गौरतलब है कि दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और कई अन्य समाचारपत्रों
के प्रबंधकों की ओर से मजीठिया वेजबोर्ड मांगने पर 20जे को विवाद का बड़ा हथियार
बनाकर जबरन लिए गए हस्ताक्षरों वाले दस्तावेज लगाकर डीएलसी स्तर पर या लेबर
कोर्ट में चल रहे मामले को खारिज किए जाने की अर्जी डाली जा रही है। प्रबंधन के इस
हथियार का तोड़ निकालने के लिए नीचे दिए गए कुछ तथ्यों से अपने वकीलों और श्रम
अधिकारियों को अवगत करवाएं और इसके आधार पर अपना जवाब बनाकर इसे सही साबित करने का
भार प्रबंधकों पर डलवाया जा सकता है, जो उनके बस की बात नहीं होगा। नीचे दिए गए
तथ्यों में यह बात भी शामिल की गई है कि कुछ डीएलसी प्रबंधन के दबाव में क्लेम
को निरस्त कर रहे हैं, जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इसके लिए माननीय
सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला नीचे दिया गया है। अपने जवाब में इसका इस्तेमाल भी
जरूर करें। ...........................
मजीठिया वेजबोर्ड का गठन श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा
की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955 की धारा 9 और 13सी के तहत किया गया। बोजबोर्ड ने इसी अधिनियम के
प्रावधानों के तहत श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार अखबार कर्मचारियों के लिए वेतनमान
की अनुशंसा की है और केंद्र सरकार ने भी इसी अधिनयम की धारा 12 के तहत प्रदत्त
शक्तियों का प्रयोग करते हुए 11-11-2011 को मजीठिया वेजबोर्ड लागू करने की
अधिसूचना जारी की थी। इस वेजबोर्ड को अखबार प्रबंधनों ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय
में चुनौती दी थी, मगर 07 फरवरी,2014 को न्यायालय ने बेजबोर्ड को संविधान सम्मत
मानते हुए अप्रैल, 2014 से इस वेजबोर्ड को लागू करने और बकाया एरियर का एक साल में
दो किश्तों में भुगतान करने के आदेश जारी किए थे, मगर समाचार पत्र प्रबंधन ने इन आदेशों को नहीं माना और मजीठिया वेजबोर्ड के
पैरा 20(जे) के खंड के प्रावधानों का अनुचित लाभ लेने के लिए कहीं अपने कमचारियों
को नौकरी से निकालने का भय दिखाकर सामुहिक तौर पर पूर्व में टाइप कराए गए फारमेट
पर पूर्व की तिथि लिखकर जबरन हस्ताक्षर करवाए और कहीं गिफ्ट देने के बहाने
रिसिविंग लिस्ट बनाकर धोखे से हस्ताक्षर करवाए गए और बाद में इसके पहले पन्ने
पर 20(जे) के तहत अंडरटेकिंग लिए जाने का मैटर प्रिंट कर दिया गया। इस समाचारपत्र
स्थापना के अन्य प्रदेशों में कार्यरत कर्मचारियों के साथ भी ऐसा ही किया गया था
और उनके मामले लेबर विभाग की संबंधित अथारिटी ने न्याय निर्णय के लिए माननीय श्रम
न्यायालयों को रेफर कर रखे हैं। पैरा 20(जे) के प्रावधान कर्मचारियों को मौजूदा
वेतनमान से अधिक या ज्यादा फायदेमंद वेतनमान प्राप्त करने के लाभ के लिए हैं, जो
कि उपरोक्त अधिनियम की धारा 13 और 16 के प्रावधानों के अनुरुप होने चाहिए, क्योंकि
वेजबोर्ड के प्रावधान अधिनियम के मूल प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते। वहीं
20जे के प्रावधानों को एक कर्मचारी द्वारा स्वेच्छा से चुनने की व्यवस्था है,
जबकि नियोजक द्वारा किए जा रहे दावे के अनुसार इसका चयन सभी कर्मचारियों से एक साथ
किया है। ऐसे में नियोजक पक्ष को पहले यह साबित करना होगा कि प्रार्थी को 20(जे)
के तहत मिल रहे लाभ मजीठिया वेजबोर्ड के तहत मिलने वाले वेतनमान से ज्यादा हैं या
अधिक लाभदायक हैं, वहीं इसका चयन एक कर्मचारी ने स्वयं स्वेच्छा से बिना किसी
दबाव के किया है।
इसके अलावा माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा Kasturi and Sons (Private) Ltd. Vs. N. Salivateeswaran
and Anr. reported in AIR 1958 SC 507 मामले
में दिए गए फैसले के
तहत धारा 17 के मामलों में उत्पन्न विवाद पर निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ माननीय
श्रम न्यायाय को है, न कि अथॉरिटी को। प्रार्थी द्वारा मजीठिया वेजबोर्ड के तहत
बकाया वेतनमान और अन्य लाभों के संबंध में अधिनियम की धारा 17(1) के तहत प्रस्तुत
किए गए क्लेम को नियोजन पक्ष द्वारा उठाए गए सवालों के साथ अधिनियम की धारा 17(2)
के तहत न्याय निर्णय के लिए माननीय श्रम न्यायालय को रेफर करना ही विधि सम्मत
होगा।
·
क्या कहता है पैरा 20 जे....
