सुप्रीम कोर्ट ने सिविल अपील 10013-10014 ऑफ 2016 पर 4 अक्टूबर 2016 को दिया है आदेश
मजीठिया की मारामारी के इस दौर में यदि कोई मीडिया कर्मी पेंशन की बात करने लगे तो मीडिया सर्कल का बहुतायत आंखें तरेरने से गुरेज नहीं करेगा। वह सवालिया लहजे में तानेबाजी पर भी उतर जाए तो कोई असहज बात नहीं होगी। क्योंकि मजीठिया वेजबोर्ड की सिफरिशों पर किसी भी रूप में अमल नहीं हुआ है, मैनेजमेंट से इसके लिए जारी जंग अभी तक किसी मुकाम पर नहीं पहुंची है, और इसी दरम्यान कुछ लोग पेंशन का राग अलापने लगे हैं। निश्चित ही, यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक होगी। वह क्यों पेंशन की मगजमारी में फंसेगा जिसे अब तक या इससे पहले कभी भी इतनी सेलरी-वेतन-पगार-मजदूरी नहीं मिली जिससे वह एक निश्चिंत जीवनयापन की कल्पना भी कर सके। वह तो ऐसे हालात में जीता है कि मिले-अर्जित मेहनताने से किसी तरह जीने की अनिवार्य वस्तुओं को हासिल कर पाता है। वह इसी उधेड़बुन में रहता है कि कब पगार की तिथि आए और सांसों को सहज ढंग से चलाने का सामान जुटा पाए। सेलरी राशि कब फुर्र हो जाती है, पता ही नहीं चलता।
बिल्कुल ठीक बात है, पेंशन की उम्मीद में मीडिया की जॉब करने नहीं कोई आता। चंद लोग मिशन के तहत और ज्यादातर चकाचौंध में उलझकर मीडिया की नौकरी में आते हैं। आने पर पता चलता है कि यहां कितनी अनिश्चितता है, कितनी उहापोह है, कितना शोषण है, कितना उत्पीड़न है, और कितना सीनियर्स-मैनेजमेंट-मालिकान की दादागिरी-गुडागर्दी है। बावजूद इसके, अनंतर में मीडिया जॉब एक चस्के, एक आदत, एक उन्माद की तरह हावभाव-व्यवहार, यहां तक कि सोच में समा जाता है। इसकी परिणति क्या होती है, मीडिया कर्मी, या कहें टंकणकार-कलमकार बखूबी जानते हैं। क्षमा याचना के साथ कहना चाहूंगा कि वे सबको उनके कर्तव्य, अधिकार की सीख-नसीहत देते हैं, पर खुद के अधिकारों-कर्तव्य से तकरीबन अनजान रहते हैं। या इस जानकारी को गंभीरता से लेने में अपनी तौहीन सकझते हैं। हो सकता है पेंशन की चर्चा, इसी वजह से उन्हें यहां अनुपयुक्त लगे। लेकिन है यह एक परम सत्य।
पेंशन स्कीम 1995 में अस्तित्व में आई थी जिसका नाम है इम्प्लाईज पेंशन स्कीम 1995। पब्लिक सेक्टर में पेंशन स्कीम बहुत पहले ही आ गई थी। जिसका सुख उन समस्त कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद मिलने लगता था जो सरकारी जॉब में थे ( सरकारी क्षेत्र में पेंशन अभी भी है लेकिन ढलान पर है। पेंशन को समाप्त कर देने की प्रक्रिया सरकार ने नियोजित रूप से शुरू कर दी है )। लेकिन निजी क्षेत्र में यह योजना लंबी जद़दोजहद के बाद 1995 में अस्तित्व में आई। मीडिया भी निजी क्षेत्र का एक अहम हिस्सा है इसलिए इसमें पेंशन स्कीम लागू है। इसका लाभ उन मीडिया संस्थानों के तमाम कर्मचारी उठा रहे हैं जो लंबी सेवा के बाद रिटायर हो चुके