Friday, 24 June 2022

सुलह अधिकारी 4 सप्ताह में लेबर कोर्ट या ट्रिब्यूनल में भेजें रेफरेंस



नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में कहा है कि सुलह अधिकारी के पास आईडी एक्ट के अंतर्गत् सुनवाई के लिए जो मामले आते हैं उन्हें 4 सप्ताह के अंदर लेबर कोर्ट या ट्रिब्यूनल में हर हाल में रेफर किया जाना चाहिए।

Friday, 13 May 2022

सीएम शिवराज के निर्देश पर श्रम मंत्री ने किया न्याय पालिका के अधिकारों पर अतिक्रमण



मजीठिया के मामले भोपाल लेबर कोर्ट से होशंगाबाद ट्रांसफर के लिए दिए थे आदेश

भोपाल। मप्र सरकार का असंवैधानिक और न्यायालय के अधिकारों में सीधे हस्तक्षेप देने वाले गैर कानूनी कृत्य का प्रमाण ये नोटशीट है। प्रकरण का बैकग्राउंड ये है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भोपाल श्रम न्यायालय क्रमांक 1 में पत्रकार और गैर पत्रकारों के वेतनमान संबंधी मजीठिया के प्रकरण समाचार पत्र संस्थान के खिलाफ चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हर हाल में 6 माह में इन केसों को निपटाने के आदेश किए हैं। इसी तारतम्य में लेबर कोर्ट नंबर 1 में सुनवाई चल रही थी। लेकिन समाचार पत्र प्रबंधन ने माननीय न्यायाधीश पर बहुत सतही और असत्य आरोप लगाकर राज्य सरकार को औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 33 बी धारा अंतर्गत् मामलों को भोपाल से अन्यत्र स्थानांतरित करने के लिए आवेदन दिया।

राज्य सरकार के श्रम मंत्री ब्रजेंद्र सिंह ने बिना कानूनी पक्ष जाने, यहां तक कि प्रभावित और पीडि़तों का पक्ष सुने बिना ही केस को स्थानांतरित करने का असंवैधानिक आदेश 7/04/2022 को निकाल दिया। हालांकि मप्र उच्च न्यायालय ने सरकार के असंवैधानिक आदेश पर रोक लगा दी है। लेकिन सूत्रों से पता लगा है कि इस असंवैधानिक अपराध को करने के निर्देश मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने श्रम मंत्री ब्रजेंद्र सिंह को दिए थे जिसके बाद श्रम मंत्री ने गैर कानूनी और असंवैधानिक आदेश निकाला है। लेकिन ये इस बात का प्रमाण है कि मप्र सरकार असंवैधानिक काम कर रही है और सरकार स्वयं ही अपराधी है। ऐसे में राज्य में न्याय का शासन कैसे रहेगा ये बड़ा सवाल है।


संविधान के मुताबिक लेबर कोर्ट उच्च न्यायालय के अधीन 

मामले के संवैधानिक पहलू की बात की जाए तो विधि विशेषज्ञ की राय है कि आर्टिकल 235 में न्यायालय को लेकर स्थिति अपने आप में स्पष्ट है। इसके मुताबिक देशभर के समस्त उच्च न्यायालय माननीय सुप्रीम कोर्ट के अधीन काम करेंगे। यानी इन पर प्रशासनिक कंट्रोल सुप्रीम कोर्ट का होगा। वहीं राज्य के अधीनस्थ न्यायालय जिनमें तमाम सिविल कोर्ट से लेबर कोर्ट श्रम न्यायालय तक शामिल है इनका कंट्रोल वहां के उच्च न्यायालय के पास होगा। यानी अधीनस्थ न्यायालय के जज के स्थानांतरण से लेकर पदोन्नति और अनुशासनात्मक कारवाई भी उच्च न्यायालय ही कर सकता है कोई राज्य सरकार नहीं। यदि राज्य सरकार ऐसा करती है तो वह लक्ष्मण रेखा तो लांघती ही है साथ ही ये कृत्य संविधान के खिलाफ भी है।

[मप्र के पत्रकार से प्राप्त जानकारी के आधार पर]

Tuesday, 3 May 2022

Majithia: Statutory Protection U/S 33 Of ID Act Applicable In Pending Reference U/S 17(2) Of Working Journalists Act: MP HC


The Madhya Pradesh High Court, Indore Bench recently held that the provisions under Section 33 of the Industrial Disputes Act restraining the employer from changing service conditions of workman during pendency of a dispute can be applied in pending referenceunder Section 17(2) of the Working Journalists and Other Newspaper Employees (Conditions of Service) and Miscellaneous Provisions Act, 1955 (Act of 1955).

