Friday, 25 February 2022
अंशदान में देरी से हुए नुकसान की भरपाई करेंगे नियोक्ता
Thursday, 24 February 2022
सर्विस कंडिशन चेंज होने पर कर्मचारियों का ट्रांसफर अवैध: सुप्रीम कोर्ट
किसी कंपनी द्वारा पहले कर्मचारियों पर त्यागपत्र देने के लिए का दबाव बनाने और त्यागपत्र ना देने पर कर्मचार्रिेयों को जबरिया काफी दूर ट्रांसफर करके नौकरी छोड़ने केा मजबूर करने वाली कंपनियों की चाल को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने अवैध करार दिया है। यह फैसला ट्रांस्फर को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने वाली निजी कंपनियों के लिए एक बड़ा झटका है। एमएस कापरो इंजीनियरिंग इंडिया लिमिटेड बनाम सुरेंद्र सिंह तोमर एवं अन्य के मामले में सुप्रीमकोर्ट के जस्टीस एमआर शाह व एएस बोपन्ना की खंडपीठ ने 26 अक्तूबर, 2021 को यह फैसला सुनाया है। इस मामले में पाईप बनाने वाली मध्य प्रदेश की एक कंपनी ने अपने कर्मचारियों की संख्या कम करने के गलत इरादे से पहले अपने कर्मचारियों को इस्तीफा देने का दबाव बनाया, जब वे ना माने तो एक साथ नौ कर्मचारियों का तबादला मौजूदा कार्यस्थल से करीब 900 किमी. दूर राजस्थान में कर दिया गया। इतना ही नहीं इन कर्मचारियों को पाइप बनाने की यूनिट से नट बनाने वाले यूनिट में भेजा गया, जिसे कोर्ट ने सर्विस कंडिशन में बदलाव मानते ही औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 9-ए का उल्लंघन माना। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने ना केवल सभी कर्मचारियों सिर्फ ट्रांसफर रद्द करने के लेबर कोर्ट के फैसले को सही करार दिया, बल्कि चार सप्ताह के अंदर सभी कर्मचारियों को एरियर व वेतन देने, फिर से काम पर रखने और अन्य सभी सुविधाएं देने के अलावा प्रत्येक कर्मचारी को 25-25 हजार रुपए हर्जाना देने का भी आदेश दिया है।
मध्य प्रदेश के दिवास की कापरो इंजिनियरिंग इंडिया लि. में लोहे के पाईप बनाए जाते हैं। इस कंपनी के नौ कर्मचारियों ने कंपनी में 25 से 30 साल तक नौकरी की। कर्मचारियों का कहना था कि कंपनी प्रबंधन ने उनसे त्यागपत्र मांगा मगर उन्होने त्यागपत्र नहीं दिया जिसके बाद कंपनी प्रबंधन ने 13 जनवरी 2015 को कर्मचारियों का ट्रांसफर दिवास से राजस्थान के चोपंकी कर दिया, जो दिवास से लगभग 900 किलोमीटर दूर है। इस ट्रांसफर से सभी कर्मचारी परेशान हो गए, क्योकि जिस जगह तबादला किया वहां 40 से 50 किमी. के दायरे में कोई रिहायशी इलाका तक नहीं था। ऐसे में इस जगह पर जाने से कर्मचारियों के बच्चों से लेकर माता-पिता परेशान होने वाले थे। इतना नहीं जिस नई इकाई में इन कर्मचारियों का ट्रासंफर किया गया वहां पाईप नहीं बल्की नट बोल्ट बनता था। ऐसे में उनका कार्य भी बदला जा रहा था। इन कर्मचारियों का विवाद पहले लेबर कोर्ट गया, जहां से उन्हें राहत मिली। कंपनी ने लेबर कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट में चैलेंज किया और वहां भी लेबर कोर्ट के फैसले को सही माना गया। ऐसे में कंपनी ने सुप्रीमकोर्ट की शरण ली, मगर सुप्रीम कोर्ट ने भी कर्मचारियों के हक में फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इन कर्मचारियों पर नौकरी छोड़ने का दबाव बनाने के लिए सैकड़ों किमी. दूर ऐसे जगह ट्रांसफर करना करना जहां ना तो उनके लिए रहने की व्यवस्था थी और ना ही उनको पहले वाला कार्य दिया गया था। इस दौरान माननीय सुप्रीमकोर्ट ने राजस्थान पत्रिका प्रा.लि. प्रेसिडेंट वर्सेज डायरेक्टर से जुड़े एक मामले का भी हवाला दिया और कहा कि यह प्रजेंट केस नेचर ऑफ वर्क, सर्विस कंडीशन में बदलाव और गलत तरीके से ट्रांसफर तथा मौलिक अधिकार से जुड़ा है, इसलिए नौ कर्मचारियों का राजस्थान में किया गया ट्रांसफर रद्द करने और वेतन सहित पूर्व के सभी लाभ देने का लेबर कोर्ट का फैसला सही था। वहीं सर्वोच्च अदालत ने अपने आदेश में चार सप्ताह के अंदर सभी कर्मचारियों को एरियर और वेतन देने तथा उनको फिर से काम पर रखने के अलावा अन्य सभी सुविधाएं देने सहित प्रत्येक कर्मचारी को 25-25 हजार रुपए अतिरिक्त देने का आदेश भी दिया है। इस आदेश से उन समाचार पत्र कर्मचारियों को भी लाभ मिल सकता है जिनका इसी तरह से कंपनियों ने त्यागपत्र नहीं देने पर ट्रांसफर किया है, बशर्ते उनके तबादले की परिस्थितियां इस केस से मेल खाती हों।
शशिकांत सिंह
उपाध्यक्ष
न्यूज पेपर एम्पलॉयज यूनियन आफ इंडिया (एनएयूआई)
9322411335
Thursday, 3 February 2022
पहली बार किसी दल ने अपने घोषणा पत्र में पत्रकारों को जगह दी
कांग्रेस के घोषणा पत्र में पत्रकारों के लिए योजना
विचारक और सामाजिक चिंतक प्रेम बहुखंडी का आभार
उत्तराखंड कांग्रेस के घोषणा पत्र को बनाने में पार्टी के थिंक टैंक प्रेम बहुखंडी की अथक मेहनत रही है। उन्होंने इस घोषणा पत्र में पहाड़ और उत्तराखंडित को समहित करने का भरसक प्रयास किया है। सबसे अलग बात यह है कि उन्होंने गोदी मीडिया से इतर छोटे और मझोले पत्रकारों की सुध ली है। चारण, भाट और दलाल पत्रकारों की तो किसी भी सरकार में मौज होती है लेकिन इनकी संख्या पत्रकारों की कुल संख्या का 10 प्रतिशत ही होता है। 90 प्रतिशत पत्रकार आज भी ईमानदारी से और कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं।
