राजुल महेश्वरी की रीढ़ नहीं, देखना, बलिया के पत्रकारों को निकाल देगा!
बलिया प्रकरण पर कई दिन चुप रहा, पत्रकारों का मनोबल गिरा
राजुल महेश्वरी ने अमर उजाला का भट्ठा बिठा दिया। हालांकि शुरुआत 2005 में शशि शेखर ने कर दी थी। शशि शेखर ने अमर उजाला का ग्रुप एडिटर बनते ही इस अखबार की रीढ़ ही तोड़ दी थी। उस दौर में शशि शेखर ने सबसे पहले अमर उजाला के दिग्गज पत्रकारों को निकाला या अखबार छोड़ने पर मजबूर कर दिया। अमर उजाला का भट्ठा बिठाकर शशि शेखर हिन्दुस्तान चले गये और वहां भी उन्होंने वही सब किया। चाटुकारों की फौज भर्ती कर दी। बड़ा अखबार है तो झेल रहा है। खैर बात अमर उजाला की।
2000-01 की बात है। उन दिनों मैं अमर उजाला गुड़गांव में था। मारुति का आंदोलन चल रहा था। 5800 कर्मचारी आंदोलनरत थे। अमर उजाला तब गुड़गांव में नया-नया था और वहां इसे लोग उजाला सुप्रीम का अखबार यानी चार बूंदों वाला समझते थे। उस दौर में मैंने और मेरे सीनियर मलिक असगर हाशमी ने मारुति प्रबंधन की चूलें हिल दी थी। आंदोलन की जबरदस्त कवरेज की थी। तब कोई भी कार कंपनी हिन्दी अखबारों को विज्ञापन नहीं देती थी। मारुति प्रबंधन ने आंदोलन को दबाने के लिए अमर उजाला को 25 लाख का विज्ञापन पैकेज दिया कि कवरेज न हो। लेकिन तब अमर उजाला के ग्रुप एडिटर राजेश रपरिया थे उन्होंने प्रबंधन को साफ कह दिया कि सड़क पर कोई गतिविधि होगी तो छपेगी ही। तीन महीने तक आंदोलन चला और हमने खूब कवरेज की। मारुति प्रबंधन ही नहीं सरकार का भी दबाव था, अमर उजाला नहीं झुका।
अब वक्त बदल गया है और अधिकांश संपादक तो मालिक के चाटुकार और गुलाम बन गये हैं। अतुल जी के निधन के बाद राजुल महेश्वरी वैसे भी अखबार नहीं चला पा रहे। वो रीढ़विहीन हैं यही कारण है कि बलिया में पेपर लीक की खबर छापने पर अमर उजाला के तीन पत्रकारों की गिरफ्तारी हो गयी लेकिन उन्होंने तीन दिन तक अखबार में खबर तक नहीं छापी। लाला अब और डरपोक हो गया है। देखना, दिग्विजय, अजीत और मनोज को कुछ समय बाद नौकरी से निकाल दिया जाएगा। अमर उजाला अब पहले जैसा नहीं रहा। यदि मीडिया मैनेजमेंट अपने पत्रकारों के साथ इस तरह का व्यवहार करेगा तो कोई भी पत्रकार ईमानदार कैसे रहेगा?
मैंने अमर उजाला को जीवन के आठ बहुमूल्य साल दिये, और मुझे इस अखबार के प्रबंधन की .......... पर दुख हो रहा है।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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