Monday 18 April 2022

अमर उजाला के 75 साल, वर्तमान और भविष्‍य में गर्व करने लायक कुछ नहीं


आज यानि 18 अप्रैल, 2022 को अमर उजाला अखबार अपनी स्‍थापना के गौरवमयी 75 वर्ष पूरे करने का जश्‍न मना रहा है। इस क्षण को पाठकों के साथ सांझा करने के लिए पाठकों को बेचे जाने वाले कुल पन्‍नों में से दो पन्‍ने खर्च किए गए हैं। जहां तक दैनिक अमर उजाला के गौरवमयी प्रकाशन की बात है तो नि:संदेह अखबार ने पिछले 75 वर्षों में से अधिकांश समय पत्रकारों और पत्रकारिता के आदर्शों को स्‍थापित करने के लिए हर संभव प्रयत्‍न किए। इससे सभी जानकार सहमत होंगे कि ये प्रयास इस समाचारपत्र के संस्‍थापकों स्‍वर्गीय डोरीलाल अग्रवाल और स्‍वर्गीय मुरारीलाल माहेश्‍वरी से लेकर स्‍वर्गीय अतुल माहेश्‍वरी तक पीढ़ी दर पीढ़ी चले। अतुल माहेश्‍वरी के देहावसान के बाद इस समाचारपत्र के आदर्श व परंपरा बरकरार है इसको लेकर और किसी को हो ना हो इस अखबार में कार्यरत हर उस कर्मचारी को संदेह है, जिसका इन 75 वर्षों में तिनका भर भी योगदान रहा है।

खैर इस संभावित या कहें बनावटी जश्‍न के रंग में भंग डालने की इस लेखक को जरूरत इसलिए महसूस हुई कि उसने भी इस अखबार के आदर्शों व संपादकीय परंपरा के उच्‍च मानकों के बीच काम करके खुद को परिष्‍कृत किया है। लेकिन जिस प्रकार के दावे आज के अंक में ‘संकल्‍प का उजाला विश्‍वास की शक्‍ति’ के शीर्षक से किए जा रहे हैं, वो इस अखबार की वर्तमान परिस्‍थितियों को देखते हुए महज बनावटी या कहें ढोंग से कम नहीं है। हालांकि जहां तक पाठकों की बात है तो नि:संदेह अभी तक उनका विश्‍वास इस समाचारपत्र बना हुआ हो सकता है, मगर उन्‍हें इस समाचारपत्र की अंतरात्‍मा के दूषित होने का पता लगने में ज्‍यादा समय नहीं लगेगा। फिलहाल एक अखबार की निष्‍पक्षता, उद्यमशीलता और लोकप्रियता के उच्‍च मानक और आदर्श कागज पर काली या रंगीन स्‍याही से उकेरे शब्‍द और तस्‍वीरें ये सब तय नहीं करते। इसके पीछे होता है एक संस्‍थान के साथ जुड़े कर्मचारियों का अनुभव और उद्यम। एक अखबार के मामले में संपादकीय विभाग का निष्‍पक्ष और निरभीक दिमाग ही इसकी आत्‍मा मानी जाती है।

मौजूदा दौर के अमर उजाला में ये सब बातें नहीं दिखाई दे रही हैं। खासकर अतुल माहेश्‍वरी के देहांत के बाद तो इस अखबार का दिमाग यानी संपादकीय विभाग तो पूरी तरह से कॉपरपोरेट मैनेजरों के यहां गिरवी रख दिया गया है। हालांकि इसकी शुरुआत इस अखबार के विनिगमीकरण के साथ ही हो चुकी थी, मगर संपादकीय को अच्‍छी तक समझने और मजबूत पकड़ रखने वाले अतुल माहेश्‍वरी ने कॉरपोरेट मैनेजरों को इसमें घुसपैठ करने का जरा भी मौका नहीं दिया था। बाकी कई दिक्‍कतों के बावजूद उन्‍होंने संपादाकीय संस्‍था को असली अमर उजाला की परपंपराओं से बांधे रखा था। उनके जाने के बाद आगे की पीढ़ी ने इन्‍हें पूरी तरह से समाप्‍त कर दिया और पूर्ववर्ती मालिकों के समय से स्‍वच्‍छंद बह रही संपादकीय संस्‍था पर से मौजूदा मालिकों ने अपना वरदहस्‍त उठा कर कॉरपोरेट मैनेजरों पर रख दिया है।