कांग्रेस घोषणा पत्र में कंस्ट्रक्शन वर्कर्स बोर्ड 1996 की तर्ज पर पत्रकार बोर्ड का गठन करने की बात की गयी है, मसलन जैसे हर प्रकार के कंस्ट्रक्शन की कुल कीमत का कुछ प्रतिशत कंस्ट्रक्शन वर्कर्स बोर्ड के पास जाता है, उसी प्रकार सरकार द्वारा, जितने भी विज्ञापन दिए जाएंगे, उसका कुछ प्रतिशत पत्रकार वेलफेयर बोर्ड के पास जाएगा। इससे पत्रकारों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित होगी, पत्रकारिता के भी स्वतंत्र होने की उम्मीद है। पत्रकारों के लिए सामाजिक सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। भाजपा सरकार में सच्चे पत्रकार सबसे अधिक असुरक्षित रहे हैं। पत्रकारों पर हमले, उनकी हत्या, झूठे मुकदमे, राजद्रोह समेत कई तरह से उनका उत्पीड़न किया गया है। ऐसे में कांग्रेस के घोषणा पत्र में पत्रकारों के लिए जगह दिया जाना सराहनीय है बशर्ते सरकार आने के बाद इस पर अमल भी हो।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
Monday, 31 January 2022
Assam Newspaper Employees Win Majithia Battle in Gauhati High Court
New Delhi, 31 Jan. Friends, Major Victory for Assam Union of Working Journalists. We are glad to inform you that the Assam Union of Working Journalists has achieved a major victory in the Gauhati High Court in case No. WP (C) 1274/2018 titled ‘Janasadharan Printing and Publishers (P) Ltd and Anr versus Jansadharan Newspaper Employees Union’, the High Court has asked the management to deposit Rs. 25 lakhs in the office of the Labour Commissioner within a period of four weeks to be disbursed among the employees. The High Court also directed Respondent No 1 i.e., State Government represented through the Labour Commissioner to make reference within 15 days from the date of passing of the instant order to Labour Court, which will dispose of the case (with regard to the amount) within four months.
The role and cooperation of the Jansadharan Newspaper Employees Union leader Mrinal Kanti Misra, AUWJ leaders- Keshab Kalita and Tutomani Phukan and Advocate S Borthakur need to be specially mentioned in achieving this laudable victory. The IFWJ Secretary-General Parmanand Pandey had also discussed this case in detail with Advocate Borthakur at Guwahati before filing the case. IFWJ Secretary-General Parmanand Pandey also met the Labour Commissioner to ensure that the recommendations of the Majithia Wage Boards are implemented across the state.
Press Clubs Reduced to Taverns, Need to be Better Utilised
Press Clubs throughout the country have failed the journalists. They have hardly stood by the journalists in their struggles against exploitative management. As and when any support is sought from them, their office-bearers wring their hands in the air by saying that they keep away from the trade union matters. In many states, these clubs have only become gossip centres and pubs. In many states, the Press Clubs generate good incomes for some office-bearers. They are mostly housed in government buildings. This is the reason that some vested interests make all efforts to grab them.
The recent case is that of the Kashmir Press Club at Srinagar. There has been a tussle between the two rival groups to get possession of the Kashmir Press Club. So much so, the rivalry posed the law-and-order problems. Ultimately, the government had to intervene, which is an undesirable situation. Siding with one group will be unfair and that is the reason, we have requested both groups to amicably resolve the issue among themselves and keep the government away from the tussle. The government will also do well by not meddling in the inter-rivalry of journalist groups. At the same time, the Press Clubs will have to formulate a policy to come forward to help the journalists in the hours of their needs.
Sham Unions Floated by Managements
Floating fake unions to defeat the genuine demands of the workers is an old technique of management. This has been done by the management of the Times of India, Indian Express, Hindustan Times, The Hindu, Anand Bazar Patrika and many others. This time this mischief is being done by the Amar Ujala management. This was the main weapon of the late Lala Ramnath Goenka, who was adept at nurturing the fake unions and dividing the workers. It may sound strange, but it is a fact that some journalists used to be the worst fawns of Lala ji and were to do anything to betray their colleagues. Not long ago, when the case of the Majithia Wage Board was being fought in the Supreme Court, the Times of India management sprung a surprise in the court by presenting an application for the withdrawal of the case by their pocket union. IFWJ requests all its members to be on guard from these spurious unions to effectively safeguard the interest of the working class.