हैं। चूंकि ढेरों मीडिया संस्थान ऐसे हैं जहां कोई नियम-कायदा, लेबर एक्ट- जर्नलिस्ट एवं नॉन जर्नलिस्ट इम्प्लाई एक्ट अमल में ही नहीं है, या लागू ही नहीं किया गया है, या मालिकान-मैनेजमेंट इन्हें फालतू की चीज मानता है और मीडिया कर्मचारियों को उस संस्थान के खुद के बनाए नियम-कानूनों से संचालित किया जाता है और मनमाने ढंग से पगार दी जाती है, इसलिए पेंशन सरीखी अहम चीज कर्मचारियों के जहन में कभी आती ही नहीं। इन संस्थानों में तकरीबन यूज एंड थ्रो पॉलिसी चलती है और कर्मचारियों का सारा वक्त जीविकोपार्जन का आधार बचाए रखने व नया ठांव ढूंढते रहने में ही निकल जाता है।
लेकिन जिन मीडिया संस्थानों में कुछ हद तक कायदे से कामकाज चलता है, पहले के वेज बोड़र्स की संस्तुतियां लागू होती रही हैं और नए वेजबोर्ड मजीठिया वेजबोर्ड की संस्तुतियों को लेकर जागरूकता पूवर्वत है, वहां पेंशन को लेकर भी अवेयरनेस में कोई कमी नहीं आई है। कहें कि इस जागरूकता में पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा इजाफा हुआ है। प्रमाण है इंडियन एक्सप्रेस इंप्लाईज यूनियन चंडीगढ़ की ओर से रीजनल प्रॉविडेंट फंड कमिश्नर, चंडीगढ़ को 30 जून 2017 को ज्ञापन सौंपा जाना और माननीय सुप्रीम कोर्ट के 4 अक्टूबर 2016 के आदेश के मुताबिक पेंशन राशि में इजाफा किए जाने की मांग उठाना। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि प्रॉविडेंट फंड कमिश्नर को सीलिंग के दायरे से बाहर निकल कर कर्मचारियों को मिल रही तात्कालिक बेसिक सेलरी के आधार पर पेंशन फंड में धनराशि उपलब्ध होने व रिटायर्ड कर्मचारियों को उसी के अनुसार पेंशन मुहैया होना सुनिश्चित कराने का बंदोबस्त करना चाहिए। बता दें कि इस बाबत प्रॉविडेंट फंड महकमे ने कार्य्रवाही प्रारंभ कर दी है। उसने 23 मार्च 2017 को अपने समस्त रीजनल पीएफ कमिश्नरों को आंतरिक सर्कुलर जारी कर दिया है।
इस सर्कुलर के मुताबिक पीएफ कमिश्नर्स को निर्देश है कि सीलिंग (बेसिक सेलरी रु 5000 या रु 6500) से ऊपर उठकर उस बेसिक सेलरी से पेंशन फंड में धनराशि (मैनेजमेंट एवं कर्मचारी दोनों का शेयर) जमा कराने का बंदोबस्त करें जो मौजूदा समय में मिल रही है, या मिलने वाली है (मजीठिया वेजबोर्ड अवॉर्ड के संदर्भ में)। निजी क्षेत्र में बहुत सी कंपनियां है जहां मोटी सेलरी मिलती है, लेकिन वहां भी पेंशन की बाबत सीलिंग की सीमा रेखा यथावत है। यहां भी पेंशन का निर्धारण सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार होना चाहिए। इसकी डिमांड उसी तरह उठनी चाहिए, उसी तरह प्रयास होना चाहिए, जैसा इंडियन एक्सप्रेस इंप्लाईज यूनियन ने किया है। खासकर मीडिया कर्मचारियों को इस दिशा में भी सक्रिय प्रयास करना चाहिए और भरपूर जानकारी भी हासिल करनी चाहिए। मजीठिया वेजबोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार सेलरी व अन्य सुविधाएं पाने की जंग सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट-आदेश के आलोक में वैसे ही अंतिम पड़ाव पर पहुंचने की ओर अग्रसर है और इसी के साथ पेंशन राशि में इजाफे का बंदोबस्त भी होता चले बहुत अच्छा होगा। क्योंकि ऐसे मीडिया कर्मियों की कमी नहीं है जो या तो रिटायर हो गए हैं, या रिटायर होने की कगार पर हैं।
