Wednesday, 9 April 2025

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह से फिर हारा ‘दैनिक भास्कर'


मुंबई से बहुत बड़ी खबर आ रही है... मजीठिया क्रांतिकारी धर्मेन्द्र प्रताप सिंह से देश का सबसे विश्वसनीय और नंबर 1 अखबार ‘दैनिक भास्कर' एक बार फिर हार गया है। मुंबई के श्रम न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश प्रशांत एच. इंगले ने धर्मेन्द्र प्रताप सिंह के टर्मिनेशन वाले मामले में ‘दैनिक भास्कर' के झूठ को सच मानने से इनकार कर दिया। कुल 18 पृष्ठ के ऑर्डर की कॉपी में जज साहब ने 4 पंक्तियों के अपने आदेश में स्पष्ट किया है कि:

1) यह घोषित किया जाता है कि जांच अधिकारी द्वारा की गई जांच निष्पक्ष और उचित है।

2) यह भी घोषित किया जाता है कि जांच अधिकारी के निष्कर्ष गलत हैं।

यहां बताना आवश्यक है कि मजीठिया क्रांतिकारी के तौर पर मुंबई में धर्मेन्द्र प्रताप सिंह की अपनी अलग पहचान है... वह हंसते हुए तंज कसते हैं- ‘हां, आज मुझे इसी नाते हर-एक अखबार का मालिक जानता है।' वैसे यह सत्य भी है। मुंबई महानगर में धर्मेन्द्र प्रताप सिंह पहले पत्रकार थे, जिन्होंने किसी भी संस्थान की ओर से सबसे पहले मजीठिया अवॉर्ड की मांग की थी। मुंबई के ही वह पहले पत्रकार थे, संस्थान ने जिनका इसी मांग के चलते सीकर (राजस्थान) ट्रांसफर किया तो उन्होंने औद्योगिक न्यायालय से स्टे पा लिया। वह महाराष्ट्र राज्य के पहले पत्रकार हैं, जिनकी उपरोक्त मांग पर स्थानीय श्रम विभाग की ओर से आरआरसी (रेवेन्यू रिकवरी सर्टिफिकेट) जारी हुई थी।

इस आरआरसी के विरुद्ध कंपनी (डी. बी. कॉर्प लि.) माननीय बॉम्बे हाई कोर्ट में गई तो जस्टिस मेनन ने कहा कि सबसे पहले आप यहां 50% जमा करो, फिर हम आपको सुनेंगे। और यह तो भारत देश में पहली बार हुआ था, जब इस आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहुंची ‘डी. बी. कॉर्प लि' को वहां भी मुंह की खानी पड़ी थी। जी हां, हाई कोर्ट में कंपनी ने एफिडेविट देकर कहा था कि हम दो सप्ताह में पैसे जमा कर देंगे। फिर भी, सबसे पहले 50% जमा करने के बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को उसकी ओर से जब सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया तो मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यह कह कर कंपनी की पिटीशन खारिज कर दी- ‘हमें नहीं लगता कि इस आदेश में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।' इसके बाद कंपनी ने हाई कोर्ट में यह रकम जमा भी करवा दी थी... मजीठिया के मामले में यह भी देश में पहली बार हुआ था, मगर बाद में हाई कोर्ट ने धर्मेन्द्र प्रताप सिंह सहित 5 जनों के मामले को यह कहते हुए लेबर कोर्ट भेज दिया था कि ‘लेबर कमिश्नर के पास आरआरसी जारी करने का अधिकार नहीं है।'
 