Need for the Corpus to Help Needy Journalists
Pandemic Covid has caused immense hardships for journalists. Many of our friends have left us to their heavenly abodes and a number of them have been rendered jobless. Many of them have been forced to live in abject penury and poverty. This was the reason in the last meeting of the IFWJ, our leaders- Hemant Tiwari, Siddharth Kalhans, Kappara Prasad Rao suggested creating a corpus to help the needy journalists. It got instant support from our President BV Mallikarjunaih, Secretary South K Asadullah and many others. It is requested to all the State Units come forward with some concrete suggestions and cooperation to form the Corpus.
Parmanand Pandey
Secretary General: IFWJ
Friday, 28 January 2022
भास्कर मैनेजमेंट के दलालों ने फैलाया भ्रम!
नहीं है हाईकोर्ट का समझौते के संबंध में कोई आदेश।
भास्कर के कोटा के साथियों के मजीठिया मामले के संबंध में भास्कर मैनेजमेंट के कुछ दलाल चार-पांच दिन से यह भ्रम फैला रहे हैं कि राजस्थान हाई कोर्ट ने इस मामले में दोनों पक्षों को समझौता करने का निर्देश दिया है। यह भ्रामक जानकारी इसलिए फैलाई जा रही है क्योंकि भास्कर प्रबंधन इस मामले में बुरी तरह फंस गया है। न निगलते बन रहा है और न उगलते।
मामले को यूं समझिए:—
दरअसल कोटा के लेबर कोर्ट ने 09-04-2019 को अवार्ड जारी कर भास्कर प्रबंधन को करोड़ों रुपए अपने कर्मचारियों को देने का आदेश दिया था। भास्कर प्रबंधन ने लेबर कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ राजस्थान हाईकोर्ट में रिट दायर की और साथ में स्थगन आवेदन पत्र दायर कर लेबर कोर्ट के अवार्ड पर स्टे लगाने की प्रार्थना की। राजस्थान उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने 9 जुलाई 2020 को रिट पर नोटिस जारी करते हुए यह आदेश भी दिया कि यदि प्रबंधन 3 सप्ताह के भीतर 35% रकम कोर्ट में जमा करा देता है तो 9 अप्रैल 2019 के अवार्ड के क्रियान्वयन पर रोक रहेगी।
भास्कर प्रबंधन ने इस समयावधि के भीतर यह राशि जमा नहीं कराई और उच्च न्यायालय की एकल पीठ के आदेश के खिलाफ खंडपीठ में अपील दायर कर दी।
पैसे की ताकत पर प्रबंधन ने वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मनु अभिषेक सिंघवी को खडा किया और उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 13 अगस्त 2020 को अपील पर नोटिस जारी करते हुए एकल पीठ के आदेश के क्रियान्वयन पर अगले आदेश तक रोक लगा दी।
बाद में सुनवाई के दौरान श्रमिकों के अधिवक्ता धर्मेंद्र जैन की ओर से यह आपत्ति की गई की अंतरिम आदेश के खिलाफ अपील मेंटेनेबल ही नहीं है। अपील को खारिज किया जाए।
आगामी पेशियों पर भी प्रबंधन के वकील किसी न किसी बहाने से तारीखें बढवाते रहे लेकिन प्रबंधन को दिखने लगा कि अब इसे ज्यादा नहीं खींचा जा सकेगा।
24 जनवरी 2022 को सुनवाई के दौरान समझौते का पैंतरा फेंका गया। खण्डपीठ ने श्रमिकों के अधिवक्ता से पूछा तो हमारे अधिवक्ता ने साफ कह दिया कि अदालत को ऐसा लगता है तो वह आदेश जारी कर दे।
अदालत ने आगामी सुनवाई 14 फरवरी 2022 को नियत की है। समझौते सम्बंधी कोई आदेश नहीं दिया। लेकिन भास्कर के दलाल यह अफवाह फैला रहे हैं कि अदालत ने समझौते के आदेश दिए हैं। मामला लम्बा खिंचने से प्रबंधन को लग रहा है कि कर्मचारी मायूस हैं और इस अफवाह के प्रभाव में आकर उससे कम पैसे पर समझौता कर लेंगे। प्रबंधन ऐसा नहीं कर पाया तो खण्डपीठ इस अपील का निस्तारण करेगी जो प्रबंधन के खिलाफ ही होगा क्योंकि अंतरिम आदेश के खिलाफ अपील मेंटेनेबल ही नहीं होती। दो—तीन सुनवाई में ऐसा हो गया तो भास्कर के पास लेबर कोर्ट के आदेश को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा क्योंकि अपील के निस्तारण के बाद लेबर कोर्ट के अवार्ड पर स्टे भी नहीं रहेगा।
Thursday, 27 January 2022
मजीठिया: सुप्रीम कोर्ट की सीधी-सीधी अवमानना पर उतरा अमर उजाला
मजीठिया वेजबोर्ड को खारिज कर पॉकेट यूनियन की मिलीभगत से तैयार किया अपना वेजबोर्ड