Deciding the writ petition in favour of the Petitioner/journalist, the division bench of Justice Vivek Rusia and Justice A.N. Kesharwani held-

Learned Labour Court has failed to examine that the Act, 1955 only regulates the certain conditions of service of working employees and other persons working in the Newspaper establishment. Under Section 3, the provisions of the Industrial Dispute Act,1947 have been made applicable to the working journalist as they apply to or in relation to the workman within the meaning of this Act., therefore, section 33 of the Industrial Dispute Act applies in the pending reference under Section17(2) of the Act, 1955. The working journalist are having the same protection as has been given to the workman under the Industrial Dispute Act,1947. Apart from this Section 16A of the Act, 1955, also gives protection to the working journalist and other employees.

Facts of the case were that the Petitioner was working as a news editor under the company of Respondents. He had moved a reference before the labour court, seeking directions to the Respondents to comply with the recommendations of the Majithia Pay Board. Subsequently, he had moved an application before the Labour Court under Section 33 of the Industrial Disputes Act, seeking injunction against the Respondents that during pendency of reference, they be restrained from changing his services conditions or transfer him to some other place. However, his application was dismissed.

The labour court had refused to interfere with his transfer order and also declined to prosecute the Respondents under Section 25 (T) (U) of the Industrial Disputes Act for adopting unfair labour practice. Aggrieved by the same, the Petitioner moved the Court.

The Petitioner contended before the Court that under Section 33 of Industrial Disputes Act, the Respondents were not permitted to change the service conditions by transferring him. By doing so, he added, they violated the provisions under Section 25(U) by committing unfair labour practice.

The Petitioner submitted that Section 16A of the Act, 1955 bars the employer in relation to a newspaper establishment to dismiss, discharge or retrench any newspaper employee, and therefore, interim order was liable to him. He further argued that all the provisions of Industrial Disputes Act apply to working journalist and other news paper employees, and hence, provision under Section 33 of Industrial Disputes Act was also Applicable to his case and in violation of the aforesaid, the Respondents wrongly transferred his service.

Per contra, the Respondents submitted that the Petitioner was required to challenge theorder of termination before the labour court in accordance with law. However, he was not challenging the validity of the termination order in the petition by way amendment. In absence of the main relief, it was argued, the interim relief could not be granted to him. With respect to the applicability of Section 33 of Industrial Disputes Act, the Respondents asserted that the said provision was applicable by virtue of Section 3 of Act, 1955. Therefore, they prayed for dismissal of the petition.

Considering the submissions of the parties and the documents on record, the Court concurred with the arguments of the Petitioner and corollary to the same, the matter was remitted to labour court to decide on whether the Petitioner was being victimized for seeking the implementation of the Majithia Pay Board from the Respondents-

Admittedly, during pendency of reference before the Labour Court, the respondents have transferred the petitioner and thereafter terminated him from services due to non-compliance of transfer order. The Trial Court is required to examine whether the petitioner has been transferred in order to victimize him as he is claiming the implementation of Majithia Pay Board which might casts heavy financial liability on the respondent and in such situation provision of Section 16A of the Act, 1955 will apply or not, therefore, matter is remitted back to the Labour Court to examine the act of the respondents under Section 33 of Industrial Act, 1947 as well as Section16A of the Act, 1955.

With the aforesaid observations and directions, the matter was remitted to the labour court and the accordingly, the petition was disposed of.

Source: https://www.livelaw.in/news-updates/madhya-pradesh-high-court-industrial-disputes-act-pending-reference-working-journalists-act-197733?infinitescroll=1

Case Title: NEERAJ v. SUDHIR AGRAWAL AND ORS.

