एक
सड़कों में पैदल घूमने वाले एक पत्रकार मृत्यु हो गई। राजेन्द्र सिंह नेगी नामक यह
पत्रकार बिजली-पानी-सड़क से जुड़े मुद्दों पर सरकार से सवाल पूछता रहता और rti के मार्फत जानकारी मांगता रहता था। कल
भी ऐसे ही किसी मामले में उसकी सुनवाई भी थी (उसकी सोशल मीडिया पर कल की पोस्ट के
आधार पर) क्या हुआ होगा! पता नहीं?
जानकर
बताते हैं कि कई सालों से वह इसी तरह के सामाजिक मुद्दों पर अकेला ही लड़ रहा था।
जिसके लिए उसने देवभूमि-जन-सेवा-ग्रुप नामक संस्था की स्थापना भी की थी। मगर
परिवर्तन संसार का नियम है कि तर्ज पर बहुत कुछ बदल गया। जिन लोगों को लंबी लड़ाई
का साथी मान कर संस्था से जोड़ा था उनमें से कुछ समय के साथ बदल गए और कुछ बड़े जिन
पर भरोसा कर ग्रुप बनाया वो भी लोकसभा-राज्यसभा की बातें कर के ही किनारे हो लिए।
आजकल
चल रहे पत्रकारों के संगठनों में से शायद ही वह किसी का सदस्य रहा होगा, इसलिए
किसी शोकसभा या मरणोपरांत कोई आर्थिक सहायता की उम्मीद करना बेकार है। आज एक
सामूहिक प्रयास की बात भाई जयदीप सकलानी (Aap KA Saklani) के निर्देशन में करने की बात तय हुई है
जिसके लिए परसों (गुरुवार) को प्रेस क्लब के प्रांगण में प्रातः 11 बजे एक सभा का
आयोजन तय किया गया है। जो लोग इस अभियान से जुड़ना चाहते है उनका हार्दिक स्वागत है।
नेगी
जी की कलम से निकला एक वाकया ...
जो
दे उसका भी भला, जो
ना दे उसका भी भला
लम्बे
समय राजधानी की सड़कों पर इधर उधर चलते फिरते नज़र आने वाले नेत्रहीन तोमर जी के
बारे में जानने की इच्छा हुई।
विनय
नगर से. 3,
ग्वालियर
निवासी नरेश तोमर जी जन्मांध हैं और 1998 से लगातार देहरादून आते जाते रहते हैं।
भिखारी से हैं, पर
हाथ फैलाकर किसी से कभी कुछ नहीं मांगते।
{खूबियां}
-तोमर
जी ब्रेल लिपि से 10 वीं पास हैं।
-1983
में हार्मोनियम, बांसुरी
और कैसीनो बजाने में निपुण हुवे।
-जिस
कार्यक्रम में कला को देख सुनकर दो ढाई हजार तक मिल जायें, जाते हैं। पर कार्यक्रम की सूचना समय
से मिलनी चाहिए।
-नोट, सिक्कों को छूकर, बखूबी पहचान लेते हैं।
-सही
पता लिखा हो तो, आराम
से कहीं भी पहुंच जाते हैं।
{मनपसन्द
खाना खाने के शौक़ीन}
-6-7
सादे पराठों संग, तेल मसालों में बनी हुई आलू मेथी की सब्जी।
-आलू
मटर गोभी की रसीली सब्जी, पराठे या रोटी संग।
-पुलाव-आलू
मटर गोभी व अन्य सब्जी मिलाकर।
-खाने
के साथ पीने का पानी।
-हफ्ते
में दो बार अरहर की दाल और चावल।
-खाने
के साथ अचार, तली/भुनी
मिर्च, प्याज
वगैरा।
-कभी
कहीं भण्डारे में कड़ी चावल बनी हो और पीने के पानी के साथ बैठने का इंतजाम हो, तो ही जाते हैं।
-मंगलवार