अब हालात ये हैं कि संपादक नौकरी बजा रहे हैं और संपादकीय विभाग पन्‍ने काले और रंगीन करने की परंपरा निभा रहा है। खबरों का तीखापन और प्‍लानिंग पूरी तरह से गायब है। कर्मचारी मजबूरी में काम कर रहे हैं, क्‍योंकि उन्‍हें पता है यहां से गए तो कहीं के नहीं रहेंगे। समूह संपादक का पद गायब है। जो संपादकीय विभाग देखते थे वो रिटायरमेंट के बाद लाला जी से सैटिंग करके अपनी पगार बनाए हुए हैं और न्‍यूज एजेंसी का कामकाज देख रहे हैं। ऐसा होने की एक और बड़ी वजह मजीठिया वेजबोर्ड है। इससे बचने के लिए पिछले दस वर्षों से कई प्रकार के हथकंडे अपनाते हुए अखबार की गरिमा और कर्मचारियों के ‘विश्‍वास की शक्‍ति’ को नष्‍ट कर दिया गया है। जबकि पिछले बेजबोर्ड के समय ऐसा नहीं किया गया था। जैसे-तैसे कर्मचारियों को मनीसाना वेजबोर्ड के लाभ दिए गए थे। इस बार ना तो अतुल माहेश्‍वरी रहे और ना ही इस अखबार के पहले संपादकीय में लिखे गए शब्‍दों की कीमत रही। सिर्फ कीमत है तो बैलेंसशीट में दिखने वाले मोटे मुनाफे और चापलूस मैनेजरों की।

कर्मचारियों के वैध हकों को मारने के लिए पिछले कुछ वर्षों में अमर उजाला ने जो घटिया चालें चली हैं, ऐसा काम शायद ही स्‍वर्गीय मालिकों के समय पहले कभी किया गया हो। हालात ऐसे हैं कि पहले तो गैर-पत्रकार कर्मचारियों के जबरन इस्‍तीफे लेकर उन्‍हें अपने ही मैनेजरों द्वारा बनाई गई कंपनियों में डाला गया, फिर संपादकीय विभाग के सभी रिपोर्टरों से इस्‍तीफे लेकर एक न्‍यूज एजेंसी बनाकर उसमें डालने का काम शरू किया। इस बीच अमर उजाला पब्‍लिकेशंस लिमिटेड का नाम बदलकर अमर उजाला लिमिटेड किया और फिर प्रिंटिंग प्रेसों को एक सब्सीडरी कंपनी बनाकर इसमें शिफ्ट करके कर्मचारियों और अधिकारियों की आंख में धूल झोंकी गई। अमर उजाला की कमाई को अन्‍य कंपनी में लगाने की बातें भी समाने आ रही हैं। इस तरह के कई फर्जीबाड़े किए गए हैं। यह सारी कवायद सिर्फ और सिर्फ कर्मचारियों को मजीठिया वेजबोर्ड के तहत बढ़ा हुआ वेतन देने से बचने के लिए की गई है। हालांकि यह भी सच है कि अमर उजाला ऐसा करने वाला अकेला अखबार नहीं है, बाकी अखबारों की भी यहीं हालत है, मगर बाकी अमर उजाला की तरह नहीं थे। खासकर अपने कर्मचारियों के हकों के मामले में। अब तो नीचता की हद पार करते हुए एक पॉकेट यूनियन बनाकर फर्जी समझौता तैयार करवाया गया है, जिसके बारे में पहले ही विस्‍तार से छप चुका है।

इस तरह अमर उजाला की 75वीं वर्षगांठ पर इतिहास को लेकर तो गर्व किया जा सकता है, मगर वर्तमान और भविष्‍य में गर्व करने जैसे कुछ नहीं दिख रहा। कर्मचारी एक संस्‍थान की रीढ़ होते हैं और अखबार के मामले में उसका चेहरा, दिमाग और दिल संपादकीय विभाग होता है, जो मरनासन है। रही बात पाठकों के विश्‍वास की, तो वो भी सब समझते और विचार करते हैं, मौजूदा हालात में इनका विश्‍वास भी एक सीमा तक ही बनाया रखा जा सकेगा। अगर सुधरे नहीं तो साफ होना तय है। अगर अच्‍छे से पूछना है तो मैनेजरों से पूछा जा सकता है, क्‍योंकि पीक(ऊंचाई) के बाद डिक्‍लाइन(गिरावट) इन्‍हीं मैनेजरों का पढ़ा-पढ़ाया पाठ है। इनोवेशन(नवाचार) तो जरूरी है, मगर प्रोडक्‍ट(उत्‍पाद) में, संपादकीय से छेड़छाड़ का मतलब अखबार का अंत।

-अमर उजाला के एक कर्मचारी की कलम से। न्‍यूजपेपर इम्‍लाइज यूनियन ऑफ इंडिया के उपाध्‍यक्ष शशिकांत द्वारा प्रेषित। संपर्क: neuindia2019@gmail.com


No comments:

Post a Comment