Citation: 2022 LiveLaw (MP) 129

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Monday, 18 April 2022

अमर उजाला के 75 साल, वर्तमान और भविष्‍य में गर्व करने लायक कुछ नहीं


आज यानि 18 अप्रैल, 2022 को अमर उजाला अखबार अपनी स्‍थापना के गौरवमयी 75 वर्ष पूरे करने का जश्‍न मना रहा है। इस क्षण को पाठकों के साथ सांझा करने के लिए पाठकों को बेचे जाने वाले कुल पन्‍नों में से दो पन्‍ने खर्च किए गए हैं। जहां तक दैनिक अमर उजाला के गौरवमयी प्रकाशन की बात है तो नि:संदेह अखबार ने पिछले 75 वर्षों में से अधिकांश समय पत्रकारों और पत्रकारिता के आदर्शों को स्‍थापित करने के लिए हर संभव प्रयत्‍न किए। इससे सभी जानकार सहमत होंगे कि ये प्रयास इस समाचारपत्र के संस्‍थापकों स्‍वर्गीय डोरीलाल अग्रवाल और स्‍वर्गीय मुरारीलाल माहेश्‍वरी से लेकर स्‍वर्गीय अतुल माहेश्‍वरी तक पीढ़ी दर पीढ़ी चले। अतुल माहेश्‍वरी के देहावसान के बाद इस समाचारपत्र के आदर्श व परंपरा बरकरार है इसको लेकर और किसी को हो ना हो इस अखबार में कार्यरत हर उस कर्मचारी को संदेह है, जिसका इन 75 वर्षों में तिनका भर भी योगदान रहा है।

खैर इस संभावित या कहें बनावटी जश्‍न के रंग में भंग डालने की इस लेखक को जरूरत इसलिए महसूस हुई कि उसने भी इस अखबार के आदर्शों व संपादकीय परंपरा के उच्‍च मानकों के बीच काम करके खुद को परिष्‍कृत किया है। लेकिन जिस प्रकार के दावे आज के अंक में ‘संकल्‍प का उजाला विश्‍वास की शक्‍ति’ के शीर्षक से किए जा रहे हैं, वो इस अखबार की वर्तमान परिस्‍थितियों को देखते हुए महज बनावटी या कहें ढोंग से कम नहीं है। हालांकि जहां तक पाठकों की बात है तो नि:संदेह अभी तक उनका विश्‍वास इस समाचारपत्र बना हुआ हो सकता है, मगर उन्‍हें इस समाचारपत्र की अंतरात्‍मा के दूषित होने का पता लगने में ज्‍यादा समय नहीं लगेगा। फिलहाल एक अखबार की निष्‍पक्षता, उद्यमशीलता और लोकप्रियता के उच्‍च मानक और आदर्श कागज पर काली या रंगीन स्‍याही से उकेरे शब्‍द और तस्‍वीरें ये सब तय नहीं करते। इसके पीछे होता है एक संस्‍थान के साथ जुड़े कर्मचारियों का अनुभव और उद्यम। एक अखबार के मामले में संपादकीय विभाग का निष्‍पक्ष और निरभीक दिमाग ही इसकी आत्‍मा मानी जाती है।

मौजूदा दौर के अमर उजाला में ये सब बातें नहीं दिखाई दे रही हैं। खासकर अतुल माहेश्‍वरी के देहांत के बाद तो इस अखबार का दिमाग यानी संपादकीय विभाग तो पूरी तरह से कॉपरपोरेट मैनेजरों के यहां गिरवी रख दिया गया है। हालांकि इसकी शुरुआत इस अखबार के विनिगमीकरण के साथ ही हो चुकी थी, मगर संपादकीय को अच्‍छी तक समझने और मजबूत पकड़ रखने वाले अतुल माहेश्‍वरी ने कॉरपोरेट मैनेजरों को इसमें घुसपैठ करने का जरा भी मौका नहीं दिया था। बाकी कई दिक्‍कतों के बावजूद उन्‍होंने संपादाकीय संस्‍था को असली अमर उजाला की परपंपराओं से बांधे रखा था। उनके जाने के बाद आगे की पीढ़ी ने इन्‍हें पूरी तरह से समाप्‍त कर दिया और पूर्ववर्ती मालिकों के समय से स्‍वच्‍छंद बह रही संपादकीय संस्‍था पर से मौजूदा मालिकों ने अपना वरदहस्‍त उठा कर कॉरपोरेट मैनेजरों पर रख दिया है।

