Sunday 25 August 2024

मजीठियाः 8 साल का संघर्ष, ‘दैनिक भास्कर‘ ने घुटने टेके, मिले 17 लाख व नौकरी पर बहाली


मजीठिया अवॉर्ड की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों / गैर-पत्रकारों के लिए मुंबई से एक अच्छी और बड़ी खबर है... ‘दैनिक भास्कर‘ के लिए अस्बर्ट गोंजाल्विस नामक मजीठिया कर्मचारी को नौकरी से निकालना न केवल भारी पड़ गया, बल्कि अस्बर्ट गोंजाल्विस को नौकरी पर फिर से बहाल करने के साथ-साथ उन्हें फुल बैक वेजेस के रूप में करीब 17 लाख रुपये भी देने पड़े हैं।

खबर के मुताबिक, अप्रैल 2023 में मुंबई के श्रम न्यायालय ने ‘दैनिक भास्कर‘ (डी. बी. कॉर्प लि.) को आदेश दिया था कि उसने अपने जिस कर्मचारी अस्बर्ट गोंजाल्विस को 7 साल पहले नौकरी से निकाल दिया था, वह उसे नौकरी पर पुनः बहाल तो करे ही, साथ-ही-साथ अस्बर्ट गोंजाल्विस को इस समयावधि का पूरा बकाया वेतन भी अदा करे। ज्ञातव्य है कि ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ वही संस्थान है, जो स्वयं को भारत का सबसे बड़ा अखबार समूह बताता है... यह कंपनी हिंदी में ‘दैनिक भास्कर’, गुजराती में ‘दिव्य भास्कर’ और मराठी में ‘दैनिक दिव्य मराठी’ नामक अखबारों का प्रकाशन करती है।

यह बात और है कि श्रम न्यायालय का आदेश आने के बाद भी अस्बर्ट गोंजाल्विस को अपना पूरा हक पाने के लिए लगभग डेढ़ साल के समय का इंतजार करना पड़ा। जी हां, इस आदेश की प्रति जब मुंबई के श्रम कार्यालय में आई, तब पहले तो कंपनी और कर्मचारी के बीच लगभग आठ महीने तक सुनवाई हुई... कंपनी ने अस्बर्ट गोंजाल्विस को मेल के माध्यम से सूचित किया कि हम आपकी सैलरी तो आगामी मई (2023) महीने से देना शुरू कर देंगे, किंतु एरियर्स देने के मामले में उसका जवाब था कि कैलकुलेशन किया जा रहा है और उसे भी आपको कुछ दिनों में दे देंगे। बेशक, अस्बर्ट गोंजाल्विस को सैलरी मिलने भी लगी, लेकिन एरियर्स देने के नाम पर कंपनी लगातार आनाकानी करती रही... कभी समझौते की पहल के बहाने तो कभी बॉम्बे हाई कोर्ट जाने की बात कह कर ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ ने टाइमपास करना जारी रखा।

इसके बाद अस्बर्ट गोंजाल्विस की तरफ से लेबर डिपार्टमेंट में उनका पक्ष रख रहे ‘न्यूजपेपर एंप्लॉईज यूनियन ऑफ इंडिया’ (NEU India) के जनरल सेक्रेटरी धर्मेन्द्र प्रताप सिंह ने असिस्टेंट लेबर कमिश्नर निलेश देठे से स्पष्ट शब्दों में कहा कि आपको लेबर कोर्ट का आदेश लागू करवाना है, न कि कंपनी द्वारा टाइमपास करने की योजना में उलझना। इस मामले में यूनियन के उपाध्यक्ष शशिकांत सिंह ने भी अस्बर्ट गोंजाल्विस की तथ्यपूर्ण पैरवी की, तब कहीं जाकर देठे ने 1 फरवरी 2023 को ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ के विरुद्ध अस्बर्ट गोंजाल्विस का रेवेन्यू रिकवरी सर्टिफिकेट (आरआरसी) जारी करते हुए वसूली के लिए उसे मुंबई उपनगर के जिलाधिकारी के पास भेज दिया।

चूंकि इस दौरान देश में लोकसभा का आम चुनाव आ गया... संबंधित जिलाधिकारी कार्यालय का समूचा स्टाफ उसमें व्यस्त हो गया, इसलिए मौके को भुनाने की गरज से ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ प्रबंधन बॉम्बे हाई कोर्ट पहुंच गया और वहां उसने लेबर कोर्ट के आदेश को चुनौती दी। लेकिन हाय री किस्मत, ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ को मार्च 2024 में वहां मुंह की खानी पड़ी... बॉम्बे हाई कोर्ट के माननीय जज अमित बोरकर ने लेबर कोर्ट के आदेश को न सिर्फ पूरी तरह सही माना, बल्कि ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ की रिट पिटीशन (3145/2024) को सिरे से ख़ारिज भी कर दिया। इस दौरान संबंधित कंपनी का पक्ष आर. वी. परांजपे और टी. आर. यादव ने रखा, जबकि अस्बर्ट गोंजाल्विस की वकालत विनोद संजीव शेट्टी ने की।