पुनरीक्षित वेतनमान 1 जुलाई
2010 से सभी कर्मचारियों पर अनुप्रयोज्य होंगे। तथापि, यदि कोई कर्मचारी
इन अनुशंसाओं के प्रवर्तन के लिए अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत सरकारी अधिसूचना
के प्रकाशन की तारीख से तीन सप्ताहों के भीतर, अपने मौजूदा वेतनमान तथा वर्तमान
परिलब्धियों को ही बनाए रखने का विकल्प चुनता है, तो वह अपने मौजूदा वेतनमान तथा
ऐसी परिलब्धियों को बनाए रखने का पात्र होगा।
·
क्या कहता है अधिनयम/एक्ट.... देखें धारा 13 और 16
-धारा 13,
श्रमजीवी पत्रकारों का आदेश
में विनिर्दिष्ट दरों से अन्यून दरों पर मजदूरी का हकदार होना- धारा 12 के अधीन केंद्रीय सरकार के आदेश के प्रवर्तन में
आने पर, प्रत्येक श्रमजीवी पत्रकार इस बात का हकदार होगा कि उसे उसके नियोजक
द्वारा उस दर पर मजदूरी दी जाए जो आदेश में विनिर्दिष्ट मजदूरी की दर से किसी
भी दशा में कम न होगी। (धारा 13डी के तहत ये प्रावधान गैरपत्रकार अखबार
कर्मचारियों पर भी लागू होंगे)
-धारा 16,
इस अधिनियम से असंगत
विधियों और करारों का प्रभाव- (1) इस अधिनियम के
उपबंध,किसी अन्य विधि में या इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व या पश्चात किए गए
किसी अधिनिर्णय, करार या सेवा संविदा के निबंधनों में अंतर्विष्ट उससे असंगत किसी
बात के होते हुए भी,प्रभावी होंगे:
परंतु जहां समाचारपत्र कर्मचारी ऐसे किसी अधिनिर्णय, करार
या सेवा संविदा के अधीन या अन्यथा, किसी विषय के संबंध में ऐसे फायदों का
हकदार है जो उसके लिए उनसे अधिक अनुकूल हैं जिनका वह इस अधिनियम के
अधीन हकदार है तो वह समाचारपत्र कर्मचारी उस विषय के संबंध में उन अधिक अनुकूल
फायदों का इस बात के होते हुए भी हकदार बना रहेगा कि वह अन्य विषयों के संबंध में
फायदे इस अधिनियम के अधीन प्राप्त करता है।
(2) इस अधिनियम की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि
वह किसी समाचारपत्र कर्मचारी को किसी विषय के संबंध में उसके ऐसे अधिकार या
विशेषाधिकार जो उसके लिए उनसे अधिक अनुकूल हैं जिनका वह इस अधिनियम
के अधीन हकदार है, अनुदत्त कराने के लिए किसी नियोजक के साथ कोई करार करने से
रोकती है।
·
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का 20जे से जुड़े पैरों का अनुवाद
माननीय सर्वोच्च न्यायालय
ने 19 जून, 2017 को (अविषेक राजा एवं अन्य बनाम संजय गुप्ता) अवमानना याचिका
संख्या 411/2014 मामले में अपने फैसले में मजीठिया वेजबोर्ड के पैरा 20जे के तहत
जबरन करवाए गए करारों को लेकर भी विस्तार से चर्चा करते हुए व्यवस्था दी थी। इस
निर्णय के 20जे से जुड़े 24 नंबर पैराग्राफ का हिंदी में अनुवाद इस प्रकार से है:-
“24. जहां तक कि अधिनियम के प्रावधानों के साथ पढ़े जाने वाले
