Wednesday 30 September 2020

मोदी ने मीडियाकर्मियों के अधिकारों का कैसे किया पूर्ण सत्यानाश, विस्तार से पढ़िए-समझिए

-रविंद्र अग्रवाल–

श्रम सुधार के नाम पर मोदी सरकार ने अखबार मालिकों के साथ मिलकर श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के वैधानिक अधिकारों का एक तरह से गैंगरेप कर डाला है। पहले से ही मजीठिया वेजबोर्ड की नौ वर्ष से चली आ रही लड़ाई में कठिन आर्थिक हालातों के बावजूद पूरी रसद के साथ लड़ रहे श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों की पीठ में केंद्र सरकार ने जो छूरा घोंपा है, उसकी पीड़ा से निजात पाने के लिए फिर से एक और कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

नए कानूनों में जहां श्रमजीवी पत्रकार की हालत एक दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर कर दी गई है, तो वहीं अन्य अखबार कर्मचारियों को भी आम मजदूरों की श्रेणी में ला खड़ा किया गया है। वो भी तब जबकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद पहली बार हजारों की संख्या में श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी अपने संशोधित वेतनमान और एरियर के लिए अखबार मालिकों के जुल्‍मोसितम सहते हुए पिछले नौ वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ने को एकजुट हुए थे।

हमारी इस एकता को 56 इंच के सीने वाली मोदी सरकार का सीना झेल नहीं सका और अखबार मालिकों के घड़ियाली आंसूओं और चापलूसी के सामने सिकुड़ गया। ऐसे में एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत श्रम सुधारों के नाम पर श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को विशेष अधिकार, केंद्रीय कर्मचारियों के समान वेतनमान और अन्य विशेष रियायतें देने वाले अधिनियमों को ही खत्म कर दिया गया। श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 विधेयकों की रचना एक श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारी को अन्य श्रमिकों से अलग दर्जा, वेतन और विशेष कानूनी अधिकार देने के लिए की गई थी, ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव ना हिलने पाए और पत्रकारिता के प्रोफेशन को पूंजीपतियों की रखैल मात्र बनकर ना रहना पड़े।

हालांकि प्रिंट मीडिया में कार्पोरेट कल्चर आने के बाद से खासकर श्रमजीवी पत्रकार काफी कठिन दौर से गुजर रहे हैं और अब तक किसी भी पार्टी या विचारधारा की सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। ऐसे में जब 56 इंच का सीना होने का दावा करने वाली मोदी सरकार से उपरोक्त श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों में संशोधन करके इन्हें और मजबूत करने की उम्मीद की जा रही थी तो इस सरकार ने इस पर मेहनत करने के बजाय इस मर्ज को जड़ से उखाड़ने के लिए पत्रकारिता के हाथ ही कलम कर दिए हैं।

खासकर अनुबंध अधिनियम के तहत श्रमजीवी पत्रकारों के भविष्य को असुरक्षित करके रख दिया गया था। इस पर रोक लगाने की मांग लंबे अर्से से की जा रही थी। अब हालत यह हो गई है कि अखबार मालिक नए श्रम नियमों के तहत एक श्रमजीवी पत्रकार को कभी भी सड़क पर ला सकते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना में काम करने वाला अन्य कर्मचारी अचानक नौकरी चले जाने पर एक आम मजदूर की तुलना में रोजगार ही प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आम मजदूर को तो कहीं भी मजदूरी करके परिवार चलाने के साधन मौजूद हैं, मगर श्रमजीवी पत्रकार और अखबारों में काम करने वाले अन्य कर्मचारियों के परिवारों के लिए तो भूखों मरने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचेगा।

अगर ऐसा नहीं है तो उपरोक्त अधिनियमों को समाप्त करने वाली मोदी सरकार और उसके अधिकारी ही बताएं कि एक श्रमजीवी पत्रकार और अन्य अखबार कर्मचारी के लिए नौकरी जाने के बाद परिवार चलाने को क्या-क्या विकल्प होंगे।

उधर, मौजूदा परिस्थिरतियों में जबकि प्रिंट मीडिया को चुनौती देने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया दस्तक दे चुका है, तो ऐसे में उपरोक्तर अधिनियमों को और सशक्त बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी।

