- मिस्टर राजुल महेश्वरी, काश, आप मीडियाकर्मियों के लिए भी कुछ सोचते?
- कोरोना की आड़ में फंड से अधिक अखबार बेचने की चिन्ता
वर्ष 2006 की बात है। अमर उजाला के ऋषिकेश ब्यूरो में कार्यरत एक स्ट्रिंगर था भुवनेश जखमोला। कवरेज के दौरान एक्सीडेंट में उसकी मौत हो गई। अमर उजाला ने उसको अपना कर्मचारी नहीं माना। चवन्नी की मदद नहीं दी। उसकी पत्नी तब छह माह के गर्भ से थी। उसका क्या हुआ, आज तक नहीं पता होगा। यह अमर उजाला का एक उदाहरण है कि वो अपने कर्मचारियों के साथ कैसे पेश आता है।
हाल में जब कोरोना और मंदी आई तो अमर उजाला ने अपने कर्मचारियों की सैलरी घटा दी। कई लोगों का गुपचुप तबादला कर दिया ताकि वो नौकरी छोड़ दें। अमर उजाला का सेठ अपने कर्मचारियों के दुख पर दुखी नहीं होता, बल्कि उन्हें दुख देता है। इस अखबार ने अब तक पूरी तरह से मजीठिया भी नहीं दिया। ऐसे में अमर उजाला हेल्थ सेक्टर के लोगों की मदद के लिए अपने फाउंडेशन में रकम मांग रहा है, तो यह अपने अखबार को बेचने का तरीका है।
अमर उजाला ने यदि वो 21 लाख जिससे यह फंड रेज किया जा रहा है, यदि पीएम केयर्स में दिए होते तो क्या बुरा होता? नहीं, लेकिन ये बाजार है जनाब, यहां मौत में भी अपना हित तलाशा जाता है। वही अमर उजाला कर रहा है। क्या मीडियाकर्मी कोरोना वारियर्स नहीं हैं? बेहतर होता कि राजुल महेश्वरी अपने कर्मचारियों का हित भी सोचते। तो हम उन्हें सैल्यूट करते।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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