Monday 6 February 2017

मीडिया कर्मियों की छंटनी को नोटबंदी से जोड़ा जाना कहां तक उचित है?

आदरणीय पत्रकार साथियों,

इन दिनों प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया घरानों ने कर्मचारियों को निकालने की जो नीति अपना रखी है, उसे नोटबंदी से जोड़ा जाना कहां तक उचित है? जनाब, अखबार सिर्फ एक ही बहाना ढूंढ रहे हैं कि मजीठिया वेजबोर्ड में कवर होने वाले कर्मचारियों की संख्या घटाकर अपनी जेब कैसे सुरक्षित रखी जाए।

मजीठिया आंदोलन की शुरुआत से अब तक वैसे भी कई पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। अखबार आज भी एक कर्मचारी से कम से कम तीन कर्मचारियों जितना काम ले रहा है।

अब अगर कर्मचारियों की छंटनी का ठीकरा नोटबंदी पर फोड़ा जाए तो यह मानना पड़ेगा कि अखबार काले धन से ही चलते थे, तो यह संभव नहीं है, क्योंकि दो साल पहले तक हम भी उसका हिस्सा थे और मीडिया में कुछ भटकी हुई मछलियां हो सकती हैं, सारी की सारी नहीं। दो साल में वैसे ही अखबारों ने कई कर्मचारियों को निकाला है, इससे उनका बोझ घटा ही है। ऐसे में अब क्या मुसीबत आन पड़ी जो नोटबंदी का बहाना बनाया जा रहा है।

नोटबंदी की अवधि के दौरान जरूर कुछ विज्ञापन कम हुए थे, लेकिन अब अखबारों में फिर से विज्ञापनों की भरमार नजर आ रही है। यहां तक कि जो तथाकथित शारीरिक सौष्ठव वाले नुस्खों के विज्ञापन नजर आना बंद हो गए थे, पिछले दिनों से उनके भी दर्शन अखबारों में होने लग गए हैं।

देर-सवेर ही सही, सुप्रीम कोर्ट में चल रहा पत्रकारों के वेजबोर्ड की अवमानना का मामला रंग लाना ही है, क्योंकि बजट भाषण में भी वित्तमंत्री ने श्रमिक हितों में लागू वेजबोर्ड पर एक लाइन बोली, जो कहीं इंगित नहीं की गई।

मतलब साफ है, मध्यम वर्ग को जब सरकार ने ईमानदार मानकर आयकर में छूट दी है, तब यह संकेत माना ही जा सकता है कि सरकार श्रमिक हितों के खिलाफ नहीं जाएगी। मान भी लें कि नोटबंदी से तात्कालिक बाजार में उठापटक हुई, लेकिन जितनी छंटनी मीडिया घराने कर रहे हैं, उससे तो यह लग रहा है कि नोटबंदी का सारा का सारा आसमान इन्हीं पर टूटा है, जो एक सामान्य आदमी की समझ से भी परे है। कल ही एक आरएएस अफसर से चर्चा हुई तो उसका भी यही कन्क्लूजन था कि हर जगह पत्रकारों के वेजबोर्ड को लेकर चर्चा है और यह छंटनी की प्रक्रिया भी उसी से जुड़ी है, क्योंकि कानून से ऊपर कोई नहीं है।

नोटबंदी को अगर अधिकृत कारण बताया जाता है तो जनता में सीधा संदेश यही जाएगा कि लोकतंत्र का चौथा पाया ही देश के लिए दीमकबना हुआ था। मीडिया घरानों का दूसरा टारगेट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हो सकते हैं जिन्होंने नोटबंदी जैसा कठोर निर्णय लिया। मीडियाकर्मियों को निकालकर प्रधानमंत्री को दबाव में लाने का दुस्साहस भी माना जा सकता है
जो मीडिया घरानों और उनसे परोक्ष से जुड़े राजनीतिक दलों की चाल भी हो सकती है, ताकि मीडिया घराने फिर कोई न कोई बड़ा लाभ सरकारों से ले सकें। आगे-पीछे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी वेजबोर्ड के लिए कानून लागू होगा ही। हो सकता है, यह नीति इसे रोकने का हिस्सा भी हो सकती है।
हालांकि, इसके बाद भी कर्मचारी को तो उसके हक के लिए संघर्ष की इबारत लिखने को कमर कसनी ही होगी, क्योंकि मैनेजमेंट किसी का सगा नहीं होगा दोस्तों..., हक तो उसी को मिलेगा जो मांगने की हिम्मत करेगा।

सादर
एक पत्रकार की कलम से...

मजीठिया: ट्रिब्‍यून के वेतनमान में भी है लोचा  http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2017/01/blog-post_62.html



मजीठिया: नोएडा डीएलसी में रिकवरी लगाने वाले साथी लापरवाही बरत अपना ही कर रहे नुकसानhttp://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2016/12/blog-post.html    मजीठिया: इन जागरणकर्मियों की नींद कब टूटेगीhttp://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2017/01/blog-post.html 
 




#MajithiaWageBoardsSalary, MajithiaWageBoardsSalary, Majithia Wage Boards Salary


No comments:

Post a Comment