अवार्ड के अभी तक के अत्याधिक विवादास्पद मुद्दे क्लॉज 20(जे) का सवाल है, यह स्पष्ट है कि अधिनियम की धारा 2(सी) में परिभाषित प्रत्येक अखबार कर्मचारी को अधिनियम की धारा 12 के तहत केंद्र सरकार द्वारा अनुमोदित और अधिसूचित वेजबोर्ड की सिफारिशों के तहत वेतन/मजदूरी प्राप्त करने की गारंटी का हकदार बनाता है। अधिसूचित वेतन/मजदूरी, जैसा कि हो सकता है, सभी मौजूदा अनुबंधों की जगह लेती है(supersedes करती है)। हालांकि विधायिका ने धारा 16 के प्रावधानों को शामिल करके यह स्पष्ट कर दिया है कि मजदूरी
तय होने और अधिसूचित होने के बावजूद , संबंधित कर्मचारी
के लिए अधिनियम की धारा 12 की अधिसूचना के मुकाबले उसे अधिक फायदा देने वाले/अनुकूल किसी
लाभ को स्वीकार करने का अवसर हमेशा खुला रहेगा। मजीठिया वेजबोर्ड अवार्ड
का क्लॉज 20(जे), इसलिए, उपरोक्त रोशनी में पढऩा और समझना होगा। अधिनियम के तहत एक
कर्मचारी को जो देय है, उससे कम प्राप्त
करने के विकल्प की उपलब्धता पर अधिनियम खामोश है। इस प्रकार का
विकल्प वास्तव में आर्थिक छूट के सिद्धांत के दायरे में है, संबंधित
कर्मचारियों के विशिष्ट स्टैंड/दृढ़मत को ध्यान में रखते हुए वर्तमान मामले में ऐसा मुद्दा नहीं उठता है, जो वर्तमान मामलों
में उनके द्वारा तैयार की गई कथित रूप से अनैच्छिक प्राकृति की अंडरटेकिंग(परिवचन/वचन) से संबधित है। इसलिए अधिनियम की
धारा 17 के तहत तथ्यों की पहचान
करने वाली अथारिटी/प्राधिकरण द्वारा इसके तहत उत्पन हो रहे विवाद का निराकरण किया जाना चाहिए, जैसा कि बाद में
व्यक्त/विज्ञापित किया गया है।”
[24. Insofar as the highly contentious issue of Clause
20(j) of the Award read with the
provisions of the Act is concerned it is clear that what the
Act guarantees to each ' newspaper employee' as defined in Section 2(c) of the Act is the entitlement to receive wages as
recommended by the Wage Board and approved and notified by
the Central Government under Section 12
of the Act. The wages notified supersedes all existing contracts
governing wages as may be in force. However, the Legislature has
made it clear by incorporating the provisions of Section 16
that, notwithstanding the wages as may be fixed and
notified, it will always be open to the concerned employee
to agree to and accept any benefits which is more
favourable to him than what has been notified under Section
12 of the Act. Clause 20(j) of the
Majithia Wage Board Award will, therefore, have to be read
and understood in the above light. The Act is silent on
the availability of an option to receive less than what is
due to an employee under the Act. Such an option really lies in the domain of the doctrine of waiver, an issue that does not arise
in the present case in view of the specific stand of the
concerned employees in the present case with regard to the
involuntary nature of the {undertakings allegedly
furnished by them. The dispute that arises, therefore, has
to be resolved by the fact finding authority under Section
17 of the Act, as adverted to hereinafter.]