अब हालात ये हैं कि संपादक नौकरी बजा रहे हैं और संपादकीय विभाग पन्‍ने काले और रंगीन करने की परंपरा निभा रहा है। खबरों का तीखापन और प्‍लानिंग पूरी तरह से गायब है। कर्मचारी मजबूरी में काम कर रहे हैं, क्‍योंकि उन्‍हें पता है यहां से गए तो कहीं के नहीं रहेंगे। समूह संपादक का पद गायब है। जो संपादकीय विभाग देखते थे वो रिटायरमेंट के बाद लाला जी से सैटिंग करके अपनी पगार बनाए हुए हैं और न्‍यूज एजेंसी का कामकाज देख रहे हैं। ऐसा होने की एक और बड़ी वजह मजीठिया वेजबोर्ड है। इससे बचने के लिए पिछले दस वर्षों से कई प्रकार के हथकंडे अपनाते हुए अखबार की गरिमा और कर्मचारियों के ‘विश्‍वास की शक्‍ति’ को नष्‍ट कर दिया गया है। जबकि पिछले बेजबोर्ड के समय ऐसा नहीं किया गया था। जैसे-तैसे कर्मचारियों को मनीसाना वेजबोर्ड के लाभ दिए गए थे। इस बार ना तो अतुल माहेश्‍वरी रहे और ना ही इस अखबार के पहले संपादकीय में लिखे गए शब्‍दों की कीमत रही। सिर्फ कीमत है तो बैलेंसशीट में दिखने वाले मोटे मुनाफे और चापलूस मैनेजरों की।

कर्मचारियों के वैध हकों को मारने के लिए पिछले कुछ वर्षों में अमर उजाला ने जो घटिया चालें चली हैं, ऐसा काम शायद ही स्‍वर्गीय मालिकों के समय पहले कभी किया गया हो। हालात ऐसे हैं कि पहले तो गैर-पत्रकार कर्मचारियों के जबरन इस्‍तीफे लेकर उन्‍हें अपने ही मैनेजरों द्वारा बनाई गई कंपनियों में डाला गया, फिर संपादकीय विभाग के सभी रिपोर्टरों से इस्‍तीफे लेकर एक न्‍यूज एजेंसी बनाकर उसमें डालने का काम शरू किया। इस बीच अमर उजाला पब्‍लिकेशंस लिमिटेड का नाम बदलकर अमर उजाला लिमिटेड किया और फिर प्रिंटिंग प्रेसों को एक सब्सीडरी कंपनी बनाकर इसमें शिफ्ट करके कर्मचारियों और अधिकारियों की आंख में धूल झोंकी गई। अमर उजाला की कमाई को अन्‍य कंपनी में लगाने की बातें भी समाने आ रही हैं। इस तरह के कई फर्जीबाड़े किए गए हैं। यह सारी कवायद सिर्फ और सिर्फ कर्मचारियों को मजीठिया वेजबोर्ड के तहत बढ़ा हुआ वेतन देने से बचने के लिए की गई है। हालांकि यह भी सच है कि अमर उजाला ऐसा करने वाला अकेला अखबार नहीं है, बाकी अखबारों की भी यहीं हालत है, मगर बाकी अमर उजाला की तरह नहीं थे। खासकर अपने कर्मचारियों के हकों के मामले में। अब तो नीचता की हद पार करते हुए एक पॉकेट यूनियन बनाकर फर्जी समझौता तैयार करवाया गया है, जिसके बारे में पहले ही विस्‍तार से छप चुका है।

इस तरह अमर उजाला की 75वीं वर्षगांठ पर इतिहास को लेकर तो गर्व किया जा सकता है, मगर वर्तमान और भविष्‍य में गर्व करने जैसे कुछ नहीं दिख रहा। कर्मचारी एक संस्‍थान की रीढ़ होते हैं और अखबार के मामले में उसका चेहरा, दिमाग और दिल संपादकीय विभाग होता है, जो मरनासन है। रही बात पाठकों के विश्‍वास की, तो वो भी सब समझते और विचार करते हैं, मौजूदा हालात में इनका विश्‍वास भी एक सीमा तक ही बनाया रखा जा सकेगा। अगर सुधरे नहीं तो साफ होना तय है। अगर अच्‍छे से पूछना है तो मैनेजरों से पूछा जा सकता है, क्‍योंकि पीक(ऊंचाई) के बाद डिक्‍लाइन(गिरावट) इन्‍हीं मैनेजरों का पढ़ा-पढ़ाया पाठ है। इनोवेशन(नवाचार) तो जरूरी है, मगर प्रोडक्‍ट(उत्‍पाद) में, संपादकीय से छेड़छाड़ का मतलब अखबार का अंत।

-अमर उजाला के एक कर्मचारी की कलम से। न्‍यूजपेपर इम्‍लाइज यूनियन ऑफ इंडिया के उपाध्‍यक्ष शशिकांत द्वारा प्रेषित। संपर्क: neuindia2019@gmail.com


Wednesday, 6 April 2022

अमर उजाला के तेवर बदले, चाटुकारों का जमावड़ा


राजुल महेश्वरी की रीढ़ नहीं, देखना, बलिया के पत्रकारों को निकाल देगा!