अपने आदेश में विद्वान न्यायाधीश अमित बोरकर ने कहा कि प्रतिवादी (अस्बर्ट गोंजाल्विस) की बर्खास्तगी से पहले न तो उससे कोई पूछताछ की गई और न ही वादी द्वारा उसकी बर्खास्तगी को उचित ठहराने के लिए लेबर कोर्ट के समक्ष कोई ठोस सबूत ही प्रस्तुत किया गया... अदालत ने पाया कि कंपनी की एचआर मैनेजर अक्षता करंगुटकर ने प्रतिवादी पर यह कहते हुए इस्तीफा देने का दबाव बनाया कि उसकी परफार्मेंस कमजोर है, लेकिन सिस्टम इंजीनियर अस्बर्ट गोंजाल्विस ने इस्तीफा नहीं दिया तो 31 अगस्त 2016 को उसकी सेवा समाप्त कर दी गई... यही नहीं, 1 सितंबर 2016 को अस्बर्ट के दफ्तर में प्रवेश करने पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया।

इसलिए प्रतिवादी ने लेबर डिपार्टमेंट से होते हुए लेबर कोर्ट का रुख किया और नौकरी पर अपनी पुनः बहाली के लिए वहां प्रार्थना करते हुए अदालत को अवगत कराया कि उसकी सेवासमाप्ति अवैध है... यह कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना किया गया है, इसलिए सेवा बहाली सहित उसको 1 सितंबर 2016 से पूर्ण बकाया वेतन भी मिलना चाहिए। अदालत ने याचिकाकर्ता के इस आरोप को मानने से इनकार कर दिया कि नोटिस पीरियड में प्रतिवादी ठीक से काम करने में विफल रहा अथवा उसने अनुमति के बिना छुट्टी का लाभ उठाया या फिर कई चेतावनियों के बावजूद उसके रवैए में कोई सुधार नहीं हुआ।

यहां बताना आवश्यक है कि अस्बर्ट गोंजाल्विस को नौकरी से अचानक तब निकाल दिया गया था, जब उन्होंने ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ से भारत सरकार द्वारा अधिसूचित मजीठिया अवॉर्ड की मांग की थी। खैर, बॉम्बे हाई कोर्ट में मुकदमे की सुनवाई के दौरान कंपनी का प्रयास था कि अस्बर्ट गोंजाल्विस को नौकरी पर पुनः रखने का आदेश ख़ारिज कर दिया जाए, परंतु बॉम्बे हाई कोर्ट ने प्रतिवादी के शपथ-पत्र में किए गए दावे के आधार पर कंपनी के वकील की मांग सिरे से ख़ारिज कर दी, जैसे- प्रतिवादी ने नौकरी ढूंढने की कोशिश की, लेकिन कलंकपूर्ण सेवा-समाप्ति के कारण उसे कहीं नौकरी नहीं मिली। इसलिए लेबर कोर्ट का यह आदेश उचित है कि कंपनी में साढ़े आठ साल तक की नौकरी कर चुके प्रतिवादी को बहाल करने सहित उसे उसका पिछला पूरा बकाया मिलना ही चाहिए। इतना ही नहीं, माननीय जज अमित बोरकर ने पर्याप्त कानून न होने का हवाला देते हुए एरियर्स की राशि में संशोधन (कमी) करने से भी इनकार कर दिया... और अपने आदेश की अंतिम पंक्तियों में माननीय हाई कोर्ट ने कहा- ‘लेबर कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए निष्कर्षों में कोई विकृति नहीं है, इसलिए याचिका में कोई दम नहीं है... रिट याचिका खारिज की जाती है।’

इसके बाद धर्मेन्द्र प्रताप सिंह ने बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश की प्रति जब मुंबई (उपनगर) जिलाधिकारी कार्यालय को उपलब्ध करवाई, तब कहीं मामले में तेजी आई... यहां से आरआरसी के संदर्भ में तहसीलदार (अंधेरी) को आदेश हुआ, फिर तहसीलदार ने तलाठी (सांताक्रुज) को निर्देशित किया कि बकाएदार कंपनी को नोटिस देकर उसे आगे की कार्यवाही से अवगत कराया जाए। आखिर ‘डी. बी. कॉर्प लि.’ के प्रबंधन को एक बात अच्छी तरह समझ में आ गई कि अब बचने का कोई रास्ता नहीं है... सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद कहीं मजीठिया अवॉर्ड को लेकर उस पर अवमानना का मामला न बन जाए, अतः कंपनी ने पिछले महीने की 25 तारीख को तहसीलदार कार्यालय में 16,90,802/- की डीडी जमा करवा दी।