·
धारा 17 के तहत अधिसूचित अथारिटी को नहीं है विवाद पर निर्णय का अधिकार
उपरोक्त अधिनियम की धारा 17 के प्रावधानों के तहत नामित या अधिसूचित
अथारिटी/प्राधिकारी को आवेदक/प्रार्थी के क्लेम पर नियोजन पक्ष द्वारा उत्पन्न
किए गए विवाद पर स्वयं फैसला या साक्ष्य लेने का अधिकार नहीं है। माननीय सर्वोच्च
न्यायालय ने Kasturi and Sons (Private) Ltd. Vs. N. Salivateeswaran
and Anr. reported in AIR 1958 SC 507 मामले
में स्पष्ट कहा है कि राज्य सरकार या उसके द्वारा प्रदत्त प्राधिकारी जिसके
समक्ष अधिनियम की धारा 17(1) के तहत रकम वसूली की आर्जी आती है और नियोजन पक्ष
द्वारा इसमें कोई सवाल उत्पन्न किया जाता है, तो वह इस सवाल को अधिनियम की धारा
17(2) के प्रावधानों के तहत तुरंत लेबर कोर्ट को रफेर करेगा। इस फैसले के पैराग्राफ
10 और 13 से यह बात स्पष्ट हो जाती है, जो इस प्रकार से हैं:
“10. In this connection, it would be relevant
to remember that s. 11 of the Act expressly confers the
material powers on the Wage Board established under s.8 of
the Act. Whatever may be the true nature or character of
the Wage Board-whether it is a legislative or an
administrative body the legislature has tken the
precaution to enact the enabling provision of s.11 in the
matter of the said material powers. It is well-known that, whenever
the legislature wants to confer upon any specified authority
powers of a civil Court in the matter of holding enquiries,
specific provision is made in that behalf. If the legislature
had intended that the enquiry authorized under s.17 should include within its
compass the examination of the merits of the employee's
claim against his employer and a decision on it, the
legislature would undoubtedly have made an appropriate
provision conferring on the State Government or the
specified authority the relevant powers essential for the
purpose of effectively holding such an enquiry. The
fact that the legislature has enacted s.11 in regard to
the Wage Board but has not made any corresponding
provision in regard to the State Government or the
specified authority under s.17 lends strong corroboration
to the view that the enquiry contemplated by s.17 is a
summary enquiry of a very limited nature and its scope is
confined to the investigation of the narrow point as to
what amount is actually due to be paid to the employee
under the decree, award, or other valid order obtained by
the employee after establishing his claim in that behalf.
We are reluctant to accept the view that the legislature
intended that the specified authority or the State Government
should hold a larger enquiry into the merits of the
employee's claim without conferring on the State Government
or the specified authority the necessary powers in that
behalf. In this connection, it would be relevant to point out
that in many cases some complicated questions of fact may
arise when working journalists make claims for wages against
their employers. It is not unlikely that the status of the
working journalists, the nature of the office he holds and the
class to which he belongs may themselves be matters of dispute
between the parties and the decision of such disputed
questions of fact may need thorough examination and a
formal enquiry. If that be so, it is not likely that the legislature
could have intended that such complicated questions of
fact should be dealt with in a summary enquiry indicated
by s.17.
12. In this connection
we may also refer to the provisions of s.33C of the
Industrial Disputes Act (14 of 1947). Subsection (1) of s.
33C has been added by Act 36 of 1956 and is modelled on
the provisions of s.17 of the present Act. Section 33C,
sub-section (2), however, is more relevant for our
purpose. Under s. 33C, sub section (2), where any workman
is entitled to receive from his employer any benefit which
is capable of being computed in terms of money, the amount
at which such benefit may be computed may, subject to any
rules made under this Act, be determined by such Labour
Court as may be specified in this behalf by the appropriate
Government, and the amount so determined should be
recovered as provided for in sub-section (1). Then follows
sub-section (3) which provides for an enquiry by the Labour
Court into the question of computing the money value of
the benefit in question. The Labour Court is
empowered under this
sub-section to appoint a commissioner who shall, after
taking such evidence as may be necessary, submit a report
to the Labour Court, and the Labour Court shall determine
the amount after considering the report of the
commissioner and other circumstances of the case. These provisions indicate
that, where an employee makes a claim for some money by virtue
of the benefit to which he is entitled, an enquiry into
the claim is contemplated by the Labour Court, and it is
only after the Labour Court has decided the matter that
the decision becomes enforceable under s. 33C(1) by a
summary procedure.
रविंद्र अग्रवाल
वरिष्ठ पत्रकार
धर्मशाला(हिमाचल प्रदेश)
संपर्क:9816103265
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