साथियों, जो अमर उजाला कभी अपने कर्मचारियों को उनका हक देने में अव्वल माना जाता था, आज वो ही संस्थान कर्मचारियों के साथ धोखाधड़ी की सारी हदें पार करने को उतारू है। मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतनमान मांगने वाले कर्मचारियों को तबादलों और अन्य तरह से प्रताड़ित करने के बावजूद भी इस संस्थान को मजीठिया वेजबोर्ड से बचने का कोई उपाय ना मिला तो इसने अपनी पॉकेट यूनियन के साथ मिलकर एक नया कांड कर डाला है। अमर उजाला प्रबंधन ने मजीठिया वेजबोर्ड के नाम पर अपनी पॉकेट यूनियन के साथ मिल बैठ कर एक अवैध समझौता तैयार करवाया है। इस फर्जी समझौते की करीब सौ पन्नों की बुकलेट बनाकर श्रम अधिकारियों के समक्ष पेश किया जा रहा है और न्यायालयों में भी पेश करने की तैयारी है, जो कि सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना है।
अमर उजाला और इस तथाकथित पॉकेट यूनियन के बीच 22.11.2021 को हुए इस तथाकथित समझौते को 1 अप्रैल 2021 से लागू होने का दावा किया जा रहा है। यानि जो वेतनमान 11.11.2011 को दिया जाना था, उसे इस तथाकथित समझौते के तहत करीब दस साल बाद देने का झूठा दावा किया जा रहा है। हैरानी की बात है कि इस संस्थान के प्रबंधकों ने 11.11.2011 को भारत सरकार द्वारा अधिसूचित और माननीय सुप्रीम कोर्ट के 07.02.2014 के फैसले के तहत संवैधानिक घोषित किए गए जस्टिस मजीठिया के वेजबोर्ड की सिफारिशों को सिरे से खारिज करते हुए अपना ही कोई प्रबंधक जनीत वेजबोर्ड बना कर करीब 100 पेज की इस बुकलेट के जरिये पेश किया है, मानो अब अमर उजाला प्रबंधन को संसद और माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को दरकिनार करने की शक्तियां हासिल हो गई हों। ऐसा शायद इस्ट इंडिया कंपनी के राज में भी नहीं हुआ होगा, जो अमर उजाला प्रबंधन ने कर दिखाया है। लेकिन सच हमेशा जिंदा रहा है और यही सच है।
इस समझौते में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की सरेआम धज्जियां उड़ा दी गई हैं। हालांकि यह भी तय है कि यह समझौता किसी भी अदालत में टिक नहीं पाएगा, मगर इस नीचता के पीछे एक पूंजीवादी सोच रखने वाले मालिक और जी हजूरी करने वाले चापलूस प्रबंधकों की देश के कानून और कैबिनेट के फैसले को ना मानने की हठधर्मिता साफ झलक रही है। साथ ही पैसे और ताकत के दम पर कर्मचारियों के हकों को पैरों तले रौंदने की व्यवस्था साफ दिखाई दे रही है। अपने लिए इस समझौते में लाखों का वेतन तय करने वाले मैनेजर व मोटी रकम पर पलने वाले सलाहकार शायद यह बात भूल बैठे हैं कि इस देश में संविधान और कानून का राज चलता है। देश की अदालतों में भले ही देर है, मगर अंधेर कतई नहीं है और मजीठिया वेतनमान को लेकर अब तक कई अदालतों के फैसले इस ओर इशारा कर रहे हैं कि प्रबंधन भले ही जितने चाहे ओछे हथकंडे अपना ले कर्मचारियों के संशोधित वेतनमान और बकाया एरियर को किसी भी कीमत पर दबाया नहीं जा सकता।
वैसे यह भी गौर करने वाली बात है कि यह समझौता सुप्रीम कोर्ट के 7 फरवरी 2014 और 19 जून 2017 के आदेशों के आगे कहीं भी टिक नहीं सकता। फिर भी अमर उजाला उसे यह दर्शाते हुए लागू करने की बात कर रहा है कि यह समझौता मजीठिया वेजबोर्ड से बेहतर वेतन कर्मचारियों को देगा। जोकि सरासर झूठ और मक्कारी के अलावा कुछ और नहीं है। इस समझौते को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट की धारा 16 और मजीठिया वेजबोर्ड के क्लॉज 20जे की परिधि में रखा गया है, जबकि सभी को मालूम है कि यह विकल्प 11 से 30 नवंबर 2011 के बीच(नोटिफिकेशन के तीन सप्ताह के अंदर) लिया जा सकता था और वो भी उन्हीं कर्मियों पर लागू होता जो वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट की धारा 16 के अनुसार मजीठिया वेतनमान से अधिक वेतन पा रहे होते। माननीय सुप्रीम कोर्ट की 19 जून, 2017 की जजमेंट में यह बात साफ कर दी गई है कि कोई भी अंडरटेकिंग या समझौता जो मजीठिया वेजबोर्ड के तहत तय वेतनमान और भत्तों से कम पर किया गया है, वो वैध नहीं माना जाएगा।
इतना ही नहीं 24 अक्टूबर 2008 की अधिसूचना के अनुसार 30 प्रतिशत अंतरिम दर से भुगतान भी कर्मचारियों के संशोधित वेतनमान में शामिल है और अब तो कोर्ट और केंद्र सरकार के ताजा फैसले के तहत मनीसाना वेजबोर्ड को भी रिनोटिफाई कर दिया गया है। लिहाजा पुराने कर्मचारियों के लिए मजीठिया वेजबोर्ड के तहत जो नया वेतनमान बनेगा, उसमें मनीसाना वेजबोर्ड के तहत बेसिक, डीए और 30 फीसदी अंतरिम राहत को जोड़ना ही होगा। ऐसे में अमर उजाला प्रबंधन की यह करतूत भेले ही उन कर्मचारियों को खुंटे से बांध सकती है, जो मजबूरी में परिवार का पेट पालने को कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं रखते, मगर यह बात भी प्रबंधन और उसके तथाकथित सलाहकारों को पता होगी कि भले ही कर्मचारी आज अपना मुंह नहीं खोल रहे, मगर वे कभी भी अपना हक रिकवरी के जरिये कोर्ट में जाकर हासिल कर सकते हैं और उन्हें कानूनी हक को लेने से कोई भी ताकत या नियम नहीं रोक सकता।
