सवाल यह है कि निष्पक्ष मीडिया को प्रोत्साहन देने के लिए हमने क्या किया?
एनडीटीवी की सराहना की जानी चाहिए कि आठ साल विपरीत परिस्थितियों में भी डटा रहा
एनडीटीवी यदि गौतम अडाणी ने खरीद लिया तो इसमें क्या बुरा है? बाजार है और बाजार में डार्बिन थ्योरी लागू है। हम खुद बाजारवाद का एक हिस्सा हैं। हम खुद बिकने के लिए तैयार बैठे हैं और जरूरी नहीं कि हमारी कीमत भी मिले। बेभाव बिक रहे हैं हम। फिर एनडीटीवी भी तो बाजार का एक हिस्सा है। बिक गया। हां, यह विचार करने की बात है कि निष्पक्ष पत्रकारिता कैसे जिंदा रहे?
प्रिंट मीडिया में संपादकीय भी अब आउटसोर्सिंग से लिए जा रहे हैं। यानी अमर उजाला, जागरण, भास्कर और नवभारत टाइम्स का संपादकीय पेज अब एक ही हो सकता है। इसमें आश्चर्य नहीं। खबरें भी लगभग समान ही होती हैं। न्यूज इंडस्ट्रीज में पहले कार्ययोजना बनती थी। खबरों की पैकेजिंग होती थी। एक्सक्लूसिव स्टोरी पर जोर दिया जाता था। भ्रष्टाचार और अनियमिताएं एक बड़ा मुद्दा होता था और ह्यूमैन एंगल की न्यूज एंकर यानी बॉटम स्टोरी होती थी। लेकिन अब यह दौर बीत गया। रिपोर्टर कम हो गये हैं और खबरों का बोझ अधिक। अब सूचना विभाग और पीआर एजेंसी न्यूज का एक बड़ा सोर्स है। पत्रकार को कोई मेहनत नहीं करनी। की-बोर्ड पर उसकी उंगलियां तेज चलनी चाहिए, बस।
इलेक्ट्रानिक मीडिया में पत्रकारों की ब्रांडिंग हो गयी है। ब्रांडिंग पर करोड़ो खर्च किये जाते हैं। इसके बावजूद यह तय नहीं की चैनल चलेगा या नहीं। देश में 900 से भी अधिक न्यूज चैनल हैं। मुख्यधारा के चैनलों में प्राइम टाइम में मुर्गा फाइट की जाती है। यानी एजेंडा जर्नलिज्म है।
अब मिशनरी पत्रकारिता का दौर बीत गया। कारपोरेट पत्रकारिता है। पहले कुर्ता-पैजामा पहनकर कंधे पर झोला टांगकर पत्रकार भूखे पेट गुजारा कर लेता था। अब लाख रुपये महीना वेतन पाने पत्रकारों की लंबी फौज है। ऐसे में बाजार से अछूता रहना बहुत मुश्किल है। सरकार विज्ञापन देने वाली सबसे बड़ी एजेंसी है। सरकार से पंगा लेकर बाजार में टिकना आसान नहीं है। हमें एनडीटीवी के साहस की सराहना करनी चाहिए कि वह आठ साल टिका रहा। निष्पक्ष लोगों ने या लोकतंत्र के समर्थक लोगों ने एनडीटीवी की बहुत मदद की है। इसके बावजूद यदि वह बिका तो रही होगी कोई मजबूरी।
हमें यह सोचना है कि लोकतंत्र को बचाने और जनपक्षधरता की बात करने वाले मीडिया संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं के लिए हमने क्या योगदान दिया?
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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