बलिया प्रकरण पर कई दिन चुप रहा, पत्रकारों का मनोबल गिरा


राजुल महेश्वरी ने अमर उजाला का भट्ठा बिठा दिया। हालांकि शुरुआत 2005 में शशि शेखर ने कर दी थी। शशि शेखर ने अमर उजाला का ग्रुप एडिटर बनते ही इस अखबार की रीढ़ ही तोड़ दी थी। उस दौर में शशि शेखर ने सबसे पहले अमर उजाला के दिग्गज पत्रकारों को निकाला या अखबार छोड़ने पर मजबूर कर दिया। अमर उजाला का भट्ठा बिठाकर शशि शेखर हिन्दुस्तान चले गये और वहां भी उन्होंने वही सब किया। चाटुकारों की फौज भर्ती कर दी। बड़ा अखबार है तो झेल रहा है। खैर बात अमर उजाला की।

2000-01 की बात है। उन दिनों मैं अमर उजाला गुड़गांव में था। मारुति का आंदोलन चल रहा था। 5800 कर्मचारी आंदोलनरत थे। अमर उजाला तब गुड़गांव में नया-नया था और वहां इसे लोग उजाला सुप्रीम का अखबार यानी चार बूंदों वाला समझते थे। उस दौर में मैंने और मेरे सीनियर मलिक असगर हाशमी ने मारुति प्रबंधन की चूलें हिल दी थी। आंदोलन की जबरदस्त कवरेज की थी। तब कोई भी कार कंपनी हिन्दी अखबारों को विज्ञापन नहीं देती थी। मारुति प्रबंधन ने आंदोलन को दबाने के लिए अमर उजाला को 25 लाख का विज्ञापन पैकेज दिया कि कवरेज न हो। लेकिन तब अमर उजाला के ग्रुप एडिटर राजेश रपरिया थे उन्होंने प्रबंधन को साफ कह दिया कि सड़क पर कोई गतिविधि होगी तो छपेगी ही। तीन महीने तक आंदोलन चला और हमने खूब कवरेज की। मारुति प्रबंधन ही नहीं सरकार का भी दबाव था, अमर उजाला नहीं झुका।

अब वक्त बदल गया है और अधिकांश संपादक तो मालिक के चाटुकार और गुलाम बन गये हैं। अतुल जी के निधन के बाद राजुल महेश्वरी वैसे भी अखबार नहीं चला पा रहे। वो रीढ़विहीन हैं यही कारण है कि बलिया में पेपर लीक की खबर छापने पर अमर उजाला के तीन पत्रकारों की गिरफ्तारी हो गयी लेकिन उन्होंने तीन दिन तक अखबार में खबर तक नहीं छापी। लाला अब और डरपोक हो गया है। देखना, दिग्विजय, अजीत और मनोज को कुछ समय बाद नौकरी से निकाल दिया जाएगा। अमर उजाला अब पहले जैसा नहीं रहा। यदि मीडिया मैनेजमेंट अपने पत्रकारों के साथ इस तरह का व्यवहार करेगा तो कोई भी पत्रकार ईमानदार कैसे रहेगा?

मैंने अमर उजाला को जीवन के आठ बहुमूल्य साल दिये, और मुझे इस अखबार के प्रबंधन की .......... पर दुख हो रहा है।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

मजीठियाः डीबी कॉर्प को औरंगाबाद हाईकोर्ट से करारा झटका


उप समाचार संपादक सुधीर जगदाले के दावे पर दिव्य मराठी के खिलाफ रिकवरी सर्टिफिकेट जारी करने का आदेश 

बकाया नहीं दिया तो होगी जब्ती की कार्रवाई 

पूरे देश के समाचार पत्र कर्मचारियों के वेतन और अधिकार से जूड़े जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड मामले में मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ ने दैनिक भास्कर समूह (डीबी कॉर्प) के समाचार पत्र दिव्य मराठी दैनिक प्रबंधन को एक बार फिर फटकार लगाई है, जिसने देश भर के पत्रकारों का ध्यान आकर्षित किया है। औरंगाबाद के सहायक श्रम आयुक्त को भी 2019 में श्रम न्यायालय द्वारा पारित पुरस्कार के कार्यान्वयन में देरी के लिए माननीय उच्च न्यायालय ने जमकर लताड़ लगाई है। उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार द्वारा लाए गए जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार, उप समाचार संपादक सुधीर भास्कर जगदाले के दावे पर दैनिक भास्कर समूह (डीबी कॉर्प) दिव्य मराठी के खिलाफ वसूली प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश दिया है। न्यायमूर्ति रवींद्र घुगे द्वारा यह लैंडमार्क जजमेंट पारित किया गया।