नए वेतनमान का गठन:
अमर उजाला ने इस चालबाजी में अपना ही वेतनमान बना कर पेश किया है। देखने में इनमें बेसिक पे ज्यादा नजर आ रही है, परंतु असल में ऐसा करके वेतन को बढ़ नहीं रहा बल्कि कम हो रहा है, क्योंकि इसमें मजीठिया वेजबोर्ड के फार्मूले के तहत वेरिबल-पे और डीए शामिल नहीं है। वहीं 11 नवंबर, 2011 से पहले के कार्यरत कर्मचारियों के पुनरीक्षित वेतनमान में प्रारंभिक वेतन का निर्धारण कैसे किया गया है, इसका अता पता तक नहीं है। कुल मिलाकर मजीठिया वेजबोर्ड से बचने के लिए यह सारा खेल खेला गया है। वर्तमान में जो वेतनमान अमर उजाला ने 01 अप्रैल 2021 से बनाकर दिखाया है, उससे अधिक तो 11 नवंबर, 2011 को ही बनता है और बीच के दस वर्षों में डीए व बेसिक में बढ़ौतरी के चलते 01 अप्रैल, 2021 को तो यह दोगुने के करीब होना चाहिए था। वहीं इस फर्जी समझौते के तहत जो वेतनमान बनाया है उसमें भी मेरठ में बैठे मैनेजरों के लिए स्पैशल मेहनत करके मोटी तनख्वाह का प्रबंधन किया गया है। इस फर्जीवाड़े के जरिए मजीठिया वेजबोर्ड के तहत गठित वेतनमान और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955 के प्रावधानों के तहत मिलने वाले वैधानिक वेतन लाभों को एक तरह से समाप्त करने की चाल चली गई है।
उदाहरण स्वरूप हम नोएडा यूनिट के एक कार्यरत साथी के वेतनमान से आपको सबकुछ स्पष्ट कर रहे हैं। ये डाटा हमने इस तथाकथित समझौते से लिया है। हमें उस साथी के नाम से कोई मतलब नहीं है। हम केवल उसके वेतन के आंकड़ों को केवल समझाने के उद्देश्य से ले रहे हैं।
उस साथी की 1 दिसंबर 2010 की ज्वाइनिंग नोएडा में सब एडिटर के पद पर हुई थी। उसका पे स्केल 11 नवंबर 2011 को 1300- ARI (3%) &23500 वाले स्लैब में आता है। कंपनी ने अप्रैल 2021 में उसकी फिटमेंट और प्रमोशन अपने बनाए तथाकथित बेजबोर्ड के अनुसार करके उसे 20500-1050-31000 के पे स्केल में डाल दिया। जिसकी 1 अप्रैल 2021 ग्रोस सैलरी 41500 रुपये बन रही है। जबकि 11 नवंबर 2011 को इसी पद पर भर्ती किसी भी नए कर्मचारी का ग्रोस वेतन जनवरी 2014 में ही इसे पार कर जाएगा यानि 41434 हो जाएगी। हमने यहां 1 दिसंबर 2010 को भर्ती उस कर्मचारी की फिटमेंट व प्रमोशन के आधार पर आपको उसका वेतन इसलिए नहीं दर्शाया, क्योंकि हमें उसका पुराना वेतन नहीं पता है। इसलिए हमने 11 नवंबर 2011 को हुई नई भर्ती का उदाहरण दिया है, जिससे आपको स्पष्ट हो जाए कि नए वाले को इतना वेतन मिलेगा तो पुराने कर्मचारियों का मजीठिया वेजबोर्ड के पैरा नंबर 20 के अनुसार फिटमेंट-प्रमोशन के बाद वेतन कहां जाएगा, ये अंदाजा हो जाएगा। यहां पुराने कर्मियों को पैरा 20 के अनुसार वे भत्ते यहां अन्य लाभ भी मिलते रहेंगे 11 नवंबर 2011 से पहले उन्हें मिल रहे थे। इनमें टेलीफोन बिल, समाचार का बिल, शिक्षा भत्ता आदि अन्य लाभ शामिल हैं।
उदाहरण- जनवरी 2014
बेसिक- 14560
वेरियवल पे- 5096
डीए- 7671
मकान भत्ता- 5897
परिवहन भत्ता- 3931
मेडिकल- 1000
कुल- 38155
पीएफ कंपनी- 3279
ग्रोस सैलरी- 41434
अब ये अप्रैल 2021 में मजीठिया के अनुसार बढ़ते-बढ़ते इतनी हो जाएगी-
बेसिक- 19926
वेरियवल पे- 6974
डीए- 27062
मकान भत्ता- 8070
परिवहन भत्ता- 5380
मेडिकल- 1000
कुल- 68412
पीएफ कंपनी- 6475
ग्रोस सैलरी-74887
वहीं, 1 अप्रैल 2021 को इसी पद पर भर्ती नए कर्मचारी को भी मजीठिया के अनुसार उससे ज्यादा वेतन मिलेगा।
बेसिक- 15000
वेरियवल पे- 5250
डीए- 20371
मकान भत्ता- 6075
परिवहन भत्ता- 4050
मेडिकल- 1000
कुल- 51746
पीएफ कंपनी- 4875
ग्रोस सैलरी-56621
उपरोक्त उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि अमर उजाला कैसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर रहा है। इसके साथ ही वह तथाकथित नए वेतनमान से कर्मचारियों के वेतन ही नहीं पीएफ, पेंशन, ग्रेच्युटी आदि पर भी मोटा डाका डाल रहा है।
संस्थान की श्रेणी का निर्धारण:
अमर उजाला ने संस्थान का श्रेणी का निर्धारण भी अपनी सहुलियत के अनुसार फर्जी तरीके से किया है। समझौते के अनुसार लेखावर्ष 2010-11, 2011-12 व 2012-13 को आधार बनाकर संस्थान की श्रेणी का पुनर्निधारण करते हुए औसत सकल राजस्व 492.31 करोड़ रुपये बताया गया है, जो सरासर गलत है। समझौते में वर्ष 2010-11 का सकल राजस्व 407.46 करोड़ रुपये दिखाया गया है जो असल में वर्ष 2009-10 का सकल राजस्व है। वहीं वर्ष 2011-12 का 525.45 और 2012-13 का सकल राजस्व 544.02 करोड़ बताया गया है, जो सही है। यहां खेला वर्ष 2010-11 के सकल राजस्व में किया गया है, क्योंकि रजिस्ट्रार आफ कंपनिज को दी गई अमर उजाला की बैलेंसशीट के अनुसार अमर उजाला का वर्ष 2010-11 का सकल राजस्व 474.42 करोड़ है। इस तरह इन तीनों वर्षों का औसत सकल राजस्व 514.36 करोड़ रुपये बनता है, जो क्लास-2 में आता है। लिहाजा अमर उजाला प्रबंधन और उसकी पॉकेट यूनियन ने औसत राजस्व के आंकड़े में भी फर्जीवाड़ा करने का काम किया है। बहरहाल मजीठिया वेजबोर्ड का निर्धारण आरंभिक तौर पर वित्तीय वर्ष 2007-08, 2008-09 व 2009-10 के औसत सकल राजस्व के आधार पर होना है, जो 500 करोड़ रुपये से कम बनता है और अमर उजाला कंपनी क्लास-3 कैटेगरी में आती है। क्योंकि मजीठिया वेजबोर्ड की नोटिफिकेशन 11 नवंबर 2011 में हुई थी इसलिए नया वेतनमान 31 मार्च, 2013 तक पुरानी औसत के आधार पर निर्धारित संस्थान की श्रेणी-3 के अनुसार तय होना था। इसके बाद श्रेणी पुनर्निधारण के तहत 01 अप्रैल, 2013 से लेकर अमर उजाला समाचार स्थापना की श्रेणी क्लास-2 कैटेगरी में निर्धारित होनी थी, मगर इस समझौते में श्रेणी निर्धारण में भी खेला किया गया है। वहीं जैसा के इस समझौते में किया गया है, वैसा करने के लिए भी दूसरी बार श्रेणी का पुनर्निधारण इससे पहले के तीन वर्षों यानि 2018-19, 2019-20 और 2020-21 के औसत सकल राजस्व के आधार पर होना चाहिए था, तभी 01 अप्रैल, 2021 का सही श्रेणी निर्धारण माना जाता, जो संभवत: श्रेणी-1 के लिए होता।
अमर उजाला की कोई यूनिट स्वतंत्र या अलग नहीं:
यहां अमर उजाला प्रबंधन की इस चाल को भी समझना होगा, जिसके तहत अमर उजाला अपनी विभिन्न ब्रांचों या सेंटरों को अलग यूनिट बताकर उनका श्रेणी निर्धारण गलत तरीके से करता आ रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि अमर उजाला की कोई भी यूनिट स्वतंत्र या अलग नहीं है। हालांकि विभिन्न जगहों पर मौजूद प्रिटिंग एंड पब्लिकेशन सेंटर असल में अमर उजाला लिमिटेड की ब्रांचेज हैं, जो एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। यह बात इस समझौते के पहले पन्ने से ही साबित होती है, जिसमें अमर उजाला नें अपनी इन तथाकथित यूनिटों को सेंटर ही लिखा है। ज्ञात रहे कि इन प्रिंटिंग एवं पब्लिशिंग सेंटरों के लिए एक ही पैन नंबर इस्तेमाल होता है और सबकी एक ही बैलेंसशीट बनाकर रजिस्ट्रार ऑफ कंपनिज में दी जाती है। इतना ही नहीं प्रबंधन में फंक्शनल इंटिग्रेलिटी एंड कॉमन कंट्रोल है। कर्मचारियों को एक ब्रांच/सेंटर/कार्यालय से दूसरी ब्रांच/सेंटर/कार्यालय में ट्रांस्फर किया जाता है, पीएफ एक ही जगह यानि आगरा(पहले बरेली) में काटा जाता है। आरएनआई में पंजीकरण के दौरान अमर उजाला लिमिटेड(पहले अमर उजाला पब्लिकेशंस लिमिटेड) ही समाचारपत्र के विभिन्न प्रकाशन केंद्रों का स्वामी है। ऐसे में अमर उजाला अपनी ब्रांचों (जिन्हें आम बोलचाल में यूनिट कहा जाता है) को स्वतंत्र यूनिट दिखा कर अपनी श्रेणी निर्धारण में घपला करता आ रहा है, जो किसी भी कोर्ट में नहीं टिक पाएगा। साथ ही यह श्रमजीवी पत्रकार अधिनयम, 1955 की धारा 2डी का उल्लंघन कर रहा है।
कर्मचारियों की कैटेगरी का निर्धारण:
इस तथाकथित एवं अवैध समझौते में अमर उजाला प्रबंधन ने श्रमजीवी पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों की श्रेणियां भी मजीठिया वेजबोर्ड के प्रावधानों को दरकिनार करके खुद से ही तय कर दी हैं और अधिकतर पदनाम प्रबंधकीय या सुपरवाइजरी कैपेसिटी में शामिल कर दिए हैं, ताकि वे कर्मचारी के परिभाषा में ना आ पाएं और कोर्ट व श्रम कार्यालयों में विवाद को उलझाया जा सके। इतना ही नहीं इस अवैध वेतनमान में कर्मचारियों का दायरा भी समिति करते हुए अपनी ही परिभाषा गढ़ी गई है, जो मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों का सीधा-सीधा उल्लंघन है। यह समझौता साफ तौर पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के उन फैसलों की भी अवमानना करता है, जिनके तहत यह व्यवस्था दी गई है कि किसी भी कर्मचारी के पदनाम से यह तय नहीं किया जा सकता कि वह प्रबंधकीय या सुपरवाइजरी कैपेसिटी में आता है। इसके लिए संबंधित कर्मचारी का प्रबंधकीय या सुपरवाइजरी कैपेसिटी में काम करना अनिवार्य है। अमर उजाला प्रबंधन द्वारा पहले अधिकतर कर्मचारियों को जारी नियुक्ति पत्रों में उनके प्रबंधकीय या सुपरवाइजरी कैपेसिटी में तैनात करने का फर्जी पैराग्राफ डाला और अब यह नई चाल चली गई है।