श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठन लंबे अर्से से इन अधिनियमों में इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार कर्मचारियों को भी शामिल करने की मांग करते आ रहे थे। इन्हें नए श्रम कानूनों में जगह तो दे दी गई, मगर विशेषाधिकार समाप्त करने के कारण इसके कोई मायने ही नहीं बचे हैं। वहीं इन अधिनियमों के उल्लंघन पर सख्त प्रावधान करने की भी जरूरत थी, जो किए भी गए हैं, मगर नेकनीयती से नहीं। वहीं श्रमजीवी पत्रकारों की ठेके पर नियुक्तियों को रोकना भी जरूरी समझा जा रहा था, मगर ऐसा करके सरकार अखबार मालिकों को नाराज नहीं करना चाहती, भले ही लाखों अखबार कर्मचारी और उनके परिवार सरकार से नाराज हो जाएं। ऐसे में अधिनियमों  को सशक्त बनाने के बजाय समाप्त करने का निर्णय केंद्र सरकार की बदनीयती को ही दर्शा रहा है।

यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अखबारों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकार और अन्य कमर्चारी आम मजदूरों से अलग परिस्थितियों में काम करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को अखबार मालिकों की याचिकाओं पर सुनाए गए अपने फैसले (इससे पूर्व के फैसलों सहित) में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि अखबार कर्मचारियों को आम श्रमिकों से अलग परिस्थितियों, खास विशेषज्ञता और उच्च दर्जें के प्रशिक्षण के साथ काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें वेजबोर्ड की सुरक्षा के साथ ही इस बात का भी ख्याल रखना जरूरी है कि समाज की दिशा और दशा तय करने वाले पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों की जीवन शैली कम वेतनमान के कारण प्रभावित ना होने पाए।

नए श्रम कानूनों में सभी विशेष अधिकार समेटे गए

मोदी सरकार के नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा कोई भी विशेष प्रावधान नहीं शामिल किया है, जो उन्हें उपरोक्त दो अधिनियमों में दिया गया था। इसमें खासकर हर दस वर्ष की अवधि के बाद वेजबोर्ड का गठन, छंटनी की स्थिति में विशेष प्रावधान, काम के घंटे, छुट्टियों की व्यवस्था, पहले से घोषित वेतनमान ना दिए जाने पर बिना किसी समयसीमा के रिकवरी की व्यवस्था और संशोधित वेमनमान के तहत एरियर लंबित होने पर नौकरी से ना हटाए जाने की व्यवस्था शामिल हैं। नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना की परिभाषा तो शामिल की गई है, मगर बाकी सभी विशेष अधिकार छीन लिए गए हैं।

पूर्व के वेजबोर्डों के तहत बकाए की रिकवरी का प्रावधान नहीं

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955 निरस्त किए जाने के साथ ही अब इसकी रिकवरी की धारा 17 भी निष्प्रभावी हो जाएगी। ऐसे में नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्तााक्षर होते ही माननीय सुप्रीम कोर्ट के 19 जून, 2017 के फैसले के तहत मजीठिया वेजबोर्ड के तहत संशोधित वेतनमान के एरियर की रिकवरी का वाद (नए मामलों में) दायर करने के लिए कोई प्रावधान ही नहीं बचेगा, क्योंकि नए श्रम कानूनों में पूराने मामलों में रिकवरी के लिए आवेदन करने की व्यवस्था ही नहीं है। मोदी सरकार द्वारा पहले ही पारित की जा चुकी श्रम संहिता 2019 के प्रावधानों के तहत ही रिकवरी की व्यवस्था की गई है। इसमें सिर्फ न्यूनतम वेतनमान के मामलों में दो वर्ष के भीतर रिकवरी के लिए आवेदन करने का प्रावधान है।

ऐसे में जो अखबार कर्मचारी यह सोच कर मजीठिया वेजबोर्ड के तहत रिकवरी नहीं डाल रहे थे कि पहले से लड़ रहे साथियों का फैसला आने पर उन्हें भी घर बैठे नोटों का बैग मिल जाएगा, वो अब कहीं के भी नहीं रहे हैं। इनके लिए अब रिकवरी का केस डालने का अवसर तब तक के लिए ही बचा है, जब तक कि नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर नहीं हो जाते। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जिन साथियों ने रिकवरी के केस डीएलसी के पास डाल दिए हैं या जिनके विवाद लेबर कोर्ट में लंबित हैं, उन्हें नए श्रम कानूनों के तहत कोई नुकसान नहीं होने वाला है। उनके ये लंबित विवाद नए कानूनों के तहत गठित होने वाले नए इडंस्ट्रिनयल ट्रिब्यूनल में स्वत: ही शिफ्ट हो जाएंगे।