बताते हैं कि सुधीर जगदाले के पक्ष में आदेश देते हुए औरंगाबाद श्रम न्यायालय द्वारा दैनिक भास्कर समूह (डीबी कॉर्प) को 4 जनवरी 2019 जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार तीन महीने के भीतर बकाया भुगतान करने का आदेश दिया था। इस आदेश के खिलाफ दैनिक भास्कर ग्रुप (डीबी कॉर्प) की दिव्य मराठी प्रबंधन ने श्रम न्यायालय में रिव्यू पिटीशन दाखिल की थी। जिसे 10 जून 2019 को श्रम न्यायालय ने खारिज कर दिया। उसके बाद डीबी कॉर्प ने इस अवार्ड का विरोध किया और उसे मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ में चुनौती दी थी तथा उस पर स्टे की मांग की।

मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ में इस मामले की पहली तारीख 23 सितंबर 2019 थी। डीबी कॉर्प लिमिटेड के प्रबंधन ने स्टे की मांग की। औरंगाबाद हाईकोर्ट ने दिव्य मराठी (डीबी कॉर्प) को निर्देश दिया कि वह 50 फीसदी बकाया कोर्ट में जमा करे उसके बाद ही मामले की सुनवाई होगी। करीब ढाई साल से दैनिक भास्कर समूह ने इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी 50 प्रतिशत राशि अदालत में जमा नहीं की। इसलिए उप समाचार संपादक सुधीर जगदाले फिर मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ में दौड़े और कहा कि श्रम न्यायालय द्वारा पारित अवार्ड के निष्पादन और वसूली प्रमाण पत्र जारी करने से तकनीकी आधार पर परहेज किया जा रहा है। इसलिए सहायक श्रम आयुक्त को वसूली प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश दिया जाए।

इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद दैनिक भाष्कर (डीबी कॉर्प) प्रबंधन के खिलाफ रिकवरी सर्टिफिकेट जारी करने का निर्देश 23 मार्च 2022 को दिया। सुधीर जगदाले की ओर से माननीय उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता यतिन थोले ने अपना पक्ष रखा, जबकि श्रम न्यायालय में मामले में सुधीर का पक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता पी.एस. एम. शिंदे और अधिवक्ता प्रशांत जाधव ने रखा।

माननीय उच्च न्यायालय के 23 मार्च 2022 को जारी आदेशानुसार सहायक श्रम आयुक्त को आगे की कार्रवाई करनी होगी। श्रम पत्रकार अधिनियम की धारा 17 (3) के तहत दैनिक भास्कर समूह (डीबी कॉर्प लिमिटेड) के खिलाफ वसूली प्रमाण पत्र जल्द ही जारी किया जा सकता है। उसके बाद भी यदि दैनिक भास्कर समूह (डीबी कॉर्प) उप समाचार संपादक सुधीर जगदाले को मजीठिया वेतन आयोग के अनुसार बकाया राशि का भुगतान नहीं करता है, तो जिला कलेक्टर डीबी कॉर्प के खिलाफ जब्ती की कार्रवाई कर सकता है।