वैसे डीडी की यह धनराशि अस्बर्ट गोंजाल्विस के अकाउंट में तुरंत आ गई हो, ऐसा भी नहीं था... अस्बर्ट बताते हैं- ...इसके लिए हमारी यूनियन के जनरल सेक्रेटरी धर्मेन्द्र प्रताप सिंह ने बहुत भागदौड़ की। यह धर्मेन्द्र ही थे, जिन्होंने लेबर आफिस में मेरा मजबूती से पक्ष रखा तो जिलाधिकारी, तहसीलदार और तलाठी तक से लगातार टच में रहते हुए मुझे रोजाना अपडेट दे रहे थे। इसीलिए अभी 23 अगस्त को फुल बैक वेजेस का मेरा अमाउंट जब मेरे अकाउंट में क्रेडिट हुआ, तब सबसे पहले मैंने उन्हीं को फोन करके आभार व्यक्त किया... बहरहाल, माननीय न्यायालय के माध्यम से अस्बर्ट गोंजाल्विस को मिले इस न्याय को लेकर भारत के समस्त मजीठिया क्रांतिकारियों में उत्साह की लहर है।

शशिकांत सिंह 

पत्रकार और मजिठिया क्रांतिकारी 

9322411335





Friday 16 August 2024

मजीठिया: अवैध सेवा समाप्‍ति के मामले में दिव्य हिमाचल अखबार की बड़ी हार




माली को सौ फीसदी वेतनमान व अन्य सेवालाभ के साथ बहाली के आदेश

हिमाचल प्रदेश के दैनिक समाचार पत्र दिव्य हिमाचल के प्रबंधन की लेबर कोर्ट धर्मशाला में चल रहे अवैध सेवा समाप्‍ति के मामले में बड़ी हार हुई है। सुनील कुमार बनाम मैसर्ज दिव्य हिमाचल प्रकाशन प्राईवेट लि. मामले में कोर्ट ने माली के पद पर तैनात सुनील कुमार के मौखिक सेवा समाप्‍ति और उसे अपना कर्मचारी ना स्वीकारने के मामले में लेबर कोर्ट धर्मशाला ने 31 जुलाई को फैसला सुनाया था। 

लेबर कोर्ट में माली के पद पर तैनात इस गरीब कर्मचारी के मामले की पैरवी वरिष्ठ  पत्रकार एवं न्यूज पेपर इम्लाइज यूनियन आफ इंडिया के अध्यक्ष रविंद्र अग्रवाल ने बतौर एआर की। उन्होंने वादी श्रमिक का पक्ष मजबूती के साथ रखा और एक लैंडमार्क जजमेंट हासिल करने में सफलता पाई। ज्ञात रहे कि सुनील कुमार को प्रतिवादी कंपनी ने माली के पद पर बिना किसी नियुक्ति पत्र के जुलाई 2011 में अपने मुख्यालय में रखा था, मगर उसका नाम नियमित कर्मचारियों के रिकार्ड में शामिल नहीं किया था। ना तो उसे सेलरी स्लिप दी जाती थी और ना ही पीएफ व अन्य  वेतनलाभ दिए जाते थे। सेलरी उसे कैश इन हैंड ही दी जाती थी। एक छदम रिकार्ड के जरिये कई अन्‍य कर्मचारियों की तरह उसे भी तैनात करके रखा गया था ताकि उसे नियमित अखबार कर्मचारियों को मिलने वाले लाभों और श्रमजीवी पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिए घोषित मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतनमान से महरूम रखा जाए। 

वादी ने अपने क्‍लेम में यह भी वाद उठाया था कि उसकी सेवासमाप्‍ति मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतनमान मांगे जाने के चलते की गई। उसने 24 अप्रैल 2018 को मजीठिया वेजबोर्ड के तहत संबंधित प्राधिकारी के पास वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट की धारा 17(1) के तहत रिकवरी का केस फाइल किया था। कंपनी को 3 मई 2018 को संबंधित प्राधिकारी ने नोटिस जारी करके जवाब मांगा, तो प्रतिवादी ने वादी पर रिकवरी का केस वापस लेने का दबाव बनाया, मगर वह नहीं माना। इस पर प्रतिवादी ने 15 मई 2018 को वादी को नौकरी से हटा दिया और वादी का संस्‍थान में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया।  