वेजबोर्ड नहीं अब न्यूनतम मजदूरी पर पलेंगे अखबार कर्मचारी

नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को अब तक मिले वेजबोर्ड के अधिकार को ही समाप्त कर दिया गया है। वो भी ऐसे समय में जबकि मजीठिया वेजबोर्ड के लिए हजारों अखबार कर्मचारी अपनी नौकरी गंवा कर श्रम न्यायालयों में लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि अखबार मालिकों ने कभी भी अपनी मर्जी से कोई भी वेजबोर्ड को अक्षरश: लागू नहीं किया है और हर बार इसे माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर मुंह की खाई है।

अखबार मालिक शुरू से ही खासकर वेजबोर्ड को लेकर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों को निरस्त करवाने की कोशिशों में जुटे रहे हैं, मगर किसी भी सरकार ने उनके इस मंसूबे का समर्थन नहीं किया था। मोदी सरकार ने उनकी इस मंशा को पूरी करते हुए यह कलंक अपने माथे सजा लिया है और अब उसे इसका खामियाजा भुगतने को तैयार रहना होगा। नए कानूनों में मोदी सरकार ने श्रमजीवी पत्रकारों को न्यूानतम मजदूरी तय करने के लिए एक कमेटी का गठन करने का लॉलीपाप भी दिया है, जो हाथी से उतारकर गधे की सवारी करवाने के समान है। ऐसा इसलिए क्योंकि श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के लिए पहले लीविंग वेजेज के तहत वेजबोर्ड का गठन होता था, जो केंद्रीय कर्मचारियों के समान था। अब मिनिमम वेजेज के सिद्धांत पर दिहाड़ी मजदूरों की तर्ज पर न्यूनतम वेतन तय होगा। वह भी सिर्फ श्रमजीवी पत्रकारों के लिए। अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा प्रावधान कहीं नजर नहीं आ रहा है।


देश के स्वततंत्र होते ही शुरू हुआ था चिंतन, अब सजा दी चिता

खासकर श्रमजीवी पत्रकारों के काम के जोखिम और विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें पूंजीपतियों का बंधुआ बनने से रोकने और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने को लेकर देश के आजाद होते ही चिंतन शुरू हो गया था। पहले अखबारों का प्रकाशन और संचालन व्यक्तिगत तौर पर समाज चिंतक, देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल सेनानी और प्रबुद्ध पत्रकार करते थे। आजादी के बाद जैसे ही पूंजीपतियों या उद्योगपतियों ने अखबारों को व्यवसाय के तौर पर संचालित करना शुरू किया तभी से पत्रकारों के वेतनमान, काम के घंटों और बाकी श्रमिकों से अलग विशेषाधिकार देने की मांग उठनी शुरू हो गई।

इसे देखते हुए पहली बार वर्ष 1947 में गठित एक जांच समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, फिर 27 मार्च 1948 को ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार (Central Provinces and Berar) प्रशासन ने समाचारपत्र उद्योग के कामकाज की जांच के लिए गठित जांच समिति ने सुझाव दिए और 14 जुलाई 1954 को भारत सरकार द्वारा गठित प्रेस कमीशन ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी थी। इसके अलावा एक अप्रैल 1948 को जिनेवा प्रेस एसोसिएशन और जिनेवा यूनियन आफ न्‍यूजपेपर पब्लिसर्श ने 01 अप्रैल 1948 को एक संयुक्त समझौता किया था। इस तरह व्यापक जांच और रिपोर्टों के आधार पर तत्कालीन भारत सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार व अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को लागू किया था। इतना ही नहीं भारत के संविधान के अनुच्छेद 43 (राज्य के नीति निदेशक तत्व) के तहत भी उपरोक्त दोनों अधिनयम संवैधानिक वैधता रखते हैं। ऐसे में इन विधेयकों को इस तरह चोरीछिपे लागू करवाना असंवैधानक है और इसे हर हालत में माननीय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की जरूरत है। इसके लिए हमारी यूनियन के अलावा अन्य यूनियनें भी प्रयासों में जुट गई हैं।

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