शशिकांत सिंह

पत्रकार और आरटीआई एक्टीविस्ट

9322411335


Wednesday, 30 March 2022

चिटफंड कंपनी ने इस पत्रकार से 29 लाख हड़पे! एफआईआर दर्ज

प्रति; पुलिस उपायुक्त परिमंडल- 5 मुंबई- 400018 वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक धारावी पुलिस स्टेशन, मुंबई- 400017 विषय: ‘महेश को-आप. क्रेडिट सोसायटी लि.’ में जमा मेरी धनराशि को मुझे दिलवाने के संदर्भ में… आदरणीय महोदय, आपके पुलिस स्टेशन की सीमा में स्थित ‘महेश को-आप. क्रेडिट सोसायटी लि.’ (पता: राजीव गांधी नगर, रूम नं. सी- 12, ब्लॉक नं. 03, एम. जी. रोड, धारावी, मुंबई- 400017) में मैंने कुल 29,00,000/- (उन्तीस लाख रुपए मात्र) जमा किया है. यह राशि मेरे (15,50,000/-), मेरी पत्नी श्रीमती रेखा सिंह (8,00,000/-) और मेरी सुपुत्री सुश्री गीतिका सिंह (5,50,000/-) के नाम से जमा की गई है, जिसका अकाउंट नंबर हमें (क्रमशः) 0101060000000326, 0101060000000325 और 0101060000000324 तथा मेंबरशिप नंबर (क्रमशः) 0101एम00000011265, 0101एम00000002882 और 0101एम00000011290 प्राप्त हुआ है. श्रीमान, मुझे शीघ्र ही अपनी बेटी की शादी करनी है और मैंने अपना घर भी इसीलिए बेचा, ताकि बेटी की शादी करने में मुझे किसी प्रकार की आर्थिक दिक्कत का सामना न करना पड़े… आपको बताना चाहता हूं कि इसके लिए मैंने यह धनराशि अपना घर बेच कर जुटाई है. यह बात जब सुरेन्द्र मौर्य को पता चली कि बिके हुए घर का पैसा मेरे पास सुरक्षित है, तब वह मुझसे नियमित रूप से मिलकर मुझे इस बात के लिए राजी करने लगे कि जब तक मेरी बेटी की शादी तय नहीं हो जाती है अथवा मुझे किसी और कार्य के लिए जरूरत न पड़े, मैं यह धनराशि ‘महेश को-आप. क्रेडिट सोसायटी लि.’ में जमा कर दूं. इसके बावजूद मैं आगे नहीं बढ़ रहा था, क्योंकि इस तरह की सोसायटीज द्वारा किए जा रहे फ्राड की खबरों से मैं वाकिफ़ था. फिर भी मान्यवर, सुरेन्द्र मौर्य अपने मकसद में तब सफल हो गए, जब उन्होंने मेरी मुलाकात उक्त सोसायटी के चेयरमैन महेन्द्र मौर्य से करवाई… सुरेन्द्र मौर्य ने दावा किया कि महेन्द्र मौर्य उनके अपने सगे चचेरे भाई हैं, इसलिए मुझे किसी प्रकार की चिंता नहीं करनी चाहिए… इसके बाद मौर्य बंधुओं ने जमा की जाने वाली धनराशि के बदले में मुझे अच्छी-खासी ब्याज देने का लालच दिया, साथ ही वादा किया कि चाहूं तो मैं चार महीने बाद कभी भी पैसे निकाल सकूंगा. इस पर जब मैंने ब्याज की रकम पूछी तो दोनों भाइयों ने चर्चा करके जवाब दिया- ‘कम से कम दो परसेंट के हिसाब से आपको जरूर मिलेगा !’ इसके बाद मैंने अलग-अलग किश्तों (कैश / चेक / एनईएफटी / आरटीजीएस) के माध्यम से 15 जनवरी, 2020 तक कुल 29,00,000/- की राशि उक्त सोसायटी में जमा करवा दी, तत्पश्चात 16 या 17 जनवरी को महेन्द्र मौर्य ने मुझे तीन सर्टिफिकेट-कम-फर्स्ट रसीद दी. इन सर्टिफिकेट्स को देख कर मैंने फौरन यह सवाल किया कि इनमें तो आपने 36 महीने लिखा है, जबकि मुझे पैसे तो चार-पांच महीने बाद ही लगेंगे ! इस पर महेन्द्र मौर्य ने कहा कि ‘उसे ध्यान मत दो… मैं बैठा हूं न… आपने एक महीने पहले से पैसे देना शुरू किया था, इसलिए मैंने भी फैसला किया है कि आप अगले महीने (यानी कि फरवरी, 2020) की 10 तारीख को ही आकर अपना 58,000/- ले जाना… आपके ब्याज की तारीख हर महीने की 10 तारीख ही रहेगी और आपका पूरा मूल धन 10 से 15 मई (2020) के बीच आपके उन खातों में ट्रांसफर कर दिया जाएगा, जिन खातों से हमारे पास आपने पैसे भिजवाए हैं.’ महोदय, इस बीच सुरेन्द्र मौर्य जहां अपने पिता के निधन के चलते पैतृक गांव चले गए थे, वहीं निजी कारणों से मैं भी 22 जनवरी, 2020 को अपने गांव चला गया… फरवरी, 2020 के पहले सप्ताह में मैं मुंबई वापस आया और आते ही सुरेन्द्र मौर्य से संपर्क किया, पर मिलने के बाबत वह लगातार टाल-म-टोल करते रहे… आखिर 10 फरवरी, 2020 को वह तब मिले, जब मैंने बहुत आग्रह किया कि ‘मुझे दो लाख रुपए की बड़ी जरूरत है, मुझे अविलंब दिलवा दीजिए.’ लेकिन इस मुलाकात के दौरान ही सुरेन्द्र मौर्य ने यह कह कर मेरे पैरों तले से जमीन खिसका दी कि ‘महेन्द्र मौर्य तो 24 जनवरी, 2020 से ही लापता हैं !’ सुरेन्द्र मौर्य के साथ इस समय चूंकि सोसायटी के कोषाध्यक्ष अरुण जैसवार भी मौजूद थे, लिहाजा मैंने तुरंत प्रश्न किया- ‘फिर मेरा पैसा ?’ इन दोनों ने मुझे सांत्वना दी कि ‘शुक्र है, महेन्द्र मौर्य ही लापता हैं… सोसायटी का पूरा पैसा बैंक में पूरी तरह सुरक्षित है !’ मैंने ज़िद की अगर ऐसा है तो मुझे संबंधित बैंक का स्टेटमेंट दिखाइए, पर स्टेटमेंट निकालने में इन्होंने पांच-छह दिन का समय लगा दिया… आश्चर्य है कि स्टेटमेंट निकालने के बाद इन लोगों को पता चला कि सोसायटी के लिए मैंने धारावी स्थित जिस भारत बैंक में पैसे ट्रांसफर किए, उसमें बमुश्किल 50,000/- बचे हैं !’ जाहिर है कि इस तथ्य के सामने आने से मैं तो जीते जी मर गया ! बस, तसल्ली थी तो इतनी ही कि सोसायटी का कोषाध्यक्ष अभी कोई रास्ता निकालने का भरोसा दे रहा है, साथ ही सुरेन्द्र मौर्य ने भी कहा कि ‘लोन के रूप में सोसायटी का 1,70,00,000/- (एक करोड़ सत्तर लाख रुपए मात्र) मार्केट में मौजूद है, जहां से कलेक्शन भी हो रहा है… मैं हर महीने की ब्याज तो समय पर देता ही रहूंगा, अप्रैल के एंड तक पूरा मूल धन भी आपको दे दूंगा.’ लेकिन सुरेन्द्र मौर्य ने ऐसा कुछ नहीं किया… उन्होंने न तो ब्याज देने की शुरुआत की, न ही मूल धन देने की उनकी नीयत दिख रही है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि आए दिन नए-नए बहाने कर रहा यह शख्स अब नैतिकता को भी ताक पर रख चुका है. जब पैसे जमा करवाना था, तब तो खुद को चेयरमैन का भाई बताते हुए बड़ा इतराता था… लेकिन अब जबकि महेन्द्र मौर्य अंडरग्राउंड है, सुरेन्द्र मौर्य ने मुझसे ही कहना शुरू कर दिया है कि यदि मैं अपनी रकम हासिल करना चाहता हूं तो महेन्द्र मौर्य को खोज कर मैं स्वयं उसे अपने स्तर पर मुंबई लाऊं !’ श्रीमान, मेरे लिए यह असंभव है… असल में यह पारिवारिक फ्राड है, क्योंकि मौर्य परिवार के किसी भी सदस्य ने अभी तक महेन्द्र मौर्य की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाई नहीं है. इस सोसायटी के चेयरमैन महेन्द्र मौर्य के बाद जहां सेक्रेटरी भी फरार हुआ, वहीं अब तो कोषाध्यक्ष भी कहीं छुप गया है. इस फ्राड के सार्वजनिक होते ही महेन्द्र मौर्य का अपना निजी परिवार (पत्नी, बच्चे और पिताजी) गांव शिफ्ट हो गया तो इसी को देखते हुए मुझे आशंका है कि सुरेन्द्र मौर्य भी मुंबई से अब कभी भी पलायन कर सकता है ! अत: मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरी ओर से सुरेन्द्र मौर्य और महेन्द्र मौर्य के विरुद्ध प्राथमिकी (F.I.R.) दर्ज करके इन दोनों भाइयों पर यथोचित कार्यवाही की जाए, साथ ही आप कृपया ब्याज सहित मेरी उपरोक्त संपूर्ण धनराशि मुझे दिलवाने की कृपा कीजिएगा, मैं सदैव आपका आभारी रहूंगा… सधन्यवाद; आपका कृपाभिलाषी, (धर्मेन्द्र प्रताप सिंह) पत्रकार मुंबई मोबाइल: 9920371264 दिनांक: 17/03/2020