यह हकीकत अर्सा पहले नुमायां हो चुकी है कि मजीठिया की जंग पहली बार पूरा मीडिया, खासकर प्रिंट मीडिया जगत लड़ रहा है। इसमें ज्यादा तादाद उन कर्मचारियों की है जो पहली बार इतनी सेलरी पाएंगे जिससे जीवनयापन विकटता से तकरीबन मुक्त हो सकेगा। इसमें नियमित कर्मचारी शामिल हैं ही, ठेके और अंशकालिक कर्मी भी शामिल हैं। आउटसोर्सिंग कर्मचारी भी इस परिधि से बाहर नहीं हैं। ऐसे में बहुत ही सचेत ढंग से पेंशन फंड में अपने एवं मैनेजमेंट के कंट्रीब्यूशन में बढ़ोत्तरी करनी-करवानी होगी ताकि बढ़ी उम्र में जीवनयापन के लिए भटकने से निजात मिल सके। इतनी पेंशन मिले जिससे दाल रोटी आसानी से मिल सके। हां, मजीठिया वेजबोर्ड रिपोर्ट में दर्ज क्लासििफकेशन, उसके हिसाब से बनती बेसिक सेलरी के प्रति ध्यान रखना जरूरी है ही, वैरिएबल पे पर भी नजर गड़ाए रखना अनिवार्य है। अन्यथा उसी तरह की मुश्किल से दो-चार होना पड़ सकता है जिससे इंडियन एक्सप्रेस कर्मचारी हो रहे हैं। एक्सप्रेस मैनेजमेंट वैरिएबल पे को बेसिक का पार्ट मान ही नहीं रहा, जबकि 19 जून 2017 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि वैरिएबल पे बेसिक सेलरी का हिस्सा है। इस बाबत कोर्ट ने छठे पे कमीशन रिपोर्टमें किए गए ग्रेड पे प्रावधान का हवाला दिया है। मतलब, वैरिएबल पे ग्रेड पे की मानिंद बेसिक का पार्ट है।
इसलिए मजीठिया रिकमेंडेशन के आधार पर सेलरी मांगने-लेने के साथ ही बढ़ी हुई पेंशन का प्रावधान करने-करवाने के लिए पीएफ कमिश्नर के समक्ष दावा पेश करना वक्त का तकाजा है।
बिल्कुल ठीक बात है, पेंशन की उम्मीद में मीडिया की जॉब करने नहीं कोई आता। चंद लोग मिशन के तहत और ज्यादातर चकाचौंध में उलझकर मीडिया की नौकरी में आते हैं। आने पर पता चलता है कि यहां कितनी अनिश्चितता है, कितनी उहापोह है, कितना शोषण है, कितना उत्पीड़न है, और कितना सीनियर्स-मैनेजमेंट-मालिकान की दादागिरी-गुडागर्दी है। बावजूद इसके, अनंतर में मीडिया जॉब एक चस्के, एक आदत, एक उन्माद की तरह हावभाव-व्यवहार, यहां तक कि सोच में समा जाता है। इसकी परिणति क्या होती है, मीडिया कर्मी, या कहें टंकणकार-कलमकार बखूबी जानते हैं। क्षमा याचना के साथ कहना चाहूंगा कि वे सबको उनके कर्तव्य, अधिकार की सीख-नसीहत देते हैं, पर खुद के अधिकारों-कर्तव्य से तकरीबन अनजान रहते हैं। या इस जानकारी को गंभीरता से लेने में अपनी तौहीन सकझते हैं। हो सकता है पेंशन की चर्चा, इसी वजह से उन्हें यहां अनुपयुक्त लगे। लेकिन है यह एक परम सत्य।