वादी के लेबर कोर्ट में दाखिल क्‍लेम के जवाब में कंपनी का लिखित उत्‍तर था कि वादी उसका कर्मचारी है ही नहीं, उसे तो कंपनी के सीएमडी ने घर पर निजी नौकर के तौर पर रखा था और वही उसे अपनी जेब से ही मेहनताना देते थे। जबकि इस केस में अहम साक्ष्य के तौर पर वादी द्वारा लोन लेने के लिए कंपनी से मांगी गई फरवरी 2012 की एक मात्र सेलरी स्लिप ने डूबते के लिए तिनके का सहारा बनने का काम किया। यह सेलरी स्लिप भी उस बैंक के रिकार्ड में लगी हुई थी, जिससे उसने लोन लिया हुआ था। सेलरी स्‍लीप को लेकर प्रतिवादी ने अजीब तर्क था कि यह तो वादी को लोन देने के लिए  मानवीय आधार पर जारी की गई थी। 

वहीं बैंक के मैनेजर ने वादी के गवाह के तौर पर कोर्ट में उपस्‍थित होकर इस सेलरी स्लिप को प्रूव किया, जिसमें सुनील कुमार के नाम और पद के अलावा उसकी डेट ऑफ ज्वाेइनिंग नवंबर 2011, विभाग का नाम और वेतनमान लिखा गया था और कंपनी की अथॉरिटी के हस्ताक्षर व मुहर भी लगी हुई थी।

इसके अलावा वादी कर्मचारी ने तीन पूर्व कर्मचारियों की गवाही भी करवाई। वहीं इन गवाहों में से एक पूर्व कर्मचारी ने अपनी गवाही में बताया कि किस तरह कंपनी अपने कर्मचारियों का छद्म रिकार्ड बनाती है, जैसा कि उसके साथ किया गया था। कंपनी ने गवाह के इसी लेबर कोर्ट में लंबित मामले में यह तो स्वीकार किया था, वह उसका कर्मचारी है, मगर कर्मचारियों के रिकॉर्ड में ना तो उसका नाम था और ना ही उसे बैंक के माध्यम से सेलरी दी जाती थी। उसे पहले बैंक अकाउंट के माध्यम में सेलरी दिए जाने के बाद अचानक बंद कर दिया गया था और कैश इन हैंड सेलरी दी जाने लगी थी। इससे साबित हुआ कि कंपनी ने कर्मचारियों का रिकॉर्ड नियमानुसार नहीं रखा है। साथ ही कंपनी के स्टैंडिंग ऑर्डर भी सत्यापित नहीं हैं। वहीं जो रिकॉर्ड कोर्ट में दाखिल किया गया वो भी नियमानुसार नहीं तैयार किया गया था। 

इस तरह कोर्ट ने सभी गवाहों और साक्ष्यों के आधार पर पाया कि कर्मचारी ने खुद को प्रतिवादी कंपनी का कर्मचारी साबित करने के लिए जरूरी प्रारंभिक सक्ष्या मुहैया करवाने का अपना भार या दायित्व पूरा किया है। वहीं कंपनी की ओर से कोर्ट में प्रस्तुत एकमात्र गवाह के माध्‍यम से कंपनी अपना पक्ष रखने में विफल रही। वहीं जिस गवाह को कोर्ट में उतारा गया, उसकी नियुक्‍ति ही कर्मचारी की सेवा समाप्‍ति के बाद हुई थी, जिसनेे जिरह में ही स्‍वीकार कर लिया था कि वह अपनी नियुक्‍ति से पूर्व के कंपनी के मामलों के बारे में परिचित नहीं है। उसकी नियुक्‍ति अक्टूबर 2019 में हुई है। 

वहीं कंपनी यह भी साबित नहीं कर पाई कि वादी को कंपनी के सीएमडी ने निजी नौकरी के तौर पर रखा था। इस फैसले में लेबर कोर्ट ने वादी को जहां आईडी एक्‍ट की धारा 2(एस) के तहत कर्मचारी माना तो वहीं वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट की धारा 2(डीडी) की धारा के तहत गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी मानाते हुए मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतनमान का हकदार भी बताया है। 

कोर्ट ने अपने फैसले में कर्मचारी की 15.5.2018 सेे की गई सेवासमाप्‍ति को निरस्‍त करते हुए वादी को वरिष्‍ठता और सेवा में निरंतरता के लाभ सहित 15.5.2018 सेे लेकर नौकरी बहाली तक की पूरा वेतनमान तीन माह के भीतर जारी करने के आदेश दिए हैं। ऐसा ना करने पर प्रतिवादी को अवार्ड की तिथि से लेकर आदेश के पालन तक 6 फीसदी ब्‍याज के साथ ये लाभ देने पड़ेंगे।

जारी कर्ता: शशिकांत