को जीपी ओ कैंटीन में इसलिए जाते हैं, क्योंकि उस दिन वहां कड़ी चावल और सूखी
सब्जी बनती है।
{दिली, इच्छा}
-खाना
मिले ना मिले, पर
सोने को मिल जाये। सोने का ठिकाना हो तो ढंग के कपड़े भी पहनू और उन्हें धो सकूँ।
-एकादशी
से पहले पहले अपने घर पहुँचूँ, तो मनपसन्द का खाना खाऊँ।
-एकादशी
से पहले दिन तक चावल बिलकुल नहीं खाते। इसी का उद्द्यपन करवाने को चांदी की ग्यारस
बनवाने के रूपये इकट्ठे कर रहे।
-एक
लखानी की चप्पल 4 नं की ₹170 वाली लेनी है। जो ₹110 में मिल जायेगी।
-इंदिरा
मार्किट में ₹50 की पैंट पसन्द आयी है, जो लेनी है। एक बार धोकर, काम आ जायेगी।
{ठिकाने}
-लाखी
टी-स्टाल, राजपुर
रोड ,निकट
न्यू एम्पायर सिनेमा।
-कांवली
रोड, खुड़बुड़ा
में गुप्ता जी बर्तन वालों का खाने का ढाबा।
-ब्लाइंड
स्कूल राजपुर।
-राजपुर
रोड से पलटन बाजार, सड़क में।
{खुन्दक}
-देहरादून
की सड़कों में जगह जगह गड्ढे, टूटी फूटी सड़कें।
-इंद्रा
अम्मा भोजनालय में गढ़वाली भोजन, हम बाहरियों को क्यों पसन्द आयेगा???
-जी
पी ओ में भी रोज रोज एक जैसा खाना पसन्द नहीं।
-भण्डारे
में हर जगह एक ही चीज बनती है और पीने के पानी और बैठने का इंतजाम नहीं होता, इसलिए नहीं जाता।
-विक्रम
बस चालक सड़क में खड़ा देख, नहीं बिठाते।
बल्कि
सामने से और तेज गाड़ी भगा ले जाते हैं।
-ट्रैफिक
पुलिस भी चौक चौराहे पार कराने में मदद नहीं करती। कभी कभार ही कोई दिलदार पुलिस
वाला मिल जाता है।
-यहां
के लोग भी अजीब हैं, अंधे को रास्ता भी नहीं दिखाते।
-रैन
बसेरे में रोज ₹5 और सोमवार को ₹10 मांगते हैं।
{तारीफ}
-देहरादून
से अच्छा तो ग्वालियर है, जहां ट्रैफिक वाले भी सहारा देते हैं।
-जिस
गली से निकलो, जान
पहचान वाले बुलाकर मनपसन्द खाना खिलाते हैं।
-जबलपुर
में नर्मदा नदी के किनारे, बहुत अच्छा लगता है।
{नेकदिल
इंसान, नौ
लाखी सिंह चौहान}
शहर
की कई चाय की दुकानें वर्षों पुरानी हैं, जहां चाय की चुस्कियां लेते हुवे किसी
न किसी बात पर चर्चा करते पत्रकार बन्धु, राजनितिक व अन्य नजर आ जाते हैं। ऐसा
ही है, राजपुर
रोड स्थित लाखी टी-स्टाल। बात तोमर जी की हो रही है, इसलिए...
तोमर
जी को टी-स्टाल की ओर आता देख, लाखी का दिल खुश हो जाता है और दौड़ के सड़क से उन्हें सहारा देकर लाने
स्वयं चल देते हैं या अपने बेटे अनमोल को भेजते हैं। फिर तोमर जी को आराम से
कुर्सी में बिठाकर चाय खाना पानी वगैरा देकर, खातिरदारी में लग जाते हैं। कभी कभी
खुन्दक में तोमर जी बुरा भला भी कह जाते हैं, पर लाखी बिलकुल बुरा नहीं मानते। लाखी
मानते हैं कि नर सेवा, नारायण सेवा के बराबर होती है।
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