हैं। वो मीडिया के माध्यम से अपना एजेण्डा आगे बढ़ा रहे हैं। पत्रकारों के लिए कठिन दौर है। पत्रकार और उनकी पत्रकारिता मालिकों की दया पर निर्भर है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। इसे पूंजीपतियों के चंगुल से बचाना जरूरी है। सरकार का काम है कि वो पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। मालिकों के शोषण से बचाने के लिए सरकार पत्रकारों को मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को क्रियान्वित करने में मदद करे। 

राजनीति और प्रशासन में मीडिया याने पत्रकारों के पैरोकारों की संख्या लगभग नगण्य हो चुकी है। राजनेताओं की वह पीढ़ी अस्ताचल की ओर बढ़ रही है, जो अखबारों और पत्रकारों की हिमायत में खड़े होकर अभिव्यक्ति की पैरवी करते रहे हैं। शरद यादव उन बिरले नेताओं में गिने जा सकते हैं, जो अखबारों के मौजूदा हालात के खतरों को महसूस कर सकते हैं। दिलचस्प यह है कि बुधवार को जब शरद यादव मीडिया में पूंजी के प्रभाव और सरकार के दुर्भाव को रेखांकित कर रहे थे, तब उन्हें पता था कि मीडिया उन्हें ब्लैक-आउट करने वाला है। इसके बावजूद शरद यादव बोलने से पीछे नहीं हटे, तो इसका महज एक कारण था कि वो लोकतंत्र में मीडिया की महत्ता को समझते हैं।

 उमेश त्रिवेदी
(लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।
संपर्क : 09893032101
यह आलेख दैनिक समाचार पत्र सुबह सवेरे के 24 मार्च 2017 के अंक में प्रकाशित हुआ है।)

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