बहरहाल, ट्रांसफर पर तो धर्मेन्द्र प्रताप सिंह ने स्टे पा लिया था... लेकिन हार से तिलमिलाई कंपनी (डी. बी. कॉर्प लि.) के क्रोध का क्या करते, जो हर-हाल में उन्हें सबक सिखाने पर आमादा थी। इसलिए येन-केन-प्रकारेण, डेढ़ साल की लंबी डोमेस्टिक इन्क्वायरी के बाद धर्मेन्द्र प्रताप सिंह को ‘दोषी' मानते हुए जब उन्हें टर्मिनेट कर दिया गया तो उसी मामले को लेकर वह लेबर कोर्ट गए, जहां से यह हालिया ऑर्डर (पार्ट- 1) आया है। इस पर धर्मेन्द्र प्रताप सिंह ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की है- ‘एक लंबी एवं कठिन लड़ाई के बाद का यह आरंभिक परिणाम हम सभी मजीठिया क्रांतिकारियों को सम्बल प्रदान करेगा। मुझे विश्वास है, फाइनल जजमेंट भी मेरे फेवर में आएगा।'आपको बता दें कि अब मुंबई में मजीठिया की लड़ाई लड़ने वालों में धर्मेन्द्र प्रताप सिंह अकेले पत्रकार नहीं हैं... वह स्वयं ‘न्यूजपेपर एम्प्लॉयीज यूनियन ऑफ इंडिया' (NEU India) नामक राष्ट्रीय संगठन के जनरल सेक्रेटरी हैं (पत्रकारों के लिए तो कई सारे संगठन हैं... यह संगठन अखबारों में काम करने वाले हर-एक कर्मचारी के अधिकारों की लड़ाई लड़ता है) तो ‘दैनिक भास्कर’ के ही सैकड़ों साथियों का साथ उन्हें हासिल है। धर्मेन्द्र प्रताप सिंह के मुताबिक, ‘महेन्द्र सिंह धोनी का पहला चर्चित विज्ञापन शायद वही था, जिसमें वह ‘दैनिक भास्कर' के लिए कहते नज़र आए थे- ‘ज़िद करो, दुनिया बदलो।' वह मानते हैं कि इस कैंची लाइन का उन पर बहुत असर है- ‘इसलिए मजीठिया अवॉर्ड की बात जब सामने आई तो मुझे लगा कि जो काम हमारे पूर्व के पत्रकारों ने नहीं किया, वह मैं जरूर करूंगा। वैसे भी, अखबार मालिकान पहले ही कई Wages हज़म कर चुके थे, सो मैंने आवाज़ उठाने का फैसला किया। मुझे गर्व है कि इस आवाज़ को बुलंद करने में ‘bhadas4media.com’ के अग्रज यशवंत सिंह एवं मजीठिया  क्रन्तिकारी शशिकांत सिंह ने मेरा निरंतर और मजबूत साथ दिया है... और हां, अपने एडवोकेट विनोद शेट्टी का मैं विशेष रूप से आभार व्यक्त करना चाहूंगा। वह सच और अधिकार की इस लड़ाई को दिमाग के साथ-साथ पूरे दिल से भी लड़ रहे हैं।
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Saturday, 5 April 2025

दैनिक जागरण हारा, लेबर कोर्ट धर्मशाला ने राजीव गोस्‍वामी को किया नौकरी पर बहाल


दैनिक जागरण धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) को लेबर कोर्ट से बड़ा झटका लगा है। एक चीफ सब एडिटर को बिना किसी जांच के अवैध तौर पर नौकरी से हटाने के मामले में लेबर कोर्ट ने कर्मचारी को वरिष्‍ठता व अन्‍य सेवा लाभों के साथ नौकरी पर बहाल करने के आदेश जारी किए हैं। इसके अलावा कर्मचारी को दो लाख रुपये मुआवजा भी देने के आदेश दिए हैं।

मिली जानकारी के राजीव गोस्‍वामी बनाम जागरण प्रकाशन लि. मामले में लेबर कोर्ट धर्मशाला ने 29 मार्च को आवार्ड पारित किया है। राजीव गोस्‍वामी दैनिक जागरण के धर्मशाला केंद्र के तहत संपादकीय विभाग के डेस्‍क पर चीफ सब एडिटर के पद पर तैनात थे। मजीठिया वेजबोर्ड को लागू करवाने को लेकर इन्‍होंने भी अपने बाकी साथियों के साथ सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर की थी और इसके बाद से उपजे विवाद में प्रबंधन ने इन्‍हें भी अवैध तौर पर नौकरी से हटाया दिया था।