पेंशन स्कीम 1995 में अस्तित्व में आई थी जिसका नाम है इम्प्लाईज पेंशन स्कीम 1995। पब्लिक सेक्टर में पेंशन स्कीम बहुत पहले ही आ गई थी। जिसका सुख उन समस्त कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद मिलने लगता था जो सरकारी जॉब में थे ( सरकारी क्षेत्र में पेंशन अभी भी है लेकिन ढलान पर है। पेंशन को समाप्त कर देने की प्रक्रिया सरकार ने नियोजित रूप से शुरू कर दी है )। लेकिन निजी क्षेत्र में यह योजना लंबी जद़दोजहद के बाद 1995 में अस्तित्व में आई। मीडिया भी निजी क्षेत्र का एक अहम हिस्सा है इसलिए इसमें पेंशन स्कीम लागू है। इसका लाभ उन मीडिया संस्थानों के तमाम कर्मचारी उठा रहे हैं जो लंबी सेवा के बाद रिटायर हो चुके हैं। चूंकि ढेरों मीडिया संस्थान ऐसे हैं जहां कोई नियम-कायदा, लेबर एक्ट- जर्नलिस्ट एवं नॉन जर्नलिस्ट इम्प्लाई एक्ट अमल में ही नहीं है, या लागू ही नहीं किया गया है, या मालिकान-मैनेजमेंट इन्हें फालतू की चीज मानता है और मीडिया कर्मचारियों को उस संस्थान के खुद के बनाए नियम-कानूनों से संचालित किया जाता है और मनमाने ढंग से पगार दी जाती है, इसलिए पेंशन सरीखी अहम चीज कर्मचारियों के जहन में कभी आती ही नहीं। इन संस्थानों में तकरीबन यूज एंड थ्रो पॉलिसी चलती है और कर्मचारियों का सारा वक्त जीविकोपार्जन का आधार बचाए रखने व नया ठांव ढूंढते रहने में ही निकल जाता है।
लेकिन जिन मीडिया संस्थानों में कुछ हद तक कायदे से कामकाज चलता है, पहले के वेज बोड़र्स की संस्तुतियां लागू होती रही हैं और नए वेजबोर्ड मजीठिया वेजबोर्ड की संस्तुतियों को लेकर जागरूकता पूवर्वत है, वहां पेंशन को लेकर भी अवेयरनेस में कोई कमी नहीं आई है। कहें कि इस जागरूकता में पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा इजाफा हुआ है। प्रमाण है इंडियन एक्सप्रेस इंप्लाईज यूनियन चंडीगढ़ की ओर से रीजनल प्रॉविडेंट फंड कमिश्नर, चंडीगढ़ को 30 जून 2017 को ज्ञापन सौंपा जाना और माननीय सुप्रीम कोर्ट के 4 अक्टूबर 2016 के आदेश के मुताबिक पेंशन राशि में इजाफा किए जाने की मांग उठाना। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि प्रॉविडेंट फंड कमिश्नर को सीलिंग के दायरे से बाहर निकल कर कर्मचारियों को मिल रही तात्कालिक बेसिक सेलरी के आधार पर पेंशन फंड में धनराशि उपलब्ध होने व रिटायर्ड कर्मचारियों को उसी के अनुसार पेंशन मुहैया होना सुनिश्चित कराने का बंदोबस्त करना चाहिए। बता दें कि इस बाबत प्रॉविडेंट फंड महकमे ने कार्य्रवाही प्रारंभ कर दी है। उसने 23 मार्च 2017 को अपने समस्त रीजनल पीएफ कमिश्नरों को आंतरिक सर्कुलर जारी कर दिया है।