डीए का फार्मूला दरकिनार:
मजीठिया वेजबोर्ड के पैरा 20 के अनुसार डीए की परिभाषा और तय फार्मूले को अमर उजाला ने नए सिरे से अपनी सुविधा अनुसार परिभाषित कर डाला है। ज्ञात रहे कि मजीठिया वेजबोर्ड के फार्मूले के अनुसार 11 नवंबर 2011 से डीए की गणना हर छह माह बाद की जानी है। इसके तहत हर छह माह बाद वेतनमान में खासी बढ़ौतरी होनी थी, जो ना तो अमर उजाला ने आज तक की और ना ही आगे करने वाला है। अब संस्थान ने इस तथाकथित एवं अवैध समझौते के तहत अपना ही फार्मूला बना डाला है और मजीठिया वेजबोर्ड के तहत देय डीए को समाप्त करके देश के संविधान और न्यायपालिका को खुली चुनौती दी है। ज्ञात हो कि मजीठिया वेजबोर्ड के तहत डीए और अन्य भत्तों का निर्धारण नई बेसिक-पे और वेरिएवल-पे को जोड़ कर होना है।
बोनस और ग्रेच्युटी में भी खेल:
इस तथाकथित एवं अवैध समझौते के जरिये अमर उजाला प्रबंधन ने ना केवल मजीठिया वेजबोर्ड को दरकिनार किया है, वहीं बोनस और ग्रेच्युटी के प्रावधानों को भी अपने फायदे के लिए तोड़मरोड़ कर अपना ही फार्मूला बना डाला है, ताकि कर्मचारियों को उनका वैध हक ना मिलने पाए। संस्थान ने बड़ी ही चतुराई से कंपनी की टर्नओवर के तहत बोनस स्लैब फिक्स कर दिए हैं, ताकी लाला जी की तिजोरी से ज्यादा रकम ना निकलने पाए। वहीं श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम की धारा पांच के तहत दी गई ग्रेच्युटी की परिभाषा ही बदल दी गई है। इसके अनुसार श्रमजीवी पत्रकार तीन साल बाद ग्रेच्युटी के हकदार होते हैं और प्रत्येक साल के लिए 15 दिन के वेतन के बराबर ग्रेच्युटी निर्धारित होती है, मगर यहां अमर उजाला के प्रबंधकों ने इस धारा के लागू होने से पूर्व में छह या इससे कम श्रमजीवी पत्रकारों वाली स्थापनाओं के लिए किए गए प्रावधान को अपने संस्थान पर लागू मान कर ग्रेच्युटी भुगतान के गलत नियम दर्शाए हैं और प्रत्येक वर्ष की सेवा के लिए 15 के बजाय 7 दिन के वेतन के भुगतान की झूठी बात की जा रही है। वहीं गैर पत्रकार कर्मचारियों को भी इन नियमों के दायरे में बताया गया है, जबकि उन पर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के विशेष प्रावधान लागू ही नहीं होते हैं। इतना ही नहीं संस्थान के खाते से ग्रेच्युटी की रकम के भुगतान से बचने के लिए कर्मचारियों के वेतन से ही ग्रेच्युटी पॉलिसी लेने की चाल चली गई है।
पदोन्नति:
अमर उजाला प्रबंधन ने पदोन्नति को वेजबोर्ड के अनुसार 10 साल से घटाते हुए 7 साल में करने का ढोंग करते हुए यहां भी अपनी कुटील चाल चली है और यह शर्त जोड़ दी है कि अगर प्रबंधन चाहे तो किसी भी कर्मचारी की पदोन्नति रोक सकता है, जो कि मजीठिया वेजबोर्ड की पैरा 20 में दी गई पदोन्नति की गारंटी के अधिकार के खिलाफ है।
सालना वेतन वृद्धि:
उमर उजाला ने सालाना वेतन वृद्धि को भी अपने हिसाब से तय कर दिया है जो कि मजीठिया वेजबोर्ड के पे-स्केल के अनुसार दिए गए सालाना वेतनवृद्धि के स्लैब(2.5%, 3% व 4%) के अनुसार नहीं है।
चल रहे केसों को वापस लेना:
यहां तक की अमर उजाला ने समझौते में अपनी असल नीयत जाहीर करते हुए यह भी लिखा है कि जो भी केस चल रहे हैं उन्हें इस समझौते के तहत अदालतों से खत्म करने के लिए कहा जाएगा। ऐसा कानून संभव नहीं है, क्योंकि एक तो यह समझौता श्रमजीवी पत्रकार अधिनायम, 1955 की धारा 13 और 16 के अलावा माननीय सुप्रीम कोर्ट के 07.02.2014 और 19.06.2017 के फैसेलों के खिलाफ संस्थान के कर्मचारियों को डरा धमका कर बनाई गई पॉकेट यूनियन के जरिये अवैध तरिके से किया गया है। वहीं कोर्ट में पहले से जो केस चल रहे हैं, उसमें मौजूद कर्मचारी इस यूनियन के सदस्य नहीं हैं। वहीं इस समझौते के तहत यह भी दावा किया जा रहा है कि इसके चलते कोई भी कर्मचारी वेतनमान के विवाद को कोर्ट में नहीं ले जा सकेगा,जो हर कर्मचारी का वैधानिक अधिकार है। वहीं यह समझौता वैधानिक है ही नहीं।
ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट के 19 जून 2017 के फैसले के अनुसार कर्मचारी और प्रबंधक के बीच बिना किसी दबाव के हुआ समझौता सिर्फ और सिर्फ अधिकतम लाभ की स्थिति में ही वैध माना जाएगा और मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों का अक्षरक्षः पालन करना सभी समाचार पत्र के लिए अनिवार्य है। ऐसे में यदि कोई भी साथी सुप्रीम कोर्ट या अन्य किसी कोर्ट की शरण में जाता है तो अमर उजाला का यह समझौता टीक नहीं पाएगा। इसके जरिए भले ही कोर्ट या श्रम अथारिटी को कुछ समय के लिए उलझाया जा सकता है, मगर सही मायने में इस समझौते की कोई वैधानिक वैधता नहीं है, क्योंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 के फैसले में साफ आदेश दे दिए थे कि मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों के तहत प्रबंधन को 01 अप्रैल 2015 से नया वेतनमान लागू करने के अलावा बकाया एरियर एक साल में चार किश्तों में देना था। ऐसे में प्रबंधन मजीठिया के तहत वेतनमान और एरियर देने से किसी भी हालत में नहीं बच सकता, चाहे वह जो भी हथकंडे अपना ले।
उमर उजाला के साथियों को यदि इस मामले में कुछ भी जानकारी चाहिए तो वे मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे अपने अन्य साथियों की मदद ले सकते हैं। अमर उजाला में इस समय कार्यरत या ऐसे साथी जो अमर उजाला से सेवानिवृत्त हो चुके हैं या उसे छोड़ कर किसी अन्य संस्थान में नौकरी कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक इसके लिए कोई केस भी दायर नहीं किया है तो वे सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा सकते हैं और वहां अमर उजाला खड़ा नहीं हो पाएगा, क्योंकि 19 जून 2017 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सभी लीगल इश्यूओं को क्लियर करने के बाद समाचार पत्र संस्थानों को मजीठिया वेजबोर्ड को लागू करने का एक और मौका दिया था। जिसका सभी समाचार पत्र संस्थान आज तक खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं।
Wednesday, 26 January 2022
मजीठिया: हाईकोर्ट ने दिए समझौता अधिकारी नियुक्त करने के आदेश, दलाल सक्रिय!
कोटा वाले केस में राजस्थान हाईकोर्ट की डबल बेंच ने समझौता अधिकारी अप्वॉइंट करने के आदेश दिए हैं और 14 फरवरी से पहले दोनों पक्षों को समझौते करने की सलाह दी है।
इस फैसले के साथ ही दैनिक भास्कर के दलाल और प्रबंधन के लोग सक्रिय हो गए हैं कि इन कर्मचारियों को श्रम न्यायालय कोटा के फैसले का लाभ नहीं मिल पाए। इन दलालों की वजह से ही पहले दैनिक भास्कर के कर्मचारियों को मजीठिया वेतन आयोग का लाभ नहीं मिल पा रहा था। दैनिक भास्कर के दलाल और दैनिक भास्कर का प्रबंधन दोनों इस बात को समझते हैं कि उन्हें श्रम न्यायालय कोटा के फैसले की पालना तो करनी ही होगी। इस कारण अब इस केस को किसी भी तरह से येन केन प्रकारेण लटकाने में लगे हुए है। कर्मचारियों को श्रम न्यायालय कोटा के मजीठिया वेतन आयोग के फैसले का लाभ लेने से वंचित कर रहे हैं दैनिक भास्कर के दलाल हाइकोर्ट के इस फैसले के साथ ही सक्रिय हो गए हैं। इन दलालो में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी भी हैं जो इस व्यवस्था को मैनेज करने में लगे हुए हैं।
वह किसी भी तरह से कर्मचारियों के पैसे पर डाका डालकर उन्हें 40 लाख रुपये और नौकरी दोनों को लेने से वंचित करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका मानना है कि मात्र 4-5 लाख रुपये देकर ही मामले को रफा-दफा करा दिया जाए और किसी तरह से समझौता करा दिया जाए, जिससे कर्मचारी यह लाभ लेने से वंचित रह जाएं। अब अब दैनिक भास्कर के कर्मचारियों के पास यह विकल्प है कि वे या तो सब न्यायालय के फैसले की पालना कराएं और समझौता अधिकारी जो भी नियुक्त हो उसको साफ तौर पर यह कह दे कि उन्हें सब लेबर कोर्ट कोटा के फैसले की यथावत संपूर्ण पालना कराई जाए। अन्यथा वह सुप्रीम कोर्ट जाकर कंटेंप्ट पिटिशन के जरिए भी इस फैसले को लागू करा सकते हैं, जिससे उन्हें 40 लाख और नौकरी दोनों ही मिलेगी। थोड़ा सा और संघर्ष करने के बाद ही उन्हें कोटा लेबर कोर्ट के फैसले का पूरा लाभ मिल सकता है। इन कर्मचारियों के पास अब दलालों के फोन भी आएंगे और भास्कर प्रबंधन को भी यह पता है कि अगर कोटा के मामले में कर्मचारी सर्वोच्च न्यायालय चले गए तो उनके पास इस फैसले को लागू कराने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रहेगा। अब यह कर्मचारियों को सोचना है कि वह इस फैसले की पालना कराएं और 40 लाख और नौकरी लें या फिर कुछ लाख लेकर घर बैठ जाए।