लेबर कोर्ट ने साक्ष्‍यों के आधार पर पाया कि राजीव गोस्‍वामी कंपनी प्रबंधन के खिलाफ 02 अक्‍तूबर, 2015 को हुई कथित हड़ताल में शामिल नहीं थे, बल्‍कि इस दौरान वह छुट्टी पर थे और स्‍टेशन से बाहर थे। उन पर मई, 2015 को मजीठिया वेजबोर्ड लागू ना करने बारे श्रम अधिकारी को सौंपी गई शिकायत वापस लेने का दबाव बनाया जा रहा था और उन्‍हें व उनके बाकी साथियों को प्रबंधन लगातार प्रताड़ित कर रही थी। इसके चलते मंजूर छुट्टी के बाद उन्‍होंने अपनी छुट्टी बढ़ाने की मेल की, जिसे अस्‍वीकार कर दिया गया था। इसके बाद कंपनी ने बाकी कर्मचारियों को तो चार्चशीट करने के बाद जांच की ओर बर्खास्‍त कर दिया, मगर राजीव गोस्‍वामी को बिना की जांच और नोटिस के ही नौकरी से हटा दिया। कंपनी की ओर से भेजे गए नोटिस उनके घर के पते से बिना डिलीवर हुए वापस आ गए थे यानि उन्‍हें सर्व नहीं हो पाए थे। कंपनी ने इन अनियमितताओं के बावजूद वादी कर्मचारी को नौकरी से हटा दिया और कोर्ट के समक्ष उसके स्‍वयं नौकरी से लापता होने की झूठी दलील साबित नहीं कर पाई।

वहीं वादी कर्मचारी ने यह बात साबित कर दी कि जब उसे नौकरी से हटाया गया तब मजीठिया वेजबोर्ड लागू ना करने और अन्‍य मांग पत्रों पर उसकी समझौता वार्ता लंबित थी और इस दौरान प्रतिवादी ने उसे नौकरी से हटाने से पूर्व समझौता अधिकारी से औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 33 के तहत जरूरी मंजूरी नहीं ली थी। इस तरह वादी की बर्खास्‍तगी औद्योगिक विवाद अधिनियम और वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट के प्रावधानों के विपरित थी। इसके चलते वादी को चीफ सब एडिटर के पद पर उसकी बर्खास्‍तगी की तारीख से बहाल करने के अलावा उसे नियमित सेवालाभ और वरिष्‍ठता देने का फैसला सुनाया है। वहीं वादी को दो लाख रुपये मुआवजा भी दिया गया है।

ज्ञात रहे कि इस विवाद में प्रतिवादी पक्ष ने चीफ सब एडिटर को कर्मचारी की श्रेणी में ना आने का मुद्दा भी उठाया था, जिसे कोर्ट ने खारीज कर दिया और माना कि चीफ सब एडिटर की पोस्‍ट पर वादी वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट के तहत श्रमजीवी पत्रकार के तौर पर कार्यरत था, उसे कंपनी ने सुपरवाइजरी या प्रबंधकीय क्षमता के तहत नहीं रखा था। ज्ञात रहे कि वादी का विवाद वर्ष 2016 में लेबर कोर्ट भेजा गया था, मगर रेफरेंस में खामियां होने के चलते राजीव गोस्‍वामी ने न्‍यूजपेपर इम्‍पलाइज यूनियन ऑफ इंडिया के अध्‍यक्ष रविंद्र अग्रवाल की सलाह पर पहले का रेफरेंस वापस लेकर वर्ष 2020 में दोबारा रेफरेंस लगाया था। इसके अलावा इनका मजीठिया वेजबोर्ड क्‍लेम का रेफरेंस भी लेबर कोर्ट में लंबित है। इस मामले की पैरवी एआर के तौर पर रविंद्र अग्रवाल ने ही की थी।