इस सर्कुलर के मुताबिक पीएफ कमिश्नर्स को निर्देश है कि सीलिंग (बेसिक सेलरी रु 5000 या रु 6500) से ऊपर उठकर उस बेसिक सेलरी से पेंशन फंड में धनराशि (मैनेजमेंट एवं कर्मचारी दोनों का शेयर) जमा कराने का बंदोबस्त करें जो मौजूदा समय में मिल रही है, या मिलने वाली है (मजीठिया वेजबोर्ड अवॉर्ड के संदर्भ में)। निजी क्षेत्र में बहुत सी कंपनियां है जहां मोटी सेलरी मिलती है, लेकिन वहां भी पेंशन की बाबत सीलिंग की सीमा रेखा यथावत है। यहां भी पेंशन का निर्धारण सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार होना चाहिए। इसकी डिमांड उसी तरह उठनी चाहिए, उसी तरह प्रयास होना चाहिए, जैसा इंडियन एक्सप्रेस इंप्लाईज यूनियन ने किया है। खासकर मीडिया कर्मचारियों को इस दिशा में भी सक्रिय प्रयास करना चाहिए और भरपूर जानकारी भी हासिल करनी चाहिए। मजीठिया वेजबोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार सेलरी व अन्य सुविधाएं पाने की जंग सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट-आदेश के आलोक में वैसे ही अंतिम पड़ाव पर पहुंचने की ओर अग्रसर है और इसी के साथ पेंशन राशि में इजाफे का बंदोबस्त भी होता चले बहुत अच्छा होगा। क्योंकि ऐसे मीडिया कर्मियों की कमी नहीं है जो या तो रिटायर हो गए हैं, या रिटायर होने की कगार पर हैं।
यह हकीकत अर्सा पहले नुमायां हो चुकी है कि मजीठिया की जंग पहली बार पूरा मीडिया, खासकर प्रिंट मीडिया जगत लड़ रहा है। इसमें ज्यादा तादाद उन कर्मचारियों की है जो पहली बार इतनी सेलरी पाएंगे जिससे जीवनयापन विकटता से तकरीबन मुक्त हो सकेगा। इसमें नियमित कर्मचारी शामिल हैं ही, ठेके और अंशकालिक कर्मी भी शामिल हैं। आउटसोर्सिंग कर्मचारी भी इस परिधि से बाहर नहीं हैं। ऐसे में बहुत ही सचेत ढंग से पेंशन फंड में अपने एवं मैनेजमेंट के कंट्रीब्यूशन में बढ़ोत्तरी करनी-करवानी होगी ताकि बढ़ी उम्र में जीवनयापन के लिए भटकने से निजात मिल सके। इतनी पेंशन मिले जिससे दाल रोटी आसानी से मिल सके। हां, मजीठिया वेजबोर्ड रिपोर्ट में दर्ज क्लासििफकेशन, उसके हिसाब से बनती बेसिक सेलरी के प्रति ध्यान रखना जरूरी है ही, वैरिएबल पे पर भी नजर गड़ाए रखना अनिवार्य है। अन्यथा उसी तरह की मुश्किल से दो-चार होना पड़ सकता है जिससे इंडियन एक्सप्रेस कर्मचारी हो रहे हैं। एक्सप्रेस मैनेजमेंट वैरिएबल पे को बेसिक का पार्ट मान ही नहीं रहा, जबकि 19 जून 2017 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि वैरिएबल पे बेसिक सेलरी का हिस्सा है। इस बाबत कोर्ट ने छठे पे कमीशन रिपोर्टमें किए गए ग्रेड पे प्रावधान का हवाला दिया है। मतलब, वैरिएबल पे ग्रेड पे की मानिंद बेसिक का पार्ट है।
इसलिए मजीठिया रिकमेंडेशन के आधार पर सेलरी मांगने-लेने के साथ ही बढ़ी हुई पेंशन का प्रावधान करने-करवाने के लिए पीएफ कमिश्नर के समक्ष दावा पेश करना वक्त का तकाजा है।
(भूपेंद्र प्रतिबद्ध)
चंडीगढ़
9417556066
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